गर्भवती महिला काम मांगने पहुँची… कंपनी का मालिक निकला तलाकशुदा पति, फिर जो हुआ…

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दोस्तों, सोचिए ज़रा। एक औरत, आठ महीने की गर्भवती, हाथ में एक पुराना बायोडाटा लिए हुए। आँखों में नींद से ज़्यादा डर और मायूसी थी। घनघोर बारिश में भीगते हुए वह नौकरी की तलाश में इधर-उधर भटक रही थी। कोई उसे अपनी कंपनी में रखने को तैयार नहीं था। कोई कहता, “तुमसे काम नहीं होगा,” तो कोई सलाह देता, “घर जाओ और अपने बच्चे को संभालो।” लेकिन आज उसे एक बड़ी कंपनी का पता मिला था। वह अपनी बची-खुची हिम्मत समेटकर वहाँ पहुँची। रिसेप्शन पार किया और जैसे ही मालिक के केबिन का दरवाज़ा खोला, उसकी साँसें थम गईं। सामने वही शख्स बैठा था, उसका तलाक़शुदा पति। क्या वह उसे नौकरी देगा, या फिर एक बार और अपनी ज़िंदगी से बाहर फेंक देगा? आख़िर इस घटना के पीछे का रहस्य क्या है?

इसकी शुरुआत होती है सुबह की एक हल्की बारिश से। मुंबई की टूटी-फूटी गलियों की सड़कों पर पानी जम गया था। ठंडी हवा के झोंके एक पुराने से घर की जर्जर खिड़कियों को हिला रहे थे, जिससे एक अजीब सी डरावनी आवाज़ पैदा हो रही थी। उस छोटे से, सीलन भरे कमरे में एक पुराना पंखा घिसट-घिसट कर घूम रहा था, जिसकी आवाज़ कमरे के सन्नाटे को और भी गहरा कर रही थी। नीचे कोने में रखी लकड़ी की एक छोटी सी अलमारी पर रखी चाय की केतली से भाप निकल रही थी। कमरे के बीचों-बीच एक औरत, संगीता, धीरे-धीरे झुककर अपनी घिसी हुई चप्पलें पहन रही थी। उसके चेहरे पर थकान की गहरी लकीरें थीं, जो उसकी अट्ठाईस साल की उम्र से कहीं ज़्यादा की कहानी बयां कर रही थीं। उसने अपना एक हाथ पेट पर रखा हुआ था, जो अब साफ़-साफ़ बता रहा था कि उसकी कोख में एक नन्ही सी ज़िंदगी पल रही है। बीते कुछ सालों के बोझ ने उसे वक़्त से बहुत आगे पहुँचा दिया था। खिड़की के बाहर बारिश की बूँदें ऐसे गिर रही थीं, जैसे आसमान भी किसी गहरे दर्द में रो रहा हो।

संगीता ने अपना पुराना सा दुपट्टा सिर पर डाला, पर्स में कुछ सिक्के और ज़रूरी कागज़ात रखे और बाहर निकलने लगी। दरवाज़ा बंद करते वक़्त उसकी नज़र दरवाज़े पर लटके एक पुराने फोटो फ्रेम पर पड़ी। फोटो में वह और एक आदमी खड़े थे, दोनों मुस्कुरा रहे थे। वह था राकेश, उसका पूर्व पति, जिससे उसने प्रेम विवाह किया था और जिसने उसे ज़िंदगी के सबसे कठिन मोड़ पर अकेला छोड़ दिया था।

