करोड़पति लड़की बोली – तेरे जैसे लड़के मेरे जूतों के नीचे होते हैं !

.

.

सूरज की पहली किरणें नदी के किनारे बसे छोटे से गाँव तोरथ में फैली थीं, जहाँ मिट्टी की राहें सुबह-सुबह गुलाबी धूप के रंग प करती थीं। उस पल, नदी की कल-कल आवाज़ मानो कोई मीठा संगीत बजा रही हो। इसी गाँव में जन्मा था नीरज, जिसकी आँखों में बचपन से ही संगीत की चमक थी। उसके पिता हरिदत्त मिट्टी के बर्तन बनाते थे और माँ लक्ष्मी चंदन की लकड़ी से दीपक काटकर बेचती थीं। घर की छोटी-सी झोपड़ी में हर शाम नीरज गिटार लेकर बैठता, पुरानी फिल्मी गीतों की धुनें सीखता और गाँववालों के साथ मिलकर गुनगुनाता। गाँव के बुजुर्ग कहते, “यह लड़का भविष्‍य में बड़ा संगीतकार बनेगा।”

जब नीरज आठ का हुआ, बचपन की उस मासूमियत में माँ ने उसे एक पुरानी हारमोनियम दिलाई, दादा से विरासत में मिली। माता-पिता ने मिलकर गाँव के एक दूरस्थ कोने से कुछ मिट्टी बेचकर हारमोनियम खरीदा था। तब नीरज के चेहरे पर जो ख़ुशी की लकीरें उभरीं, वे आज तक मिट न सकीं। हर शाम, नदी के किनारे मोड़ पर नीरज बैठकर अपने गीत गाता, पुराने तुलसीदास और सूरदास की काव्य-छंदों पर स्वर मिलाता। गाँव के बच्चे इकट्ठा हो जाते, तालियाँ बजाते, कभी-कभी नीरज की माँ चाय के साथ गरम पकौड़े बाँट देतीं। जीवन सरल था, पर संगीत में कुछ अद्भुत ताकत थी—जो हर किसी का दिल छू लेती।

समय बीतता गया। गाँव में स्कूल खुला, नीरज वहाँ पढ़ने लगा, पर उसकी साँसे तभी फूलतीं जब संगीत की धुन घंटियों से आगे बहे। शिक्षक ने एक दिन उसे स्कूल के वार्षिक समारोह में गीत गाने का मौका दिया। नीरज ने सामने आकर एक भजन गाया, आवाज़ इतनी मधुर थी कि प्रिंसिपल की आँखें नम हो गईं। अगले दिन अखबारों में ख़बर छपी—“गाँव का बालक बना संगीत का आशा-उजाला।” उसी ख़बर को पढ़कर शहर के बड़े कलाकार कबीर मेहता पहुँचे। उन्होंने नीरज के पिता को बुलाया और कहा, “तुम्हारे घर में वाकई कोई अनमोल रतन है। उसे शहर लीजिए, संगीत की शिक्षा कराइए।”

करोड़पति लड़की बोली – तेरे जैसे लड़के मेरे जूतों के नीचे होते हैं ! | Heart  Touching Story - YouTube

नीरज के माता-पिता के मन में द्वंद्व था। गाँव और परिवार के बंधन मजबूत थे, लेकिन संगीत की राह बुला रही थी। अंततः उन्होंने नीरज को शहर भेजने का फ़ैसला किया। एक जादुई सुबह, नीलमकंठ एक्सप्रेस पकड़ी, माँ ने उसकी पीठ पर हाथ पर रखा और कहा, “बेटे, तू अपनी धुन कभी न भूलना। गाँव की मिट्टी तुझे हमेशा बुलाएगी।” पिता ने आंखें नम कर दीं, “जब भी मन उदास हो, नदी के किनारे जाके बैठ जा, याद रखना—हम तुम्हारी धड़कन पर तालियां बजाएँगे।” ट्रेन चली गई, और नीरज खिड़की से झाँकता हुआ गाँव की दूर होती रेखा को देखता रहा।

मुंबई का पहला दृश्य बिलकुल अलग था—ट्राफिक, ऊँची इमारतें, भीड़-भाड़ और चमकती होर्डिंग्स। नीरज के हाथों में एक पुराना बैग था, उस पर माँ ने सिलाई की एक रंग-बिरंगी रचावट चिपका रखी थी। जब उसने कॉलेज की सीढ़ियाँ चढ़ीं, तो हर कदम के साथ उसके मन में उम्मीद के साथ-साथ बेचैनी भी थी। वहाँ से लेकर गोदरेज संगीत अकादमी तक पहुँचने में उसे एक महीना लगा, क्योंकि राह में किराए का कमरा, बिजली का बिल और एक दोपहर बिना खाना गुज़ारना पड़ गया। लेकिन हर मुश्किल के बाद जब वह हारमोनियम खोलता, केवल उसकी आवाज़ और स्वर गूंजते, जगत की सारी उलझनें मानो गायब हो जातीं।

