करोड़पति बाप की अपाहिज बेटी के साथ नौकर ने जो किया, इंसानियत रो पड़ी, फिर जो हुआ

.
.

यह कहानी है जयपुर के गुलाबी शहर के एक बड़े बंगले गुलमोहर हाउस की, जहां रुद्र प्रताप चौधरी नाम के एक करोड़पति उद्यमी रहते थे। उनका जीवन भले ही दौलत और सम्मान से भरा था, लेकिन उनके दिल में एक गहरा दर्द छुपा था। दो साल पहले हुए एक हादसे ने उनकी पूरी दुनिया बदल दी थी। उस हादसे में उनकी पत्नी का निधन हो गया और उनकी इकलौती बेटी अनन्या चौधरी अपाहिज हो गई। अनन्या अब व्हीलचेयर पर थी और दिन भर गार्डन के एक कोने में बैठी रहती, जहां वह कभी अपनी माँ का हाथ थामकर बातें किया करती थी। उसकी आँखों में न तो खुशी थी, न कोई शिकायत, बस एक सूनी सी तन्हाई जो किसी टूटे दिल की कहानी कहती थी।

रुद्र प्रताप हर दिन अपनी बेटी के पास बैठते, उससे बात करने की कोशिश करते, लेकिन अनन्या की नजरें अक्सर दूर कहीं खोई रहतीं। डॉक्टरों ने साफ कह दिया था कि अनन्या का शरीर ही नहीं, उसका मन भी चोटिल है। उसे जीने की कोई वजह चाहिए थी, तभी दवाइयां असर करेंगी। रुद्र प्रताप ने कई कोशिशें कीं, पर घर में वही सन्नाटा था, वही बुझी हुई आँखें। गुलमोहर हाउस के भव्य और आलीशान रूप के पीछे छुपी यह खामोशी किसी भी इंसान का दिल तोड़ सकती थी।

इसी बीच घर की कुछ दीवारों की पेंटिंग का काम शुरू हुआ। ठेकेदार ने अपने कामगारों में से एक नौजवान रितिक वर्मा को भेजा। रितिक 24 साल का एक साधारण लेकिन मेहनती युवक था, जिसकी जिंदगी संघर्षों से भरी थी। लोग कहते थे कि रितिक के अंदर कुछ खास था, जो हर मुश्किल को मुस्कुराहट में बदल देता था। वह पहली बार गुलमोहर हाउस के मुख्य गेट से अंदर आया, अपने झोले में ब्रश और रंग लेकर।

पहले दिन का काम गार्डन की चारों ओर की दीवारों पर था, जो अनन्या के सामने था। वह गार्डन जहां अनन्या व्हीलचेयर पर बैठी रहती थी, हवा को देखती थी, पर उसे महसूस नहीं करती थी। रितिक ने पहली बार अनन्या को देखा। वह सफेद सूट में थी, चेहरे पर धूप की हल्की छाया थी, और उसकी आँखों में एक गहरी थकावट थी, जो किसी दर्द से भी ज्यादा भारी लग रही थी। यह नजारा रितिक के दिल में गहराई से बैठ गया।

काम करते हुए रितिक ने एक छोटी सी गलती कर दी। वह झुककर रंग की बाल्टी उठाने लगा, लेकिन उसका हाथ फिसला और पेंट का छींटा उसके कपड़ों और चेहरे पर पड़ गया। वह एक पल के लिए रुक गया, फिर खुद पर हँस पड़ा। उसने कहा, “मैंने तो दीवार से ज्यादा खुद को रंग दिया।” आसपास के मजदूर भी मुस्कुराए। इस घटना को अनन्या ने भी देखा। उसकी आँखें उठीं, और उसके होठों पर एक हल्की सी मुस्कान आई, जो उसने महीनों से नहीं दिखाई थी। यह मुस्कान केवल कुछ सेकंड की थी, लेकिन रितिक ने उसे नोटिस कर लिया।

