करोड़पति की बीमार बेटी की जान बचाने के लिए नौकर ने अपनी ज़िंदगी दांव पर लगा दी, फिर जो हुआ…
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इंसानियत की मिसाल: अर्जुन और रिया की कहानी
गुजरात के सूरत शहर में करोड़पति रमेश पटेल का बंगला दूर से किसी महल जैसा लगता था। बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों के मालिक, समाज में इज्जतदार, लोग उन्हें रमेश भाई कहकर आदर देते थे। उनकी पत्नी वंदना और इकलौती बेटी रिया ही उनकी दुनिया थी। रिया, 23 साल की, कॉलेज से अभी-अभी लौटी थी, घर की रौनक थी। लेकिन पिछले कुछ महीनों से उसकी तबीयत बिगड़ने लगी थी।
डॉक्टरों ने जांच के बाद बताया, “रिया की दोनों किडनी फेल हो चुकी हैं।”
वंदना की चीख निकल पड़ी, रमेश भाई के पैरों तले जमीन खिसक गई। डॉक्टर बोले, “अब सिर्फ किडनी ट्रांसप्लांट से ही जान बच सकती है। डायलिसिस कुछ दिन चलेगी, लेकिन ज्यादा वक्त नहीं।”
रमेश भाई ने सूरत से मुंबई, दिल्ली तक हर बड़े अस्पताल में कोशिश की। कई डोनर लिस्ट में नाम डलवाए, लेकिन कोई मैच नहीं हुआ। दिन बीतते गए, रिया की हालत गिरती गई। अब वह ज्यादातर बिस्तर पर रहती थी। चेहरे की मुस्कान गायब, आँखों के नीचे काले घेरे, शरीर सूज चुका, आवाज धीमी पड़ गई।
रिया अक्सर कहती, “मम्मी, मैं कितनी बदसूरत हो गई हूँ ना?”
वंदना उसे सीने से लगाकर कहती, “बेटा, जब तक सांस है, तू मेरे लिए सबसे खूबसूरत है।”
डॉक्टर ने सलाह दी, “रिया को शहर के प्रदूषण और भीड़ से दूर रखिए।”
रमेश भाई ने उसे फार्महाउस में शिफ्ट कर दिया। तीन एकड़ में फैला, हराभरा बंगला, बीच में सफेद दो मंजिला इमारत, लॉन, पीछे बाग, हर तरफ शांति। वहाँ बस कुछ नौकर, एक नर्स और वंदना थीं। रमेश भाई हर दिन आते, कुछ घंटे बैठते, फिर काम से शहर लौट जाते।
रिया की हालत संभलने की जगह और बिगड़ रही थी। कई बार उसे उठाने, व्हीलचेयर पर बिठाने या पार्क तक ले जाने में वंदना और नर्स दोनों थक जाती थीं। एक दिन डॉक्टर ने कहा, “मिस्टर पटेल, आपको एक भरोसेमंद अटेंडेंट या नौकर रखना होगा, जो रिया की देखभाल करे, दवा दे, और जब वह कमजोर हो तो संभाल सके।”
रमेश भाई ने अखबार में विज्ञापन दिया। तीन दिन तक कई लोग आए, पर किसी के चेहरे में सच्चाई नहीं दिखी। कोई पैसों की बात करता, कोई छुट्टी की। रमेश हर इंटरव्यू के बाद निराश लौटते।
एक शाम, फैक्ट्री से लौटते वक्त रेलवे स्टेशन के पास गाड़ी रोकी। चाय पीने के लिए। वहीं देखा, एक दुबला सा लड़का, चेहरे पर पुराना झोला, आँखों में भूख नहीं, सच्चाई थी।
रमेश ने पूछा, “काम चाहिए?”
वो झट से बोला, “हाँ साहब, कोई भी काम कर लूंगा।”
“नाम क्या है?”
“अर्जुन कुमार।”
“कहाँ से आए हो?”
“बिहार के मधुबनी से।”
रमेश बोले, “क्या कुछ जानते हो?”
