गरीब बच्ची ने सिर्फ दो रुपए मांगे थे… करोड़पति पति-पत्नी ने जो किया, इंसानियत रो पड़ी

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कोमल की उम्मीद

दिल्ली की चमचमाती सड़कों पर, जहां महंगी गाड़ियां रफ्तार से भागती हैं, वहीं कुछ ऐसे चेहरे भी हैं जो जिंदगी की कठिनाइयों से हार कर भीख मांगते नजर आते हैं। इसी दिल्ली में एक छोटी सी बच्ची, कोमल, हर रोज राजीव चौक के सिग्नल पर खड़ी होती थी, अपनी मासूमियत और भूख के साथ। उसकी उम्र केवल 10 साल थी, लेकिन जिंदगी ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया था।

एक शाम, जब दिल्ली का सबसे व्यस्त चौराहा ट्रैफिक जाम में फंसा था, कोमल ने अपनी फटी पुरानी फ्रॉक पहनी हुई थी, नंगे पैर और बिखरे बालों के साथ वह हर गाड़ी की खिड़की पर दस्तक दे रही थी। “कुछ खिला दो, भूख लगी है,” उसकी आवाज में दर्द था, लेकिन लोग उसे नजरअंदाज कर देते थे। वे शीशे चढ़ाकर मुंह मोड़ लेते थे, जैसे कि वह कोई अदृश्य वस्तु हो।

इसी सिग्नल पर एक काली मर्सिडीज खड़ी थी, जिसमें दिल्ली के जाने-माने उद्यमी विक्रम अरोड़ा और उनकी पत्नी सुजाता अरोड़ा बैठे थे। उनके पास सब कुछ था—पैसा, शोहरत, बड़ा परिवार, और आलीशान बंगला। लेकिन उस पल उनकी आंखें उस मासूम के चेहरे से हट नहीं रही थीं। विक्रम ने हल्की झुझलाहट में कहा, “सुजाता, ये बच्चे तो रोज मिलते हैं। हाथ फैलाने की आदत डाल ली है इन्होंने।”

गरीब बच्ची ने सिर्फ दो रुपए मांगे थे… करोड़पति पति-पत्नी ने जो किया,  इंसानियत रो पड़ी

सुजाता का गला भर आया। “आदत या मजबूरी?” उसने विक्रम से कहा। “देखो इस बच्ची की आंखों में। यह भूख नहीं, रोती हुई मासूमियत है।”

सिग्नल हरा हुआ, गाड़ियां आगे बढ़ने लगीं, लेकिन सुजाता ने तुरंत कहा, “रुको, गाड़ी साइड में लगाओ।” ड्राइवर ने गाड़ी एक ओर रोक दी। सुजाता उतरी और बच्ची के पास जाकर धीरे से बोली, “तुम्हारा नाम क्या है?”

“कोमल,” बच्ची ने कांपते होठों से कहा।

“कोमल, तुम स्कूल क्यों नहीं जाती?” सुजाता ने पूछा।

कोमल ने नजरें झुका कर कहा, “अम्मी कहती हैं पहले पेट भर ले, पढ़ाई बाद में होगी।” यह सुनकर सुजाता की आंखें डबडबा गईं। विक्रम ने गहरी सांस भरते हुए पास की दुकान की ओर इशारा किया और बोले, “चलो, देखते हैं, अभी कुछ करते हैं।”

दोनों पति-पत्नी पास की स्टेशनरी शॉप पर गए और एक थैला भरकर कॉपियां, पेंसिल और पेन खरीद लाए। फिर वो थैला कोमल को पकड़ाते हुए सुजाता ने कहा, “आज से तुम्हें हाथ फैलाने की जरूरत नहीं। तुम यह सामान बेचोगी। जितना मुनाफा होगा, वो तुम्हारा होगा। लेकिन एक वादा करना होगा, कभी भीख नहीं मांगोगी।”

कोमल ने घबराकर दोनों की ओर देखा। उसके छोटे-छोटे हाथ थैले का वजन संभाल नहीं पा रहे थे। “अगर किसी ने खरीदा ही नहीं तो?” उसने डरते हुए पूछा।

विक्रम ने जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकालकर उसकी हथेली में रख दिया। “डरना मत। अगर कोई तंग करे, इस नंबर पर किसी से फोन करवा देना। और याद रखना, अब तुम्हारे पीछे कोई खड़ा है।”

