किसान बुजुर्ग को ट्रैफिक पुलिस ने रोक कर परेशान किया, तो उसने कहा प्रधानमंत्री से बात करवाओ, फिर जो
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क्या होता है जब सत्ता का छोटा सा नशा इंसान को अंधा कर देता है? क्या होता है जब वर्दी का रब एक गरीब की लाचारी पर भारी पड़ने लगता है? क्या दौलत और पद सच में इंसानियत और खून के रिश्तों से बड़े हो जाते हैं? यह कहानी एक ऐसे ही गरीब बेबस किसान की है जिसकी सफेद दाढ़ी में जिंदगी के कई दशकों का तजुर्बा छिपा था। और एक ऐसे नौजवान ट्रैफिक पुलिस वाले की है जिसके कंधों पर लगे सितारे उसके जमीर पर गर्द की तरह जम गए थे।
जब शहर के सबसे व्यस्त चौराहे पर इन दो किरदारों का आमना-सामना हुआ, तो किसी ने नहीं सोचा था कि एक मामूली सी झड़प एक ऐसे तूफान को जन्म देगी जो पूरे देश को हिला कर रख देगा। उस बूढ़े किसान के एक वाक्य ने, “मेरी बात प्रधानमंत्री से करवाओ,” एक ऐसा बवंडर खड़ा कर दिया जिसके अंत में जो सच सामने आया, उसने हर किसी के पैरों तले जमीन खिसका दी।
गांव रामपुरा
उत्तर प्रदेश के सुदूर देहात में एक छोटा सा अनजाना सा गांव था रामपुरा। इस गांव की गलियां कच्ची थीं और यहां के लोगों के सपने भी उन गलियों की तरह ही जमीन से जुड़े हुए थे। इसी गांव के एक छोर पर एक पुराना खपरैल का मकान था, जिसकी दीवारें समय के थपड़ों से जर्जर हो चुकी थीं। इसी घर में रहता था एक बूढ़ा किसान बलवंत सिंह। 70 साल की उम्र पार कर चुके बलवंत की आंखों में एक अजीब सी गहराई थी और उसके चेहरे की झुर्रियां उन अनगिनत फसलों की कहानियां कहती थीं जिन्हें उसने अपने खून पसीने से सींचा था।
उसकी पत्नी सालों पहले एक लंबी बीमारी के बाद चल बसी थी और अब इस दुनिया में उसका अपना कहने को सिर्फ एक बेटा था, सूरज। बलवंत ने अपनी पूरी जिंदगी जमीन के एक छोटे से टुकड़ों को जोतने में लगा दी थी। उसने कभी हार नहीं मानी। चाहे सूखा पड़े या बाढ़ आए, उसकी सबसे बड़ी पूंजी, उसका स्वाभिमान और उसकी ईमानदारी थी। उसने अपने बेटे सूरज को भी यही संस्कार दिए थे। वह चाहता था कि उसका बेटा पढ़ लिखकर एक बड़ा आदमी बने, ऐसा आदमी जिसे गांव के खेतों में अपनी जिंदगी ना खपानी पड़े।

सूरज पढ़ने में बहुत होशियार था। उसकी आंखों में बड़े-बड़े सपने थे शहर जाने के, अफसर बनने के। बलवंत ने अपनी हर जरूरत को मारकर, पेट काटकर सूरज की पढ़ाई में कोई कमी नहीं आने दी। उसने गांव के साहूकार से ऊंचे ब्याज पर कर्ज लिया और अपनी जमीन का एक हिस्सा गिरवी रख दिया। लेकिन सूरज की किताबों और फीस के लिए पैसे कभी कम नहीं पड़े। सूरज ने भी अपने पिता की मेहनत को जाया नहीं जाने दिया। उसने दिन-रात एक करके पढ़ाई की और आखिरकार उसकी मेहनत रंग लाई। वह पुलिस की परीक्षा में पास हो गया और ट्रैफिक पुलिस में सब इंस्पेक्टर के पद पर उसकी नियुक्ति हो गई।
सूरज का बदलाव
