करोड़पति महिला ने मैनेजर को एक बूढ़ी भिखारिन पर पानी फेंकते हुए देखा – 5 मिनट बाद, वही बूढ़ी औरत….
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मुंबई सपनों का शहर और टूटे हुए सपनों की हकीकत। एक ऐसी जगह जहां कांच की ऊंची इमारतें सूरज को छूती हैं और उन्हीं इमारतों की परछाई में हजारों जिंदगियां फुटपाथ पर दम तोड़ती हैं। इसी चकाचौंध के बीच खड़ा था स्वर्ण महल। शहर का सबसे आलीशान रेस्टोरेंट। इसकी सुनहरी बत्तियां ऐसी लगती थीं मानो आसमान से तारे जमीन पर उतर आए हों। और इसके शीशों के दरवाजे से सिर्फ वही लोग अंदर जा सकते थे जिनकी जेबें दौलत से भरी हों। लेकिन हर शाम उन शीशों के दरवाजों के बाहर फुटपाथ के एक ठंडे कोने में एक बूढ़ी औरत बैठती थी।
उसका नाम था शांति। यह नाम शायद उसकी किस्मत का सबसे क्रूर मजाक था। क्योंकि उसकी जिंदगी में शांति के सिवाय सब कुछ था। फटी हुई साड़ी, उलझे हुए सफेद बाल और आंखों में एक ऐसा खालीपन जो सिर्फ सब कुछ खो देने के बाद ही आता है। वो भीख नहीं मांगती थी। वो बस देखती थी। वो स्वर्ण महल को ऐसे देखती थी जैसे कोई मां अपने खोए हुए बच्चे को देख रही हो।
उस शाम स्वर्ण महल के अंदर का माहौल कुछ अलग था। मैनेजर राकेश एक महंगी सिल्क की टाई पहने पसीना पोंछ रहा था। उसका रेस्टोरेंट कर्ज में डूबा था और आज एक बहुत बड़ी पार्टी, मल्होत्रा ग्रुप की सीईओ, इसे खरीदने आ रही थी। राकेश जानता था कि अगर यह सौदा हो गया तो उसकी जिंदगी बन जाएगी। उसने हर चीज को दो बार जांचा था। टेबल पर सबसे महंगे फूल, हवा में हल्की खुशबू और स्टाफ को सख्त हिदायत थी कि एक भी गलती नहीं होनी चाहिए।
तभी एक काली Mercedes आकर रुकी। राकेश लपका लेकिन उसमें से कोई बाहर नहीं निकला। गाड़ी का शीशा हल्का सा नीचे था। अंदर बैठी औरत, अदिति मल्होत्रा, बाहर की दुनिया को देख रही थी। उसकी नजरें मैनेजर पर नहीं बल्कि फुटपाथ के उस कोने पर टिकी थीं जहां शांति देवी बैठी थी। शांति देवी को आज दो दिन से खाना नहीं मिला था। उसका शरीर कांप रहा था। हिम्मत करके वो उठी और स्वर्ण महल के शीशे वाले दरवाजे तक चली गई। उसने बस अपना हाथ जोड़ा, शायद कोई बची हुई रोटी ही दे दे।
राकेश, जो पहले से ही घबराया हुआ था, अपनी नई मालकिन के सामने अपनी क्लास दिखाना चाहता था। जैसे ही उसने शांति देवी को दरवाजे पर देखा, उसका चेहरा नफरत से लाल हो गया। “यह औरत फिर आ गई,” वो चीखा, “इसे कितनी बार कहा है यहां भीख मत मांगा कर। सब गंदा कर देती है।”
शांति की आंखों में आंसू आ गए। “साहब, दो दिन से… बस थोड़ा पानी…”
“पानी?” राकेश व्यंग से हंसा। उसने वेटर के हाथ से ठंडा पानी, बर्फ से भरा जग छीना। “तुझे पानी चाहिए ना? रुक, मैं देता हूं तुझे पानी।” और अगले ही पल उसने वो बर्फीला पानी पूरी ताकत से उस बूढ़ी औरत के चेहरे पर फेंक दिया।
शांति देवी ‘नहीं’ भी नहीं कह पाई। वह कांपती हुई जमीन पर गिर पड़ी। आसपास के गार्ड और वैलेट हंसने लगे। राकेश ने अपनी टाई सीधी की जैसे कोई बहुत बड़ा काम किया हो।

उसी पल काली Mercedes का दरवाजा खुला। अंदर बैठी अदिति मल्होत्रा का चेहरा पत्थर की तरह सख्त हो चुका था। उसने सब देख लिया था। अदिति मल्होत्रा अपनी गाड़ी से बाहर निकली। उन्होंने लाखों की सिल्क साड़ी पहनी थी और उनके गले का हीरे का हार रेस्टोरेंट की बत्तियों से ज्यादा चमक रहा था। लेकिन उनकी आंखों में हीरे की चमक नहीं, फौलाद की ठंडक थी। वह धीमी, सधी हुई चाल से आगे बढ़ी, जैसे कोई शेरनी अपने शिकार की तरफ बढ़ रही हो।
राकेश, जो अभी-अभी अपनी बहादुरी पर इतरा रहा था, अदिति को अपनी ओर आते देख घबरा गया। वह लपका, अपने चेहरे पर सबसे चापलूसी भरी मुस्कान चिपकाते हुए। “मैडम, आपका स्वागत है। मैं राकेश, यहां का मैनेजर। थोड़ी गंदगी थी, बस वही साफ कर रहा था। आप अंदर तशरीफ लाइए।”
अदिति ने उसे देखा तक नहीं। उसकी नजरें जमीन पर पड़ी उस कांपती हुई बूढ़ी औरत पर थीं। वह राकेश के पास से गुजर गई जैसे वह हवा हो। स्वर्ण महल के सारे गार्ड, वैलेट और बाहर खड़े लोग जो पल भर पहले हंस रहे थे, अब सन्न रह गए थे। उन्होंने आज तक किसी अमीर को फुटपाथ की तरफ जाते नहीं देखा था।
अदिति ठीक शांति देवी के सामने आकर रुकी। शांति, जो बर्फीले पानी से सुन्न हो चुकी थी, को लगा कि शायद कोई उसे मारने आया है। उसने डर के मारे अपनी आंखें मींच लीं। लेकिन अगले ही पल उसे एक नर्म, गर्म स्पर्श महसूस हुआ। अदिति मल्होत्रा, मल्होत्रा ग्रुप की सीईओ, घुटनों के बल उस गंदे, गीले फुटपाथ पर बैठ गई थी। उन्होंने शांति देवी के कांपते हुए कंधों को छुआ।
शांति ने डरते-डरते आंखें खोलीं। उसकी धुंधली नजरों के सामने एक चेहरा था जिसकी आंखों में गुस्सा नहीं, एक अजीब सी पीड़ा थी। “मां जी,” अदिति की आवाज रुई जैसी नरम थी, “आपको चोट तो नहीं लगी?”