वो बोला, “बस इतना जानता हूँ साहब कि जब किसी की तकलीफ देखता हूँ तो चैन नहीं पड़ता।”
रमेश कुछ पल चुप रहे, फिर बोले, “चलो मेरे साथ, तुम्हें काम मिल जाएगा।”
रात तक दोनों फार्महाउस पहुँच गए। वंदना बरामदे में थी।
वो बोली, “इतनी देर? डॉक्टर फिर से बुला रहे थे।”
रमेश ने कहा, “एक नौकर लाया हूँ। अब रिया की देखभाल में मदद करेगा।”
फिर अर्जुन को देखकर बोले, “बेटा, अब यही तुम्हारा घर है।”
रिया कमरे के अंदर थी। कमरे में दवा की हल्की महक, मशीन की बीप की आवाज, खिड़की से आती मंद हवा। सब कुछ इतना शांत था कि डर लगे। रिया ने पिता की ओर देखा, फिर उस लड़के को देखा।
वह हल्के स्वर में बोली, “पापा, अब मेरे लिए नया नौकर भी रख लिया आपने?”
रमेश मुस्कुराए, “हाँ बेटा, अब यह तुम्हारा ध्यान रखेगा।”
रिया ने बस इतना कहा, “अच्छा, देखना कहीं यह भी मुझसे भाग ना जाए।”
वंदना ने धीरे से कहा, “रिया, ऐसी बातें मत करो।”
अर्जुन उस पल कुछ समझ नहीं पाया। बस महसूस किया कि यह घर बहुत अमीर है, पर इस अमीरी में कहीं एक गहरा दर्द भी छुपा है। रात को उसे फार्महाउस के पिछवाड़े वाले कमरे में बिस्तर दिया गया। वह लेटा तो था, लेकिन नींद नहीं आई। सोचता रहा, “कहीं मेरा इस्तेमाल ना कर लिया जाए, कहीं मैं भी किसी के इलाज का हिस्सा ना बन जाऊँ।”
पर मन में एक आवाज थी, “डरना मत अर्जुन। भगवान किसी को बेवजह किसी की जिंदगी में नहीं भेजता।”
अगले दिन सुबह सूरज की हल्की रोशनी खिड़की से भीतर आई। फार्महाउस का बगीचा चमक रहा था। अर्जुन बाहर निकला। पानी के पाइप से पौधों को सींचते माली से बोला, “सुप्रभात।”
वो मुस्कुराया, “यहाँ हर सुबह भगवान का आशीर्वाद जैसी लगती है।”
पीछे से आवाज आई, “इतनी सुबह-सुबह क्या सोच रहे हो?”
अर्जुन पलटा, रमेश पटेल खड़े थे।
“साहब, आदत है सुबह उठने की।”
“अच्छा है। शुरुआत हमेशा जल्दी उठने वालों की होती है।”
उस दिन से अर्जुन का असली सफर शुरू हुआ। अब उसका काम था रिया को संभालना, दवा देना, और हर दिन उसे व्हीलचेयर पर बिठाकर बगीचे में ले जाना। शुरुआत में रिया उससे बात नहीं करती थी, बस दूर देखती रहती। लेकिन एक दिन उसने पूछा, “तुम्हारा घर कहाँ है?”
वो बोला, “बहुत दूर बिहार में। वहाँ भी एक माँ है, जो रोज मेरा इंतजार करती है।”
रिया कुछ पल चुप रही, फिर धीरे से बोली, “काश कोई मेरा भी इंतजार करता।”
अर्जुन ने कुछ नहीं कहा, बस उसकी आँखों में देखा, जहाँ दर्द के पीछे एक अबोला सा सुकून छिपा था।
धीरे-धीरे दोनों के बीच खामोश बातें बढ़ने लगीं। अब वह हँसने लगी थी, मुस्कुराने लगी थी। अर्जुन उसे बगीचे में मछलियाँ दिखाता, फूल तोड़कर देता, और रिया धीरे से कहती, “अर्जुन, अगर जिंदगी ऐसे ही रुक जाए तो शायद मैं पहली बार जीना सीख जाऊँ।”
अर्जुन समझ नहीं पाता था, यह बीमार लड़की उसे क्या सिखा रही है या शायद खुद जिंदगी उसके जरिए अर्जुन को बदलने आई थी।