जिस दिन सूरज वर्दी पहनकर पहली बार गांव आया, बलवंत की छाती गर्व से चौड़ी हो गई थी। उसने पूरे गांव में मिठाइयां बांटी थीं। उसे लगा था कि अब उसके दुख के दिन खत्म हो गए हैं। उसका सूरज अब पूरे इलाके में रोशनी फैलाएगा। लेकिन शहर की चकाचौंध और वर्दी की ताकत ने सूरज को धीरे-धीरे बदलना शुरू कर दिया था। वह अब रामपुरा का भोला-भाला सूरज नहीं रहा था। वह बन गया था सब इंस्पेक्टर सूरज प्रकाश। शहर की हवा उसे लग चुकी थी। उसे अपना गांव, अपने गांव के लोग और अपना बूढ़ा फटेहाल बाप अब शर्मिंदगी का सबब लगने लगे थे।
वह गांव आना कम कर देता। जब कभी आता भी तो अपने पिता से ठीक से बात नहीं करता। उसे बलवंत के फटे पुराने कपड़े, उसके गंदे हाथ-पैर और उसकी देहाती बोली से नफरत होने लगी थी। वह अपने दोस्तों और सहकर्मियों से अपने पिता के बारे में झूठ बोलता था कि वे गांव के एक बड़े जमींदार हैं। बलवंत को यह सब महसूस होता था। लेकिन वह खुद को यह कहकर तसल्ली दे लेता था कि काम की वजह से बेटा परेशान रहता होगा। वह आज भी उसी शिद्दत से अपने खेतों में मेहनत करता रहा।
समय बीतता गया। सूरज ने शहर में अपना घर बना लिया, शादी कर ली, लेकिन उसने अपने पिता को एक बार भी अपने साथ शहर ले जाकर रखने की बात नहीं की। बलवंत अकेला ही गांव में अपनी जिंदगी के दिन काट रहा था। उसके दिल में एक टीस उठती थी, लेकिन वह अपने बेटे की खुशी में ही अपनी खुशी देखता था।
कर्ज का बोझ
कई साल बीत गए। लगभग 15 साल का एक लंबा अरसा गुजर चुका था। इन 15 सालों में गंगा में बहुत पानी बह चुका था। बलवंत अब और भी बूढ़ा और कमजोर हो गया था। उसके हाथ-पैरों में अब उतनी ताकत नहीं रही थी। खेतों का काम भी अब उससे ठीक से नहीं हो पाता था। गांव में सूखा पड़ा, फसलें बर्बाद हो गईं और साहूकार का कर्ज ब्याज के साथ मिलकर एक पहाड़ बन चुका था। आखिरकार साहूकार ने उसकी बची-खुची जमीन भी अपने नाम करवा ली। अब बलवंत के पास कुछ नहीं था। वह पाई-पाई को मोहताज हो गया। कई-कई दिन उसे फाकों में गुजारने पड़े।
उधर शहर में सब इंस्पेक्टर सूरज प्रकाश अब इंस्पेक्टर बन चुका था। इन 15 सालों में उसने वर्दी की ताकत का भरपूर इस्तेमाल किया था। उसने गलत तरीकों से बहुत पैसा कमाया था। रिश्वतखोरी और उगाही उसकी आदत बन चुकी थी। उसके पास एक आलीशान बंगला था, महंगी गाड़ियां थीं और शहर के बड़े-बड़े लोगों से उसका उठना-बैठना था। वह अपनी जिंदगी में इतना मशगूल हो गया था कि उसे शायद यह भी याद नहीं था कि रामपुरा गांव में उसका एक बूढ़ा बाप भी है जो शायद जिंदा भी है या नहीं।
बूढ़े का संघर्ष
एक दिन बलवंत की तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गई। गांव के डॉक्टर ने कहा कि शहर के बड़े अस्पताल में दिखाना पड़ेगा। इलाज में बहुत खर्चा आएगा। बलवंत के पास एक रुपया भी नहीं था। गांव वालों ने थोड़ा बहुत चंदा करके उसके बस का किराया जुटाया। बलवंत के मन में एक उम्मीद की किरण जागी। उसे लगा कि उसका बेटा, उसका सूरज अब तो उसकी मदद जरूर करेगा। आखिर है तो उसका ही खून।