शांति कुछ बोल ना सकी। वह बस उस औरत को देखती रही। अदिति ने पीछे मुड़कर अपने ड्राइवर को इशारा किया। ड्राइवर एक महंगी कश्मीरी शॉल और पानी की बोतल लेकर दौड़ा। अदिति ने वो शॉल ली और बड़े प्यार से शांति देवी के गीले, फटे हुए कपड़ों पर लपेट दी। उन्होंने बोतल खोलकर शांति को पानी पिलाने की कोशिश की। “पीजिए, आराम से।”
यह सब देखकर राकेश का दिमाग घूम गया। यह हो क्या रहा है? यह करोड़पति औरत इस भिखारिन को शॉल क्यों ओढ़ा रही है? उसे लगा कि शायद उसका सौदा हाथ से निकल जाएगा। वो दौड़ कर आया। “मैडम, यह आप क्या कर रही हैं? यह गंदी है। इसे कोई बीमारी होगी। हटिए यहां से। मैं इसे फौरन भगाता हूं।”
अदिति धीरे से खड़ी हुई। अब उनकी आवाज में वह नरमी नहीं थी। वह लोहे की तरह ठंडी और भारी थी। “इसे भगाओगे?” उन्होंने राकेश से पूछा।
“जी मैडम। बिल्कुल। आप बस अंदर चलिए।”
“तुमने इस रेस्टोरेंट के मालिक को भगाने की हिम्मत कैसे की?”
राकेश की हंसी छूट गई। “मालिक? मैडम, आप शायद… ये भिखारिन है।”
अदिति की आंखें संकरी हो गईं। “मैंने तुमसे एक सवाल पूछा था। तुमने इस रेस्टोरेंट की मालिक, श्रीमती शांति देवी पर पानी फेंकने की जुर्रत कैसे की?”
एक पल के लिए वहां सन्नाटा छा गया। शांति देवी, जो पानी पी रही थी, ने भी नाम सुनकर चौंकते हुए ऊपर देखा। राकेश का चेहरा सफेद पड़ गया। “शांति देवी? मैडम, ये… ये मजाक है ना?”
“मजाक?” अदिति ने अपना फोन निकाला और एक नंबर मिलाया। “शर्मा, 5 मिनट। मुझे स्वर्ण महल के सारे ओरिजिनल प्रॉपर्टी के कागजात चाहिए। और हां, पुलिस को फोन करो। कहो मैनेजर राकेश ने रेस्टोरेंट की असली मालकिन पर जानलेवा हमला किया है।”
राकेश के पैरों तले जमीन खिसक गई। “मालकिन? लेकिन… मैं… मैं तो आपको बेचने…”
“तुम?” अदिति जोर से हंसी। “तुम क्या बेचोगे? तुम तो खुद बिके हुए हो। यह रेस्टोरेंट कभी बिकाऊ था ही नहीं। मैं इसे खरीदने नहीं आई थी।” राकेश, उसने शांति देवी की तरफ देखा जो अब भी शॉल में लिपटी, सब कुछ ना समझ पाने वाली नजरों से देख रही थी। अदिति ने अपना हाथ शांति देवी के कंधे पर रखा। “मैं इन्हें, अपनी मां को वापस घर ले जाने आई थी।”
राकेश की टांगे कांप रही थीं। उसका दिमाग सुन्न हो गया था। “मालकिन? ये… ये औरत? मैडम, आप होश में तो हैं? मैं स्वर्ण महल के असली मालिक को जानता हूं। मिस्टर विजय सक्सेना। यह रेस्टोरेंट उनका है। मैं 10 साल से यहां मैनेजर हूं।”
अदिति ने एक ठंडी हंसी दी। “विजय सक्सेना? हां, मैं उस नकारा इंसान को बहुत अच्छी तरह जानती हूं।” उसने राकेश को नजरअंदाज किया और वापस शांति देवी की ओर मुड़ी जो अब भी सदमे में थी, लेकिन अदिति के चेहरे को घूर रही थी। शांति देवी। यह नाम उनके कानों में गूंज रहा था। यह नाम तो उनका ही था। लेकिन यह नाम तो सब भूल चुके थे। दुनिया के लिए तो वह बस एक बेनाम बुढ़िया थी।
अदिति ने स्वर्ण महल के सुनहरे बोर्ड की तरफ देखा। उसकी आवाज में एक गहरा दर्द उभर आया। “यह स्वर्ण महल, इसे तुमने और तुम्हारे पति, स्वर्गीय श्रीमान रामनाथ जी ने अपनी जिंदगी भर की कमाई से बनाया था। है ना, मां?”
