जब मंदी आयी तो सभी सेठ जी को छोड़कर जाने लगे ,लेकिन 2 नौकरों ने साथ दिया , फिर जो हुआ उसने हैरान कर

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शहर के सबसे व्यस्त और पुराने बाजारों में से एक जहरी बाजार की एक जानी-मानी गली में कपूर टेक्सटाइल्स नाम की एक बड़ी और शानदार दुकान थी। यह दुकान केवल कपड़ों की बिक्री का केंद्र नहीं थी, बल्कि विश्वास, गुणवत्ता और परंपरा का एक जीता-जागता प्रतीक थी। इस दुकान के मालिक सेठ पंकज कपूर थे, जो लगभग पचास-पचपन वर्ष के थे। उनके चेहरे पर हमेशा एक शांत और सौम्य मुस्कान रहती थी, जो उनके स्वभाव की मिठास और दयालुता को दर्शाती थी। पंकज जी ने यह कारोबार अपने पिता से सीखा था, लेकिन अपनी मेहनत और दूरदर्शी सोच से इसे उस मुकाम पर पहुंचाया था जहां पहुंचना हर व्यापारी का सपना होता है।

सेठ पंकज कपूर केवल एक सफल कारोबारी ही नहीं, बल्कि एक नेकदिल इंसान भी थे। उनके लिए दुकान पर काम करने वाले कर्मचारी केवल नौकर नहीं, बल्कि उनके परिवार का हिस्सा थे। उनके यहां छह लड़के काम करते थे, जिन्हें उन्होंने बड़ी परख के बाद चुना था। वे न केवल उन्हें काम सिखाते बल्कि जीवन के उसूल भी समझाते। इन छह लड़कों में सबसे पुराना और भरोसेमंद रामू था, जो पिछले बीस वर्षों से सेठ जी के साथ था। रामू ने इस दुकान को एक छोटी सी गुमटी से बड़े शोरूम में बदलते देखा था। वह सेठ जी के हर उतार-चढ़ाव का गवाह था और दुकान के हर कोने से वाकिफ था।

दूसरा था शंकर, एक 25 वर्षीय नौजवान जो पांच वर्षों से यहां काम कर रहा था। वह मेहनती और सीखने को हमेशा आतुर रहता था। रामू और शंकर के अलावा चार और लड़के थे – सुरेश, मोहन, सोहन और दिनेश। सुरेश उनमें सबसे ज्यादा होशियार और बातूनी था। वह ग्राहकों को अपनी मीठी-मीठी बातों से ऐसा लुभाता कि कोई बिना कुछ खरीदे दुकान से वापस नहीं जाता था। सेठ जी भी उसकी इस काबिलियत के कायल थे। मोहन, सोहन और दिनेश मेहनती थे, लेकिन दुनियादारी में कच्चे और अक्सर सुरेश की हां में हां मिलाते थे।

सेठ पंकज कपूर का अपने कर्मचारियों के साथ रिश्ता मालिक और नौकर का नहीं, बल्कि परिवार के मुखिया और सदस्यों का था। जब भी बाजार में तेजी होती, दिवाली या शादी-ब्याह का सीजन होता, और बिक्री उम्मीद से ज्यादा होती, तो सेठ जी की खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। महीने के अंत में तनख्वाह के साथ-साथ हर लड़के को उसकी मेहनत के हिसाब से अच्छा खासा इनाम भी देते। किसी के घर में बीमारी होती तो इलाज का सारा खर्चा उठाते। किसी की बहन की शादी होती, तो कपड़ों का पूरा ताखा बिना हिसाब किताब के भेज देते। उन्होंने हर एक की जिंदगी को संवारने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। और ये लड़के भी उनकी वफादारी साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे, खासकर सुरेश, जो हमेशा सबसे आगे रहता था। वह अक्सर सेठ जी के पैर छूकर कहता, “सेठ जी, आप तो हमारे अन्नदाता हैं, हमारे पिता समान हैं। हम चाहे भूखे मर जाएं, पर आपका साथ कभी नहीं छोड़ेंगे।” बाकी लड़के भी उसकी हां में हां मिलाते और कसमें खाते कि चाहे कैसे भी हालात हों, वे हमेशा कपूर टेक्सटाइल्स का हिस्सा रहेंगे।