वह फटे पुराने मैले कपड़ों में एक हाथ में लाठी और दूसरे हाथ में एक छोटी सी पोटली लिए शहर की बस में बैठ गया। शहर पहुंचकर वह किसी तरह लोगों से पूछते-पूछते उस पते पर पहुंचा जहां उसका बेटा रहता था। एक आलीशान कोठी के सामने खड़े होकर उसे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ। उसने सोचा, क्या यह वही सूरज है जिसे उसने टपकती छत के नीचे पाला था। उसकी हिम्मत नहीं हुई कि वह दरवाजा खटखटाए। वो बाहर ही फुटपाथ पर बैठ गया। अपने बेटे के आने का इंतजार करने लगा।
शाम को एक चमचमाती हुई गाड़ी कोठी के गेट पर आकर रुकी। उसमें से इंस्पेक्टर सूरज प्रकाश उतरा। उसने गेट के पास बैठे उस गंदे बूढ़े भिखारी को देखा तो उसके माथे पर बल पड़ गए। उसने दूर से ही चिल्लाकर कहा, “ए बुड्ढे, यहां क्यों बैठा है? चल भाग यहां से।” बलवंत का दिल कांप गया। उसने कांपती हुई आवाज में कहा, “बेटा सूरज, मैं हूं तेरा बापू बलवंत।”
सूरज ने जैसे ही यह सुना, उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। उसे डर लगा कि अगर किसी ने देख लिया कि यह फटेहाल बुड्ढा उसका बाप है, तो उसकी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी। वो गुस्से से आग बबूला हो गया। वो तेजी से बलवंत के पास आया और उसका हाथ पकड़कर घसीटते हुए बोला, “कौन बापू, कैसा बापू? मैं नहीं जानता तुझे, कहां से चले आते हैं ये भिखारी?” उसने बलवंत को धक्का दे दिया। बूढ़ा बलवंत सड़क पर गिर पड़ा। उसकी पोटली खुल गई और उसमें से एक पुरानी मुड़ी-तुड़ी तस्वीर निकली। यह सूरज के बचपन की तस्वीर थी जिसमें बलवंत ने उसे अपने कंधों पर बिठा रखा था।
सूरज ने उस तस्वीर को देखा, लेकिन उसकी आंखों का पानी मर चुका था। उसने अपने गार्ड को बुलाया और कहा, “इस भिखारी को यहां से भगाओ और दोबारा इस इलाके में नजर ना आए।” गार्ड ने बलवंत को धक्के मारकर वहां से भगा दिया। बलवंत रोता रहा। चीखता रहा। “बेटा ऐसा मत कर, मैं मर जाऊंगा।” लेकिन सूरज ने एक ना सुनी और अपनी कोठी के अंदर चला गया।
बिखरता हुआ सपना
बलवंत पूरी तरह से टूट चुका था। जिस बेटे के लिए उसने अपनी जिंदगी दांव पर लगा दी, उसी ने उसे पहचानने से इंकार कर दिया। वो भूखा-प्यासा, बीमार शरीर लेकर शहर की सड़कों पर भटकने लगा। उसके पास ना तो गांव वापस जाने के पैसे थे, ना ही कहीं और जाने का ठिकाना। वह मंदिरों और गुरुद्वारों के बाहर बैठकर लोगों की दी हुई भीख से अपना पेट भरने लगा।
समय का चक्र घूमता रहा। बलवंत की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। लेकिन शायद कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन शहर में देश के प्रधानमंत्री का दौरा था। हर तरफ सुरक्षा के कड़े इंतजाम थे। चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात थी। प्रधानमंत्री का काफिला शहर के मुख्य चौराहे से गुजरने वाला था। उसी चौराहे पर ट्रैफिक कंट्रोल करने की जिम्मेदारी इंस्पेक्टर सूरज प्रकाश की थी। वह अपनी वर्दी की अकड़ में चूर गाड़ियों को रोक रहा था। लोगों पर चिल्ला रहा था।
