एक IPS मैडम शहर में निरीक्षण के लिए निकलीं, एक पांच साल का लड़का बोला तुम मेरी पत्नी हो! फिर तो…

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सुबह की ठंडी हवा में शहर की गलियां धीरे-धीरे जाग रही थीं। हर तरफ हलचल थी, लेकिन उस भीड़-भाड़ के बीच एक महिला अकेले चल रही थी, उसकी चाल में कुछ खास था। वह महिला कोई और नहीं, बल्कि जिले की आईपीएस अधिकारी, एसपी अदिति राठौर थीं। लोग उन्हें अपराधियों के लिए खौफ और मासूमों के लिए दुआ समझते थे। उनकी सख्ती और न्यायप्रियता पूरे जिले में मशहूर थी। लेकिन उनके दिल के अंदर एक माँ भी थी, जिसने दस साल पहले अपने ही बेटे को भीड़ में खो दिया था। वह दर्द जिसे उन्होंने कभी किसी से साझा नहीं किया, आज भी उनके दिल में गहरे जख्म की तरह था।

उस सुबह अदिति का दिल अचानक बेचैन हो उठा। वे रोज़ की तरह ऑफिस, फाइलें या मीटिंग्स की तरफ नहीं गईं। उन्होंने अपनी यूनिफॉर्म अलमारी में टंगी वर्दी को हटाकर हल्की नीली रंग की साधारण सूती साड़ी पहन ली। आज न तो उनके पास पुलिस का झंडा था, न लाल बत्ती, न सुरक्षा गार्ड। वे खुद अपनी गाड़ी चला रही थीं, जैसे कोई आम इंसान, शायद एक माँ, जो कहीं अपने दिल की तलाश में निकल पड़ी हो।

अदिति ने शहर के उस हिस्से की ओर रुख किया जहां गरीबों की झुग्गियां थीं। टेढ़ी-मेढ़ी गलियां, टूटी-फूटी सड़कें, कूड़े के ढेर और नालियों की बदबू। लेकिन कभी-कभी, इन्हीं जगहों पर इंसानियत की झलक भी मिलती थी। गाड़ी धीरे-धीरे एक गली से गुजरी, तो उनकी नजर बाहर झांक रहे कुछ बच्चों पर पड़ी जो फटी प्लास्टिक के टुकड़ों से खेल रहे थे। पास में एक बूढ़ी औरत नाली के किनारे बैठकर सब्जी काट रही थी, और थोड़ा आगे मिट्टी में बिना चप्पल के एक छोटा लड़का कुछ बना रहा था। उसका चेहरा पूरी तरह गंदगी से सना हुआ था, कपड़े पुराने और ढीले-ढाले थे, लेकिन उसकी आंखों में एक अजीब सी मासूमियत थी, जैसे किसी बहुत पुराने सपने की याद हो।

एक IPS मैडम शहर में निरीक्षण के लिए निकलीं, एक पांच साल का लड़का बोला तुम  मेरी पत्नी हो! फिर तो...

अदिति का दिल जोर से धड़क उठा। उन्होंने बिना सोचे गाड़ी रोक दी। मन में एक झटका सा लगा। क्या यह संभव है? क्या किस्मत फिर से कोई बड़ा खेल खेल रही है? वे तुरंत गाड़ी से उतरीं और लड़के के पास पहुंचीं। वह लगभग दस-ग्यारह साल का था, चेहरा काला पड़ा, बाल बिखरे, कपड़े मैले, लेकिन उसकी मुस्कान में एक अनोखी मासूमियत थी, वही मासूमियत जो अदिति ने आखिरी बार अपने दो साल के बेटे की आंखों में देखी थी, जब वह रेलवे स्टेशन की भीड़ में उनसे बिछड़ गया था।

अदिति ने प्यार से पूछा, “बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?” लड़का अचानक घबरा गया और थोड़ा पीछे हट गया। शायद उसे बड़े लोगों से डर लगता था, क्योंकि जिन पर बच्चे भरोसा करते हैं, वही कई बार उन्हें चोट भी पहुंचाते हैं। अदिति ने नरम आवाज़ में कहा, “डर मत, भूख लगी है? कुछ खिलाऊं?” लड़का खामोश रहा, लेकिन उसकी आंखों में हल्का सा पानी भर आया।

अदिति की मां वाली ममता फूट पड़ी। दस साल पुरानी यादें सामने आ गईं, जब उनका दो साल का बच्चा भीड़ में उनसे छूट गया था। वह बोल नहीं पाता था, अपना नाम तक नहीं बता सकता था। पुलिस अफसर होते हुए भी वे अपने बच्चे को वापस नहीं ला सकीं। किसी ने कहा कि शायद बच्चा अब इस दुनिया में नहीं है, लेकिन अदिति ने आज तक वह बात दिल से नहीं मानी।