दिन गुजरते गए। रिया की आदत हो गई थी कि हर सुबह अर्जुन उसे व्हीलचेयर पर बिठाकर बगीचे में ले जाए। वह हवा में चेहरे को महसूस करे, फिर मछलियों को खाना डाले। पहले जो चेहरा हमेशा दर्द में झुका रहता था, अब उसमें हल्की मुस्कान आने लगी थी।
वह कहती, “अर्जुन, तुम जानते हो, जब तुम पास होते हो ना, तो मुझे लगता है जैसे बीमारी कहीं पीछे छूट गई है।”
अर्जुन बस हल्के से मुस्कुरा देता, कुछ बोल नहीं पाता। उसके दिल में एक अजीब सा जुड़ाव बनने लगा था, जिसे वह ना समझ पा रहा था, ना रोक पा रहा था।
कभी वो रिया को किताब पढ़कर सुनाता, कभी उसके साथ बैठकर भगवान की आरती सुनता, और कभी जब रिया की तबीयत ज्यादा बिगड़ती तो रात भर उसके कमरे के बाहर बैठा रहता।
एक रात जब वंदना नींद में थी, रिया की हालत अचानक बिगड़ गई। वह जोर-जोर से सांस लेने लगी, पसीना माथे से बह रहा था। अर्जुन घबरा कर दौड़ा, नर्स को बुलाया, डॉक्टर को फोन किया, और खुद ही उसे पानी पिलाने लगा।
कुछ देर बाद जब डॉक्टर आए, बोले, “शुक्र है, वक्त रहते इसे संभाल लिया गया, नहीं तो रात बहुत भारी पड़ती।”
वो रात अर्जुन की जिंदगी का टर्निंग पॉइंट थी। वह कमरे के बाहर बैठा था, लेकिन उसके मन में कुछ टूट गया था। उसने भगवान से कहा, “हे प्रभु, अगर मेरे हिस्से की साँसे इसे मिल जाए तो मैं तैयार हूँ।”
अगले दिन जब रमेश पटेल आए, वंदना ने रोते हुए कहा, “अब डॉक्टर कह रहे हैं, बस डोनर मिल जाए तो रिया बच जाएगी, वरना…”
रमेश कुछ बोले नहीं, बस सिर झुका लिया। उसी वक्त अर्जुन ने दरवाजे के पास खड़ा होकर सब सुन लिया था। वह पूरे दिन चुप रहा। रात को जब सब सो गए, वह बरामदे में जाकर आसमान की ओर देखने लगा। हवा में हल्की ठंड थी, पर उसके अंदर कुछ और ही जल रहा था।
उसने धीरे से खुद से कहा, “क्यों ना मैं ही वो बन जाऊं जो इसे नया जीवन दे सके।”
सुबह होते ही उसने नर्स से पूछा, “मैडम, अगर किसी का एक किडनी निकाल दिया जाए तो क्या वो जिंदा रह सकता है?”
नर्स चौकी, “क्यों पूछ रहे हो?”
अर्जुन बोला, “बस यूं ही जानकारी के लिए।”
नर्स बोली, “हाँ, एक किडनी से भी आदमी जी सकता है, लेकिन वो बहुत बड़ा फैसला है, मजाक नहीं।”
अर्जुन मुस्कुराया, “कभी-कभी जिंदगी भी तो मजाक से बड़ी हो जाती है ना।”
उस दिन दोपहर को जब रिया बगीचे में बैठी थी, अर्जुन उसके पास आया और बोला, “रिया जी, अगर कोई आपकी जगह होता तो आप क्या करती?”
रिया ने पूछा, “किस बात की जगह?”
“अगर कोई आपके लिए अपनी जिंदगी दांव पर लगाता?”
रिया हल्के से हँसी, “ऐसा कोई होता ही नहीं अर्जुन। यह दुनिया इतनी अच्छी नहीं है।”
अर्जुन ने बस कहा, “कभी-कभी अच्छा इंसान वहां से आता है, जहां दुनिया ढूंढती ही नहीं।”
शाम को जब रमेश पटेल लौटे, अर्जुन ने उन्हें धीरे से कहा, “साहब, अगर आप अनुमति दें तो मैं रिया जी को अपना एक किडनी देना चाहता हूँ।”
रमेश ने पहले तो सोचा कि अर्जुन मजाक कर रहा है। पर जब उसने सिर झुकाकर कहा, “साहब, मेरा फैसला पक्का है। आपकी बेटी जी लेगी तो मेरे लिए वही सबसे बड़ा इनाम होगा।”
तो रमेश की आँखें भर आईं। उन्होंने कहा, “बेटा, तू जानता है यह क्या कह रहा है?”