वापसी का समय
उसी समय बूढ़ा बलवंत, जो अब लगभग एक भिखारी का जीवन जी रहा था, धीरे-धीरे सड़क पार करने की कोशिश कर रहा था। वो बहुत कमजोर था और ठीक से चल भी नहीं पा रहा था। सूरज की नजर उस पर पड़ी। उसे यह याद नहीं आया कि यह वही बुड्ढा है जिसे उसने अपने घर के दरवाजे से भगाया था। उसके लिए वो सिर्फ एक और भिखारी था जो वीआईपी मूवमेंट में खलल डाल रहा था।
वो गुस्से में बलवंत की तरफ लपका और उसका हाथ पकड़कर झंझोड़ते हुए बोला, “दिखता नहीं है तुझे, प्रधानमंत्री जी का काफिला आने वाला है और तू यहां बीच सड़क पर क्या कर रहा है? चल हट यहां से।” बलवंत ने लड़खड़ाती आवाज में कहा, “साहब, बस सड़क पार कर लेने दो। बहुत कमजोरी लग रही है।”
सूरज का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। उसने बलवंत को एक जोर का थप्पड़ जड़ दिया। 70 साल का बूढ़ा बलवंत उस थप्पड़ का जोर सह नहीं पाया और सड़क पर गिर पड़ा। उसके माथे से खून बहने लगा। चौराहे पर खड़े सब लोग यह देख रहे थे लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि एक पुलिस इंस्पेक्टर के खिलाफ कुछ बोले। बलवंत जमीन पर पड़ा हुआ था। उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था। लेकिन उस थप्पड़ ने उसके अंदर के सोए हुए स्वाभिमान को जगा दिया था।
सच्चाई का सामना
उसने अपनी सारी बची खुची ताकत को समेटा और जमीन पर पड़े-पड़े ही बोला, “तू मुझे मारेगा, तू जानता नहीं मैं कौन हूं।” सूरज हंसा। उसका अहंकार बोला, “कौन है तू? एक दो कौड़ी का भिखारी, तेरी औकात क्या है?” बलवंत ने अपनी कांपती हुई उंगली सूरज की तरफ उठाई और भरे चौराहे पर चिल्ला कर कहा, “मेरी औकात, तू मेरी औकात की बात करता है। मेरी बात अभी के अभी प्रधानमंत्री से करवाऊं। मैं उन्हें बताऊंगा कि उनके पुलिस क्या कर रही है।”
यह सुनते ही सूरज और वहां मौजूद दूसरे पुलिस वाले जोर-जोर से हंसने लगे। लोगों की भीड़ भी जमा हो गई थी। सब उस बूढ़े भिखारी का मजाक उड़ा रहे थे। एक भिखारी जो प्रधानमंत्री से बात करना चाहता था। सूरज ने मजाक उड़ाते हुए कहा, “अच्छा, प्रधानमंत्री से बात करेगा तू? रुक, मैं करवाता हूं तेरी बात।” उसने अपने एक सिपाही को इशारा किया। सिपाही ने अपना डंडा निकाला।
लेकिन तभी कुछ ऐसा हुआ जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। प्रधानमंत्री का काफिला तय समय से थोड़ा पहले ही उस चौराहे पर पहुंच गया था। प्रधानमंत्री की गाड़ी थोड़ी दूरी पर ट्रैफिक में फंसी हुई थी। उनकी नजर चौराहे पर जमा इस भीड़ पर पड़ी। उन्होंने अपने सुरक्षा प्रमुख से पूछा कि मामला क्या है? जब उन्हें बताया गया कि एक पुलिस वाला एक बूढ़े आदमी को मार रहा है, तो उन्होंने तुरंत गाड़ी रोकने का आदेश दिया।
प्रधानमंत्री का हस्तक्षेप