समय का पहिया अपनी गति से घूमता रहा। शहर में एक के बाद एक बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल खुलने लगे। लोगों का खरीददारी का तरीका बदलने लगा। ऑनलाइन शॉपिंग का चलन भी जोर पकड़ रहा था। इन सबका असर पारंपरिक बाजारों पर पड़ने लगा था। कपूर टेक्सटाइल्स की बिक्री धीरे-धीरे कम होने लगी। जहां पहले दुकान में ग्राहकों की ऐसी भीड़ होती थी कि लड़कों को सांस लेने की फुर्सत नहीं मिलती थी, वहीं अब ज्यादातर वक्त खामोशी पसरी रहती थी।

सेठ पंकज कपूर ने बहुत कोशिश की। उन्होंने दुकान का रंग-रोगन नया करवाया, कपड़ों की नई वैरायटी मंगवाई, डिस्काउंट की स्कीमें चलाई, लेकिन बाजार की मंदी की लहर इतनी तेज थी कि उनकी सारी कोशिशें नाकाफी साबित हो रही थीं। दुकान का खर्चा निकालना भी मुश्किल हो गया था। जो सेठ कल तक अपने नौकरों को इनाम बांटते थे, आज उन्हें उनकी तनख्वाह देने के लिए भी सोचना पड़ रहा था। कई महीनों तक उन्होंने अपनी जमा पूंजी से दुकान का खर्चा चलाया, इस उम्मीद में कि शायद हालात सुधर जाएंगे।

पर जब पानी सिर से ऊपर जाने लगा, तो उन्होंने एक बहुत ही भारी मन से कड़ा फैसला लेने का निश्चय किया। एक शाम जब दुकान बंद करने का वक्त हुआ, तो उन्होंने अपने सभी छह कर्मचारियों को अपने गल्ले के पास बुलाया। सबके चेहरे पर एक सवालिया निशान था। सेठ जी का उतरा हुआ चेहरा देखकर वे समझ गए थे कि मामला गंभीर है, पर क्या होने वाला है, इसका अंदाजा किसी को नहीं था।

सेठ जी ने गहरी सांस ली और धीमी, दर्द भरी आवाज में बोलना शुरू किया, “भाइयों, आप सब जानते हैं कि मैं आप सबको अपने परिवार से कम नहीं समझता। जब भी दुकान में बरकत हुई, जब भी सीजन में अच्छी बिक्री हुई, तो मैंने उस खुशी में आप सबको हमेशा शामिल किया है। मैंने आपकी तनख्वाह बढ़ाने और आपको इनाम देने में कभी कमी नहीं रखी।” सबने सिर हिलाकर उनकी बात का समर्थन किया।

जब मंदी आयी तो सभी सेठ जी को छोड़कर जाने लगे ,लेकिन 2 नौकरों ने साथ दिया ,  फिर जो हुआ उसने हैरान कर

सेठ जी ने आगे कहा, “पर आप सब यह भी देख रहे हैं कि पिछले कुछ महीनों से बाजार के हालात बहुत खराब हैं। हम एक बड़ी मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। दुकान का किराया और दूसरे खर्चे निकालना भी मुश्किल हो रहा है। मैंने पूरी कोशिश की, पर अब मेरे लिए आप सबको पूरी तनख्वाह देना संभव नहीं हो पा रहा है। इसलिए मैंने फैसला किया है कि जब तक यह मंदी का दौर चल रहा है, तब तक मैं आप सभी की तनख्वाह से ₹2000 कम करूंगा। यह मेरे लिए भी बहुत मुश्किल फैसला है, पर मेरे पास कोई रास्ता नहीं है। मैं आपसे वादा करता हूं कि जैसे ही अगली सीजन में हालात सुधरेंगे, मैं आपके काटे हुए पैसे लौटाऊंगा और हर एक की तनख्वाह में ₹4,000 की बढ़ोतरी भी करूंगा।”