अर्जुन बोला, “हाँ साहब, बहुत अच्छे से जानता हूँ। मेरे पास खोने को कुछ नहीं है, लेकिन उसे बचाने को बहुत कुछ है।”
वंदना सुनकर दौड़ती हुई आई, बोली, “नहीं बेटा, यह पाप होगा। तुझे तेरे मां-बाप ने इसलिए पैदा नहीं किया।”
अर्जुन बोला, “माँ जी, जब कोई मर रहा हो और तुम उसे सांस दे सको तो वो पाप नहीं होता, वो पुण्य होता है।”
रमेश पटेल ने आखिरी बार पूछा, “बेटा, क्या तू अपने घर वालों से पूछेगा?”
अर्जुन की आँखें भर आईं, “साहब, अगर मैं पूछूंगा तो वह कभी हाँ नहीं कहेंगे। गाँव के लोग तो खून देने से डरते हैं। मैं उनसे यह नहीं कह सकता कि मैं अपनी किडनी दे रहा हूँ।”
उसके शब्दों में ऐसी सच्चाई थी जिसने रमेश और वंदना दोनों को चुप कर दिया। उन्होंने डॉक्टर से सारी प्रक्रिया शुरू करने को कहा। जांच हुई, रिपोर्ट आई और चमत्कार हुआ—रिया और अर्जुन के ब्लड ग्रुप और मैचिंग बिल्कुल सही निकले। डॉक्टर ने कहा, “अगर यह ऑपरेशन सफल हुआ तो रिया की जिंदगी बच सकती है।”
ऑपरेशन का दिन तय हुआ। फार्महाउस की दीवारें भी उस दिन जैसे रो रही थीं। रिया को बेहोशी दी गई, अर्जुन को ऑपरेशन थिएटर में ले जाया गया। चार घंटे तक चलने वाला वह ऑपरेशन पूरे परिवार के लिए एक उम्र जितना लंबा लगा। वंदना लगातार मंदिर में बैठी थी और रमेश अस्पताल के कॉरिडोर में भगवान से मन्नत मांग रहे थे, “अगर मेरी बेटी को जिंदगी देनी हो तो अर्जुन को भी सलामत रखना।”
अंत शाम के छह बजे दरवाजा खुला। डॉक्टर बाहर आए और बोले, “ऑपरेशन सफल रहा है। दोनों खतरे से बाहर हैं।”
वंदना वही जमीन पर गिर पड़ी। रमेश की आँखों से आँसू बह निकले। डॉक्टर ने कहा, “बेटी अब धीरे-धीरे ठीक हो जाएगी, और इस लड़के ने तो आज इंसानियत का सबसे बड़ा उदाहरण पेश किया है।”
अर्जुन को जब होश आया, उसके चेहरे पर दर्द था, पर मुस्कान भी थी। उसे बस एक बात सुननी थी, “रिया कैसी है?”
नर्स बोली, “अब वह ठीक है बेटा, अब वह जी लेगी।”
अर्जुन ने आँखें बंद की और मन ही मन कहा, “धन्यवाद भगवान, मैंने वो कर दिखाया जो मेरी औकात से बड़ा था।”
वो दिन गुजर गया, पर उस दिन ने सबकी जिंदगी बदल दी।
अब रिया के शरीर में अर्जुन की एक किडनी थी, और रिया के दिल में अर्जुन की जगह। दोनों की जिंदगी अब एक-दूसरे से जुड़ चुकी थी, रक्त से नहीं बल्कि रिश्ते से, जो इंसानियत की नींव पर बना था।
अस्पताल से छुट्टी के बाद दोनों को कुछ महीनों तक आराम करने की सलाह दी गई। रमेश भाई ने फैसला किया कि अब रिया और अर्जुन दोनों फार्महाउस में ही रहेंगे, जहाँ ताजी हवा और शांति हो।
धीरे-धीरे रिया की तबीयत में सुधार आने लगा। अब वह बिना सहारे के चलने लगी थी। चेहरे पर फिर से वही पुरानी चमक लौट आई थी और आँखों में वह रोशनी जो कभी बुझ सी गई थी, अब फिर जगमगाने लगी थी।