उस समय रुद्र प्रताप बालकनी से सब कुछ देख रहे थे। उनकी भौंहें सिकुड़ीं, चेहरे पर गुस्सा था, और आवाज़ में ठंडक। वे नीचे आए और सीधे रितिक से बोले, “तू यहाँ क्या कर रहा है? काम करने आया है या तमाशा करने?” रितिक घबराया और बोला, “साहब, गलती से पेंट गिर गया था।” रुद्र प्रताप ने कड़ा लहजा अपनाया और चेतावनी दी, “अगर दोबारा ऐसी हरकत की तो निकाल दूंगा।”

तभी पीछे से अनन्या की धीमी कोमल आवाज़ आई, “पापा, गुस्सा मत कीजिए।” रुद्र प्रताप ने मुड़कर देखा तो अनन्या मुस्कुरा रही थी। उसके चेहरे पर महीनों बाद जीवन की एक हल्की झलक थी। उनकी आँखें भर आईं। उन्होंने धीरे से कहा, “अनन्या, तू हंस रही है।” अनन्या ने सिर झुका लिया, उसकी नजरें अब भी रितिक पर थीं। रुद्र प्रताप ने रितिक की तरफ देखा, अब उनके चेहरे पर गुस्सा नहीं था, बल्कि एक अनकहा एहसास था। उन्होंने कहा, “बेटा, तूने आज मेरी बेटी को हंसाया है। कई महीनों बाद उसके चेहरे पर मुस्कान आई है। यह घर तेरे बिना भी चल जाएगा, लेकिन अगर तू रह गया तो शायद मेरी बेटी फिर से जीना सीख ले।”

रितिक की आँखें भीग आईं। उसने सिर झुकाकर कहा, “साहब, अगर मेरी मौजूदगी से आपकी बेटी मुस्कुरा सकती है तो मैं खुशी-खुशी यहीं रह जाऊंगा।”

उस दिन गुलमोहर हाउस की दीवारों पर जो नया रंग चढ़ा था, वह सिर्फ पेंट का रंग नहीं था, बल्कि उम्मीदों का रंग था। पहली बार अनन्या ने मुस्कुराना सीखा और रितिक को लगा कि किसी की मुस्कान में उसकी अपनी जिंदगी छिपी है।

अगली सुबह जब रितिक काम पर लौटा तो नौकर ने बताया कि साहब ने कहा है कि अब तुम घर के अंदर की दीवारें पेंट करोगे, गार्डन की नहीं। रितिक को हैरानी हुई, पर जब उसने अंदर कदम रखा तो सामने वही गार्डन था, और गार्डन में वही लड़की थी, वही मुस्कान। अनन्या की व्हीलचेयर को थोड़ा आगे लाया गया था ताकि वह दीवारों को रंगते हुए रितिक को देख सके। उसकी आँखों में जिज्ञासा थी, जैसे वह उस लड़के को दोबारा देखना चाहती हो, जिसने उसकी जिंदगी में हलचल ला दी थी।

रितिक ने काम शुरू किया, पर इस बार वह ज्यादा गंभीर था। हर बार जब वह ब्रश उठाता, उसे महसूस होता कि कोई उसे देख रहा है। जब उसने अनजाने में मुस्कुराया तो उसकी नजरें अनन्या की नजरों से टकरा गईं। दोनों जम गए। एक ने तुरंत नीचे देखा, दूसरे ने ब्रश पर ध्यान दिया। समय धीरे-धीरे बीतता गया।

दोपहर के वक्त जब सभी मजदूर खाना खाने गए, रितिक सीढ़ियों पर बैठा था, उसके हाथ रंग में डूबे थे। वह खुद से बोला, “कभी-कभी किसी की खामोशी भी इतनी बोलती है कि शब्दों की जरूरत नहीं होती।” तभी पीछे से अनन्या की आवाज आई, “आज तुमने दीवार पर जो रंग चढ़ाया है, वह बाकी सबसे अलग लग रहा है।” रितिक ने पलटा और देखा कि अनन्या व्हीलचेयर पर थी, पर उसकी आवाज में कुछ नया था। रितिक मुस्कुराया, “शायद इसलिए कि आज किसी की नजरों की वजह से रंग में जान आ गई।” अनन्या ने हल्की मुस्कान दी, “तुम अजीब बातें करते हो।” “अजीब नहीं, सच,” रितिक ने कहा। दोनों कुछ देर चुप रहे, पर उस चुप्पी में कोई बोझ नहीं था, बस एक सहज सुकून था जैसे दोनों के बीच कुछ अनकहा साझा हो गया हो।