शांति देवी की धुंधली आंखों में अचानक एक चमक आई। “मां?” यह लफ्ज…
“यह तुम्हारे लिए सिर्फ ईंट-पत्थर की इमारत नहीं थी,” अदिति ने कहना जारी रखा, “यह तुम्हारा सपना था, तुम्हारा गुरूर था। सब कुछ कितना अच्छा था, जब तक तुम्हारे इकलौते लाडले बेटे, विजय, ने तुम्हें धोखा नहीं दिया।”
यह सुनते ही राकेश का खून जम गया। उसे सब याद आने लगा।
“उसने तुमसे धोखे से सारे कागजात पर दस्तखत करवा लिए,” अदिति की आवाज में गुस्सा कांप रहा था। “कहा कि वह रेस्टोरेंट को और बड़ा करने के लिए लोन ले रहा है। और जिस दिन यह स्वर्ण महल पूरी तरह उसके नाम हुआ, उसने अपनी सगी मां को, जिसने उसे पाल-पोस कर बड़ा किया, उसे इसी दरवाजे से धक्के मारकर बाहर निकाल दिया।”
जैसे-जैसे अदिति बोल रही थी, शांति देवी के दिमाग पर छाई धुंध छंटने लगी। उन्हें सब याद आ गया। विजय का चीखना, उसका हाथ पकड़ कर घसीटना, और… और राकेश। हां, यह राकेश ही था जो उस वक्त विजय के बगल में खड़ा बेशर्मी से हंस रहा था और गार्ड्स को हुक्म दे रहा था, “फेंक दो इस बुढ़िया को बाहर।”
शांति देवी के मुंह से एक दबी हुई चीख निकल गई। “विजय… मेरे बेटे ने…”
“तुम सड़कों पर आ गईं,” अदिति ने शांति का हाथ थाम लिया। “तुमने सब खो दिया। लेकिन तुम एक चीज भूल गई थी, मां। तुम भूल गई थी कि नेकी का जो बीज बोया जाता है, वो कभी बंजर नहीं होता।” अदिति ने अपनी तरफ इशारा किया। “20 साल पहले, इसी रेस्टोरेंट के बाहर एक 14 साल की अनाथ लड़की ठंड में ठिठुर रही थी। उसे 3 दिन से खाना नहीं मिला था। वो पढ़ना चाहती थी लेकिन उसके पास फीस के पैसे नहीं थे। तब तुम,” उसने शांति की तरफ उंगली उठाई, “जो उस वक्त मालकिन थीं, बाहर निकलीं। तुमने उसे अंदर बुलाया, अपने हाथों से खाना खिलाया, और सिर्फ इतना ही नहीं, तुमने उसकी पूरी पढ़ाई का, उसके कॉलेज तक का सारा खर्चा उठाया।” अदिति की आंखों में आंसू आ गए। “मैं हूं वो लड़की, मां। अदिति। तुम्हारी छोटी सी अदिति।”
शांति देवी की आंखें फटी रह गईं। “अदिति… बेटी… तू?”
“हां मां।” अदिति ने उनके आंसू पोंछे और फिर वो तूफान की तरह राकेश की तरफ मुड़ी। “और तुम, राकेश, तुम तो विजय के इस घिनौने पाप में बराबर के शरीक थे। तुम ही थे जिसने इन्हें बेइज्जत करके बाहर फेंकवाया था। मैं सब जानती हूं।”
“नहीं मैडम, वो तो विजय साहब का हुक्म था। मैं तो नौकर…” राकेश गिड़गिड़ाने लगा।
“हुक्म था?” अदिति गरजी। “और आज? आज किस साहब का हुक्म था कि तुमने अपनी असली मालकिन पर पानी फेंक दिया? सिर्फ इसीलिए कि वो गरीब दिख रही थी?”
तभी पुलिस की गाड़ियों के सायरन और एक काली ऑडी तेजी से आकर रुकी। ऑडी से अदिति का लॉयर, शर्मा, हाथ में एक ब्रीफकेस लिए उतरा।
“इंस्पेक्टर,” अदिति ने पुलिस वाले को बुलाया। “यह है राकेश। और वो रहा स्वर्ण महल। मैंने यह रेस्टोरेंट विजय सक्सेना से कल ही पूरी कीमत पर खरीद लिया है। और आज सुबह मैंने इसकी सारी मिल्कियत वापस श्रीमती शांति देवी के नाम कर दी है।” उसने शर्मा से कागज लिए और शांति देवी के कांपते हाथों में रख दिए। “तुम्हारा घर, मां।” फिर उसने राकेश की तरफ इशारा किया। “इंस्पेक्टर, इसे गिरफ्तार कर लो। स्वर्ण महल की मालकिन पर जानलेवा हमला करने के जुर्म में।”
इंस्पेक्टर ने अपने आदमियों को इशारा किया। दो हवलदार राकेश की तरफ बढ़े। राकेश की सारी हेकड़ी एक पल में पिघल गई। वह जमीन पर गिर पड़ा, घिसटता हुआ अदिति के पैरों तक पहुंचने की कोशिश करने लगा। “नहीं मैडम, नहीं! मुझ पर रहम कीजिए! मेरी… मेरी बीवी है, बच्चे हैं। वो सड़क पर आ जाएंगे!”