तीन साल पहले, दिल्ली की भीड़-भरी सड़कों के बीच एक छोटे से कैफ़े में उनकी पहली मुलाक़ात हुई थी। राकेश एक मार्केटिंग कंपनी में सीनियर एक्जीक्यूटिव था और संगीता ने उसी कंपनी में नई-नई नौकरी शुरू की थी। काम के सिलसिले में बातें शुरू हुईं, फिर चाय-कॉफ़ी, फ़िल्में और आख़िरकार, दोनों ने शादी कर ली। शादी के बाद शुरुआती कुछ महीने सपनों जैसे थे। लेकिन धीरे-धीरे हालात बदलने लगे। राकेश ने नौकरी छोड़कर अपना ख़ुद का बिजनेस शुरू किया, जो बुरी तरह डूब गया। पैसों की तंगी ने उनके रिश्ते की बुनियाद हिला दी। छोटी-छोटी बातों पर झगड़े होने लगे और एक दिन, गुस्से की आग में जलते हुए राकेश ने कह दिया, “तुम मेरी क़िस्मत की सबसे बड़ी ग़लती हो। तुमसे शादी करना मेरी ज़िंदगी का सबसे बुरा फ़ैसला था।” उस रात, बिना कुछ कहे, संगीता अपना छोटा सा बैग लेकर अपने मायके चली गई। लेकिन मायका भी अब उसका नहीं रहा था। माँ-बाप पहले ही दुनिया छोड़ चुके थे और भाई-भाभी को उसकी मौजूदगी एक बोझ लगने लगी थी। कुछ हफ़्तों बाद, कोर्ट में तलाक़ हो गया। राकेश के चेहरे पर कोई भाव नहीं था, जैसे उसे कोई फ़र्क ही न पड़ता हो, और संगीता ने भी बिना आँसू बहाए काग़ज़ पर दस्तख़त कर दिए, अपनी तक़दीर को स्वीकार करते हुए।

अब, आठ महीने की गर्भवती संगीता बिल्कुल अकेली थी। कोई सहारा नहीं, कोई अपना नहीं। बस एक पुराना कमरा, कुछ बर्तन और उसके पेट में पल रहा बच्चा, जो उसकी जीने की इकलौती वजह था। माँ बनने का सुख भी उसके लिए एक जंग जैसा बन गया था। उस दिन बारिश में घर से निकलते वक़्त उसके मन में सिर्फ़ एक ही बात थी, “मुझे नौकरी चाहिए, चाहे कुछ भी हो जाए।”

उसका पहला ठिकाना पास की एक बेकरी थी। वह

वह अंदर गई और मैनेजर से मिली, लेकिन उसने संगीता के पेट की तरफ़ देखकर हँसते हुए कहा, “मैडम, यहाँ केक और भारी ट्रे उठाने पड़ते हैं। आपसे नहीं होगा।” संगीता के चेहरे पर एक और निराशा की लकीर खिंच गई।

दूसरा ठिकाना एक सिलाई का छोटा कारखाना था। वहाँ मालिक ने हमदर्दी दिखाते हुए कहा, “बेटा, जब बच्चा होगा तो तुम्हें छुट्टी चाहिए होगी। हमें ऐसे लोग नहीं चाहिए जो बार-बार छुट्टी लें।”

तीसरा ठिकाना एक किराना दुकान थी। दुकानदार ने उसे देखे बिना ही मना कर दिया, “तुम्हें घर पर आराम करना चाहिए, काम नहीं।”

हर जगह से ‘ना’ सुनकर उसके क़दम और भी भारी होते जा रहे थे। बारिश अब थम चुकी थी, लेकिन उसके भीतर का तूफ़ान बढ़ता ही जा रहा था। बस स्टैंड पर पहुँचकर वह थककर एक बेंच पर बैठ गई। हाथ से अपने पेट को सहलाते हुए उसने धीरे से कहा, “बेटा, मम्मी हार नहीं मानेगी। हम दोनों जीतेंगे।”

इतने में उसके बगल में बैठी एक बुज़ुर्ग महिला ने पूछा, “बिटिया, इतनी बारिश में कहाँ भटक रही हो?”