कुछ दिन बाद रुद्र प्रताप ने खुद रितिक को बुलाया और कहा, “बेटा, अगर तुम्हें कोई आपत्ति नहीं तो कुछ दिन और यही काम कर लो। मेरी बेटी का कमरा भी पेंट कर देना, उसे थोड़ा रोशनी चाहिए।” रितिक ने सिर झुकाकर कहा, “आप जैसा चाहें, साहब।”

रितिक का काम अब सिर्फ पेंटिंग तक सीमित नहीं रहा। वह गार्डन में फूलों की टहनियां काटता, अनन्या के कहने पर आसमान की तरफ देखता और कहता, “देखो आज के बादलों का रंग कितना प्यारा है। बस थोड़ा हिम्मत करो अनन्या जी, एक दिन आप भी इस नीले आसमान की तरह मुस्कुराने लगेंगी।” जब भी वह अनन्या जी कहता, उसके चेहरे पर वह पुरानी खिलखिलाहट लौट आती।

रुद्र प्रताप बालकनी से यह सब देखते। अब उनके चेहरे पर गुस्सा नहीं था। वे जानते थे कि यह नौजवान कोई आम मजदूर नहीं, बल्कि वह वजह है जिसकी तलाश उन्होंने डॉक्टर से लेकर मंदिर तक की थी। कभी-कभी वे नीचे उतर आते, दोनों की बातें सुनते और मुस्कुरा कर वापस चले जाते।

एक दिन अनन्या ने पूछा, “रितिक, तुम्हें रंग इतनी क्यों पसंद है?” रितिक ब्रश धोते हुए बोला, “क्योंकि बचपन से मेरी जिंदगी में कोई रंग नहीं था। पेंटिंग करते-करते सीखा कि जब बाहर की दुनिया बेरंग लगे तो दीवारों पर ही अपने सपने बना लो।” अनन्या ने कहा, “और अगर कोई दीवार ही ना मिले?” रितिक मुस्कुराया, “तो दिल को ही कैनवास बना लेना चाहिए।” अनन्या के होठों पर फिर मुस्कान आई, यह बार थोड़ी लंबी और सच्ची थी।

समय बीता, हर दिन नया रंग लाता। अनन्या अब व्हीलचेयर पर रहते हुए भी किताबें पढ़ती, कुछ लिखती, कभी गार्डन में बच्चों को खेलते देखती। रुद्र प्रताप ने नोट किया कि उसकी आँखों में फिर से चमक आ गई है। डॉक्टर ने भी कहा कि यह बहुत अच्छी प्रगति है। अनन्या ने जीने की कोशिश शुरू कर दी है।

एक शाम जब सब लोग जा चुके थे, रितिक दीवार के कोने पर आखिरी स्ट्रोक दे रहा था। अचानक उसे पीछे से धीमी आवाज सुनाई दी, “धन्यवाद।” वह पलटा तो अनन्या मुस्कुरा रही थी। उसने कहा, “तुम नहीं जानते, लेकिन तुमने मेरे अंदर कुछ बदल दिया है। पहले लगता था जिंदगी खत्म हो गई, अब लगता है शायद शुरू हो रही है।” रितिक कुछ कह न सका, उसकी आँखें भीग गईं। “अगर मैंने कुछ किया है, तो बस तुम्हारी हंसी लौट आई है। बाकी तो सब तुम्हारे अंदर था।”