“तुम्हें उन पर पानी फेंकने से पहले सोचना था,” अदिति ने बिना किसी भावना के कहा।
राकेश पागलों की तरह मुड़ा और शांति देवी के पैरों से लिपट गया जो अभी भी अदिति के सहारे खड़ी होने की कोशिश कर रही थीं। “अम्मा… अम्मा जी, मुझे माफ कर दीजिए। मैं गधा हूं। मैंने पाप किया है। लेकिन मुझे जेल मत भेजिए। मैं आपका गुलाम बनकर रहूंगा। जो कहेंगी, करूंगा।”
शांति देवी, जिन्होंने इतने सालों में सिर्फ नफरत और तिरस्कार देखा था, अपने पैरों पर गिरे इस आदमी को देखकर कांप गईं। वह डर के मारे दो कदम पीछे हट गईं। वह भूल चुकी थीं कि मालिक होना कैसा लगता है।

अदिति ने राकेश को कॉलर से पकड़ कर पीछे खींचा। “इन्हें छूने की हिम्मत मत करना। जब तुम इन्हें ‘बुढ़िया’ और ‘गंदगी’ कहकर पानी फेंक रहे थे, तब तुम्हारा यह डर कहां था? जब इनके बेटे ने इन्हें धक्के मारकर निकाला था और तुम हंस रहे थे, तब तुम्हारी इंसानियत कहां थी? ले जाओ इसे, इंस्पेक्टर!” अदिति गरजी। “और सुनिश्चित करो कि इसे अपने किए की पूरी सजा मिले।”
पुलिस राकेश को घसीटते हुए ले गई। वो चीखता रहा, “नहीं! विजय साहब! विजय साहब, मुझे बचा लो! नहीं!”
स्वर्ण महल का पूरा स्टाफ, जो पल भर पहले अपने मैनेजर के साथ हंस रहा था, अब दीवार से सट कर खड़ा था। उनके चेहरे डर से सफेद थे। उनकी नजरों में अब शांति देवी एक भिखारिन नहीं, बल्कि एक ऐसी शक्ति थी जिसने शहर की सबसे अमीर औरत को अपने सामने झुका दिया था।
माहौल में एक अजीब सी खामोशी छा गई। सायरन की आवाज दूर जा चुकी थी। अदिति अब उस सीईओ की तरह नहीं लग रही थी। उनकी आंखों की सख्ती पिघल गई। वह मुड़ी और शांति देवी के सामने घुटनों पर बैठ गई, ठीक उसी गंदे फुटपाथ पर। उन्होंने शांति के दोनों हाथों को अपने हाथों में ले लिया। “मां,” उन्होंने धीरे से कहा।
शांति देवी की आंखों से आंसू बह निकले। यह सदमे के नहीं, बल्कि सालों बाद अपना नाम, अपनी पहचान वापस पाने के थे। “अदिति… बेटी… तूने… तूने मुझे ढूंढ कैसे लिया?”
“मैं आपको सालों से ढूंढ रही थी, मां,” अदिति ने उनके हाथों को चूमते हुए कहा। “जिस दिन मैं उस अनाथालय से निकल कर बड़ी अफसर बनी, मैंने कसम खाई थी कि मैं उस औरत को ढूंढ निकालूंगी जिसने मुझे जिंदगी दी। जब मुझे पता चला कि विजय ने आपके साथ क्या किया है, तो मैंने… मैंने पहले उसकी पूरी सल्तनत खरीदी ताकि उसे पाई-पाई का मोहताज कर सकूं। और फिर मैंने आपको ढूंढना शुरू किया।”
अदिति उठी। उन्होंने स्वर्ण महल के शीशे के दरवाजे की तरफ देखा। “यह दरवाजा, जहां से आपको बेइज्जत करके निकाला गया था,” उन्होंने अपना हाथ बढ़ाया, “आज स्वर्ण महल की मालकिन इसी दरवाजे से अंदर चलेंगी।”
शांति देवी ने अपने फटे, गीले कपड़ों को देखा। “नहीं बेटी… मैं… मैं इस लायक नहीं। मैं गंदी हूं।”
“आप गंदी नहीं हैं, मां,” अदिति ने दृढ़ता से कहा। “आपके दिल से ज्यादा साफ कोई जगह नहीं है।” उन्होंने गार्ड्स की तरफ देखा जो मूर्ति बने खड़े थे। “दरवाजा खोलो! अपनी मालकिन के लिए!”
गार्ड्स ने कांपते हाथों से दरवाजा खोला और सिर झुका लिया। अदिति ने शांति देवी का हाथ थामा और उन्हें उस दहलीज के पार ले गईं। जैसे ही शांति देवी ने अंदर कदम रखा, रेस्टोरेंट के अंदर बैठे अमीर ग्राहकों की हंसी और बातों का शोर थम गया। सब मुड़कर इस अजीब दृश्य को देख रहे थे – एक करोड़पति औरत एक भिखारिन का हाथ थामे।
तभी सीढ़ियों से एक गुस्सैल आवाज आई। “यह सब क्या बकवास है? राकेश कहां मर गया? और यह… यह भिखारिन अंदर कैसे…?”
आवाज वहीं जम गई। ऊपर से उतरता हुआ आदमी, विजय सक्सेना, अपनी मां को, शांति देवी को, अपने ही रेस्टोरेंट के बीचों-बीच खड़ा देख ठिठक गया। विजय सक्सेना, रेशमी कुर्ते और घमंड में चूर, सीढ़ियों पर ही जम गया। उसकी आंखें पहले घृणा से अपनी मां पर टिकीं, जिसे वह पहचान तो गया था लेकिन मानना नहीं चाहता था, और फिर उस महंगी साड़ी वाली औरत पर जिसे वह पहचानने की कोशिश कर रहा था।
“यह… यह क्या बकवास है?” वह गरजा। “राकेश! सिक्योरिटी! इस औरत को बाहर निकालो! कितनी बार कहा है यह यहां…?”
