कंडक्टर ने अपनी जेब से दिया गरीब छात्र का बस टिकट, सालों बाद क्या हुआ जब वही छात्र कलेक्टर बनकर लौटा

.

.

₹50 का टिकट: एक छोटी सी मदद जिसने लिख दी एक ज़िंदगी की तक़दीर

उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा कस्बा है – बिसवा। यहां से रोज़ाना एक पुरानी सी बस चलती है लखनऊ के लिए। हालत उसकी पूछो मत – सीटें टूटी-फूटी, खिड़कियों से हवा नहीं, धूल-मिट्टी से अटी पड़ी। लेकिन इस बस का सबसे खास किरदार है – हरिप्रसाद जी, इसके कंडक्टर

अब हरिप्रसाद जी को देखो तो लगता है जैसे ज़िंदगी ने उन्हें गढ़ा ही इस नौकरी के लिए है। पचपन साल की उम्र, माथे पर पसीने की रेखाएं नहीं, बल्कि मेहनत की कहानी लिखी हुई है। बाल थोड़े सफेद, पर चाल में अब भी वही सख्ती – जैसे बस की हर सीट उनकी ज़िम्मेदारी हो।

तीस साल हो गए उन्हें इसी रूट पर टिकट काटते-काटते। रोज़ वही बस, वही रास्ता, वही शोर-शराबा। और इस सबके बीच एक छोटी-सी दुनिया – उनकी पत्नी कमला और बेटा रवि

रवि की पढ़ाई में ही उनकी सारी उम्मीदें बसी थीं। वो चाहते थे कि बेटा आगे बढ़े, अफसर बने, और उस जिंदगी से बहुत दूर जाए जो हरिप्रसाद जी ने जिया – धूलभरी सीटें, टूटे हॉर्न और हमेशा देरी से चलने वाली खटारा बस।

एक गर्मी भरी दोपहर थी। बस अपनी क्षमता से कहीं ज्यादा भरी थी। कोई बकरी सीट के नीचे छुपाए बैठा था, कोई अनाज की बोरी सर पर रखकर ऊंघ रहा था। पंखे तो थे, पर चलते नहीं थे। हर तरफ पसीने की गंध और गर्मी थी। हरिप्रसाद जी अपनी घिसी हुई चमड़े की थैली लटकाए एक-एक सवारी से टिकट के पैसे ले रहे थे। “टिकट ले लो भाई, टिकट!” उनकी आवाज बस के शोर में गूंज रही थी।

बस की सबसे पिछली सीट पर, खिड़की के पास एक दुबला-पतला लड़का सहमा हुआ सा बैठा था। उम्र कोई 17-18 साल, चेहरे पर गांव की मासूमियत और आंखों में घबराहट। उसने मैली सी कमीज और पुरानी पैंट पहन रखी थी, गोद में एक प्लास्टिक की फाइल कसकर पकड़ी हुई थी – जैसे वही उसकी सबसे कीमती दौलत हो। हरिप्रसाद जी उसके पास पहुंचे, “हां बेटा, कहां का टिकट बनाऊं?” लड़के ने धीरे से कहा, “लखनऊ का।” “पैसे निकालो,” हरिप्रसाद जी बोले।

लड़के का चेहरा अचानक सफेद पड़ गया। उसने अपनी जेबें टटोलीं, फाइल के पन्ने पलटे, पर पैसे कहीं नहीं मिले। उसकी आंखों में आंसू आ गए, “जी अंकल, पैसे तो थे। मैंने ऊपर वाली जेब में रखे थे, ₹100 का नोट था। शायद बस में चढ़ते समय भीड़ में गिर गया या किसी ने निकाल लिया।” बस की कुछ सवारियां उस लड़के को शक की निगाह से देखने लगीं। एक आदमी बोला, “अरे, ये रोज का नाटक है इन लोगों का! बिना टिकट चलने का बहाना है।”

हरिप्रसाद जी ने भी ऐसी कहानियां बहुत सुनी थीं। उन्होंने सख्ती से कहा, “देखो बेटा, बिना टिकट के मैं तुम्हें आगे नहीं ले जा सकता। अगले स्टॉप पर उतर जाना।” लड़का फूट-फूटकर रो पड़ा, “नहीं अंकल, प्लीज मुझे मत उतारिए। मेरी पूरी जिंदगी बर्बाद हो जाएगी। आज लखनऊ में यूपीएससी की कोचिंग का एंट्रेंस एग्जाम है। अगर आज नहीं पहुंचा, तो मेरा पूरा साल खराब हो जाएगा। बाबूजी ने जमीन गिरवी रखकर मुझे भेजा है। मैं क्या मुंह दिखाऊंगा उन्हें?” उसने एडमिट कार्ड दिखाया, नाम था – आकाश।

हरिप्रसाद जी ने लड़के की आंखों में झांका। वहां कोई चालाकी नहीं थी – बस बेबस सी सच्चाई थी, जैसे कोई सपना टूटने के कगार पर हो। उनका दिल जैसे भर आया। उस पल उन्हें वो लड़का अपने बेटे रवि जैसा ही लगा।