झोले से उन्होंने बिस्किट का एक पैकेट निकाला और लड़के की तरफ बढ़ाया। लड़के ने पहले हिचकिचाया, फिर धीरे से ले लिया और चुपचाप खाने लगा। अदिति उसके पास जमीन पर बैठ गईं। उनके चेहरे पर अब अफसर की नहीं, बल्कि एक मां की ममता झलक रही थी। उन्होंने फिर पूछा, “कौन है तुम्हारा?” लड़के ने धीमी आवाज़ में कहा, “कोई नहीं, मैं अकेला हूं।” अदिति ने धीरे से पूछा, “यहां कैसे आए?” लड़का बोला, “पता नहीं, जब से याद है यहीं हूं। कभी-कभी एक औरत आती थी, अम्मा कहती थी, उसे भीख मंगवाती थी। अब वह भी नहीं आती।”

यह सुनते ही अदिति के रोंगटे खड़े हो गए। उनके मन में एक ही सवाल कौंधा—क्या यह बच्चा भी उन लोगों के चंगुल में फंसा हुआ है जो बच्चों को उठाकर उनकी पहचान मिटा देते हैं? और फिर एक सवाल बिजली की तरह उनके दिमाग में दौड़ा—क्या यह मेरा खोया हुआ बेटा हो सकता है?

लड़का उठकर जाने लगा। तभी अदिति ने उसका हाथ पकड़ लिया। उनकी आवाज़ में अफसर वाली सख्ती नहीं, बल्कि एक मां की कंपकंपाहट थी। “बेटा, जरा रुको। क्या तुम्हें कुछ याद है? कोई गाना, कोई लोरी, कोई नाम?” लड़का ठिठक गया, गर्दन नीचे कर ली, और धीरे-धीरे होंठ हिलाने लगा। कुछ पल बाद उसने बुदबुदाया, “निंदिया रानी आई रे, मां की गोदी लाई रे।”

अदिति जैसे पत्थर की मूर्ति बन गईं। यह वही लोरी थी जो वह अपने खोए हुए बेटे को सुनाया करती थीं। उनकी आंखें भर आईं, दिल फटने लगा। वे उसे तुरंत गले लगाना चाहती थीं, लेकिन खुद को संभाल लिया। अगर वह बच्चा उनका बेटा न निकला तो यह उसकी मासूम जिंदगी पर भारी पड़ सकता था।

उन्होंने नरमी से कहा, “चलो बेटा, कुछ अच्छा खिलाते हैं। घबराना मत।” लड़का पहले झिंझका, फिर उनकी आंखों में ममता देखकर उनके साथ चल पड़ा। दोनों एक पास के ढाबे पर पहुंचे। अदिति लगातार उसे देखती रही—वह रोटी कैसे तोड़ रहा था, पानी कैसे पी रहा था, डर में दांतों तले उंगली दबा रहा था। यह सब कुछ वैसा ही था जैसा उनका अपना बेटा करता था।

अदिति ने मन ही मन ठान लिया कि सच जानना ही होगा, चाहे मां बनकर, चाहे इंसान बनकर। अभी अफसर नहीं, सिर्फ मां बोल रही थी उनके अंदर। उन्होंने लड़के को अपनी गाड़ी में बिठाया और घर ले आईं। उसे नया कुर्ता पहनाया गया, बाल संवार दिए गए, नाखून काटे गए। पहली बार उसने साफ बिस्तर पर सोना देखा। रात बहुत बीत गई थी, लेकिन लड़के की आंखों में नींद नहीं थी। वह कमरे के एक कोने में बैठा था।

अदिति ने अपनी अलमारी से अपने बेटे की पुरानी तस्वीरें निकालीं, जो सालों से बंद पड़ी थीं। हर फोटो को दिल से लगाकर देखा। हर मुस्कान, हर आंख, हर लकीर जैसे फिर से जिंदा हो गई। वे खुद को समझाती रहीं, “हो सकता है मैं गलत हूं। हर बच्चा एक जैसा नहीं होता। हर लोरी हर किसी को कैसे याद हो सकती है?” लेकिन दिल जवाब देता था, “मां गलत नहीं सोचती। मां पहचानती है।”

उनके अंदर दो रूप लड़ रहे थे—एक सख्त अफसर जो बिना सबूत यकीन नहीं करती, और दूसरी मां जिसके लिए शक भी उम्मीद बन चुका था। रात के करीब होने पर अदिति ने चुपचाप बच्चे से डीएनए टेस्ट के लिए सैंपल लिया। बिना बताए, बस एक यकीन की डोर पकड़ कर। लड़का सोते-सोते भी हल्का कांपता रहा। उसका एक हाथ हर वक्त पेट पर था, जैसे भूख ने शरीर में डर की मोहर लगा दी हो। कभी-कभी वह नींद में कुछ बड़बड़ाता था। अदिति उसके पास जाकर कान लगाकर बैठ जाती, शायद कोई सुराग मिल जाए।

फिर एक पल ऐसा आया, जब उसने नींद में कहा, “मम्मा, पानी।” अदिति जैसे पत्थर हो गईं। सालों बाद किसी ने उन्हें “मम्मा” कहा था, वह भी उसी मासूमियत के साथ। वह चुपचाप उसके सिरहाने बैठ गईं और उसके बाल सहलाने लगीं। लड़का फिर चैन से सो गया, जैसे किसी अपने के हाथ ने उसे सुला दिया हो।