संगीता ने एक फीकी मुस्कान के साथ कहा, “काम ढूँढ रही हूँ, अम्मा।”

अम्मा ने सिर हिलाकर कहा, “काम मिलेगा, बेटी। बस हिम्मत मत हारना।” अचानक अम्मा ने उसे एक कागज़ का टुकड़ा दिया, जिस पर एक पता लिखा था। “यहाँ जाओ। एक बड़ी कंपनी है। मालिक थोड़ा सख़्त है, पर अगर तुम्हारा दिल छू जाए, तो काम दे देता है।”

संगीता ने वह कागज़ अपनी मुट्ठी में कसकर पकड़ लिया और वहाँ जाने का निश्चय किया।

अगले दिन, वह उसी कंपनी के बड़े से गेट के सामने खड़ी थी। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। आँखों में डर भी था और उम्मीद की एक आख़िरी किरण भी। रिसेप्शन पर जाकर उसने कहा, “मैं नौकरी के लिए आई हूँ। प्लीज़, मालिक से मिलने दीजिए।”

रिसेप्शनिस्ट ने उसे शक की नज़रों से ऊपर से नीचे तक देखा और कहा, “मैडम, हमारे बॉस बहुत सख़्त हैं। पता नहीं, आपको रखेंगे भी या नहीं।” लेकिन फिर भी, कुछ मिनटों के इंतज़ार के बाद उसे अंदर बुला लिया गया।

केबिन का दरवाज़ा खुला और जैसे ही उसने सामने देखा, उसका दिल जैसे एक पल के लिए रुक गया। वह वही था, राकेश, उसका पूर्व पति।

केबिन का दरवाज़ा खुलते ही जैसे वक़्त थम गया। संगीता के हाथ में पकड़ा बायोडाटा काँपने लगा और उसके भीतर किसी ने जैसे पुराने ज़ख़्मों पर नमक छिड़क दिया हो। सामने एक बड़ी सी टेबल के पीछे वही राकेश बैठा था। वो आदमी, जो कभी उसकी पूरी दुनिया था और जिसने उसकी दुनिया को उजाड़ दिया था।

राकेश ने अपना चश्मा उतारा, उसे ऊपर से नीचे तक देखा और अपनी भौंहें चढ़ाईं। “तुम?” उसकी आवाज़ में हैरानी कम, एक ठंडापन ज़्यादा था।

संगीता ने एक गहरी साँस ली, अपनी हिम्मत बटोरी और आँखें मिलाकर कहा, “हाँ, मैं। नौकरी के लिए आई हूँ।”

राकेश कुर्सी पर पीछे की ओर झुकते हुए एक धीमी, व्यंग्यात्मक हँसी हँसा। “तुम? नौकरी? इस हालत में?” उसकी नज़र सीधे संगीता के पेट पर थी, जहाँ उसका आठ महीने का गर्भ साफ़ झलक रहा था।

कुछ पलों का सन्नाटा कमरे में पसर गया, लेकिन संगीता के भीतर एक तूफ़ान उमड़ रहा था। उसे याद आया कि कैसे तीन साल पहले राकेश ने गुस्से में कहा था, “तुम मेरे लिए सिर्फ़ एक बोझ हो।” आज वही बात जैसे हवा में तैर रही थी।

“हाँ, इसी हालत में,” संगीता ने दृढ़ता से जवाब दिया। “क्योंकि मेरे पेट में पल रहा बच्चा किसी का मोहताज नहीं होगा, और मैं भी नहीं।”

राकेश ने मेज़ पर पड़ा उसका बायोडाटा उठाया, उस पर एक नज़र दौड़ाई और बोला, “हमारी कंपनी में सख़्त नियम हैं। यहाँ काम करने के लिए पूरी तरह से फ़िट होना पड़ता है।”

“और इज़्ज़त देने के लिए?” संगीता ने सीधा सवाल किया, जिसकी चुभन राकेश को महसूस हुई।