सड़क पर खड़े राहगीर इस नजारे को देखते रह गए। कई लोग बुदबुदाए, “काश हर कोई ऐसे ही मदद करता तो कितने बच्चों की जिंदगी बदल जाती।” कोमल की आंखों में पहली बार उम्मीद की चमक लौटी। उसने पेन को कसकर पकड़ लिया जैसे यह उसकी नई जिंदगी की चाबी हो।

रात को जब वह अपनी झुग्गी में लौटी, तो मां ने सवाल किया, “आज कितने पैसे लाई?” कोमल ने थैला आगे बढ़ाते हुए कहा, “अम्मी, अब मैं भीख नहीं मांगूंगी। अब मैं यह बेचूंगी।”

पहले तो मां ने डांटा, लेकिन जब कोमल ने हिम्मत से कहा, “अम्मी, भूख से मरने से अच्छा है मेहनत करके जीना,” तो मां की आंखों में भी आंसू आ गए।

अगले दिन कोमल वही पेन और कॉपियां लेकर सिग्नल पर पहुंची। लोग पहले हंसे, “यह भीख नहीं मांग रही, पेन बेच रही है।” लेकिन धीरे-धीरे कई लोगों ने उसका हौसला बढ़ाने के लिए पेन खरीद लिए। दिन ढलते-ढलते उसके सारे सामान बिक चुके थे। जेब में कुछ पैसे खनक रहे थे, जो उसने भीख मांगकर नहीं, बल्कि मेहनत से कमाए थे।

उस रात उसने अपनी मां के सामने पैसे रखे और बोली, “देखा अम्मी, अब हमें किसी के आगे हाथ फैलाने की जरूरत नहीं।” दिन दर दिन कोमल का हौसला बढ़ता गया। अब वो सिर्फ खुद के लिए नहीं, बल्कि और बच्चों को भी साथ जोड़ने लगी। झुग्गी के दूसरे बच्चे, जो अक्सर भीख मांगने निकलते थे, उससे पूछते, “तू पेन कहां से लाती है? लोग तुझे डांटते नहीं?”

कोमल मुस्कुरा देती और कहती, “भीख मांगने से अच्छा है कुछ बेचना। लोग डांटते कम हैं, सरहते ज्यादा हैं।” धीरे-धीरे कुछ बच्चों ने भी उसके साथ जुड़ना शुरू किया। उसकी मेहनत रंग लाने लगी। जो पहले सिग्नल पर इधर-उधर भटकती थी, अब उसने ठेला लगाने का सपना देखा।

उसने अपनी कमाई से एक छोटा सा ठेला खरीदा और उसी पर पेन, कॉपियां और छोटे खिलौने सजाने लगी। अब राहगीरों की भीड़ सीधे उसके ठेले की ओर जाती। लोग कहते, “देखो, यही है असली हिम्मत, जो कल भीख मांगती थी, आज सबको पढ़ाई का सामान बेच रही है।”

लेकिन रास्ता बिल्कुल आसान नहीं था। कई बार पुलिस वालों ने उसका ठेला हटवा दिया। कई बार बड़े दुकानदारों ने उसे ताना मारा, “यह सड़क तेरे कारोबार के लिए नहीं है।” हर बार उसका मन टूटता, लेकिन फिर उसे विक्रम अरोड़ा के वह शब्द याद आते, “डरना मत। अब तुम्हारे पीछे कोई खड़ा है।” यह एक लाइन उसकी ताकत बन जाती और वह फिर से अपने सामान के साथ खड़ी हो जाती।

वक्त के साथ उसका ठेला छोटा कारोबार बन गया। उसने झुग्गी के और बच्चों को भी अपने साथ काम पर रखा। जिन हाथों में कभी कटोरा होता था, अब उन्हीं हाथों में पेन और किताबें थीं। धीरे-धीरे 50 से ज्यादा बच्चे उससे जुड़ गए। कोई स्कूल की फीस भरने के लिए काम करता, कोई अपनी बीमार मां की दवा के लिए। कोमल अब सिर्फ अपने लिए नहीं जी रही थी, बल्कि औरों के सपनों का सहारा बन गई थी।