सुबह तक उनका शरीर थक गया था, लेकिन दिल में एक नई रोशनी थी। आज डीएनए रिपोर्ट आने वाली थी। उन्होंने बड़े प्यार से लड़के को उठाया, तैयार किया, नाश्ता करवाया, स्कूल भेजने का बहाना किया और उसे अपने साथ पुलिस ऑफिस ले आईं। ऑफिस में सब हैरान थे। एसपी अदिति राठौर अपने साथ एक बच्चा लेकर आई थीं, वह भी साधारण कपड़ों में। लेकिन उनकी आंखों की गंभीरता देखकर किसी की हिम्मत नहीं हुई सवाल करने की।

अदिति ने ऑफिस पहुंचते ही सीधे केबिन का दरवाजा खोला। बच्चे को अंदर बिठाया, टेबल पर कुछ खिलौने रखे और प्यार से कहा, “बेटा, तुम यहीं खेलना, मैं पास में ही हूं।” लड़के ने कुछ नहीं कहा, सिर हिलाया और चुपचाप खेलने लगा। अदिति की निगाहें उसी पर टिकी रहीं। इतने सालों के बाद उसका बच्चा उनकी आंखों के सामने था, लेकिन वे खुद को रोक कर बैठी थीं।

कुछ मिनट बीते थे कि लैब का अधिकारी तेज कदमों से उनके कमरे की तरफ आया। उसके हाथ में एक सफेद लिफाफा था—डीएनए रिपोर्ट। अदिति ने जब वह लिफाफा हाथ में लिया तो उनकी उंगलियां कांपने लगीं। ऐसा लग रहा था जैसे यह कागज नहीं, जिंदगी और मौत के बीच का फैसला हो। उन्होंने गहरी सांस ली, धीरे से लिफाफा खोला, और जैसे ही नजर रिपोर्ट पर गई, उनकी आंखें भर आईं। रिपोर्ट साफ कह रही थी—डीएनए मैच हो चुका है। यानी यह वही बच्चा है जो दस साल पहले भीड़ में खो गया था।

अदिति की आंखों से आंसू फूट पड़े—खुशी के, दर्द के, यकीन के, और कई सालों की थकान के। इतने सालों से जिस बच्चे को वे जिंदा मानती थीं, वह सचमुच उनके सामने था। अब कोई शक नहीं था, कोई भ्रम नहीं था। यह सिर्फ दिल की आवाज नहीं, बल्कि कागज पर लिखा सच था।

वे फौरन केबिन से बाहर निकलीं और दौड़कर बच्चे को अपनी बाहों में भर लिया। बच्चा घबरा गया, खुद को छुड़ाने की कोशिश की, शायद डर गया था। लेकिन अदिति ने उसे कसकर पकड़ लिया। उनकी आंखों के आंसुओं ने बच्चे के डर को पिघला दिया। पहली बार उसने बिना डरे अपना सिर उनके सीने से लगा दिया। धीमे स्वर में अदिति ने उसके कान में कहा, “मैं तुम्हारी मम्मा हूं बेटा। मैंने तुम्हें कभी छोड़ा नहीं। तुम मुझसे बिछड़ गए थे, पर मैं तुमसे कभी अलग नहीं हुई।”

लड़का कुछ नहीं बोला। उसकी आंखें भर आईं, पर आवाज बंद थी। शायद वह सब कुछ समझ नहीं पा रहा था, मगर उसके दिल ने वह बात पकड़ ली जो कान पूरी तरह नहीं सुन पाए थे। अदिति ने उसी पल ठाना, अब यह बच्चा फिर कभी अकेला नहीं रहेगा। उन्होंने उसे अपने पास बिठाया, उसके हाथ थामे और धीरे-धीरे उसके मन की सारी दहशत को अपने प्यार से मिटाने का वादा किया।

उस दिन ऑफिस में कोई काम नहीं हुआ। केस की फाइलें बंद रहीं। पुलिस स्टेशन की रफ्तार भी जैसे रुक गई। अदिति ने पहली बार किसी अपराधी को पकड़ने से ज्यादा सुकून अपने बेटे को गले लगाने में पाया। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं थी। अब उनके अंदर मां के साथ दोबारा एक अफसर भी जाग चुकी थी। वे जानना चाहती थीं कि उनका बेटा कहां था इतने सालों तक, किसने उसे छीना, कहां छुपाया, और इस सिंडिकेट में और कितने बच्चे फंसे हैं।

उन्होंने मन ही मन निर्णय लिया—अब लड़ाई सिर्फ एक अफसर की नहीं होगी, यह एक मां की लड़ाई होगी। उनकी आंखों में वही आग लौट आई जो सालों पहले वर्दी पहनते वक्त थी, लेकिन इस बार उसमें मां की ममता भी शामिल थी। फिर भी उन्होंने इस खबर को छिपा कर रखा। न कोई प्रेस को बताया, न अखबार वालों को, न फोटो खिंचवाई, न बयान दिया। वे जानती थीं कि यह खुशखबरी जितनी निजी है, उतनी ही नाजुक भी।