अकादमी में प्रोफ़ेसर रीता खान ने नीरज की प्रतिभा को पहली झलक में पहचान लिया। उन्होंने उसे रियाज़ के नए–नए सुर सिखाए, ताल की बारीकियाँ समझाईं, सुर ताल का मेल बताया। हर दिन दोपहर से लेकर शाम तक घंटों बैठकर नीरज अभ्यास करता, कभी-कभी ख़ुद को थका महसूस करके आँखें बंद कर लेता। एक बार उसने गाँव की धुंधली यादें आँखों के आँगन में सजा लीं, और अगले क्षण उसकी उँगलियाँ हैरान कर देने वाले राग बुन रही थीं। जब प्रोफ़ेसर ने उसकी प्रगति देखी तो कहा, “तुम्हारे सुरों में सच्चाई है, जो हर दिल को छू जाएगी।”

अकादमी में कुछ छात्र घमंडी भी थे—जिन्हें पैसे और पोज़ करने वाली गद्दियाँ पसंद थीं। वे नीरज के साथ दोस्ती न करते हुए छिछोरे ताने देते, कहते, “यह गाँव का बच्चा डरता-डरता आया है, शहर की ठंडी हवा जरा भाती नहीं। देखा जाएगा।” पर नीरज मुस्कुराता और रियाज़ की अगली परत सुनता रहता। कुछ हफ़्तों में उसकी आवाज़ में वो आत्मविश्वास आ गया कि लोग तालियाँ बजाने लगे। एक इवेंट में उसने तुलसीदास का दोहा मधुर लय में प्रस्तुत किया—जिसे सुनकर कई वरिष्ठ कलाकारों ने पाला-सी थपथपाई, और भीड़ ने तालियाँ बजाकर उसकी साँसों को नया जीवन दिया।

समय जैसे खींचा चला गया। दो साल बाद वह उसी अकादमी का सबसे चमचमाता नाम बन चुका था। बड़ी-बड़ी कंपनियों में उसे आमंत्रितियाँ आने लगीं। शादी-समारोह, कॉफ़ी हाउस, शास्त्रीय संगीत समारोह, हर जगह लोग उसका नाम ले रहे थे। पर नीरज का मन कहीं अंदर टूट रहा था, क्योंकि उसे अब भी पता था—उसके सुरों के पीछे उसकी मिट्टी थी, गाँव की नदी थी, माँ के हाथ की चाय थी। एक रात जब शहर की रोशनी उससे झाँककर बोली, “अब तू मेरा हो लिया है,” तो नीरज ने जवाब दिया, “मैं वहीं जाऊँगा जहाँ मेरी धड़कन मेरी मिट्टी के गीत गाएगी।”

अगले दिन ही उसने एक ख़त लिखा—प्रोफ़ेसर रीता को, जिसमें उसने बताया कि वह गाँव लौटना चाहता है। उपहार स्वरुप 50 हजार रूपये अकादमी को दान किए, ताकि वहाँ से भी किसी गाँव के बच्चे की प्रतिभा उजागर हो सके। सब हैरान रह गए, पर प्रोफ़ेसर ने आँसू पोछकर कहा, “तुम्हारे सुरों में जो सच्चाई है, उसे तुम्हें बचाकर रखना चाहिए।” नीरज ने मुस्कुरा कर सिर हिलाया। फिर एक सर्द सुबह वह मुंबई से चल पड़ा, ट्रेन की पटरियों पर चलता उसका मन दूर-दूर तक आवाज़ भर रहा था।

वापसी पर गाँव में उत्सव हुआ। नदी के किनारे मंच सजाया गया, मिट्टी की झोपड़ियाँ पेंट की गईं, और पास के तालाब में दीप जलाए गए। नीरज पहुँचा तो माँ बस रही थी, हाथ में चाय की टकिया लिए। पिता ने उसका गिटार और हारमोनियम उठाकर गले लगाया। गाँव और शहर—दोनों जगह उसने पहचान बना ली थी, पर असली मिलन तो वहाँ था जहाँ मिट्टी की खुशबू, नदी की ठंडी लहरियाँ और माँ की प्यार भरी मुस्कान थी।

नीरज ने गाँव में संगीत स्कूल की नींव रखी। एक पुरानी हवेली से उसने तीन कमरों को क्लासरूम बनाया, चार आयुर्वेदिक फूलों की कलियों से सजाया। गाँव के बच्चे जो नदी के किनारे गेंद के साथ खेलते थे, अब सुबह-शाम सुर ताल सीखते। बुलंद सुर से शास्त्रीय ठुमरी, फिल्मी गीत से लोक-कला तक, हर धुन पर उन्होंने तालियाँ बजाईं। गाँववाले भी हैरान थे—पहले खेतों में हल चलाते थे, अब सुर-ताल पर नाचने लगे थे। नीरज ने गाँव के लिए एक संगीत उत्सव अखरोट महोत्सव की योजना बनाई—हर साल बरसात के मौसम में नदी के किनारे स्थानीय लोकगीत, शास्त्रीय प्रस्तुति, बच्चें और बड़े सब संग झूमते।