कमरे में गहरा सन्नाटा छा गया। वह वफादारी की कसमें, वह पिता समान होने की बातें सब उस सन्नाटे में कहीं खो गईं। किसी ने सेठ जी से यह नहीं कहा कि कोई बात नहीं, हम आपके साथ हैं। बल्कि सबके चेहरे पर चिंता की लकीरें थीं। वे बाहर जाकर कान्हा फूंकने लगे। सुरेश उन्हें समझा रहा था कि इतने कम पैसों में गुजारा कैसे होगा, कौन जाने यह मंदी कब खत्म होगी। सेठ जी बस हमें बहला रहे हैं।

थोड़ी देर बाद सुरेश अकेला सेठ जी के पास आया। उसने बनावटी अफसोस के साथ कहा, “सेठ जी, आप तो जानते ही हैं मेरा घर-परिवार। मेरी पत्नी भी अक्सर बीमार रहती है। बच्चों की स्कूल की फीस है। इतने कम में गुजारा होना बहुत मुश्किल है। वैसे भी मुझे सामने वाली गली की गुप्ता जी एंड संस की दुकान से एक अच्छा ऑफर है। वे लोग मुझे ₹3000 ज्यादा दे रहे हैं। मेरा मन तो बिल्कुल नहीं है आपको छोड़कर जाने का, पर मजबूरी है।”

सेठ पंकज कपूर को ऐसा लगा जैसे किसी ने उनके सीने में छुरा घोंप दिया हो। यह वही सुरेश था जो कल तक उनके पैरों पर गिरता था। उन्होंने अपने भावों पर काबू रखते हुए कहा, “ठीक है सुरेश, जैसी तुम्हारी मर्जी।” सुरेश के जाने की देर थी कि एक-एक करके मोहन, सोहन और दिनेश भी आ गए। सबकी कहानी लगभग एक जैसी थी। सबके बहाने भी लगभग एक जैसे थे। किसी का घर का खर्चा नहीं चल रहा था, तो किसी को कहीं और से बेहतर ऑफर मिल गया था।

एक घंटे के अंदर छह में से चार लड़के अपना हिसाब लेकर दुकान से चले गए। अब दुकान में सिर्फ सेठ जी, रामू और शंकर बचे थे। दुकान की बत्तियां तो जल रही थीं, पर वहां अंधेरा पसरा हुआ था। सेठ जी की आंखों में आंसू थे। उन्हें अपने कारोबार के नुकसान से ज्यादा अपने भरोसे के टूटने का दुख था। उन्होंने हैरान होकर रामू और शंकर से पूछा, “क्यों भाई, तुम दोनों क्यों नहीं गए? क्या तुम्हें कहीं से कोई ऑफर नहीं मिला या तुम्हारी कोई मजबूरी नहीं है?”

रामू, जो अब तक चुपचाप एक कोने में खड़ा सब कुछ देख रहा था, आगे बढ़ा। उसने सेठ जी के हाथ पकड़ लिए। उसकी आंखों में भी आंसू थे। उसने कहा, “सेठ जी, आप यह कैसी बातें कर रहे हैं? ऑफर तो हमें भी मिले हैं, पर हम बिकाऊ नहीं हैं। आपने हमारे लिए जो किया है, वह हम अपनी सातों जिंदगियों में भी नहीं भूल सकते। जब मेरे पिताजी बीमार थे और मेरे पास इलाज के लिए एक पैसा नहीं था, तब आपने ही अपना सब कुछ दांव पर लगाकर उन्हें बचाया था। आज अगर आपके ऊपर मुसीबत आई है तो क्या हम आपको अकेला छोड़कर चले जाएंगे?”