बच्चा अब भी उनका नाम तक नहीं जानता था। उसे धीरे-धीरे प्यार से, बिना डर के, फिर से मां की गोद में लौटना था। रात को जब वह बच्चा उनकी गोद में सिर रखकर सो गया, तब अदिति ने उसका माथा चूमा और चुपचाप फोन उठाया। उन्होंने वह नंबर मिलाया जो उन्होंने सालों पहले सेव कर रखा था। एक रिटायर्ड अधिकारी का नंबर, जिसने कभी बाल तस्करी जैसे मामलों में गहराई से काम किया था।

दूसरी तरफ से एक थकी हुई, मगर सचेत आवाज आई। अदिति ने बिना घुमाए-फिराए कहा, “मुझे पता करना है कि दस साल पहले मेरे बेटे को किसने चुराया था, कौन उसे ले गया, कैसे वह झुग्गी में आ गया। मुझे नाम चाहिए, जगह चाहिए, सच चाहिए।”

कुछ सेकंड खामोशी रही। फिर वह आवाज बोली, “कुछ नहीं बदला मैडम। बस नाम बदल गए। आज भी वही खेल चलता है—गरीबी, रेलवे स्टेशन, लावारिस बच्चा। फिर या तो भीख मंगवाने वाले गिरोह या घरों में काम कराने वाला माफिया।”

उसने आगे कहा, “अगर सच तक पहुंचना है तो शुरुआत फिर से वहीं करनी होगी—रेलवे स्टेशन से।”

अदिति ने बिना देर किए अगला कदम सोच लिया। अगले दिन उन्होंने अपना ओहदा, अपनी बड़ी कुर्सी, अपनी पहचान सब किनारे रख दिया। न कोई वर्दी, न गाड़ी, न गार्ड। उन्होंने अपने बेटे को अपनी सबसे भरोसेमंद महिला अधिकारी, इंस्पेक्टर नेहा चौहान के पास छोड़ दिया। उन्हें बस इतना कहा, “इससे कोई सवाल मत करना। बस इसे अपनापन देना, सुनते रहना, डरने मत देना।”

फिर अदिति निकल पड़ीं, वहीं जहां से दस साल पहले उनकी जिंदगी टूटी थी—शिवपुर जंक्शन के प्लेटफार्म नंबर चार पर। पहले जैसी ही भीड़, शोर, भगदड़, भिखारियों की कतार, रोते-बिलखते बच्चे। लेकिन इस बार अदिति अफसर नहीं थीं। वह एक टूटी हुई मां थीं, जो अपने अतीत की छाया को खोजने आई थीं।

उन्होंने फटे कपड़े पहने थे, बाल बिखरे थे, चेहरे पर ना थकान छुपी थी, ना तड़प। वह धीरे से प्लेटफार्म के किनारे जाकर कुछ भिखारियों को पैसे देने लगीं और उनकी बातें सुनती रहीं। कुछ बच्चे वहीं गाना गा रहे थे, वही गाने जिन्हें अक्सर गरीब बच्चों को रटवाया जाता है ताकि लोग सहानुभूति में पैसे दें।

उसी बीच उनकी नजर एक सात-आठ साल की बच्ची पर गई, जो एक अधेड़ औरत के साथ बैठी थी। उसकी आंखों में आंसू थे, लेकिन आवाज गायब थी। वह हाथ आगे करती, लोग अनदेखा करके निकल जाते, और वह चुपचाप आंसू पोंछ लेती। अदिति उस छोटी बच्ची के पास जाकर धीरे से बैठ गईं। उन्होंने प्यार से पूछा, “बेटी, तुम स्कूल नहीं जाती?” बच्ची ने कुछ नहीं कहा, सिर झुकाया और डर में चुप बैठी रही।

उसी वक्त पास बैठी अधेड़ औरत ने अदिति को घूरते हुए कहा, “आप कौन हैं? क्यों पूछताछ कर रही हैं?” अदिति ने बहस नहीं की, बस हल्की आवाज़ में बोली, “माफ करना बहन, मैं तो बस पूछ रही थी।” वहां से उठकर थोड़ी दूरी पर एक चाय वाले पंकज के पास बैठ गईं, लेकिन उनकी नजर वहीं टिकी रही। वह औरत बार-बार अपने फोन को देख रही थी, जैसे किसी का इंतजार कर रही हो।

थोड़ी देर बाद एक अधेड़ पुरुष वहां आया और उस बच्ची को पकड़ कर अपने साथ ले जाने लगा। अदिति का दिल फिर से मचल उठा। उन्होंने बिना पुलिस टीम के, बिना वायरलेस के, बिना वर्दी के खुद ही पीछा करना शुरू किया। वह किसी अफसर की तरह नहीं, एक मां की तरह दौड़ पड़ी। क्योंकि अब यह सिर्फ उनकी कहानी नहीं थी। यह उस बच्ची की भी लड़ाई थी और उन सब बच्चों की जो खो चुके थे।

वह आदमी बच्ची को लेकर स्टेशन से बाहर निकला और एक पुरानी सफेद वैन में बैठा। अदिति ने अपनी बाइक निकाली और चुपचाप वैन के पीछे चल दी। उनके फोन में जीपीएस ऑन था। लोकेशन उन्होंने पहले ही इंस्पेक्टर नेहा चौहान को भेज दी थी।