राकेश ने नज़रें फेर लीं। कुछ देर बाद, उसने ठंडी आवाज़ में कहा, “देखो, मैं तुम्हें यहाँ सिर्फ़ इसलिए नहीं रख सकता क्योंकि तुम मेरी…”

“मत कहना,” संगीता ने उसे बीच में ही रोक दिया। “मत कहना कि मैं तुम्हारी पत्नी थी। मैं यहाँ बीवी बनकर नहीं, एक इंसान बनकर आई हूँ जिसे काम की ज़रूरत है।”

राकेश के चेहरे पर सख़्ती थी, लेकिन दिल में कहीं एक हल्की सी चुभन भी थी। उसे याद था कि एक वक़्त था जब वह संगीता की हँसी पर मर-मिटता था, और आज उस चेहरे से हँसी पूरी तरह ग़ायब थी। वह कुर्सी से उठा, खिड़की की तरफ़ चला गया और कुछ देर बाहर हो रही बारिश को देखता रहा।

फिर धीरे से बोला, “एक हफ़्ता। मैं तुम्हें एक हफ़्ते का ट्रायल दूँगा। अगर काम सँभाल लिया, तो रह सकती हो।”

संगीता के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान आई, लेकिन उसकी आँखों में चुनौती थी। “मैं सिर्फ़ एक हफ़्ता नहीं, अपनी पूरी ज़िंदगी सँभाल सकती हूँ। यह काम क्या चीज़ है।”

ऑफ़िस से निकलते वक़्त संगीता के क़दम भारी थे, लेकिन दिल में एक आग जल चुकी थी। यह नौकरी अब सिर्फ़ कमाई का ज़रिया नहीं थी, यह उसकी इज़्ज़त और आत्म-सम्मान की लड़ाई थी। वह जानती थी कि राकेश उसे हर क़दम पर परखेगा, लेकिन उसे यह नहीं पता था कि आने वाले दिनों में यह ऑफ़िस सिर्फ़ काम की जगह नहीं, बल्कि पुराने रिश्तों और नए इम्तिहानों का मैदान बनने वाला है।

अगली सुबह ठीक नौ बजे, संगीता ने अपना पुराना सा दुपट्टा ठीक किया और एक गहरी साँस लेते हुए कंपनी का दरवाज़ा खोला। पेट का बोझ और मन का डर, दोनों उसके साथ थे, लेकिन चेहरे पर उसने मज़बूती की एक परत चढ़ा रखी थी। हर कोई उसे घूर रहा था, कुछ कर्मचारी आपस में फुसफुसा रहे थे, “अरे, यह तो प्रेग्नेंट है। यह काम कैसे करेगी? पता नहीं बॉस ने इसे क्यों रख लिया।”

एचआर मैनेजर ने उसे मोटी-मोटी फ़ाइलों का एक ढेर थमा दिया। कुर्सी पर बैठते ही उसकी पीठ में एक तेज़ दर्द उठा, लेकिन उसने बिना कोई शिकायत किए काम शुरू कर दिया। दोपहर में जब वह पानी पीने गई, तो एक जूनियर स्टाफ़ ने ताना मारा, “दीदी, घर पर आराम करने का टाइम नहीं मिला क्या?”

संगीता ने मुस्कुराकर कहा, “आराम तो ज़िंदगी में बाद में भी हो सकता है, इज़्ज़त कमाने का टाइम अभी है।”

शाम को राकेश अपने केबिन से निकला और संगीता की टेबल के पास आकर खड़ा हो गया। उसने देखा कि सारी फ़ाइलें करीने से लगी हुई हैं और डेटा भी तैयार है। “लगता है तुमने मेहनत की है,” राकेश ने अनजाने में थोड़े नरम स्वर में कहा।

“मेहनत तो करनी ही पड़ेगी। मैं चाहती हूँ कि मेरा बच्चा जब बड़ा हो, तो उसे पता हो कि उसकी माँ हार मानने वालों में से नहीं है,” संगीता ने सीधा जवाब दिया। राकेश कुछ पल चुप रहा और बिना कुछ कहे चला गया।

