एक बेटी का अनमोल तोहफा: मुरादपुर की कहानी

बरेली के पास एक छोटा सा गांव था, जिसका नाम मुरादपुर था। यह गांव न तो बहुत बड़ा था और न ही कोई खास नाम कमाया था। खेतों की हरियाली, मिट्टी के बने छोटे-छोटे घर, और गांव के बीचोंबीच एक विशाल बरगद का पेड़ था, जिसके नीचे लोग बैठकर दिन भर दुनिया की बातें करते थे। इसी गांव में रहता था रामप्रसाद, एक साधारण किसान जिसकी उम्र लगभग पचास के आसपास थी। उसके चेहरे पर मेहनत की गहरी लकीरें थीं, पर उसकी आंखों में एक अजीब सी चमक थी, जो उसकी मजबूत इच्छाशक्ति और प्यार को दर्शाती थी।

रामप्रसाद की जिंदगी में दो ही अनमोल खजाने थे—उसकी इकलौती बेटी लक्ष्मी और उसका छोटा सा मिट्टी का घर, जो उसने वर्षों की कड़ी मेहनत से बनाया था। लक्ष्मी अब बीस साल की हो चुकी थी। उसका चेहरा सादगी से भरा था, लेकिन उसकी आंखों में सपनों की चमक थी, जो रामप्रसाद को हमेशा प्रेरित करती रहती थी। लक्ष्मी पढ़ाई में तेज थी। उसने गांव के स्कूल से बारहवीं तक पढ़ाई की और अब पास के कस्बे में एक छोटी सी दुकान पर हिसाब-किताब का काम करती थी। उसकी तनख्वाह ज्यादा नहीं थी, लेकिन फिर भी वह हर महीने अपने पिता के लिए कुछ न कुछ पैसे बचाकर लाती।

रामप्रसाद हमेशा कहता, “बेटी, तू पढ़-लिख कर कुछ बन। यही मेरी सबसे बड़ी कमाई होगी।”

रामप्रसाद का जीवन बेहद साधारण था। दिन की शुरुआत खेतों से होती, जहां वह सुबह से शाम तक कड़ी मेहनत करता। उसका घर छोटा था, लेकिन सुकून से भरा था। मिट्टी की दीवारों पर सादगी की छाप थी, और आंगन में तुलसी का पौधा था, जिसकी पूजा उसकी पत्नी सावित्री हर सुबह करती थी। सावित्री अब इस दुनिया में नहीं थी। पांच साल पहले बीमारी से चल बसी थी, और तब से लक्ष्मी ही रामप्रसाद की पूरी दुनिया थी। वह उसे मां और बेटी दोनों समझता था।

एक दिन गांव में यह खबर फैल गई कि लक्ष्मी की शादी तय हो गई है। दूल्हा अमर था, जो पास के कस्बे के स्कूल में अध्यापक था। अमर सज्जन और मेहनती युवक था, जिसका चेहरा सौम्य था और बातों में ईमानदारी झलकती थी। रामप्रसाद ने जब अमर से मुलाकात की, तो उसे यकीन हो गया कि उसकी बेटी का भविष्य सुरक्षित हाथों में होगा।

लेकिन अमर के परिवार ने शादी के लिए दान-दहेज की मांग रखी थी। वे चाहते थे कि शादी में कोई कमी न हो—नए कपड़े, गहने, और घर का सारा सामान। रामप्रसाद के लिए यह मांग पूरी करना आसान नहीं था। न तो उसके पास इतना पैसा था, न कोई जमा पूंजी। वह दिन-रात मेहनत करने लगा। खेतों में ज्यादा घंटे बिताने लगा, गांव में छोटी-मोटी मजदूरी करने लगा, और अपनी हर बचत को शादी के लिए जोड़ने लगा।

महीनों की मेहनत के बाद भी पैसा कम पड़ रहा था। उसने गांव के सेठ हरप्रसाद से उधार मांगा, लेकिन सेठ ने साफ मना कर दिया। “रामप्रसाद, तुम पहले से ही मेरा पैसा चुका नहीं पाए। अब और कर्ज कैसे दूं?”