लगभग आधे घंटे बाद वैन एक सुनसान इलाके में रुकी। वहां एक टूटी-फूटी पुरानी बिल्डिंग खड़ी थी। बाहर कोई बोर्ड नहीं था, ना पक्का दरवाजा, ना नाम। बस एक जंग खाया हुआ लोहे का गेट आधा खुला था। अदिति ने बाइक थोड़ी दूर खड़ी की और धीरे से दीवार के पास जाकर देखा।

सामने का नजारा रोंगटे खड़े कर देने वाला था। वहां पहले से दो बच्चे और बैठे थे, और तीन आदमी आपस में बात कर रहे थे। उनमें से एक बोला, “नए माल की डील अगले हफ्ते है। इस बार बच्चे बंगाल से लाए जाएंगे।”

यह सुनते ही अदिति के दिल में खून खौल उठा। लेकिन उन्होंने अपना गुस्सा चेहरे पर नहीं आने दिया, क्योंकि उन्हें पूरे गिरोह को पकड़ना था, सिर्फ एक को नहीं। उन्होंने छुपकर मोबाइल निकाला और सबूत इकट्ठा करने लगे—वीडियो, आवाज, चेहरे और लोकेशन।

थोड़ी देर बाद वह वहां से चुपचाप निकल गई ताकि किसी को शक ना हो। रात को उन्होंने यह सारे सबूत, वीडियो, ऑडियो और लोकेशन सीधे बाल अपराध शाखा के डायरेक्टर, डीआईजी अरविंद कुमार को भेज दिए। लेकिन अपना नाम नहीं बताया। बस इतना लिखा, “यह सिर्फ बच्चों की चोरी नहीं, यह मां-बेटे के रिश्ते को मिटाने की साजिश है।”

काम खत्म करके जब वे रात में घर लौटीं, तो देखा मोहित लड़का कमरे के एक कोने में बैठा दीवार पर उंगली से कुछ बना रहा था। वह शब्द नहीं लिख पा रहा था, लेकिन उसने एक घर बनाया था और उसके अंदर एक औरत और एक बच्चा। अदिति समझ गईं कि उसके दिल में क्या चल रहा है। उन्होंने उसे धीरे से गोद में उठाया और पहली बार उसके असली नाम से पुकारा, “मोहित।”

मोहित चौंक कर उनकी ओर देखा और फिर हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर आ गई। यह उसकी पहली सच्ची, डर के बिना निकली मुस्कान थी। अब उसका चेहरा बदलने लगा था। वह अब चुप रहने वाला बच्चा नहीं रहा। वह धीरे-धीरे बात करने लगा था।

एक दिन मोहित ने कांपती आवाज में बताना शुरू किया, “कुछ अंकल थे। वे मुझे ट्रेन में ले गए थे। उन्होंने कहा था कि तेरी मम्मा मर गई है। अब हम तेरे अपने हैं।” उसने बताया कि कैसे उसे अलग-अलग जगहों पर ले जाया गया, हर बार नया नाम रखा जाता था—कभी राहुल, कभी गुड्डू, कभी शान। फिर उसे सड़कों या झुग्गियों में छोड़ दिया जाता था।

अदिति ने उसे सीने से लगाकर कहा, “अब कोई तुझे छीन नहीं पाएगा बेटा। अब हम हर मोहित को उसका घर दिलाएंगे।”

उसके बाद अदिति की जिंदगी दो हिस्सों में बंट गई—एक चेहरा मां का था, जो सुबह मोहित के साथ हंसती, उसे दूध देती, कहानी सुनाती, और जब वह डर कर उनके गले लग जाता तो बाल सहला कर सुला देती। दूसरा चेहरा अफसर का था, जिसने पुलिस अकादमी में कसम खाई थी—सच के लिए लड़ना, चाहे सामने कोई भी हो।

अब दोनों चेहरे एक हो गए थे। वह हर बच्चे में अपना मोहित देखने लगी थीं, और यह लड़ाई सिर्फ कानून की नहीं, इंसानियत की लड़ाई बन चुकी थी।

मोहित धीरे-धीरे खुलने लगा था। कई बार वह अदिति को प्यार से “अम्मा” कह देता था, लेकिन तुरंत ही रुक जाता, जैसे डरता हो कि कहीं यह भी उसे छोड़ न दे।

एक शाम अदिति ने देखा कि मोहित चुपचाप कमरे के कोने में बैठा है। उन्होंने पास जाकर पूछा, “क्या हुआ बेटा?” मोहित ने धीरे-धीरे आंखें उठाईं और कांपती आवाज में बोला, “अगर आप भी चली गईं, तो…” यह सुनकर अदिति का दिल अंदर तक हिल गया। उस एक वाक्य ने उनकी आत्मा को झकझोर दिया।

उन्होंने तुरंत उसका सिर गोद में लिया और कहा, “अब मैं कहीं नहीं जाऊंगी। अब तू ही मेरा घर है, बेटा।”