प्रधानमंत्री अपनी गाड़ी से उतरे और भीड़ की तरफ बढ़ने लगे। उन्हें अपनी तरफ आता देख सूरज और बाकी पुलिस वालों के होश उड़ गए। उनके हाथ-पांव फूल गए। सूरज ने जल्दी से बलवंत को उठाने की कोशिश की, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। प्रधानमंत्री सीधे बलवंत के पास पहुंचे जो अभी भी जमीन पर पड़ा हुआ था और जिसके माथे से खून बह रहा था।
उन्होंने नीचे झुककर बलवंत को सहारा देकर उठाया। उन्होंने अपनी जेब से रुमाल निकालकर उसका खून पोछा। उन्होंने बहुत ही विनम्रता से पूछा, “क्या हुआ बाबा, आप ठीक तो हैं?” बलवंत की आंखों में आंसू थे। उसने प्रधानमंत्री की तरफ देखा और कांपती हुई आवाज में कहा, “साहब, इंसाफ चाहिए। इस वर्दी वाले ने मुझे बिना किसी वजह के मारा।”
प्रधानमंत्री ने गुस्से से इंस्पेक्टर सूरज की तरफ देखा। सूरज डल के मारे कांप रहा था। प्रधानमंत्री ने पूछा, “क्यों मारा तुमने इन्हें? यह तो तुम्हारे पिता की उम्र के हैं।” सूरज की जुबान लड़खड़ा गई। वो बोला, “सर, यह वीआईपी रूट पर ट्रैफिक रोक रहे थे।”
तभी भीड़ में से किसी ने चिल्लाकर कहा, “झूठ बोल रहा है साहब, यह बुजुर्ग तो सिर्फ सड़क पार कर रहे थे। इन्होंने ही इन्हें धक्का दिया और थप्पड़ मारा।” प्रधानमंत्री का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उन्होंने अपने सुरक्षा प्रमुख को आदेश दिया, “इस इंस्पेक्टर को तुरंत सस्पेंड करो और इसके खिलाफ सख्त से सख्त कानूनी कार्यवाही करो।”
सूरज के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसकी सारी अकड़, सारा नशा एक पल में उतर गया। वो गिड़गिड़ाने लगा। “सर, माफ कर दीजिए सर। गलती हो गई।” लेकिन प्रधानमंत्री ने उसकी एक ना सुनी। फिर वे बलवंत की तरफ मुड़े और बोले, “बाबा, मैं शर्मिंदा हूं कि मेरे देश में आपके जैसे बुजुर्गों के साथ ऐसा सुलूक होता है। आप मेरे साथ चलिए, मैं आपको अस्पताल ले चलता हूं।”
पिता का प्यार
बलवंत ने प्रधानमंत्री का हाथ पकड़ लिया और रोते हुए कहा, “साहब, मुझे अस्पताल नहीं। मुझे मेरा बेटा चाहिए।” प्रधानमंत्री हैरान हुए। उन्होंने पूछा, “आपका बेटा कहां है वह?” बलवंत ने अपनी कांपती हुई उंगली सस्पेंड हो चुके इंस्पेक्टर सूरज प्रकाश की तरफ उठाई और कहा, “यही है मेरा बेटा साहब, यही है मेरा सूरज।”
एक पल के लिए पूरे चौराहे पर सन्नाटा छा गया, जैसे समय रुक गया हो। प्रधानमंत्री भी स्तब्ध रह गए। सूरज को लगा जैसे उस पर किसी ने हजार टन का बम गिरा दिया हो। उसे अपनी कानों पर यकीन नहीं हुआ। उसे लगा कि वह जमीन में जिंदा गढ़ जाए। जिस पिता को उसने भिखारी कहकर धक्के मारकर भगा दिया था, आज उसी पिता ने पूरे देश के सामने उसकी असलियत खोलकर रख दी थी।
प्रधानमंत्री ने अविश्वसनीय नजरों से कभी बलवंत को देखा तो कभी सूरज को। बलवंत की आंखों में एक पिता का दर्द था और सूरज की आंखों में शर्मिंदगी और खौफ का समंदर। बलवंत ने अपनी फटी हुई जेब से वही मुड़ी-तुड़ी तस्वीर निकाली और प्रधानमंत्री के हाथ में रख दी। “साहब, यह देखिए। यह मैं हूं और यह मेरा सूरज है। मैंने इसे खून पसीने की कमाई से पढ़ा लिखाकर अफसर बनाया था ताकि यह गरीबों की मदद करें। लेकिन यह तो अपने बाप को ही भूल गया। इसने मुझे अपने घर से भिखारी कहकर निकाल दिया था। आज मैं सड़कों पर भीख मांगकर गुजारा करता हूं।”