रुद्र प्रताप देर तक अपनी स्टडी में बैठे रहे। वे बेटी को हंसते देख रहे थे, जो उनके लिए वरदान था। उन्होंने समझा कि कभी-कभी किसी की तन्हाई तोड़ने के लिए चमत्कार नहीं, बस किसी सच्चे दिल की मौजूदगी चाहिए होती है। उन्होंने फैसला किया कि रितिक को स्थाई रूप से वहीं रख लिया जाए, काम के लिए नहीं, बल्कि उस मुस्कान के लिए जिसने उनके घर को फिर से घर बना दिया था।

अगले दिन जब रितिक आया, रुद्र प्रताप ने कहा, “अब तू यहाँ कामगार नहीं रहेगा बेटा, परिवार का हिस्सा है।” रितिक चौंका, पर मुस्कुराया, “साहब, मेरी बेटी अब फिर से हंसने लगी है, और उसके पीछे जो वजह है, उसे मैं अपने घर से जाने नहीं दूंगा।” अनन्या बालकनी में थी, उसने सुना और हल्के से सिर झुका लिया। उसके होठों पर वह मुस्कान थी जो पहली बार आई थी, पर इस बार टिक गई थी।

गुलमोहर हाउस की दीवारों पर अब नया रंग चढ़ चुका था, जिसका नाम था उम्मीद। उस उम्मीद के हर स्ट्रोक में रितिक और अनन्या के बीच एक नया रिश्ता चुपचाप बन चुका था, जिसे शायद दोनों समझ चुके थे, पर अभी किसी ने कहा नहीं था। समय धीरे-धीरे अपनी चाल धीमी कर चुका था।

गुलमोहर हाउस की सुबह पहले जैसी ठंडी और खामोश नहीं रही। अब वहाँ हर सुबह कुछ अलग सी रौनक होती, कभी अनन्या की खिलखिलाहट की, कभी रितिक की बातों की, तो कभी उन दोनों के बीच उठती खामोशियों की, जो खुद एक अनकही कहानी कहती थीं।

रितिक अब इस घर का हिस्सा बन चुका था। वह सिर्फ दीवारें नहीं रखता था, वह जिंदगी के रंगों को अनन्या की मुस्कान में खोजता था। वह गार्डन में पौधों को पानी देता, अनन्या की किताबें मेज पर रखता, व्हीलचेयर को धूप में खींच लेता, और शाम को गुलमोहर के पेड़ के नीचे बैठकर कहानियां सुनाता। कहानियां जो उसने अपनी जिंदगी से सीखी थीं, कभी हंसी की, कभी ग़म की, और कभी उन सपनों की जो उसने खुद के लिए नहीं, दूसरों के लिए देखे थे।

अनन्या पहली बार इतने करीब से किसी साधारण इंसान से मिल रही थी, जो बिना किसी दिखावे और स्वार्थ के सिर्फ उसकी मुस्कान को अपने दिन का मकसद मान चुका था। धीरे-धीरे वह भी उस सादगी में खोने लगी। अब हर सुबह जब रितिक उसके कमरे के बाहर से गुड मॉर्निंग कहता तो वह बिना कुछ बोले मुस्कुरा देती। पर उस मुस्कान में अब एक नया रंग था, एक हल्का सा अपनापन जो खुद-ब-खुद बढ़ता जा रहा था।

एक दिन जब रितिक गुलमोहर के नीचे दीवार पर आखिरी स्ट्रोक दे रहा था, अनन्या ने धीमी आवाज़ में पूछा, “रितिक, अगर एक दिन यह सब काम खत्म हो गया तो तुम चले जाओगे ना?” रितिक कुछ पल के लिए रुका। ब्रश को हाथ में घुमाते हुए बोला, “पता नहीं, कभी-कभी कुछ जगह हमारे अंदर बस जाती है, फिर हम उन्हें छोड़कर भी कहाँ जा पाते हैं।” अनन्या ने कहा, “कभी-कभी नहीं, हर बार ऐसा होता है।”