उसके बाद मोहित का डर थोड़ा कम हो गया। उसकी आंखों में भरोसा था।

उसी शाम अदिति ने अपने पुराने सभी केस फाइलें मंगवाई। वे फाइलें जिनमें पिछले दस वर्षों में गुमशुदा बच्चों का रिकॉर्ड था। उन्होंने एक-एक पन्ना खोलकर पढ़ना शुरू किया। हर फाइल में दर्द था, हर तस्वीर किसी चीख की तरह थी, हर बयान में लाचारी और थकान थी।

किसी मां की फोटो थी जो रेलवे स्टेशन पर रोती मिली थी, किसी पिता ने अखबार में विज्ञापन छपवाया था, किसी बहन ने दर-दर जाकर भाई को ढूंढा था। लेकिन सबसे बड़ा सच यह था कि सिस्टम थक चुका था। कुछ केस आधे में बंद कर दिए गए, कुछ में तो एफआईआर तक नहीं लिखी गई।

अदिति ने ठान लिया कि अब उनकी लड़ाई सिर्फ अपने बेटे तक सीमित नहीं रहेगी। उन्होंने अपने जिले में बाल सुरक्षा विशेष प्रकोष्ठ, स्पेशल चाइल्ड प्रोटेक्शन यूनिट बनाने का प्रस्ताव रखा। जहां हर गुम हुए बच्चे की फाइल दोबारा खोली जाएगी। उन्होंने एक टीम बनाई और सबसे पहले उन्हीं रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों की जांच शुरू करवाई जहां से सबसे ज्यादा बच्चे गायब हुए थे।

कुछ दिन बाद एक चाइल्ड होम से खबर आई कि वहां एक बच्चा लाया गया था जो बार-बार एक ही नाम पुकार रहा था—”सोनू, मम्मा सोनू।” नाम आम था, लेकिन अदिति ने रजिस्टर की एंट्री चेक की। वहीं लिखा था कि जिस आदमी ने उस बच्चे को छोड़ा था, उसका चेहरा बनाया हुआ था, वही जो उस गोदाम वाले रैकेट में था। यह महज इत्तेफाक नहीं हो सकता था।

उन्होंने अपनी टीम को तुरंत उस आदमी की तलाश में भेजा। जांच में पता चला कि वह सिर्फ कोई छोटा गुंडा नहीं था, बल्कि एक बड़े सिंडिकेट का हिस्सा था जो कई राज्यों में फैला हुआ था। उनका काम था—बच्चों को चुराना, उनकी पहचान मिटाना, नाम बदलना, भीख मंगवाने वाले गिरोहों को बेचना, घरेलू काम या अवैध काम में लगाना, और सबसे खतरनाक—अंगों की तस्करी।

अब यह सिर्फ एक महीने की लड़ाई नहीं थी, यह पूरे तंत्र के खिलाफ युद्ध था। अदिति ने सारे सबूत इकट्ठे किए और मामला राज्य सरकार तक पहुंचाया। एक स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम (एसआईटी) बनाई गई और उसका प्रमुख बनाया गया—अदिति राठौर को।

जांच आगे बढ़ रही थी, और अदिति मोहित के साथ अपना रिश्ता मजबूत कर रही थीं। मोहित अब स्कूल जाने लगा था। जब उसने पहली बार स्कूल यूनिफॉर्म पहनी, अदिति की आंखों में वह पुराना सपना लौट आया—एक छोटा बच्चा बैग लेकर जाता है और हंसते हुए घर लौटता है।

स्कूल से लौटकर मोहित हर बात बताता, “आज मैंने क्लास में सबसे पहले जवाब दिया, मैडम ने मुझे स्टार दिया, मैंने पेंटिंग में ‘ए’ पाया,” और फिर भागकर अदिति से लिपट जाता था। अब उसके गले लगने में कोई डर नहीं था, उसकी आंखों में भरोसा था।

अदिति ने महसूस किया कि जिस भरोसे का हक मोहित को मिला है, वह हर मां का अधिकार है। उन्होंने पूरे राज्य की पुलिस को आदेश दिया कि बाल अपराध से जुड़ा एक भी केस उनकी जानकारी के बिना आगे नहीं बढ़ेगा।

कुछ दिनों बाद मोहित एक पन्ना लेकर अदिति के पास आया। उसमें टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा था—”एक बच्चा था जो खो गया था, लेकिन उसकी मम्मा उसे ढूंढ लाई। अब वह कभी नहीं खोएगा।” अदिति ने वह कागज अपने ऑफिस की टेबल पर चिपका दिया। उसके ठीक नीचे पुलिस की शपथ पत्र की लाइन लिखी थी—”सत्य, सेवा और न्याय।”

अब अदिति के भीतर कोई भ्रम नहीं था। वह मां भी थी और अफसर भी। उनकी लड़ाई अब मेडल, प्रमोशन या अखबार की हेडलाइन के लिए नहीं थी। अब वह उन टूटे धागों को जोड़ने के लिए लड़ रही थीं जिनसे मां-बेटे, भाई-बहन और इंसानियत का रिश्ता जुड़ता है।

एक सुबह जब सूरज की पहली किरण जमीन को छू रही थी, अदिति खिड़की के पास खड़ी थीं। आंखों में नींद नहीं थी, दिल में बेचैनी थी, उंगलियां कांप रही थीं। यह डर किसी अपराधी से नहीं था, यह उन सच्चाइयों से था जो अब उनके हाथ में थीं।