“राकेश को पुलिस ले गई,” अदिति ने शांति से कहा।
विजय का चेहरा उतरा। “पुलिस? क्यों? और… और तुम… तुम तो अदिति मल्होत्रा हो ना? तुम यहां खरीदने…?”
“मैं यहां खरीदने नहीं आई थी, विजय,” अदिति की आवाज पूरे हॉल में गूंज उठी, “इतना सन्नाटा था। मैं खरीद चुकी हूं।”
विजय को एक पल लगा यह बात समझने में। फिर वह हंसा, एक घबराई हुई हंसी। “खरीद लिया? अच्छा… अच्छा है। राकेश ने कहा था…”
“मैंने यह रेस्टोरेंट नहीं खरीदा है, विजय,” अदिति ने उसकी बात काटी। “मैंने तुम्हारी जिंदगी खरीद ली है।”
विजय की हंसी गायब हो गई। “क्या… क्या मतलब है तुम्हारा?”
“मतलब यह,” अदिति ने कहा, “कि तुम पिछले दो साल से भारी कर्ज में डूबे थे। जुए में, सट्टे में। तुमने स्वर्ण महल को दांव पर लगा दिया था। तुम बैंक का लोन नहीं चुका पा रहे थे।”
“तुम्हें यह सब कैसे पता?” विजय की आवाज कांप गई।
“क्योंकि जिस बैंक से तुमने लोन लिया था, वो बैंक पिछले महीने मल्होत्रा ग्रुप ने खरीद लिया है। तुम्हारे सारे कर्ज अब मेरे नाम हैं। और कल शाम जब तुम आखिरी किश्त नहीं भर पाए, तो यह स्वर्ण महल कानूनी तौर पर मेरा हो गया।”
विजय का रंग उड़ गया। वह सीढ़ियों पर लड़खड़ाया जैसे किसी ने उसकी रीढ़ की हड्डी निकाल ली हो। “नहीं… नहीं, यह नहीं हो सकता। तुम… तुम ऐसा क्यों करोगी? मेरी तुमसे क्या दुश्मनी है?”
अदिति मुस्कुराई, पर उनकी आंखों में जरा भी रहम नहीं था। वह शांति देवी के कंधे पर हाथ रखकर एक कदम आगे बढ़ी। “तुम्हारी दुश्मनी मुझसे नहीं,” अदिति ने कहा, “तुम्हारी दुश्मनी इनसे थी।”
विजय ने अब जाकर अपनी मां को सचमुच देखा। वही फटे कपड़े, वही उलझे बाल। “यह… यह बुढ़िया? इसके लिए? तुम… तुम मेरी मां को जानती हो?”
“तुमसे बेहतर जानती हूं,” अदिति ने कहा। “जब तुम इस मां के कमाए हुए पैसों पर ऐश कर रहे थे, तब यह मां, तुम्हारी मां, फुटपाथ पर भूखी सो रही थी। जब तुमने इन्हें पहचानने से इंकार कर दिया, तब मैं इन्हें ढूंढ रही थी।”
विजय अब समझ गया। यह सब एक जाल था। वह दौलत, वो ऐश, सब छिन चुका था। वह सीढ़ियों से भागा, जमीन पर गिरा और घिसटता हुआ शांति देवी के पैरों तक आया। वही नजारा जो कुछ देर पहले राकेश ने किया था। “मां!” वह चीखा, “मां, मुझे माफ कर दो! मुझसे… मुझसे गलती हो गई! मैं अंधा हो गया था, मां!”
वह शांति देवी का पैर पकड़ने ही वाला था कि अदिति ने उसे रोक दिया। शांति देवी, जो अब तक पत्थर बनी खड़ी थीं, अपने बेटे को जमीन पर गिड़गिड़ाते देख रही थीं। उसकी आंखों में नफरत नहीं थी, सिर्फ एक गहरा, अथाह दर्द था। उन्होंने अदिति का हाथ हटाया। वह धीरे से झुकीं। विजय ने उम्मीद से ऊपर देखा। शांति देवी ने कुछ कहा नहीं। उन्होंने बस अपना हाथ उठाया और अपने गीले, कांपते हाथ से अपने बेटे के सिर पर रख दिया। एक मां, जो सब कुछ हार चुकी थी, फिर भी आशीर्वाद दे रही थी।
विजय यह सह नहीं सका। वह किसी सजा से ज्यादा दर्दनाक था। वह फूट-फूट कर रोने लगा।
अदिति ने विजय को देखा, फिर शांति देवी को। “मां,” उन्होंने शांति से कहा, “यह रेस्टोरेंट अब आपका है। आप जो कहेंगी, वही होगा। आप चाहें तो मैं इसे अभी पुलिस के हवाले कर दूं।”
शांति देवी ने ‘न’ में सिर हिलाया। उन्होंने अपने बेटे को देखा जो जमीन पर बिखरा पड़ा था। फिर उन्होंने स्वर्ण महल को देखा जिसे उन्होंने अपने पति के साथ बनाया था। “मेरा बेटा,” उन्होंने धीमी, टूटी हुई आवाज में कहा, “मेरा बेटा आज से यहां बर्तन मांझेगा।”
विजय की आंखें फटी रह गईं। “बर्तन? मां, तुम… मुझसे…?” उसे लगा था मां उसे माफ कर देंगी या शायद अदिति उसे जेल भेज देगी। लेकिन यह… यह सजा मौत से बदतर थी। अपने ही रेस्टोरेंट में, उन नौकरों के सामने जिनके ऊपर वह कल तक हुक्म चलाता था, वो बर्तन मांझेगा। “नहीं मां, नहीं! इससे अच्छा मुझे पुलिस को दे दो! मैं यह जिल्लत…”