उन्होंने धीरे से अपनी फटी-पुरानी जेब टटोली, जिसमें कुछ खुले पैसे और राशन के लिए रखे कुछ नोट दबे हुए थे। थोड़ी देर तक सोचते रहे, फिर ₹50 का नोट निकाला। आकाश के कंधे पर हाथ रखते हुए बोले, “आजा बेटा, अब और मत रो।”

उन्होंने टिकट मशीन से एक टिकट निकाली और आकाश की हथेली में रखते हुए कहा, “ये लखनऊ का टिकट है… इसके पैसे मैंने दे दिए।” फिर जेब से एक ₹10 का सिक्का निकाला और उसकी ओर बढ़ाते हुए बोले, “रास्ते में कुछ खा लेना या चाय पी लेना। परीक्षा अच्छे से देना, मन लगाकर पढ़ना… और एक दिन बड़ा अफसर बनना।”

फिर थोड़ी रुककर मुस्कुराए, “और हाँ, जब अफसर बन जाओ, तो हम जैसे लोगों को मत भूल जाना – जो जिंदगी बसों में बीताते हैं।”

आकाश की आंखों से कृतज्ञता के आंसू बहने लगे। उसने झुककर हरिप्रसाद जी के पैर छू लिए, “अंकल, मैं आपका यह एहसान जिंदगी में कभी नहीं भूलूंगा। आप मेरे लिए भगवान बनकर आए हैं।” हरिप्रसाद जी ने मुस्कुराकर उसकी पीठ थपथपाई और आगे बढ़ गए। आकाश लखनऊ पहुंचा, परीक्षा दी, और भीड़ में खो गया।

उस दिन घर पर राशन थोड़ा कम आया, पर हरिप्रसाद जी का दिल एक अजीब सुकून से भरा था। समय गुजरता गया। आकाश की जिंदगी कठिन तपस्या बन गई। उस दिन की परीक्षा में उसने टॉप किया, कोचिंग में दाखिला मिला, दिल्ली गया, छोटी सी खोली में रहकर दिन-रात पढ़ाई की। कई रातें भूखे पेट सोया, पुरानी किताबें खरीदकर पढ़ता। जब भी हिम्मत टूटती, उसे बस में मिले हरिप्रसाद जी का मुस्कुराता चेहरा याद आ जाता – उनकी वह बात, “बेटा, बड़े अफसर बनना।” वह मंत्र बन गया।

आकाश ने कई बार लखनऊ जाकर हरिप्रसाद जी को खोजने की कोशिश की, पर वे कभी मिले नहीं। शायद ड्यूटी बदल गई थी या छुट्टी पर थे। कड़ी मेहनत के बाद आखिरकार वह दिन आया जब आकाश ने सिविल सेवा की परीक्षा पास कर ली। वह अब आईएएस अफसर आकाश था।

उधर, हरिप्रसाद जी की जिंदगी भी बदल गई थी। बेटा रवि बीमार पड़ गया, इलाज में सारी जमा पूंजी खर्च हो गई, कर्ज लेना पड़ा। अब इस उम्र में भी उन्हें उसी बस में धक्के खाने पड़ते थे। कभी-कभी उन्हें उस लड़के की याद आती थी, “पता नहीं वो अफसर बना होगा या नहीं।” फिर खुद ही मुस्कुरा देते, “मैंने तो अपना फर्ज निभाया था।”

किस्मत ने दोनों की कहानी का अंत लिखने के लिए एक खास दिन चुना। 10 साल बीत चुके थे। आकाश की पहली पोस्टिंग उसी जिले में डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर के तौर पर हुई, जहां वह लखनऊ आता था। चार्ज लेने के बाद उसने सबसे पहले परिवहन विभाग का हाल जानने का फैसला किया। वह आम आदमी की तरह बस अड्डे पहुंचा, बिसवा जाने वाली बस में टिकट लिया और बैठ गया।

थोड़ी देर बाद बस में एक बुजुर्ग कंडक्टर चढ़े – वही पुरानी, घिसी हुई थैली कंधे पर लटकी हुई, वही कई बार धुल चुकी खाकी वर्दी, और वही जानी-पहचानी आवाज गूंजी, “टिकट ले लो भाई!”

जैसे ही आकाश की नजर उन पर पड़ी, उसका दिल एक पल के लिए थम-सा गया – ये तो वही थे, हरिप्रसाद जी!