रात को सोते समय मोहित ने उनसे पूछा था, “मम्मा, जो लोग बच्चों को चुराते हैं, क्या वह पकड़े जाते हैं?” मोहित के सवाल पर अदिति कुछ देर चुप रहीं। उनके दिल में डर था, लेकिन चेहरे पर हिम्मत। उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरा और प्यार से बोली, “जरूर बेटा, एक दिन सब पकड़े जाते हैं। कोई भी सच से भाग नहीं सकता।”

लेकिन वे जानती थीं कि जिस गिरोह से मोहित छीन लिया गया था, उसकी जड़े बहुत गहरी थीं, इतनी गहरी कि उसमें बड़े-बड़े लोग शामिल थे—एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी, एक बाल सुधार गृह, चाइल्ड होम का संचालक, एक स्थानीय नेता और एक बड़ा डॉक्टर। ये सब मिलकर बच्चों को गायब करते, उनका इलाज करवाते, नाम और पहचान मिटाते, और फिर उन्हें बेच देते थे।

इतना संगठित जाल था कि किसी को शक तक नहीं होता था। अदिति ने अपने भरोसेमंद अधिकारियों की एक गुप्त टीम बनाई। इन अफसरों ने बिना किसी को बताए कई शहरों में जाकर सबूत इकट्ठा करना शुरू किया—फोन टैप करवाना, सीसीटीवी फुटेज खंगालना, बैंक ट्रांजैक्शन पकड़ना, पुराने केसों की फाइलों की जांच करना।

दिन में अदिति एक सामान्य ईएसपी की तरह ऑफिस में बैठतीं, लेकिन रात को उनकी टेबल पर इतनी फाइलें होती थीं कि कमरा जैसे जंग का मैदान लगने लगता। कई रात मोहित उठकर दरवाजे पर आ जाता और कहता, “आप अभी तक जाग रही हो?” अदिति मुस्कुरा कर कहतीं, “बस थोड़ी देर और बेटा, फिर तेरे पास आ जाऊंगी।”

एक रात फाइलों के बीच अदिति को एक पुरानी तस्वीर मिली। वह एक लड़की की थी जो कई साल पहले गायब हुई थी और हाल ही में एक छापेमारी में कोठे से मिली थी। तस्वीर देखते ही अदिति सन्न रह गईं। वह लड़की उसी समय गायब हुई थी जब मोहित खोया था।

अदिति तुरंत सुधार गृह पहुंचीं। लड़की बहुत टूटी हुई थी और बोलने को तैयार नहीं थी। लेकिन जैसे ही अदिति ने मोहित की फोटो उसे दिखाई, उसके होंठ कांप गए। वह फूट-फूट कर रोने लगी। कांपती आवाज में उसने कहा, “उसी वैन में मुझे भी ले जाया गया था जिसमें वह बच्चा था। वह रो रहा था, चिल्ला रहा था, पर किसी ने नहीं सुना।”

अदिति का दिल सुन्न हो गया। उन्हें लगा जैसे मोहित की पुरानी चीखें आज भी दीवारों में गूंज रही हों।

अगले ही दिन अदिति ने विशेष न्यायाधीश से मिलकर इजाजत ली कि इस केस को सीधे कोर्ट में लाना है, बिना देरी के। क्योंकि अगर वह चूक गईं तो पूरा केस कमजोर पड़ सकता था। इजाजत मिलते ही उन्होंने उन सभी ताकतवर लोगों पर चार्जशीट दाखिल कर दी।

जब पहली गिरफ्तारी हुई, तो पूरे शहर में हलचल मच गई। मीडिया हंगामा करने लगा, लेकिन अदिति ने कोई बयान नहीं दिया। उन्हें पता था कि अभी लड़ाई खत्म नहीं हुई है। अभी असली वार बाकी थे। अब भी कई बच्चे लापता थे, कई माओं की आंखें सूख चुकी थीं।

लेकिन इंतजार खत्म नहीं हुआ था, और अदिति राठौर जानती थीं कि यह जंग तब तक खत्म नहीं होगी जब तक हर बच्चा अपने घर की चौखट पर लौट नहीं आता।

एक शाम मोहित स्कूल से लौटा। उसके हाथ में एक छोटा सा प्रमाण पत्र था, सच्चाई का साथी। उसने मासूम मुस्कान के साथ अदिति को देते हुए कहा, “मां, मैडम बोली कि मुझे यह इसलिए मिला क्योंकि मैं अब झूठ नहीं बोलता।”

अदिति ने उसे सीने से लगा लिया। उसकी आंखें भर आईं। वह जानती थीं कि मोहित के जीवन का सच कितना दर्द से भरा है, लेकिन अब वह बच्चा टूटता नहीं था, डटकर खड़ा होता था।

उस रात अदिति ने वही पन्ना उठाया जिस पर मोहित ने कभी अपनी कहानी लिखी थी। उसने उसके नीचे एक और लाइन जोड़ दी—और अब यह बच्चा बड़ा होकर दूसरों के लिए रास्ता बनाता है।