उस हफ़्ते के आख़िर में, राकेश ने उसे एक ऐसा काम दिया जो उसके लिए सबसे मुश्किल था: एक आउटडोर इवेंट का मैनेजमेंट, जिसमें घंटों खड़े रहना था। संगीता समझ गई कि यह उसके हौसलों को तोड़ने की आख़िरी कोशिश है।

इवेंट वाले दिन, तेज़ धूप उसके सिर पर चुभ रही थी और पेट का बोझ उसके क़दम भारी कर रहा था। लेकिन उसने हार नहीं मानी। हर स्टॉल पर जाकर उसने काम सँभाला, वर्करों से बात की और यह सुनिश्चित किया कि सब कुछ समय पर हो। शाम को जब क्लाइंट आया, तो इवेंट पूरी तरह सफल रहा। राकेश भी वहाँ पहुँचा। क्लाइंट ने राकेश से कहा, “इवेंट परफ़ेक्ट है। यह किसने मैनेज किया?”

राकेश ने कुछ पल संगीता को देखा, जो पसीने से तर-बतर थी, और फिर भीड़ के सामने कहा, “यह हमारी टीम की नई मेंबर, संगीता ने किया है।” कमरे में तालियाँ बजीं। राकेश की नज़र में शायद पहली बार सम्मान की एक झलक थी।

कुछ हफ़्तों बाद, कंपनी को एक बहुत बड़ा कॉन्ट्रैक्ट मिलने वाला था, लेकिन क्लाइंट बहुत मुश्किल था। मीटिंग में प्रेजेंटेशन कौन देगा, इस पर सब पीछे हट गए। तभी संगीता ने कहा, “मैं दूँगी।”

मीटिंग वाले दिन, संगीता ने अपनी प्रेजेंटेशन शुरू की। वह सिर्फ़ आँकड़े नहीं बता रही थी, बल्कि एक कहानी सुना रही थी। उसने प्रोजेक्ट को मुनाफ़े से नहीं, बल्कि भरोसे और ज़िम्मेदारी से जोड़ा। क्लाइंट, जो अपनी सख़्ती के लिए मशहूर था, प्रभावित हो गया। “मिस संगीता,” उसने कहा, “आपने मुझे सिर्फ़ एक आइडिया नहीं, एक विज़न बेचा है। डील पक्की!”

कमरे में तालियों की गूँज उठी। राकेश के चेहरे पर एक दुर्लभ सी मुस्कान थी। उस दिन ऑफ़िस से निकलते वक़्त तेज़ बारिश शुरू हो गई। राकेश ने कार रोकी, “बैठ जाओ, छोड़ देता हूँ।”

गाड़ी में सन्नाटा था। राकेश ने अचानक कहा, “संगीता, शायद उस वक़्त मैं बहुत कमज़ोर था। मैंने अपना गुस्सा तुम पर उतारा, जबकि ग़लती मेरी थी।”

“अफ़सोस से सब कुछ नहीं बदलता, राकेश। ज़िंदगी का हर घाव सिलाई से नहीं, समय से भरता है,” संगीता ने कहा।

दो हफ़्ते बाद, ज़िंदगी का सबसे बड़ा मोड़ आया। ऑफ़िस में मीटिंग चल रही थी, तभी रिसेप्शनिस्ट भागते हुए आई, “सर, संगीता मैम को अस्पताल ले गए हैं। लेबर पेन शुरू हो गया है।”

राकेश के हाथ से पेन गिर गया। वह बिना एक पल गँवाए अस्पताल की ओर भागा। वार्ड के बाहर वह बेचैनी से टहल रहा था। उसके दिमाग़ में बस एक ही बात गूँज रही थी, “अगर आज कुछ हो गया, तो मैं ख़ुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगा।”