अब कमर कुछ झुक गई थी, चेहरे पर सालों की थकान साफ झलक रही थी, लेकिन उनकी आंखें अब भी वैसी ही थीं – नरम, सच्ची और इंसानियत से भरी

आकाश जैसे किसी और ही दुनिया में पहुंच गया। दस साल पहले का वो दिन उसकी आंखों के सामने तैरने लगा – जब वो खुद लाचार था, जब आंखों में आंसू थे, और जब यही इंसान उसके लिए फ़रिश्ता बनकर आए थे।

हरिप्रसाद जी टिकट काटते-काटते आकाश की सीट तक पहुंचे। उन्होंने उसे नहीं पहचाना। “साहब, कहां का टिकट चाहिए?” आकाश ने नम आंखों से उनकी तरफ देखा, आवाज भर्रा गई, “अंकल, आज टिकट मैं नहीं, आप लेंगे। अब आपको कभी कोई टिकट काटने की जरूरत नहीं पड़ेगी।”

हरिप्रसाद जी हैरान हो गए, “साहब, ये आप क्या कह रहे हैं?” आकाश मुस्कुराकर बोला, “पर मैंने आपको पहचान लिया। 10 साल पहले आपने एक गरीब लड़के को ₹50 का टिकट दिया था, कहा था – बड़े अफसर बनकर हमें भूल मत जाना।” यह सुनते ही हरिप्रसाद जी के हाथ से टिकटों की गड्डी गिर गई। वे अविश्वास से आकाश को देखने लगे। उनकी बूढ़ी आंखों में यादों की एक रील चलने लगी। “बेटा, तुम वही आकाश हो?” आवाज कांप रही थी। “जी अंकल।” आकाश ने उनके पैर छू लिए, “अगर आपने मुझे नहीं बचाया होता, तो मैं आज यहां नहीं होता।”

हरिप्रसाद जी की आंखों से आंसुओं का सैलाब फूट पड़ा। उन्होंने आकाश को गले से लगा लिया। बस में बैठी सारी सवारियां, ड्राइवर – सब हैरान होकर इस दृश्य को देख रहे थे। आकाश ने ड्राइवर से बस रोकने को कहा। वह सवारियों को संबोधित करते हुए बोला, “भाइयों, आज मैं जो कुछ भी हूं, इस जिले का कलेक्टर – वो इन भले मानुष की वजह से हूं। ये सिर्फ कंडक्टर नहीं, एक देवता हैं।”

उसने तुरंत अपने ऑफिस में फोन किया, सरकारी गाड़ी बुलवाई, हरिप्रसाद जी को अपनी नीली बत्ती वाली गाड़ी में बिठाकर ले गया। ऑफिस में पहुंचकर आकाश ने हरिप्रसाद जी को अपनी कुर्सी पर बिठाया, उनके लिए अपने हाथ से पानी का गिलास भरा, उनके परिवार और मुश्किलों के बारे में पूछा। जब हरिप्रसाद जी ने बेटे की बीमारी और कर्ज के बारे में बताया, आकाश का दिल भर आया, “अंकल, आज से आपकी हर चिंता मेरी।”

अगले ही दिन आकाश ने अपनी तनख्वाह से पैसे निकालकर हरिप्रसाद जी का सारा कर्ज चुका दिया। अपने डॉक्टर दोस्त से कहकर बेटे रवि का सबसे अच्छा इलाज शुरू करवाया। लेकिन वह जानता था कि यह काफी नहीं है। अगले हफ्ते गणतंत्र दिवस के मौके पर जिले का सबसे बड़ा समारोह आयोजित हुआ। हजारों की भीड़ थी, बड़े नेता और अफसर मंच पर थे। आकाश ने अपने भाषण के बाद एक विशेष घोषणा की – हरिप्रसाद शैक्षिक सहायता योजना की शुरुआत। यह स्कॉलरशिप उन गरीब बच्चों को मिलेगी जो पैसों की कमी की वजह से बड़े सपने नहीं देख पाते। यह देखकर हरिप्रसाद जी की आंखों से फिर आंसू बहने लगे।

आकाश ने परिवहन विभाग के मंत्री से बात करके हरिप्रसाद जी के लिए एक सम्मानजनक प्रमोशन की व्यवस्था की – अब उन्हें बस में धक्के नहीं खाने थे, बल्कि डिपो के सुपरवाइजर बन गए। कहानी का अंत यहीं नहीं हुआ – आकाश अब हर हफ्ते किसी न किसी बहाने हरिप्रसाद जी के घर जाता। कमला को मां, रवि को छोटा भाई कहता। दो परिवार अब एक हो चुके थे।

हरिप्रसाद जी अक्सर कहते, “बेटा, मैंने तो तुझे सिर्फ ₹50 दिए थे, तूने तो मुझे पूरी दुनिया की दौलत और इज्जत दे दी।” आकाश मुस्कुराकर कहता, “अंकल, वो ₹50 नहीं थे, वो एक सपना खरीदने का टिकट था, जिसकी कीमत कोई नहीं चुका सकता।”

यह कहानी हमें सिखाती है कि नेकी का एक छोटा सा बीज भी एक दिन विशाल पेड़ बन सकता है, जो न जाने कितनों को छांव देता है। हरिप्रसाद जी की एक छोटी सी मदद ने एक जिंदगी बदल दी, और उस बदली हुई जिंदगी ने हजारों और जिंदगियों को बदलने का रास्ता खोल दिया।
अगर आपके जीवन में भी कोई ऐसा गुमनाम नायक आया है, जिसकी मदद आप कभी नहीं भूल सकते, तो उसकी याद हमेशा दिल में रखें। अच्छाई का संदेश फैलाइए, क्योंकि इंसानियत सबसे बड़ा धर्म है।