“जिल्लत?” शांति देवी की आवाज, जो अब तक कांप रही थी, पहली बार सख्त हुई। “जिल्लत वो थी जो मैंने दो साल तक हर रोज सही। जब मैं अपने ही घर के बाहर एक-एक रोटी के लिए तरस रही थी। जिल्लत वो थी जब मेरे बेटे ने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया। और जिल्लत वो थी जब आज मुझ पर पानी फेंका गया। यह जिल्लत नहीं है, विजय। यह प्रायश्चित है।”
अदिति ने विजय की तरफ देखा। उसकी आंखों में कोई हमदर्दी नहीं थी। “तुम्हारी मां ने तुम्हें एक मौका दिया है, विजय। या तो इसे कबूल करो, या फिर मैं इंस्पेक्टर को फोन करती हूं। धोखाधड़ी, जालसाजी और अपनी मां को बेघर करने के जुर्म में कम से कम 15 साल।”
जेल का नाम सुनते ही विजय की आत्मा कांप गई। 15 साल। उसने हार मान ली। उसका घमंड, उसका गुस्सा, सब उस डर के आगे पिघल गया। उसने जमीन पर पड़े हुए एप्रन को देखा।
अदिति ने हेड शेफ को बुलाया जो कोने में सहमा खड़ा था। “शेफ, आज से तुम इस रेस्टोरेंट के मैनेजर हो। और यह,” उसने विजय की तरफ इशारा किया, “यह तुम्हारा नया डिशवॉशर है। इससे वही काम करवाना जो तुम सबसे निचले स्टाफ से करवाते हो। और हां, इसकी पगार बाकी डिशवॉशर से आधी होगी। आधी पगार हर महीने इनकी मां, शांति देवी जी, के खाते में जमा होगी।”
शेफ ने कांपते हुए “जी मैडम” कहा।
अदिति अब शांति देवी की तरफ मुड़ी। उनका चेहरा वापस नरम हो गया। “मां, चलिए।”
“कहां, बेटी?”
“आपको तैयार करने।” अदिति ने अपना फोन निकाला। “हां, मेरी असिस्टेंट को कहो, शहर के सबसे महंगे स्टोर से 10 बेहतरीन साड़ियां और चप्पलें लेकर स्वर्ण महल के वीआईपी स्वीट में पहुंचे। 10 मिनट में।”
वह शांति देवी को सहारा देकर रेस्टोरेंट के बीचों-बीच से गुजरती हुई वीआईपी लिफ्ट की तरफ ले गई। सारे ग्राहक, जो अब तक सांस रोके यह ड्रामा देख रहे थे, सम्मान में खड़े हो गए। उन्होंने आज जो देखा था, वो किसी फिल्म से कम नहीं था।
विजय वहीं जमीन पर बैठा रहा। हेड शेफ, जो अब मैनेजर था, उसके पास आया। “उठो,” उसने रूखी आवाज में कहा। “रसोई उस तरफ है। सिंक गंदे बर्तनों से भरा पड़ा है।”
विजय ने अपनी जिंदगी में कभी एक गिलास पानी उठाकर नहीं पिया था। उसने अपनी लाखों की घड़ी उतारी, अपना रेशमी कुर्ता, और कांपते हाथों से वह गंदा एप्रन पहन लिया। वह उन सीढ़ियों से नीचे उतरा जो किचन की तरफ जाती थीं, जहां से हमेशा बदबू और गर्मी आती थी।
आधे घंटे बाद, स्वर्ण महल का दरवाजा फिर से खुला। लेकिन इस बार कोई भिखारिन नहीं, बल्कि एक रानी अंदर आई। शांति देवी नहा-धोकर एक खूबसूरत सी सादी सिल्क की साड़ी में थीं। उनके सफेद बाल सलीके से बंधे थे। उनके चेहरे पर दो साल का मैल नहीं, बल्कि एक खोया हुआ तेज था। अदिति उन्हें हाथ पकड़ कर उसी टेबल पर ले गई जो रेस्टोरेंट की सबसे खास, मालिक की टेबल, मानी जाती थी। स्टाफ ने झुक कर उन्हें सलाम किया। “नमस्ते मालकिन जी।”
शांति देवी ने बैठते हुए लंबी सांस ली। उन्हें लगा जैसे वह 20 साल बाद घर लौटी हों। अदिति ने उनके लिए अपने हाथ से पानी डाला। “मां, आप सच में चाहती हैं कि विजय यहां…?”
शांति देवी ने किचन के दरवाजे की तरफ देखा जहां से बर्तनों के खड़कने की जोर-जोर से आवाज आ रही थी। “बेटी, जेल पत्थर को और पत्थर बना देती है। लेकिन जब इंसान घमंड की ऊंचाई से गिरकर अपने ही फेंके हुए कचरे को साफ करता है, तब शायद उसके अंदर का इंसान जाग जाए। मैंने उसे सजा नहीं दी है। मैंने उसे सुधरने का आखिरी मौका दिया है।”
अदिति अपनी इस ‘मां’ की समझदारी को देखती रह गई। “और राकेश?” शांति देवी ने पूछा, “वो जिसने मुझ पर पानी फेंका था?”
अदिति मुस्कुराई। “उसके लिए मैंने कुछ और सोचा है।” अदिति की मुस्कान में एक अजीब सी गहराई थी। “मां, मैंने उसे गुस्से में गिरफ्तार करवाया था। लेकिन अभी विजय को देखकर और आपके फैसले को देखकर मुझे लगा कि जेल शायद किसी को इंसानियत ना सिखा सके। इंसानियत सिखाने के लिए इंसानियत के पास ही भेजना पड़ता है।”
शांति देवी ने अदिति की तरफ देखा। “मतलब, बेटी?”