मोहित एक कोने में खिलौनों से खेल रहा था। अदिति ने उसकी तरफ देखा और पहली बार दिल से महसूस किया कि अब उनका बेटा खोया हुआ बच्चा नहीं है, बल्कि उम्मीद बन चुका है।

बरसों तक उसने अपने सपनों को वर्दी के पीछे छुपाए रखा था, अपने आंसू तकिए में दबाए रखा था। लेकिन अब सब बदल रहा था। उसकी सुबह अब अलार्म से नहीं, मोहित की हंसी से शुरू होती थी। वह अब प्यार से उसे “मां” कहकर बुलाता था, पूरे अपनेपन और भरोसे के साथ।

जिस डर से वह सालों तक कांपता था, अब वही साहस में बदल चुका था। वह अब सबसे आंख मिलाकर बात करता था, अपनी पसंद बताता था, खिलौनों और किताबों की मांग करता था। उसकी खामोशी अब कहानियों में ढल रही थी—कभी पेंटिंग में, कभी लिखावट में, और कभी बस मां की गोद में सिर छुपाकर।

जो लड़ाई अदिति ने अपने बेटे के लिए शुरू की थी, वह अब हजारों बच्चों की आवाज बन गई थी।

राज्य सरकार ने उनकी पहल पर एक नई योजना शुरू की—”गुमशुदा नहीं, जिंदा है”—जिसमें हर जिले में एक विशेष बाल पुनर्वास इकाई बनाई गई। हर पुराने केस को दोबारा खोला गया, उन माओं को फिर से सुना गया जिन्हें सिस्टम ने केवल रसीद बनाकर छोड़ दिया था।

मीडिया अब इसे पूरे देश में दिखा रहा था—एक मां, एक अफसर, और एक मिशन।

लेकिन अदिति को कैमरों से दूर रहना पसंद था। वह जानती थीं कि यह उनकी नहीं, उन सबकी कहानी है जो अपने बच्चों की राह अब तक देख रहे हैं।

मोहित रोज स्कूल से लौटकर अपनी बातें उससे बांटता। एक दिन उसने मासूमियत से पूछा, “मां, क्या मैं बड़ा होकर पुलिस बन सकता हूं?” अदिति मुस्कुराई, उसका माथा चूमा और बोली, “तू जो चाहे बन सकता है बेटा, बस किसी मासूम की आवाज कभी मत दबने देना।”

उस दिन अदिति ने एक अहम फैसला लिया। उन्होंने मोहित को लेकर उसी रेलवे स्टेशन जाने की सोची जहां उनकी जिंदगी ने करवट बदली थी। सीढ़ियां चढ़ते वक्त मोहित का हाथ उनके हाथ में था। आसपास वही भीड़ थी, धक्कामुक्की, आवाजें। लेकिन इस बार फर्क था—मां और बेटा साथ खड़े थे।

अदिति ने उसे वह जगह दिखाई जहां से वह कभी गायब हुआ था। मोहित चुपचाप देखता रहा, फिर धीरे से बोला, “मुझे याद नहीं मां।” लेकिन अब कोई बात नहीं, “मैं मिल गया ना।” इन शब्दों में जैसे सालों का रोना बह गया।

अदिति ने उसे कसकर गले लगाया और कहा, “हां बेटा, अब कभी नहीं खोएगा।”

उसके बाद अदिति ने एक किताब लिखने का फैसला किया—मोहित की नहीं, उन सब बच्चों की कहानियां जो खोकर भी किसी कोने में जिंदा मिले। उन्होंने हर मां से बात की, हर केस को महसूस किया।

किताब का नाम रखा—”मां की साड़ी और गुमशुदा लोरी।”

कुछ महीनों बाद एक बड़े मंच पर उन्हें बुलाया गया। राज्य के गृह मंत्री धर्मेंद्र सिंह खुद मौजूद थे। सम्मान मिला, लेकिन अदिति ने मंच पर सिर्फ इतना कहा, “मैं कोई नायक नहीं, मैं एक मां हूं जिसने अपने बेटे को ढूंढ लिया, और मैं चाहती हूं कि कोई भी मां अकेली ना रहे।”

उन शब्दों ने हजारों दिलों में हलचल मचा दी। अब मोहित उनका बेटा ही नहीं था, वह कई बच्चों की उम्मीद बन चुका था। स्कूलों में उसकी कहानी पढ़ाई जाने लगी। उसका चेहरा अब एक बच्चे का नहीं, बल्कि इस सच्चाई का प्रतीक था कि अगर एक मां ठान ले, तो दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बन जाती है।

सालों बाद जब मोहित कॉलेज में था, उसने एक सभा में कहा, “मैं वह बच्चा हूं जिसे दुनिया ने खो दिया था, लेकिन मेरी मां ने मुझे ढूंढ लिया। आज मैं उन सबकी आवाज बनना चाहता हूं जो अब भी इंतजार में हैं।”

अदिति पीछे की कतार में बैठी थीं। उनकी आंखों में आंसू नहीं, एक चमक थी। एक नई सुबह की शुरुआत हो चुकी थी, और अब कोई भी बच्चा अकेला नहीं था।