दोनों चुप हो गए। हवा में गुलमोहर के फूल झर रहे थे और उनकी खामोशी में एक अनकही बात तैर रही थी।

रुद्र प्रताप इन दिनों अपनी बेटी की तबीयत देखकर बेहद खुश थे। अब अनन्या कभी-कभी फिजियोथेरेपी के दौरान खुद खड़ी होने की कोशिश करती। हाथों से व्हीलचेयर के हैंडल पकड़कर थोड़ी देर तक अपने पैरों पर टिकती, और हर बार जब वह थोड़ी भी देर खड़ी रह पाती, तो रितिक ताली बजाता। “अब तो बस कुछ दिन और, फिर आप मेरे साथ भाग जाएंगी,” वह कहता। अनन्या खिलखिला उठती, “भाग जाऊंगी कहाँ?” “इस गार्डन से बाहर, जहां दुनिया का रंग कुछ और है, हवा खुली है और लोग बिना वजह मुस्कुराते हैं।”

अनन्या की आँखों में उस पल एक सपना चमक उठा। वह अब सिर्फ मुस्कुरा नहीं रही थी, वह फिर से जीना सीख रही थी।

धीरे-धीरे उनके बीच की दूरियां मिटती गईं। अनन्या अब रितिक से अपनी बातें साझा करने लगी। अपनी माँ की यादें, अधूरे सपने, और वे सारी बातें जो उसने कभी किसी से नहीं कही थीं। रितिक बस सुनता रहता, कभी कुछ नहीं कहता, सिर्फ उसकी आँखों में देखकर मुस्कुरा देता, मानो कह रहा हो, “मैं समझता हूँ।”

एक शाम जब हल्की बारिश हो रही थी, अनन्या बालकनी में बैठी थी और रितिक पास था। वह अचानक बोली, “तुम्हें बारिश पसंद है?” रितिक ने आसमान की तरफ देखा, “बहुत, क्योंकि जब बारिश होती है, तो मिट्टी की खुशबू मुझे माँ की याद दिलाती है। वह भी कहती थी कि हर बूंद में भगवान का आशीर्वाद होता है।” अनन्या ने पहली बार उसे बहुत देर तक देखा। उसकी आँखों में दर्द भी था, अपनापन भी, और एक अजीब सा खिंचाव भी। रितिक की सादगी ने उसे भीतर तक छू लिया था।

अगले कुछ हफ्तों में अनन्या ने डॉक्टर की निगरानी में चलने की कोशिश शुरू कर दी। शुरुआत मुश्किल थी, पर रितिक हर बार उसके साथ रहता, उसका हाथ थामे उसकी हिम्मत बढ़ाता। वह कहता, “देखो अनन्या जी, गिरना बुरा नहीं होता, कोशिश करना बुरा होता है। तुम बस एक कदम रखो, बाकी दुनिया तुम्हारे कदमों के नीचे झुक जाएगी।”

और एक दिन चमत्कार हुआ। धीरे-धीरे कांपते कदमों से अनन्या ने व्हीलचेयर का सहारा छोड़ा और एक कदम बढ़ाया। बस एक कदम, जो पूरे गुलमोहर हाउस में गूंज गया। रुद्र प्रताप की आँखों से आंसू झर गए। उन्होंने रितिक की तरफ देखा, जो हाथ जोड़कर खड़ा था, जैसे किसी पूजा का प्रसाद बन गया हो।

उस रात अनन्या अपने कमरे की खिड़की के पास बैठी थी। बारिश फिर से शुरू हो चुकी थी। उसने बाहर झांककर देखा कि रितिक गार्डन में खड़ा था, सर पर बाल्टी रखे, बारिश में भीगते हुए, आसमान की ओर मुस्कुराता हुआ। अनन्या हंस पड़ी, दिल से।