कई बार जब वह आईने में खुद को देखती, तो उसके होठों पर एक ही बात आती—”अगर आज मैं जिंदा हूँ तो सिर्फ अर्जुन की वजह से।”
वहीं दूसरी ओर, अर्जुन के अंदर एक सुकून था, जो उसने पहले कभी महसूस नहीं किया था। वह कहता, “साहब, मुझे लगता है जैसे मैंने किसी की नहीं, बल्कि खुद की जिंदगी बचाई है।”
रिया हर दिन उसके साथ बगीचे में टहलती। कभी फूल तोड़ती, कभी झील के किनारे बैठ जाती, और जब हवा उसके बालों को उड़ाती, तो अर्जुन बस उसे देखता रह जाता—मानो वह खुद जिंदगी को चलते हुए देख रहा हो।
समय बीतता गया। एक साल बीत गया। रिया पूरी तरह स्वस्थ हो चुकी थी और अर्जुन भी पहले से मजबूत लगने लगा था। अब दोनों का रिश्ता एक मौन समझ में बदल चुका था, जहाँ किसी को कुछ कहने की जरूरत नहीं थी।
लेकिन जिंदगी जब खुश होती है, तो अगली सुबह वह परीक्षा बनकर लौटती है।
एक शाम अर्जुन को अपने गाँव से फोन आया। माँ बीमार थी। उसने रमेश भाई से कहा, “साहब, दो-चार दिन के लिए गाँव जाना चाहता हूँ। माँ की तबीयत ठीक नहीं है।”
रमेश बोले, “जरूर बेटा, जाओ, लेकिन खुद का ध्यान रखना।”
रिया चुप थी, बस उसकी आँखों में डर था—”तुम वापस आओगे ना?”
अर्जुन मुस्कुराया, “किडनी तो तुम्हारे पास है रिया जी, अब दिल भी वही छोड़ जाऊं क्या?”
रिया बस हँस दी, पर उसकी हँसी में नमी थी।
अर्जुन गाँव गया। माँ की हालत ठीक थी, लेकिन गाँव वालों ने सवालों की झड़ी लगा दी—”अरे अर्जुन, तू तो अमीरों के यहाँ काम करता है, इतने पैसे कैसे भेजता है? कहीं अंग बेच तो नहीं दिया?”
पहले तो अर्जुन ने हँसी में टाल दिया। लेकिन जब एक रात माँ ने धीरे से पूछा, “बेटा, सच बता, तूने अपने शरीर का कुछ तो नहीं बेचा?”
तो उसके गले में शब्द अटक गए। माँ की आँखों में डर था, और गाँव वालों की जुबान पर जहर। वह कहता रहा, “नहीं माँ, मैंने कुछ गलत नहीं किया।”
पर किसी ने विश्वास नहीं किया।
कुछ दिन बाद जब माँ ने उसके पेट के पास के निशान देखे, तो वह दहाड़ मारकर रो पड़ी—”बेटा, तूने क्या कर डाला?”
अर्जुन ने उन्हें सब सच बता दिया—”माँ, मैंने किसी को जिंदगी दी है, कोई सौदा नहीं किया।”
लेकिन गाँव में अब अफवाहें फैल चुकी थीं—”अर्जुन ने किडनी बेच दी, पैसे लेकर अमीरों का नौकर बन गया।”
उसे गाँव में ताने मिलने लगे—”किसी ने कहा, शरीर बेचने वाला, तो किसी ने कहा, अपनी माँ-बाप की इज्जत मिट्टी में मिला दी।”
आखिरकार अर्जुन ने फैसला किया, “अब यहाँ रुकना ठीक नहीं।”
उसने माँ-बाप को समझाया और कहा, “एक दिन आप समझेंगे, मैंने कोई गुनाह नहीं किया।”
वह फिर सूरत लौट आया।
फार्महाउस के गेट पर जैसे ही पहुँचा, रिया दौड़ती हुई बाहर आई।
दो साल बाद पहली बार उसने उसे इतना करीब से देखा। वह चीखी, “अर्जुन, तुम आ गए!” और बिना कुछ सोचे सीधा उसके गले से लिपट गई।
रमेश और वंदना पीछे खड़े थे, उनकी आँखों में गर्व था।