शहर की करोड़पति लड़की जब गाँव के चरवाहे लड़के का कर्ज चुकाने पहुंची, फिर जो  हुआ... | Emotional s... - YouTube

समय की गहराई में जब नदी का पानी अपना प्रवाह बदलता, तो अखरोट महोत्सव में हजारों लोग इकट्ठा होते। शहर से भी कलाकार आते, मीडिया रिपोर्टर फोटो लेते, लेकिन अफ़साने सुनने आते—“कहाँ से आया यह गाँव का बेटा, जिसने संगीत की संस्कृति को सहेजकर गाँव में ही ज्यों दावत बाँट दी।” गाँव की अर्थव्यवस्था भी धीरे-धीरे सुधरी; यात्रियों के खाना-पीना, रहने का ज़्यादा काम बढ़ा, छोटे-छोटे गेस्ट हाउस बने, मिट्टी के लोटे और लोक-संगीत की सीडी बिकने लगीं। नीरज ने गाँव के कर्ज़े चुकाने के लिए पयासी धरती पर अपनी धुन बरसाई थी।

एक बरस बाद अखरोट महोत्सव में एक नई मिसाल हुई। नीरज ने दो हजार रूपये में बनाई एक ऑर्गन पाइप बीन ली, जिसे उसने नदी के किनारे पीपल के पेड़ से उकेरी लकड़ियों पर बीम से चढ़ाया था। उस पाइप ऑर्गन की धुन ने नदी के पानी को ठिठोर कर रख दिया, सुरों में ऐसा जादू घुला कि लोग तालियाँ पीटते रह गए। बचपन के साथी गाना गुनगुनाए, महिलाएँ साड़ियों में सरपट डांस करने लगीं, बूढ़े अपनी दाड़ी सहलाते थे और बच्चों की तो बात ही निराली थी—वे काग़ज़ के झंडे बनाए, “हमारे नीरज की झलक देखो” लिखे, और ऐसा शोर मचाया मानो बारिश आई हो।

इसी आयोजन के दौरान दूर से आकर एक मशहूर संगीत नाटक सम्राट, मेजर रघुवीर सिंह, खड़े थे। उन्होंने मंच पर आकर नीरज को गले लगाया और कहा, “मैंने तुम्हें मुंबई की चकाचौंध में भी सुना, पर यही असली कला है—जो मिट्टी से उपजी हो। मैं चाहता हूँ कि तुम देश-विदेश की महफ़िलों में जाओ और ये गाँव तुम्हारा कद कम मत होने दो।” नीरज ने झुककर नमन किया, “सर, मेरा घर यहाँ है—जहाँ हर सुर पर तालियाँ गूँजती हैं।”

समय की रेत पर यह कहानी यूँ ही नज़र नहीं बिखरी। आज भी जब कोई अखरोट महोत्सव का नाम सुनता है, तो उसे नीरज की मासूम मुस्कान और उसकी उँगलियों की वो सुरीली आहट याद आती है, जिसने गाँव को शहरों में चमकते तख़्तों से ज़्यादा रोशन कर दिया। वहीं नदी अब भी कल-कल बहती है, कभी-कभी किनारे पर बैठी उस झोपड़ी से रागिनी बजती है, और बच्चे सुनते हुए उसके सुरों पर थाप दे देते हैं।

नीरज ने अपने परिवार को कर्ज़ से आज़ाद कराया, गाँव के स्कूल में संगीत की पाठशाला खोली, हर बच्चे के लिए हारमोनियम और गिटार की व्यवस्था की, और हर बरसात में अखरोट महोत्सव का आयोजन करता रहा। उसके सुरों ने लोगों के दिलों में आत्मविश्वास भरा: “हम दुर्लभ नहीं, प्रतिभाशाली हैं। हमारी मिट्टी हमारी पहचान है।”

एक दिन जब नीरज नदी किनारे वहीँ उबड़-खाबड़ पक्की सड़क परियोजना का उद्घाटन कर रहा था, तब गाँव के सरपंच ने उसे मंच पर बुलाकर कहा, “बड़ी खुशी है कि हमारा बेटा दुनिया में पहचान बना रहा है।” नीरज ने मुस्कुरा कर हाथ जोड़ा, “समाज की पहचान उसके संगीत में, उसकी एकता में और हमारी संस्कृति में छिपी है। अगर कुछ सीखना हो तो यहाँ आइए, नदी के पास बैठिए, मिट्टी की खुशबू में राग ढूँढ़िए।”

और इस तरह एक छोटे से गाँव के बच्चे की धुन ने न केवल संगीत जगत में जगह बनाई, बल्कि गाँव की तस्वीर ही बदल दी—जहाँ पहले सूनी राहें थीं, अब सुरों की लहरें थीं; जहाँ पहले सिर्फ भीड़ का शोर था, अब तालियों की गड़गड़ाहट सुनाई देती थी। जीवन ने फिर साबित किया कि सच्ची प्रतिभा को पोषण मिल जाए तो दूर तलक नूर फैलता है, और मिट्टी की लहू अगर सुरकारी हो तो पत्थर भी सुर-ताली में झूम उठते हैं।