रुद्र प्रताप अपने कमरे से बाहर आए और बेटी की हंसी सुनी। वह पल उनके लिए वरदान था। अब हर दिन रितिक के आने से पहले वह खुद तैयार होकर बैठती। कभी किताब हाथ में होती, कभी फूलों की टोकरी। दोनों की बातें अब लंबी होने लगी थीं, कभी रंगों की, कभी सपनों की, कभी उस दुनिया की जहां दोनों अपनी-अपनी तकलीफों को भूल जाते।

धीरे-धीरे उस मुस्कुराहट के पीछे एक और भावना पनपने लगी, जिसे दोनों महसूस करते थे, पर कोई बोलना नहीं चाहता था। जब रितिक उसके बहुत करीब आकर कुछ समझाता, तो अनन्या का दिल जोर से धड़कने लगता। जब वह उसे “अनन्या जी” कहता तो उसके होठों पर मुस्कान के साथ-साथ आँखों में नमी भी आ जाती।

एक शाम जब सूरज ढलने को था, अनन्या ने धीरे से कहा, “रितिक, अगर मैं फिर से पूरी तरह चलने लगी तो क्या तुम चले जाओगे?” रितिक मुस्कुराया, “अगर तुम चाहो तो जाऊंगा, पर अगर तुमने नहीं कहा तो शायद यहीं रह जाऊंगा।” उसी गुलमोहर के नीचे जहां पहली बार वह मुस्कुराई थी। उसकी आवाज़ में जो सच्चाई थी, वह हवा में घुल गई थी। अनन्या ने कुछ नहीं कहा, बस उसकी तरफ देखा और मुस्कुराई।

पर उस मुस्कान के पीछे अब एक मोहब्बत थी, जो धीरे-धीरे जन्म ले चुकी थी, पर अभी किसी ने कहा नहीं था।

दिन बीतते गए, मौसम बदलते गए, पर गुलमोहर हाउस में अब हर दिन बसंती लगा करता था। हर सुबह की धूप अनन्या के चेहरे पर खिलती थी, और हर शाम रितिक के साथ बिताई जाती थी। कभी हंसी में, कभी खामोशी में, और कभी उन नजरों में जो बहुत कुछ कह जाती थीं बिना बोले।

अब अनन्या लगभग ठीक हो चुकी थी। वह धीरे-धीरे अपने पैरों पर चल सकती थी। जब पहली बार उसने बिना सहारे चलते हुए गार्डन तक पहुंचकर कहा, “देखो, अब मैं तुम्हारे साथ चल सकती हूँ,” तो रितिक की आँखों में चमक थी, पर दिल के भीतर एक डर भी था। वह जानता था कि जिस वजह से उसे यहाँ जगह मिली थी, वह अब शायद खत्म हो रही थी।

उसी रात रुद्र प्रताप ने उसे अपने कमरे में बुलाया। उनकी आँखों में अपनापन था, लेकिन आवाज़ में गंभीरता। “रितिक, बेटे, तूने जो किया है, उसे मैं जिंदगी भर नहीं भूल सकता। तूने मेरी बेटी को फिर से जीना सिखाया है। अब वह पहले जैसी नहीं रही। अब उसे किसी की दया नहीं, बस आशीर्वाद चाहिए। मैं चाहता हूँ कि तू अपनी जिंदगी बनाए, कहीं और जाकर, किसी बड़े मकाम पर।”

रितिक चुप रहा। उसके दिल में कुछ टूट गया था। वह जानता था कि रुद्र प्रताप सही कह रहे हैं, पर वह यह भी जानता था कि उसकी दुनिया अब इसी घर के अंदर है। उस मुस्कान में, उस आवाज़ में, उस लड़की में जिसने उसे अपने भीतर बस जाने दिया था।