“मैंने पुलिस से बात की,” अदिति ने शांति से कहा। “शिकायत वापस ले ली है। राकेश को बस एक शर्त पर छोड़ा गया है।”
अभी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि स्वर्ण महल का मुख्य दरवाजा खुला। पुलिस की जीप से उतर कर राकेश, जिसका महंगा सूट मिट्टी में सना था और टाई ढीली थी, कांपता हुआ अंदर आया। उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। उसे लगा था कि उसे नौकरी से निकाल दिया जाएगा, शायद उसे विजय के साथ ही जेल में डाल दिया जाएगा। लेकिन उसे वापस रेस्टोरेंट क्यों लाया गया? वह घिसटता हुआ उस शाही टेबल तक आया जहां शांति देवी बैठी थीं। वह अदिति को देखने की हिम्मत नहीं कर पाया। वह सीधा शांति देवी के पैरों पर गिर पड़ा। उसका माथा ठंडे संगमरमर के फर्श से लग गया।
“मालकिन जी!” वह रो पड़ा। “मालकिन जी, मुझे माफ कर दीजिए! मैं… मैं अंधा हो गया था। दौलत के नशे में मुझे इंसान नहीं दिख रहा था। मेरे बच्चे हैं, वो बर्बाद हो जाएंगे। मुझे… मुझे सड़क पर मत लाइए। मैं भीख मांगता हूं।”
शांति देवी ने उस आदमी को देखा। यह वही आदमी था जो कुछ घंटे पहले उन पर हंस रहा था। उन्होंने उस ठंडे पानी की सिहरन को फिर से महसूस किया। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने बस अपना हाथ उठाया और वेटर को बुलाया। “एक गिलास बर्फीला पानी लाओ।”
यह सुनते ही राकेश की रूह कांप गई। उसे लगा कि अब वही पानी उसके चेहरे पर फेंका जाएगा। वह डर के मारे आंखें बंद करके कांप रहा था। वेटर बर्फ से भरा पानी का जग और एक गिलास ले आया। शांति देवी ने गिलास उठाया। राकेश की सांसे रुक गईं।
शांति देवी ने गिलास राकेश की तरफ बढ़ाया। “पी लो,” उन्होंने कहा, “डर से तुम्हारा गला सूख गया होगा।”
राकेश ने कांपते हाथों से गिलास लिया। वह समझ नहीं पा रहा था, यह सजा थी या रहम। उसने एक घूंट में पानी पी लिया।
“खड़े हो जाओ,” शांति देवी ने कहा। राकेश उठा। “तुम्हें घमंड था ना कि तुम इस स्वर्ण महल के मैनेजर हो?” शांति ने पूछा। “तुम्हें नफरत थी ना उन लोगों से जो इस दरवाजे के बाहर खड़े रहते हैं?”
“मालकिन…”
“तुम्हारी नौकरी पक्की है,” शांति ने कहा, “तुम्हें कोई नहीं निकाल रहा।”
राकेश को यकीन नहीं हुआ। अदिति भी चौंक गई।
लेकिन शांति ने अपनी बात जारी रखी। “आज से तुम्हारा केबिन अंदर नहीं, बाहर होगा।” उन्होंने दरवाजे के बाहर उस फुटपाथ की तरफ इशारा किया जहां वह खुद बैठा करती थीं। “आज से स्वर्ण महल में जितना भी खाना बचेगा और जितना ताजा हम रोज बना पाएंगे, वह सब बाहर गरीबों में बंटेगा। दिन में दो बार, मुफ्त।” शांति देवी ने राकेश को घूर कर देखा। “और तुम, राकेश, तुम उस लंगर के मैनेजर होगे। तुम खुद अपनी देखरेख में वह खाना बनवाओगे और अपने हाथों से हर भूखे को परोसोगे। तुम यह सुनिश्चित करोगे कि हर इंसान को, चाहे वह कैसा भी दिखता हो, इज्जत से खाना और साफ पानी मिले।”
अदिति अब मुस्कुराई। यह थी असली सजा।
“और तुम्हारी तनख्वाह,” अदिति ने बात पूरी की, “आधी कर दी गई है। तुम्हारी आधी तनख्वाह से इस लंगर का खर्च चलेगा।”
राकेश के पास कोई चारा नहीं था। जेल जाने से या सड़क पर आने से यह हजार गुना बेहतर था। यह कम से कम एक मौका था। उसने आंसू पोंछे और हाथ जोड़े। “जी… जी मालकिन, जैसा आप कहें।”
“जाओ,” शांति ने कहा, “किचन में जाओ और देखो आज रात के लिए क्या बच सकता है। काम शुरू करो।”
राकेश मुड़ा और रसोई की तरफ चला गया। उसी रसोई में, जहां एक कोने में विजय सक्सेना घुटनों तक गंदगी में खड़ा अपनी जिंदगी की पहली प्लेट मांझ रहा था।

शांति देवी ने एक लंबी सांस ली। उन्होंने मेज पर रखे महंगे मेन्यू को देखा। “क्या आप कुछ खाएंगी, मां?” अदिति ने पूछा।
शांति ने ‘न’ में सिर हिलाया। “नहीं बेटी, मेरा पेट तो भर गया। लेकिन एक आखिरी काम बाकी है।”
“कैसा काम?”