कुछ घंटों बाद, नर्स बाहर आई। “मुबारक हो, बेटा हुआ है।”

राकेश की आँखें भर आईं। उसने कमरे में जाकर देखा। संगीता थकी हुई थी, लेकिन उसकी गोद में एक छोटा सा बच्चा था, जो अपनी नन्ही उँगलियों से उसकी उँगली पकड़ रहा था।

“मिलिए, मेरे बेटे से,” संगीता ने धीमी आवाज़ में कहा।

राकेश के होंठ काँपे। “क्या मैं…?” संगीता ने बिना कुछ कहे बच्चे को उसकी ओर बढ़ा दिया। राकेश ने बच्चे को उठाया और उसके छोटे से चेहरे को देखते हुए फुसफुसाया, “मैं तुम्हें कभी अकेला नहीं छोड़ूँगा। न तुम्हें, न तुम्हारी माँ को।”

कुछ हफ़्ते बाद, राकेश ने संगीता को कंपनी का क्रिएटिव हेड बना दिया। लोगों को लगा यह पुराने रिश्ते की वजह से है, लेकिन हक़ीक़त यह थी कि राकेश को आख़िरकार समझ आ गया था कि जिस औरत को उसने कभी बोझ समझा, वही उसकी कंपनी और ज़िंदगी की सबसे बड़ी ताक़त है।

एक साल बाद, कंपनी की एनिवर्सरी पार्टी में, राकेश स्टेज पर आया। “आज मैं अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सच बताना चाहता हूँ,” उसने कहा। “मैंने तीन साल पहले एक औरत को छोड़ दिया था, जो उस वक़्त मेरी पत्नी थी। वह गर्भवती थी और मैंने उसकी ताक़त को कमज़ोरी समझा। लेकिन आज, वही औरत मेरी कंपनी की जान है और मेरे बेटे की माँ।”

सारी नज़रें संगीता पर टिक गईं।

राकेश ने आगे कहा, “संगीता, मैं तुमसे माफ़ी नहीं माँगता, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं उसके लायक नहीं। मैं बस यह कह रहा हूँ कि अगर तुम चाहो, तो मैं तुम्हारे साथ एक नई शुरुआत करना चाहता हूँ।”

पूरा हॉल तालियों से गूँज उठा। संगीता की आँखों में आँसू थे। वह स्टेज पर आई, राकेश के पास खड़ी हुई और सिर्फ़ इतना कहा, “शुरुआत करने के लिए माफ़ी काफ़ी नहीं होती, राकेश। भरोसा चाहिए, जो टूटने में एक पल लगता है और बनने में पूरी ज़िंदगी।”

इतना कहकर वह नीचे उतर गई।

लेकिन उस दिन के बाद, राकेश सच में बदल गया। वह अब बॉस नहीं, एक पिता और एक साथी की तरह व्यवहार करने लगा। वह संगीता के लिए नहीं, बल्कि संगीता के साथ खड़ा रहा। उसने धीरे-धीरे, अपने कामों से, अपने समर्पण से, संगीता का टूटा हुआ भरोसा फिर से जोड़ा।

कुछ महीने बाद, एक छोटी सी शादी हुई। न कोई बड़ा हॉल, न कोई भव्य सजावट। बस परिवार, कुछ दोस्त और एक छोटा सा बच्चा, जो अपने मम्मी-पापा के बीच खड़ा हँस रहा था।

दोस्तों, प्यार का मतलब सिर्फ़ दिल जीतना ही नहीं, भरोसा जीतना भी है। और भरोसा तभी बनता है, जब इंसान मुश्किल वक़्त में साथ खड़ा हो, चाहे हालात कैसे भी हों। यह कहानी हमें सिखाती है कि किसी की मजबूरी का फ़ायदा उठाना आसान है, लेकिन उसकी ताक़त बनना मुश्किल। और जो मुश्किल को चुनता है, वही सच्चा साथी कहलाता है।