सेठ की बातों में ताना था, और रामप्रसाद का दिल टूट गया। आखिरकार, रामप्रसाद ने एक कठोर फैसला लिया—वह अपना घर बेच देगा। यह घर सिर्फ मिट्टी और ईंटों का ढांचा नहीं था, बल्कि उसकी जिंदगी की कहानी थी। हर दीवार में उसकी मेहनत थी, हर आंगन में सावित्री की यादें और हर कोने में लक्ष्मी की हंसी बसी थी। लेकिन रामप्रसाद के लिए लक्ष्मी की खुशी सबसे बड़ी थी। उसने सोचा कि अगर बेटी की शादी अच्छे से हो जाए, तो वह किराए के मकान में भी गुजारा कर लेगा।

गांव में यह खबर आग की तरह फैल गई। लोग रामप्रसाद की मजबूरी पर बातें करने लगे। कुछ हंसे, कुछ तरसे, लेकिन कोई मदद को तैयार नहीं था। गांव के चौधरी, जिन्हें मास्टर जी कहा जाता था, ने तो खुलेआम कहा, “रामप्रसाद, बेटी की शादी सादगी से कर दे, इतना दिखावा क्यों करना?”

लेकिन रामप्रसाद ने किसी की नहीं सुनी। उसका मन सिर्फ एक बात पर अड़ा था—लक्ष्मी की विदाई में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।

जब लक्ष्मी को यह बात पता चली, तो उसका दिल टूट गया। उसने एक रात अपने पिता से कहा, “बाबूजी, आप घर क्यों बेच रहे हैं? मैं शादी नहीं करूंगी अगर इसके लिए आपको इतना कष्ट उठाना पड़े।”

लेकिन रामप्रसाद ने मुस्कुराकर उसका माथा चूमा और कहा, “बेटी, तू मेरी जिंदगी का गहना है। तेरा ब्याह मेरे लिए सबसे बड़ा त्योहार है। तू चिंता मत कर, सब ठीक हो जाएगा।”

लक्ष्मी चुप रही, लेकिन उसने मन ही मन कुछ ठान लिया। वह जानती थी कि उसके पिता का यह बलिदान उसकी खुशी के लिए है, लेकिन वह यह भी नहीं चाहती थी कि रामप्रसाद अपनी जिंदगी की जमा पूंजी खो दे। उसने अपनी तनख्वाह का हर पैसा बचाना शुरू किया। वह दुकान पर देर तक रुकती, ओवरटाइम करती, और जो भी पैसा मिलता, उसे एक पुराने डिब्बे में जमा करती। उसने अपने दोस्तों से भी छोटे-छोटे कर्ज लिए, वादा किया कि जल्द लौटाएगी।

लक्ष्मी का इरादा था कि वह अपने पिता का घर बचाए, चाहे इसके लिए उसे कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े।

शादी का दिन नजदीक आ रहा था। रामप्रसाद ने सेठ हरप्रसाद से बात की, जो उसका घर खरीदने को तैयार था। सेठ ने कहा, “रामप्रसाद, मैं तुम्हारा घर ले लूंगा, लेकिन कीमत ज्यादा नहीं दूंगा। बाजार में मंदी है।”

रामप्रसाद ने हां कर दी। उसे कोई और रास्ता नहीं दिख रहा था। उसने सोचा शादी के बाद वह और लक्ष्मी किराए के मकान में रहेंगे, बस उसकी बेटी की जिंदगी सुखी होनी चाहिए।

शादी से एक हफ्ते पहले, लक्ष्मी ने सेठ हरप्रसाद से गुप्त रूप से मुलाकात की। उसने सेठ से कहा, “सेठ जी, मेरे बाबूजी का घर मत खरीदिए। मैं आपको उतने ही पैसे दूंगी जितने में आप घर खरीदने वाले हैं।”

सेठ ने पहले तो हंसी उड़ाई, “लड़की, तुम्हारे पास इतना पैसा कहां से आएगा?” लेकिन लक्ष्मी की आंखों में जो दृढ़ता थी, उसने सेठ को चुप करा दिया। उसने अपने डिब्बे से पैसे निकाले और कहा, “यह मेरी दो साल की कमाई है। अगर कमी रह गई, तो मैं आपके लिए काम करूंगी। मगर मेरे बाबूजी का घर बचाइए।”

सेठ हरप्रसाद प्रभावित हुआ। उसने लक्ष्मी की बात मान ली और वादा किया कि वह रामप्रसाद को घर बेचने की बात नहीं बताएगा। लक्ष्मी ने सेठ को पैसे दिए, और सेठ ने घर का मालिकाना हक वापस रामप्रसाद के नाम कर दिया।

यह सब इतनी चुपके से हुआ कि रामप्रसाद को भनक तक नहीं लगी।

शादी का दिन आ गया। मुरादपुर में रौनक थी। रामप्रसाद के घर के बाहर मंडप सजा था। गांव वाले आए थे—कुछ मदद करने, कुछ बस तमाशा देखने। लक्ष्मी दुधन के जोड़े में ऐसी लग रही थी जैसे कोई अप्सरा। लेकिन उसकी आंखों में एक अजीब सी बेचैनी थी। वह बार-बार अपने पिता को देखती, जो मेहमानों की सेवा में लगा हुआ था।