यह सुनते ही सूरज फूट-फूट कर रोने लगा। वो घुटनों के बल जमीन पर गिर पड़ा और बलवंत के पैरों में अपना सर रखकर कहने लगा, “बापू, मुझसे माफ कर दो। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। मैं अंधा हो गया था। पैसे और ताकत के नशे में, मुझे माफ कर दो।” लेकिन बलवंत ने कुछ नहीं कहा। उसकी आंखें पथरा चुकी थीं।
नया सबक
प्रधानमंत्री की आंखों में भी आंसू आ गए। उन्होंने अपने अधिकारियों को आदेश दिया कि बलवंत को पूरे सम्मान के साथ सरकारी गेस्ट हाउस ले जाया जाए और उनका अच्छे से अच्छा इलाज करवाया जाए। सूरज को पुलिस हिरासत में ले लिया गया। यह खबर आग की तरह पूरे देश में फैल रही। मीडिया में हर तरफ इसी घटना की चर्चा थी। बलवंत का इलाज चला। प्रधानमंत्री खुद उनसे मिलने आते थे।
जब बलवंत थोड़े ठीक हुए तो प्रधानमंत्री ने उनसे पूछा, “बाबा, आप अपने बेटे के लिए क्या सजा चाहते हैं? कानून उसे सख्त से सख्त सजा देगा।” बलवंत ने एक लंबी सांस ली। उसकी आंखों में गुस्सा नहीं बल्कि एक पिता की ममता थी। उसने हाथ जोड़कर कहा, “नहीं साहब, उसे सजा मत दीजिए। वो नादान है। भटक गया था। उसे अपनी गलती का एहसास हो गया है। यही उसके लिए सबसे बड़ी सजा है। आप बस उसे एक मौका दे दीजिए, खुद को सुधारने का। आखिर है तो मेरा ही खून।”
मैं अपने बेटे को जेल में नहीं देख सकता। एक पिता का यह विराट हृदय देखकर प्रधानमंत्री भी नतमस्तक हो गए। उन्होंने बलवंत की बात मान ली। सूरज पर से केस वापस ले लिया गया, लेकिन उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। जब वह जेल से बाहर आया तो वह सीधा गेस्ट हाउस में अपने पिता के पास गया। वह घंटों उनके पैरों में पड़कर रोता रहा। उसने कसम खाई कि वह अब दोबारा ऐसी गलती कभी नहीं करेगा। बलवंत ने अपने बेटे को माफ कर दिया।
नई शुरुआत
बाप-बेटा वापस अपने गांव रामपुरा लौट आए। सूरज अब इंस्पेक्टर नहीं था। वह वापस बलवंत का बेटा सूरज बन गया था। उसने गांव में रहकर खेती करना शुरू कर दिया। वह दिन-रात अपने बूढ़े बाप की सेवा करता। वह हर उस पल का प्रायश्चित करना चाहता था जब उसने अपने पिता का दिल दुखाया था। गांव वाले भी यह देखकर हैरान थे। जो सूरज गांव आना पसंद नहीं करता था, वह अब गांव की मिट्टी से जुड़ गया था।
धीरे-धीरे उनकी जिंदगी वापस पटरी पर आने लगी। उनके पास अब दौलत नहीं थी, लेकिन सुकून था और रिश्तों की वह मिठास थी, जिसे उन्होंने लगभग खो ही दिया था। दोस्तों, यह कहानी हमें सिखाती है कि रिश्ते और संस्कार किसी भी पद, दौलत या ताकत से बहुत बड़े होते हैं। मां-बाप उस पेड़ की तरह होते हैं जिनकी छांव की कीमत हमें तब समझ आती है जब हम जिंदगी की धूप में बुरी तरह झुलस जाते हैं।
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