कभी-कभी जब विक्रम और सुजाता उसी रास्ते से गुजरते तो दूर से काली मर्सिडीज के शीशे के पीछे से सुजाता मुस्कुराते हुए हाथ हिलाती। कोमल समझ जाती कि उसकी मां जैसी कोई छाया हर वक्त उस पर नजर रख रही है। विक्रम अक्सर अपने ड्राइवर से कहते, “ध्यान रखना। अगर कोई उस बच्ची को तंग करे तो तुरंत मदद करना। वह अब हमारी जिम्मेदारी है।”

साल बीतते गए। कोमल ने मेहनत और समझदारी से छोटे-छोटे समूह बनाए। अब वो केवल ठेले तक सीमित नहीं थी। उसने किराए की एक छोटी दुकान ले ली थी। लोग उसे झुग्गी की बच्ची नहीं, बल्कि एक छोटी उद्यमी कहने लगे। अखबारों ने उसकी कहानी छापी। जिस बच्ची ने भीख मांगना छोड़ा, उसने 50 बच्चों की जिंदगी बदल दी।

सुजाता और विक्रम ने जब यह खबर पढ़ी, तो दोनों की आंखें भर आईं। सुजाता ने विक्रम से कहा, “देखा, एक छोटी सी मदद ने कैसे उसकी दुनिया बदल दी। अगर हर कोई ऐसा सोचे कि भीख नहीं, काम दो, तो यह समाज सच में बदल जाएगा।”

विक्रम ने गहरी सांस लेकर कहा, “आज लगता है कि करोड़पति होने का असली सुख यही है। हमने सिर्फ दौलत नहीं बांटी, इंसानियत बांटी है।”

लेकिन जिंदगी हमेशा एक जैसी नहीं रहती। समय धीरे-धीरे बीतता गया। विक्रम अरोड़ा की उम्र ढलने लगी। उनका शरीर अब पहले जैसा मजबूत नहीं रहा। जहां कभी वह बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स पर साइन करते थे, अब वही कागज उनके हाथ से फिसल जाते थे। सुजाता हर वक्त उनके पास रहती, दवाइयां देती। लेकिन मन ही मन उन्हें सबसे ज्यादा दर्द अपने ही बच्चों के बदलते व्यवहार से मिलने लगा।

चार बेटे थे। सबके पास अपनी-अपनी नौकरी, अपना परिवार और अपने बंगले। वह सब उसी दौलत पर पले-बढ़े थे जो विक्रम ने रात-दिन मेहनत करके कमाई थी। लेकिन अब वही बेटे माता-पिता को अपने पास रखने से कतराने लगे। एक दिन विक्रम अरोड़ा ने सबको घर बुलाया। थके हुए स्वर में बोले, “बेटा, अब हम दोनों बूढ़े हो चले हैं। ज्यादा दिनों तक अकेले संभाल पाना मुश्किल है। सोच रहा था कि बारी-बारी से हम तुम्हारे साथ रहे।”

बड़ा बेटा बोला, “पिताजी, मेरे ऑफिस का काम इतना है कि मैं संभाल नहीं पाऊंगा।” दूसरे बेटे ने बोला, “हमारा घर छोटा है। बच्चे भी बड़े हो रहे हैं। जगह ही नहीं है।” तीसरे ने साफ कह दिया, “देखभाल करने के लिए नौकर रख लीजिए। आप क्यों बोझ बन रहे हैं?”

सबसे छोटे बेटे की पत्नी ने तो हद ही कर दी। उसने ऊंची आवाज में कहा, “हम क्यों रखें? हमारे भी तो खर्चे हैं। बुढ़ापे का भार हम अकेले क्यों उठाएं?”

विक्रम और सुजाता एक-दूसरे की ओर देखने लगे। आंखों में आंसू थे, लेकिन शब्द गुम हो गए थे। जिनके लिए सारी जिंदगी खपाई, वही बच्चे अब अपने माता-पिता को बोझ समझ रहे थे। महफिल में बैठे कुछ रिश्तेदार और पड़ोसी भी यह सब देख रहे थे। किसी ने हिम्मत करके कहा, “भाई, जब बाप की संपत्ति बांटने का समय आया तो सब ने बराबरी से लिया। अब जब सेवा का वक्त है तो क्यों पीछे हट रहे हो?”