शंकर ने भी कहा, “सेठ जी, आप अगर हमें एक भी पैसा नहीं देंगे, तब भी हम यहीं काम करेंगे। हम तीन की जगह एक वक्त की रोटी खा लेंगे, पर आपके एहसानों का कर्ज हम अपनी वफादारी से चुकाएंगे।” यह सुनकर सेठ पंकज कपूर अपने आंसुओं को रोक नहीं पाए। वह अपनी कुर्सी से उठे और उन दोनों को गले लगा लिया। वह बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोने लगे। उन्होंने कहा, “आज मुझे यकीन हो गया कि सारे इंसान एक जैसे नहीं होते। यह मंदी की बरसात थी, जो कचरा था, वह बह गया और जो मेरे अपने थे, जो काम के थे, वह यहीं रह गए। चलो, अब चिंता की कोई बात नहीं। अब हम तीनों मिलकर इस दुकान को फिर से खड़ा करेंगे।”

उस दिन से एक नया संघर्ष शुरू हुआ। दुकान पर अब सिर्फ तीन लोग थे, पर उनके हौसले छह लोगों से भी ज्यादा थे। सेठ जी खुद अब गल्ले पर नहीं बल्कि ग्राहकों को कपड़े दिखाने में लगे। रामू और शंकर दिन-रात एक कर रहे थे। वे सफाई से लेकर माल की गिनती और बिक्री तक सारा काम खुद ही करते। वे थक जाते, पर उनके चेहरे पर शिकन नहीं होती। उन्हें अपने सेठ के भरोसे को जिंदा रखना था। सेठ जी ने भी हार नहीं मानी। उन्होंने अपनी दुकान के ऊपर वाले कमरे को अपना घर बना लिया ताकि वे ज्यादा से ज्यादा वक्त दुकान को दे सकें।

उन्होंने बाजार के नए ट्रेंड को समझा। कुछ नौजवान डिजाइनरों से संपर्क किया और कपड़ों की एक नई और सस्ती रेंज तैयार करवाई। उन्होंने दुकान को एक नया आधुनिक रूप दिया। धीरे-धीरे उनकी मेहनत रंग लाने लगी। लोगों को दुकान का नया अंदाज और कपड़ों की नई वैरायटी पसंद आने लगी। जो ग्राहक दुकान छोड़कर चले गए थे, वे वापस लौटने लगे। एक से दो हुए, दो से चार, और कुछ ही महीनों में कपूर टेक्सटाइल्स की रौनक फिर से पहले जैसी होने लगी।

करीब छह महीने गुजर गए। अगली दिवाली का सीजन आया, और इस बार दुकान पर बिक्री ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। सेठ जी का डूबा हुआ कारोबार अब पहले से भी ज्यादा मुनाफे में था। उन्होंने अपना वादा निभाया। रामू और शंकर की तनख्वाह दोगुनी कर दी और दिवाली पर इतना भारी बोनस दिया कि वे दोनों हैरान रह गए। पर सेठ जी ने सिर्फ इतना ही नहीं किया। उन्होंने दुकान की कागजातों में बदलाव करके रामू और शंकर को दुकान के मुनाफे में 5% का हिस्सेदार भी बना लिया। उन्होंने कहा, “यह दुकान जितनी मेरी है, उतनी ही तुम्हारी भी है।”

वहीं दूसरी तरफ सुरेश और बाकी तीनों लड़कों की कहानी एक अलग मोड़ ले रही थी। गुप्ता जी एंड संस के मालिक बहुत लालची और कठोर स्वभाव के थे। वे तनख्वाह तो ज्यादा देते थे, पर अपने कर्मचारियों से जानवरों की तरह काम लेते थे। वहां कोई अपनापन नहीं था, कोई सम्मान नहीं था। सुरेश की मीठी बातें वहां ज्यादा दिन काम नहीं आईं। जैसे ही दिवाली का सीजन खत्म हुआ और बाजार में थोड़ी मंदी आई, गुप्ता जी ने बिना सोचे-समझे उन चारों को यह कहकर काम से निकाल दिया कि अब उन्हें उनकी जरूरत नहीं है।

अब वे चारों सड़क पर आ गए थे। उन्हें अपनी गलती का एहसास हो रहा था। उन्हें सेठ पंकज कपूर की दरियादिली, उनका प्यार, उनका सम्मान सब कुछ याद आ रहा था। उन्हें पता चला कि कपूर टेक्सटाइल्स अब पहले से भी ज्यादा अच्छा चल रहा है। अपनी सारी शर्म और झिझक को एक तरफ रखकर एक दिन वे चारों वापस अपने पुराने सेठ के दरवाजे पर आ खड़े हुए। सेठ जी उस वक्त रामू और शंकर के साथ बैठकर हिसाब-किताब कर रहे थे। जब उन्होंने उन चारों को दरवाजे पर देखा, तो एक पल के लिए उनके चेहरे पर गुस्से और दुख के भाव आए।