वंदना बोली, “बेटा, तूने हमारी बेटी को सिर्फ जिंदगी नहीं दी, बल्कि मुस्कुराने की वजह भी दी।”
रिया ने धीरे से अर्जुन का हाथ थामा, “अब कहीं नहीं जाना, बस यहीं रहना।”
अर्जुन ने कहा, “रिया जी, मैं हमेशा यहीं रहूंगा, बस अब मुझे अपने नाम से नहीं, अपने कर्म से पहचानना।”
धीरे-धीरे दोनों के बीच का रिश्ता अब सबके सामने आने लगा। रिया उसे सिर्फ नौकर नहीं, बल्कि अपने जीवन का हिस्सा मानने लगी थी। वह जब जब मंदिर जाती, भगवान से बस यही कहती, “मेरे पास अब वह है, जिसने मुझे खुद से ज्यादा चाहा।”
उस दिन पहली बार रमेश पटेल ने भी महसूस किया कि कभी-कभी रिश्ते जात-पैसा और हैसियत से नहीं, दिल से बनते हैं।
वह अर्जुन को देखते रहे—एक गरीब घर का लड़का, जिसके पास ना पढ़ाई थी, ना पैसा। लेकिन दिल इतना बड़ा था कि उसने उनकी बेटी को नई जिंदगी दे दी। उनके भीतर कुछ बदल रहा था। जो पिता पहले सिर्फ नाम और इज्जत को सबसे ऊपर मानता था, अब पहली बार इंसानियत को सबसे बड़ा धर्म मान रहा था।
पर समाज की आँखें इतनी आसान नहीं होती। जो दुनिया बाहर से तालियाँ बजाती है, वही अंदर से पत्थर मारती है।
एक दिन फार्महाउस में कुछ रिश्तेदार आए—रिया की बुआ, मामा और कुछ नजदीकी लोग। रिया अब पूरी तरह ठीक थी, चेहरे पर मुस्कान और जीवन की चमक लौट आई थी। लेकिन जब उन्होंने देखा कि रिया उसी नौकर अर्जुन के साथ हँस-हँस कर बातें कर रही है, तो माहौल बदल गया।
बुआ ने ताने भरे स्वर में कहा, “वंदना, यह वही लड़का है ना जिसने किडनी दी थी?”
वंदना मुस्कुराई, “हाँ, बुआ जी, वही है।”
“अरे भाभी, लेकिन अब तो यह हद ही हो गई। लड़की को ठीक किया, ठीक है, पर अब तो बेटी उसके पीछे घूमती रहती है।”
रमेश पटेल चुप रहे। लेकिन उस रात जब सब चले गए, वंदना ने धीरे से कहा, “रमेश जी, लोग बातें बना रहे हैं।”
रमेश बोले, “लोगों का काम बातें बनाना है वंदना। अगर वह हमारे बेटे की जगह होता तो क्या तभी ऐसा सोचती?”
वंदना चुप हो गई।
पर समाज की जुबान किसी की दया नहीं करती। अगले कुछ दिनों में यह बात पूरे सूरत में फैल गई—”करोड़पति की बेटी अपने नौकर से मोहब्बत करती है।”
अखबारों में नहीं, पर हवाओं में यह खबर घूमने लगी थी। रिया जब भी मंदिर जाती, लोग फुसफुसाते, “वो देखो, वही है करोड़पति की बेटी।”
रिया ने एक दिन अपने पिता से कहा, “पापा, क्या गलत किया मैंने अगर मैंने उस इंसान से प्यार किया जिसने मुझे नई जिंदगी दी?”
रमेश ने बेटी की आँखों में देखा, “बेटा, गलत कुछ नहीं किया तूने, लेकिन दुनिया को समझाने में जिंदगी बीत जाएगी।”
रिया बोली, “तो फिर समझाने की कोशिश छोड़ दीजिए पापा, क्योंकि जो दिल समझ गया, उसे दुनिया की जरूरत नहीं।”
कुछ दिन बाद रमेश पटेल का जन्मदिन था। घर में बड़ा आयोजन रखा गया। सूरत के बड़े उद्योगपति, अधिकारी और समाजसेवी सब आमंत्रित थे।
रिया ने उस दिन अर्जुन से कहा, “आज रात आप भी आएंगे ना?”