सुबह जब उसने अनन्या को बताया कि वह कुछ दिनों में वापस अपने गाँव जाएगा, तो अनन्या के चेहरे की मुस्कान एक पल में फीकी पड़ गई। वह कुछ नहीं बोली, बस कहा, “इतने दिनों से तुमने मेरे कमरे की हर दीवार रंगी है, एक बार दिल का भी रंग दिखा दो। रितिक, क्या सच में तुम जाना चाहते हो?” रितिक ने उसकी आँखों में देखा। उनमें सवाल नहीं, एक गहरी प्रार्थना थी। वह बोला, “कभी-कभी इंसान का दिल किसी जगह रह जाता है, अनन्या जी, पर जिंदगी उसे कहीं और जाने को मजबूर करती है। आप अब पूरी तरह चल सकती हैं, और मैं चाहता हूँ कि अब यह घर मेरी मौजूदगी नहीं, आपकी हिम्मत से रोशन हो।”

अनन्या की आँखें भर आईं। वह धीमी आवाज़ में बोली, “अगर तुम चले गए तो यह घर फिर से बेरंग हो जाएगा।” रितिक मुस्कुराया, “रंग चले जाते हैं, पर जो कैनवास पर दिल से बना हो, वह कभी मिटता नहीं।”

दिन धीरे-धीरे शाम में बदल गया। रुद्र प्रताप ने रितिक के लिए विदाई का इंतजाम किया। ड्राइवर कार निकाल चुका था। रितिक अपना छोटा सा बैग लिए बाहर आया तो देखा अनन्या गार्डन में खड़ी थी, बिना व्हीलचेयर के, दोनों पैरों पर धीरे-धीरे उसकी तरफ आती हुई। हवा में गुलमोहर के फूल उड़ रहे थे। उसने कदम बढ़ाकर कहा, “अब मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकती, क्योंकि मेरी मुस्कान तुम्हारे बिना अधूरी है।”

रितिक रुक गया। उसकी आँखों में जो नमकीन नमी थी, वह चमक बन गई। वह एक कदम आगे बढ़ा और बोला, “अनन्या जी, अब तो आप चलने लगी हैं, तो मुझे लगता है अब मुझे कहीं और भी कुछ रंग भरने हैं।” वह झुका और उसके पैर छूने लगा, पर अनन्या ने हाथ थाम लिया और कहा, “अगर जाना ही है तो यह याद रखो, जिस दिन किसी की मुस्कान की वजह बनने का मन करे तो गुलमोहर हाउस लौट आना।”

वे दोनों बस एक-दूसरे को देखते रहे। शब्द खो गए थे, बस दो आत्माएं थीं—एक जिसने जिंदगी दी, दूसरी जिसने उसे अर्थ दिया। रितिक चला गया, पर गुलमोहर हाउस अब वैसा नहीं रहा। हर शाम अनन्या बालकनी से आसमान की तरफ देखती, जहां बादल कुछ देर ठहरते और फिर उड़ जाते। वह मुस्कुरा देती, क्योंकि उसे पता था कि कहीं न कहीं किसी शहर में वह लड़का आज भी किसी की जिंदगी में रंग भर रहा होगा।

कहते हैं हर इंसान की जिंदगी में कोई न कोई रितिक जरूर आता है, जो हमें मुस्कुराना सिखाता है, जो हमें हमारी टूटी हुई हिम्मत से दोबारा जोड़ देता है। वह जरूरी नहीं कि हमेशा हमारे पास रहे, पर उसकी दी हुई उम्मीद हमेशा जिंदा रहती है।

जब जिंदगी के सारे रंग फीके पड़ जाएं, तो किसी को मुस्कुराने की कोशिश करें। कभी-कभी किसी की मुस्कान ही हमारी सबसे बड़ी जीत बन जाती है। क्या आपको भी कभी किसी ने बिना कहे जिंदगी के रंग वापस दिए हैं? तो कमेंट में जरूर बताइए और इस कहानी को उन तक जरूर पहुंचाइए जिन्हें आज मुस्कुराने की सबसे ज्यादा जरूरत है।

और हाँ, अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो वीडियो को लाइक करें, शेयर करें और हमारे चैनल को सब्सक्राइब करना न भूलें। मिलते हैं अगली कहानी में। तब तक इंसानियत निभाइए, मोहब्बत फैलाइए और जिंदगी को मुस्कुराकर जीते रहिए।