वे चारों अंदर आए और आते ही सेठ जी के पैरों पर गिर पड़े। वे रो रहे थे, गिड़गिड़ा रहे थे। सुरेश ने कहा, “सेठ जी, हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई। हम लालच में अंधे हो गए थे। प्लीज हमें माफ कर दीजिए। हमें वापस काम पर रख लीजिए। हम अब बिना तनख्वाह के भी काम करने को तैयार हैं।”

सेठ पंकज कपूर का दिल बड़ा था, पर उनका भरोसा बुरी तरह टूटा था। उन्होंने सख्त आवाज में कहा, “माफी? किस बात की माफी? जब मुझे तुम्हारी सबसे ज्यादा जरूरत थी, तब तुम मुझे अकेला छोड़कर चले गए थे। आज जब तुम्हारे ऊपर मुसीबत आई है, तो तुम्हें यह दरवाजा याद आ गया? नहीं। अब इस दुकान में तुम जैसे मौका परस्त लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। आप लोग जा सकते हैं।”

यह सुनकर वे चारों और जोर से रोने लगे। उन्होंने अपने साथ गुजारे गए अच्छे वक्त को याद दिलाया, अपनी पुरानी वफादारी की दुहाई दी, पर सेठ जी नहीं माने। आखिरकार जब वे चारों पूरी तरह मायूस और निराश होकर भारी कदमों से दुकान से बाहर जाने लगे, तब सेठ जी का दिल पसीज गया। शायद उन्हें अपना पुराना वक्त याद आ गया, या शायद रामू और शंकर की आंखों में भी उन चारों के लिए दया का भाव था। उन्होंने उन्हें दरवाजे पर ही रोका।

“रुको,” सब रुक गए। उनकी आंखों में आखिरी उम्मीद की किरण चमक उठी। सेठ जी ने गहरी सांस ली और कहा, “इंसान गलतियों का पुतला होता है, और माफ करने वाला गलती करने वाले से बड़ा होता है। मेरे इन दो बेटों ने (रामू और शंकर की तरफ इशारा करते हुए) मुझे सिखाया है कि परिवार क्या होता है, और परिवार अपने भटके हुए बच्चों को एक मौका जरूर देता है। मैं तुम चारों को एक आखिरी मौका दे रहा हूं। पर याद रखना, भरोसा कांच की तरह होता है। एक बार टूट जाए तो जुड़ तो जाता है, पर दरार हमेशा रह जाती है। तुम्हें अपनी वफादारी सिर्फ बातों से नहीं, अपने काम से साबित करनी होगी।”

यह सुनकर उन चारों की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे। वे समझ गए थे कि उन्होंने सिर्फ अपनी नौकरी ही नहीं, बल्कि एक बड़ा सबक भी वापस पा लिया था। यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्चा रिश्ता वही होता है जो मुश्किल वक्त में साथ दे। वफादारी केवल अच्छे समय में मुस्कुराने का नाम नहीं, बल्कि बुरे समय में हाथ थामने का नाम है। माफ कर देना बदला लेने से कहीं ज्यादा बड़ी ताकत है।

सेठ पंकज कपूर ने अपने उन कर्मचारियों को माफ कर के ना सिर्फ उन्हें एक नई जिंदगी दी, बल्कि खुद को भी एक बड़ा इंसान साबित कर दिया। क्या आपकी जिंदगी में भी कोई ऐसा सेठ, बॉस या दोस्त है जिसने आपकी मुश्किल में मदद की हो? या क्या आपने भी किसी के लिए ऐसी ही वफादारी निभाई है? ऐसी कहानियां हमारे जीवन को बेहतर बनाती हैं, और यह याद दिलाती हैं कि इंसानियत और भरोसा ही सबसे बड़ी पूंजी है।