“यह रेस्टोरेंट,” शांति ने चारों तरफ देखा, “इसे मैंने और मेरे पति ने बनाया था। लेकिन अब यह मेरा नहीं रहा।”
“मां?” अदिति को समझ नहीं आया। “यह आपका ही है। मैंने कागजात…”
“कागज जमीन के होते हैं बेटी, नीयत के नहीं,” शांति ने कहा। “यह जगह घमंड पर बनी थी। विजय ने इसे अय्याशी का अड्डा बना दिया था। मैं यहां एक पल भी सुकून से नहीं बैठ सकती।” उन्होंने अदिति का हाथ पकड़ा। “बेटी, इस स्वर्ण महल को बेच दो।”
“बेच दूं?” अदिति सन्न रह गई। “लेकिन मां, आपकी… आपकी विरासत…”
“मेरी विरासत ईंटें नहीं हैं,” शांति ने मुस्कुराते हुए कहा, “मेरी विरासत तुम हो।”
अदिति को लगा जैसे किसी ने उनके पैरों के नीचे से जमीन खींच ली हो। “बेच दूं, मां? यह… यह आपकी जीत है। आपका घर। आपने इसे वापस पाया है।”
शांति देवी ने स्वर्ण महल की महंगी सजावट, सोने की परत चढ़ी दीवारों और झूमरों को देखा। उनकी आंखों में अब कोई मोह नहीं था। “घर?” वह धीरे से मुस्कुराईं। “नहीं बेटी, यह घर नहीं, यह बाजार है। एक ऐसा बाजार जहां घमंड बिकता है और इंसानियत खरीदी जाती है। मेरे पति और मैंने इसे मेहनत और प्यार से सींचा था, लेकिन मेरे बेटे ने, विजय ने, इसे लालच और अय्याशी का अड्डा बना दिया। यहां की हवा में मेरे पति का पसीना नहीं, मेरे बेटे का धोखा घुला हुआ है। मैं यहां सुकून की सांस नहीं ले सकती।”
वह अदिति की ओर मुड़ीं। उनकी आंखें आंसुओं से नहीं, बल्कि एक नए संकल्प से चमक रही थीं। “मेरी विरासत यह ईंट-पत्थर नहीं है। मेरी विरासत वो नेकी है जो मैंने तुम में देखी थी।”
“तो फिर अब क्या करेंगी, मां?” अदिति ने पूछा, जो अब समझ चुकी थी कि वह किसी आम औरत के सामने नहीं बैठी है।
“मैं वहीं जाऊंगी जहां से मैं आई हूं,” शांति ने कहा, “फुटपाथ पर। लेकिन इस बार मैं अकेली नहीं जाऊंगी।” उन्होंने अदिति का हाथ थामा। “बेटी, इस स्वर्ण महल को बेचकर जो करोड़ों रुपए आएंगे, उससे हम इस शहर के सबसे बड़े अनाथ आश्रम और वृद्धाश्रम की नींव रखेंगे। एक ऐसा घर जहां किसी बच्चे को फुटपाथ पर भीख ना मांगनी पड़े और किसी मां को अपने बेटे के रहमोकरम पर ना जीना पड़े।” शांति की आवाज में एक दृढ़ता थी। “हम एक अस्पताल बनाएंगे जहां किसी गरीब का इलाज पैसे की कमी से नहीं रुकेगा। और हम एक ऐसी रसोई शुरू करेंगे जो 24ओं घंटे जलेगी, ‘शांति अन्नपूर्णा’, जहां कोई भी भूखा किसी भी वक़्त आकर इज्जत से खाना खा सके।”
अदिति की आंखों से आंसू बह निकले। वह एक करोड़पति सीईओ थी जिसने दुनिया जीत ली थी, लेकिन आज वह इस बूढ़ी औरत के पैरों में अपनी सारी दौलत वारने को तैयार थी।
“और विजय? राकेश?” अदिति ने पूछा, “वो दोनों?”
शांति ने किचन के दरवाजे की तरफ देखा। “यह रेस्टोरेंट बिक जाएगा, लेकिन उनका प्रायश्चित अभी बाकी है। विजय बर्तन मांझने का काम जारी रखेगा, लेकिन स्वर्ण महल में नहीं, हमारे ‘शांति आश्रम’ की रसोई में। वो उन बुजुर्गों की सेवा करेगा जिन्हें उन्हीं जैसे बेटों ने ठुकरा दिया है। और राकेश, वो ‘शांति अन्नपूर्णा’ का मैनेजर बनेगा। वो सुनिश्चित करेगा कि कोई भी गरीब, जिसे वह कभी गंदगी समझता था, भूखा ना लौटे।”
अदिति खड़ी हुई। उन्होंने शांति देवी के हाथ अपने हाथों में ले लिए और उन्हें अपने माथे से लगाया। “मां, मैं तो सोचती थी कि आज मैंने आपकी मदद की, कि मैंने आपको आपकी सल्तनत वापस दिलाई। लेकिन सच तो यह है कि आपने मुझे बचाया है। आपने मुझे सिखाया कि असली दौलत क्या होती है।”
शांति देवी ने अदिति के सिर पर हाथ फेरा। “हम दोनों ने एक दूसरे को बचाया है, बेटी। 20 साल पहले मैंने एक भूखी बच्ची में इंसानियत देखी थी। आज तुमने एक भिखारिन में उसकी मां को ढूंढ लिया। जिंदगी का यही हिसाब है। जो नेकी हम करते हैं, वह कभी जाया नहीं जाती। वो घूमकर सही वक्त पर हमारे पास जरूर लौटती है।”
कुछ ही महीनों में, स्वर्ण महल की जगह एक आलीशान हॉस्पिटल खड़ा था और उसके बगल में ‘शांति आश्रम’। विजय वहां चुपचाप फर्श साफ करता था और राकेश लंगर में पसीना बहाता था। और उस आश्रम के आंगन में, शांति देवी सैकड़ों बच्चों और बुजुर्गों के बीच बैठी, अदिति को देखकर मुस्कुरा रही थीं।
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