रामप्रसाद की मुस्कान में सुकून था, लेकिन लक्ष्मी जानती थी कि यह सुकून कितने बड़े बलिदान की कीमत पर आया था।

शादी की रस्में पूरी हुईं। अमर और लक्ष्मी अब पति-पत्नी बन चुके थे। विदाई का समय आया। गांव की औरतें रो रही थीं, और रामप्रसाद की आंखें भी नम थीं, लेकिन वह अपने आंसुओं को छुपा रहा था।

लक्ष्मी ने अपने पिता के पैर छुए, उसे गले लगाया और धीरे से कहा, “बाबूजी, मैं आपके लिए कुछ लाई हूं।”

रामप्रसाद ने हैरानी से उसकी ओर देखा, “क्या बेटी?”

लक्ष्मी ने अपने दुपट्टे से एक छोटा सा लिफाफा निकाला और उसे अपने पिता के हाथ में रख दिया। “यह मेरा तोहफा है, बाबूजी। इसे खोलिए।”

रामप्रसाद ने लिफाफा खोला। उसमें एक कागज था, जिस पर लिखा था—मुरादपुर में रामप्रसाद के नाम का घर का मालिकाना हक।

रामप्रसाद का सिर घूम गया। “यह क्या है, लक्ष्मी?”

लक्ष्मी मुस्कुराई, “बाबूजी, मैंने पिछले दो साल से अपनी तनख्वाह का हर पैसा बचाया था। मैं जानती थी कि आप मेरी शादी के लिए सब कुछ बेच देंगे। इसलिए मैंने सेठ हरप्रसाद से पहले ही बात कर ली थी। यह घर अब भी आपका है। मैंने इसे वापस खरीद लिया।”

गांव वालों की सांसे थम गईं। जो लोग रामप्रसाद की मजबूरी पर हंस रहे थे, उनकी आंखें अब शर्म से झुक गईं। रामप्रसाद की आंखों से आंसू बहने लगे। उसने लक्ष्मी को फिर से गले लगाया और कहा, “बेटी, तूने मुझे आज वो धन दिया जो कोई जमा पूंजी नहीं खरीद सकती।”

लक्ष्मी ने कहा, “बाबूजी, आपने मुझे हमेशा सिखाया कि सच्चा धन वो है जो दूसरों के लिए काम आया। मैंने वही किया।”

मगर कहानी यहीं खत्म नहीं हुई।

विदाई के बाद, जब लक्ष्मी अपने ससुराल चली गई, तो गांव में उसकी चर्चा होने लगी। लोग अब रामप्रसाद को नहीं, बल्कि लक्ष्मी को सलाम करने लगे। मास्टर जी, जो पहले रामप्रसाद को ताने मारते थे, अब उनके पास आए और बोले, “रामप्रसाद, तुमने ऐसी बेटी पाली जो किसी हीरे से कम नहीं।”

रामप्रसाद मुस्कुराए, “मास्टर जी, यह बेटी नहीं, मेरी मां है। इसने मुझे फिर से जीना सिखाया।”

कुछ महीने बाद लक्ष्मी अपने ससुराल से मुरादपुर लौटी। उसने अपने पिता के लिए एक और तोहफा लाया—एक छोटा सा स्कूल जो उसने अपनी नई नौकरी की कमाई से गांव में शुरू किया। उस स्कूल में गांव के गरीब बच्चे मुफ्त पढ़ाई करने लगे।

लक्ष्मी ने अपने पिता से कहा, “बाबूजी, यह स्कूल मेरी मां की याद में है। मैं चाहती हूं कि हर बच्चा पढ़े और कोई बाप अपनी बेटी की शादी के लिए घर ना बेचे।”

रामप्रसाद की आंखें फिर नम हो गईं। उसने लक्ष्मी का माथा चूमा और कहा, “बेटी, तूने ना सिर्फ मेरा घर बचाया बल्कि पूरे गांव का भविष्य संवार दिया।”

उस दिन से मुरादपुर में एक नई कहानी बनी। लोग अब लक्ष्मी को गांव की बेटी कहते थे। उसका स्कूल दिन-ब-दिन बड़ा होता गया और गांव के बच्चे पढ़-लिख कर अपने सपने पूरे करने लगे। रामप्रसाद का घर अब सिर्फ उसका नहीं, बल्कि पूरे गांव का घर बन गया।