अर्जुन हिचकिचाया, “नहीं रिया जी, मैं नौकर हूँ, यह मेरा स्थान नहीं।”
रिया ने मुस्कुरा कर कहा, “तुम नौकर नहीं, मेरी जिंदगी का वो हिस्सा हो जो मुझे खुद भगवान ने भेजा है।”
शाम हुई, महल जैसे बंगले में रोशनी जगमगा रही थी। रिया ने नीले रंग की साड़ी पहनी थी, चेहरे पर हल्का मेकअप, आँखों में आत्मविश्वास।
अर्जुन सफेद कुर्ता-पायजामा में सहज, शांत और विनम्र।
जब समारोह शुरू हुआ, रमेश पटेल मंच पर आए—”दोस्तों, आज मैं सिर्फ अपना जन्मदिन नहीं मना रहा, बल्कि उस जिंदगी का धन्यवाद कर रहा हूँ जो मेरी बेटी को दोबारा मिली है, और यह सब संभव हुआ एक ऐसे इंसान की वजह से जो हमारे बीच बैठा है—अर्जुन कुमार।”
सारी भीड़ चौंक गई, तालियाँ बजने लगीं, पर उसी भीड़ में कुछ चेहरे ऐसे थे जो तिरस्कार से मुस्कुरा रहे थे।
एक व्यक्ति बोला, “वाह पटेल साहब, नौकरों को अब मंच पर लाने लगे आप।”
दूसरे ने कहा, “आजकल गरीबों की कीमत बढ़ गई है। किडनी बेचकर नाम भी पा गए।”
रिया ने यह सुना और मंच पर चढ़ गई। वो माइक के सामने आई और पूरे हॉल में गूंज उठी—”हाँ, यह वही अर्जुन है जिसने अपने शरीर का हिस्सा देकर मेरी जान बचाई। जिसके बिना मैं आज इस मंच पर नहीं होती। अगर यह प्यार नहीं तो इंसानियत भी नहीं।”
सन्नाटा छा गया। वो बोली, “आज मैं सबके सामने कहना चाहती हूँ, मैं अर्जुन से प्यार करती हूँ, क्योंकि इसने मुझे जीने का मतलब सिखाया है।”
भीड़ में हलचल मच गई, कुछ तालियाँ बजीं, कुछ लोग हँसे और कुछ ने ताने मारे।
रमेश पटेल ने धीरे से माइक्रोफोन पकड़ा, “जिस लड़की को मैंने जन्म दिया, उसकी जिंदगी का हक भी उसका अपना है। अगर उसे किसी गरीब में भगवान दिखे, तो मुझे गर्व है कि मेरी बेटी ने इंसान पहचाना।”
पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा। रिया की आँखों से आँसू बह रहे थे, अर्जुन के हाथ काँप रहे थे।
वो बोला, “साहब, मैं आपकी इज्जत को बदनाम नहीं करना चाहता था।”
रमेश बोले, “बेटा, तूने मेरी इज्जत नहीं, मेरी सोच को अमीर बना दिया है।”
कुछ महीनों बाद सूरत के उसी मंदिर में, जहाँ रिया हर दिन प्रार्थना किया करती थी, वही अर्जुन और रिया ने सात फेरे लिए। गवाह थे बस भगवान, और वह सब जिन्होंने किसी दिन इंसानियत पर विश्वास किया था।
वंदना ने आँसुओं से मुस्कुराते हुए कहा, “आज मुझे समझ आया, कभी-कभी भगवान खुद नहीं आता, किसी को भेज देता है किसी की जिंदगी बचाने।”
वर्षों बाद जब अर्जुन की एक बेटी हुई, रमेश पटेल ने उसका नाम रखा “कृतिका” यानी कृतज्ञता।
उन्होंने कहा, “यह नाम हमें हमेशा याद दिलाएगा कि इंसानियत का कोई धर्म, कोई जात, कोई दर्जा नहीं होता।”
फार्महाउस की दीवारों पर अब नई हँसी गूंजती थी, जहाँ कभी आँसुओं की परछाइयाँ थीं।
रिया फूलों को देखकर कहती, “अर्जुन, तुम्हारी दी हुई जिंदगी अब सिर्फ मेरी नहीं रही, यह सबकी उम्मीद बन गई है।”
अर्जुन मुस्कुराता और कहता, “रिया जी, जिंदगी वही खूबसूरत है जो किसी और के लिए जिया जाए।”
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