लेकिन बहू ने साफ कह दिया, “पैसे की बात अलग है, मगर हम बुढ़ापे की जिम्मेदारी नहीं उठाएंगे।” आखिरकार किसी ने सलाह दी, “ठीक है, अगर कोई इन्हें अपने पास रखने को तैयार नहीं है तो इनका खर्चा मिलकर बांट लो और इन्हें वृद्धाश्रम भेज दो।”

यह सुनते ही सुजाता का दिल टूट गया। उन्होंने कांपती आवाज में कहा, “नहीं, इतना अपमान हमें नहीं चाहिए। जब तक सांस है, हम खुद जिएंगे। अपने बच्चों से दया की भीख नहीं मांगेंगे।” विक्रम अरोड़ा वही बैठकर चुपचाप सब सुनते रहे। उनके गालों पर आंसू लुढ़क गए। वह आदमी जिसने हजारों मजदूरों को रोजगार दिया था, आज अपने ही घर में पराया हो गया था।

अगले ही दिन दोनों ने अपना सामान बांधा और घर से बाहर निकल पड़े। दरवाजे पर खड़े बच्चे बिना कुछ कहे भीतर चले गए। सड़क पर चलते हुए सुजाता ने विक्रम का हाथ कसकर पकड़ लिया। वह दोनों बेमंजिल से लग रहे थे। उसी पल सामने से एक गाड़ी आकर रुकी। गाड़ी से उतरी एक औरत, करीब 25-26 साल की। उसकी आंखों में हैरानी और चेहरे पर चिंता थी। उसने झट से दोनों को रोक लिया और बोली, “बाबूजी, अम्मा जी, आप कहां जा रहे हैं इस हाल में?”

विक्रम अरोड़ा ने थकी आवाज में कहा, “बेटी, अब हमें कहीं और नहीं जाना है। बच्चे हमारे नहीं रहे। हम वृद्धाश्रम चले जाएंगे।”

लड़की की आंखें नम हो गईं। उसने तुरंत कहा, “नहीं, ऐसा मत कहिए। अगर आपके अपने आपको छोड़ सकते हैं तो मान लीजिए कि भगवान ने मुझे आपके लिए भेजा है। अब आप मेरे साथ चलिए।”

विक्रम अरोड़ा ने उसे गौर से देखा। सुजाता ने आंसुओं में मुस्कुरा कर कहा, “लेकिन बेटी, तू हमें क्यों अपनाना चाहती है? तेरा हमारे साथ क्या रिश्ता?”

लड़की धीरे से बोली, “आप भूल गए होंगे, पर मैं वही कोमल हूं। वही बच्ची जिसे आपने सालों पहले भीख मांगने से रोक कर पेन बेचने की राह दिखाई थी। अगर उस दिन आपने मुझे सहारा ना दिया होता तो शायद आज मैं जिंदा भी ना होती। बाबूजी, अब आपकी जरूरत है मुझे। मेरे घर में मां-बाप की जगह खाली है और मैं चाहती हूं कि वह जगह आप दोनों भरे।”

विक्रम अरोड़ा और सुजाता स्तब्ध रह गए। एक-दूसरे को देखते हुए उनकी आंखों से आंसू बह निकले। उस पल उन्हें एहसास हुआ कि इंसानियत में ही असली रिश्ते छिपे होते हैं। सुजाता ने रोते हुए कहा, “बेटी, अगर उस दिन हमने वह छोटा सा कदम ना उठाया होता तो आज हमें यह सहारा भी नहीं मिलता।”

कोमल ने उनका हाथ कसकर पकड़ लिया। “नहीं अम्मा जी, यह आपका नहीं, मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा उपकार था। उस दिन अगर आपने मुझे पेन ना दिए होते तो शायद मैं भीख मांगते-मांगते मिट गई होती। आज जो कुछ हूं, आपकी वजह से हूं। अब आपको अकेला नहीं रहने दूंगी।”

वह दोनों को अपने घर ले गई। बड़ा सा बंगला, चारों ओर हरियाली, नौकर-चाकर। लेकिन सबसे बड़ी बात थी वहां का अपनापन। कोमल और उसके पति ने उन्हें वैसे ही अपनाया जैसे अपने असली मां-बाप को अपनाया जाता है। उनके लिए एक कमरा सजाया गया। दवाइयों का पूरा इंतजाम हुआ और हर दिन उनके साथ बैठकर बातें की जाने लगीं।

धीरे-धीरे विक्रम और सुजाता का दर्द कम होने लगा। उन्हें लगा मानो जिंदगी ने फिर से जीने का कारण दे दिया हो। सुजाता अक्सर कहती, “कोमल, तू हमारी बेटी से भी बढ़कर है।” और विक्रम अरोड़ा सिर उठाकर आसमान की ओर देखते जैसे भगवान को धन्यवाद दे रहे हों।

इधर अरोड़ा परिवार के चारों बेटे और बहुएं अपनी ही दुनिया में खोए थे। लेकिन जैसे ही शहर में यह खबर फैली कि विक्रम अरोड़ा और सुजाता को उनके बच्चों ने घर से निकाला और अब उन्हें वही लड़की पाल रही है जिसे कभी उन्होंने सड़क से उठाया था, लोग दंग रह गए। अखबारों और सोशल मीडिया में यह कहानी छा गई। जगह-जगह चर्चा होने लगी कि असली संतान वही है जो अपने बुजुर्गों का सहारा बने।

इस खबर ने अरोड़ा के बेटों की जिंदगी बदल दी। क्लाइंट्स ने उनकी कंपनियों से काम लेना बंद कर दिया। पुराने दोस्त भी किनारा करने लगे। व्यापार धीरे-धीरे डूब गया। जो लोग कभी ऐशो-आराम के आदि थे, उन्हें छोटी-छोटी नौकरियों के लिए भटकना पड़ा। बहुएं शिकायत करतीं, “तुम्हारी वजह से लोग हमें ताने मारते हैं।” सब कुछ छीन गया। लेकिन अब पछताने के अलावा उनके पास कुछ नहीं था।

एक दिन चारों बेटे भारी मन से कोमल के घर पहुंचे। दरवाजे पर खड़े होकर बोले, “पिताजी, माफ कर दीजिए। हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई। लालच और अहंकार ने हमारी आंखें बंद कर दी थीं। हमें एक मौका और दीजिए।”

विक्रम ने उनकी तरफ देखा। चेहरे पर कोई गुस्सा नहीं था, सिर्फ दर्द था। शांत आवाज में बोले, “बेटा, माफ करना आसान है। लेकिन भरोसा टूट जाए तो लौटता नहीं। हमने जिंदगी भर तुम्हें सब कुछ दिया। लेकिन बुढ़ापे में हमें अपनाने से इंकार कर दिया। आज हमें बेटी का सहारा मिल गया है। अब हमें और किसी की जरूरत नहीं।”

बच्चों के गले में शब्द अटक गए। उन्होंने हाथ जोड़ दिए। लेकिन विक्रम और सुजाता कमरे में लौट गए। बेटे और बहुएं बाहर खड़ी आंसू पोंछती रह गईं। उस रात सुजाता ने बिस्तर पर लेटे-लेटे विक्रम अरोड़ा से कहा, “देखा भाग्यवान। जब अपने छोड़ देते हैं, तब भगवान अनजाने रिश्तों को संतान बना देता है।”

विक्रम अरोड़ा ने उसकी हथेली थाम ली और मुस्कुरा कर कहा, “हां, इंसानियत ही असली रिश्ता है और आज हमारी कोमल ने यह साबित कर दिया।”

कहानी यहीं खत्म नहीं होती। समाज ने इस घटना से बहुत बड़ा सबक सीखा। लोगों ने समझा कि संपत्ति बांटना आसान है, लेकिन बुजुर्गों का सम्मान और सेवा करना ही असली कर्तव्य है।

अब सवाल आपसे है। अगर आप विक्रम और सुजाता की जगह होते तो क्या उस बच्ची को भीख की जगह काम देकर उसका भविष्य सवारने का साहस दिखाते? और अगर आप कोमल की जगह होते तो क्या किसी अनजान बुजुर्ग को अपना सहारा बनाते? जिनसे आपको नई जिंदगी की दिशा दी हो।

कहानी हमें यह सिखाती है कि इंसानियत की राह पर चलने वाले ही सच्चे धनवान होते हैं। हमें हमेशा दूसरों की मदद के लिए तैयार रहना चाहिए, क्योंकि एक छोटी सी मदद किसी की जिंदगी बदल सकती है।

इस कहानी से हमें यह भी समझना चाहिए कि रिश्ते केवल खून के नहीं होते, बल्कि इंसानियत से भी बनते हैं। जब हम एक-दूसरे की मदद करते हैं, तो हम असली रिश्ते बनाते हैं।

आइए, हम सब मिलकर एक-दूसरे की मदद करें और इंसानियत का हाथ थामें। इस तरह हम एक बेहतर समाज की रचना कर सकते हैं।