“जब लालच ने ली इंसानियत की परीक्षा | बुज़ुर्ग पिता, बहू और IPS बेटी की सच्ची कहानी”
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धर्मपाल की झुर्रियों भरी झुकी पीठ और झिममिमाती मंद रोशनी में धुंधली होती दीवारें उसके अकेलेपन की कहानी बयां कर रही थीं। पच्चीस साल पहले जब उसने अपनी पत्नी सावित्री को खोया था, तब उसे लगा था कि एक बार टूट जाने पर जिंदगी फिर से जुड़ ही नहीं पाती। मगर वक्त ने उसे बता दिया कि जब इंसान की जांघों में दम नहीं रहता, तब भी यादें हिलाकर रख देती हैं। उनका लाडला बेटा सुरेश तब महज बीस साल का था जब उसने कनाडा में नौकरी के लिए जाने की तैयारी की थी। माता-पिता के कानों में महीनों “एक साल भर तो लगेंगे” की गवाही गूंजती रही, और अंततः उस एक साल ने दशकों का अंतराल बना दिया। सुरेश ने पत्नी कविता को गांव लखनऊ से सीधे शिवनगर गांव में रहने के लिए कह दिया, जहां धर्मपाल का पुराना मकान था। वह खुद देश के दूसरे छोर पर बस गया, और फोन की गूंजती घंटियाँ और वीडियो कॉल का छोटा सा स्क्रीन ही मिलन का आधार बन गया।
घर में अब सिर्फ धर्मपाल और उसकी बहू कविता रहते थे। धर्मपाल दिन भर बगीचे में पड़े सूखे पत्तों की तरह गिरते वक्त की टहनी पर थर-थर कांपता रहता और कविता चुपचाप उसके आसपास चाय-पानी की थाली लेकर हाथों में थका उल्लास लिए इधर-उधर दौड़ती रहती। उस थकान के खालीपन में कभी उसकी पत्नी की मीठी हँसी गूंज आती, तो कभी बेटे के बोल “पापा, सब ठीक है” की गूंज कानों में उतर आती, पर हर सर्द शाम लौटती अकेलेपन की कोलाहल उसे फिर वहीं की वहीं उतर पहुंचाती।
एक आम सी सुबह कविता ने खुली ड्राइंग रूम की मेज पर चाय के दो कप रखे। नरम धूप पर्दों के पार कुछ लकीरें बना रही थी, जैसे दोनों के बीच बिखरते सवाल-अनसवाल की संजीवनी सौगात। धर्मपाल ने कप उठाया और कविता की तरफ इशारा करके उसे साथ बुलाया। उसकी आवाज़ गहरी, फोलादी पर थोड़ी थकी-सी लग रही थी, “बेटी, यह तन्हाई बर्दाश्त नहीं होती। मैं बूढ़ा हो गया, तेरे रहते मुझे अकेला लगे।”
कविता ने कप वहीं ठंडा होने दिया और मुस्कुरा कर समझाया, “ससुर जी, आप अकेले नहीं। मैं हूं ना आपके साथ।” उसकी आवाज़ में क्षण भर के लिए गर्मी फैल गई, पर धर्मपाल के चेहरे पर सिहरन की झलक दिखी। उसकी उंगलियाँ कप के गोल किनारे में थम गईं, जैसे वही किनारे उसकी तकलीफ का किनारा भी हो। “तुम हो, बेटियों-बहुओं का दिल बड़ा होता है, पर वह दिल पापा का दिल है, जो पप्पा के पापा जैसा प्यार नहीं दे पाता। क्या तुम्हें भी अकेला जीने का दर्द सूझता है?” उन्होंने धीमे स्वर में पूछा। कविता ने जल्दी से उत्तर दिया, “मैं समझती हूं, ससुर जी। मुझे भी तन्हा रहना पसन्द नहीं। मैं भी अपने घर, अपने लोग याद करती हूं।”
धर्मपाल हांफ कर उठा और ड्राइंग रूम के उस कोने की ओर बढ़ गया, जहां बेटे का बचपन दिखाती एक तस्वीर धूल से गीली पड़ी थी। उसने तस्वीर छुई, आँखें बदलते हुए गीली-सी हो आईं। “तेरे पति-मेरे बेटे ने जाने के बाद हर एक सुबह सुनसान हो गई।” कविता ने धीरे से हाथ रखा, “यहां आकर उसने भी सुकून ढूंढा होगा, ससुर जी।” पर धर्मपाल को सुकून नहीं दिख रहा था, सिर्फ खालीपन का अहसास था।
कुछ दिनों बाद, कविता ने बड़े संजीदगी से तय किया कि ससुर की तन्हाई दूर करने के लिए—हां, बच्चादानी ही शब्द था—प्रेम-दोबारा शादी करवा दे। उसने चाय में नींद की हल्की दवा मिलाई और कमरे में प़ौंध कर रख दी। जब धर्मपाल ने चाय एक घूंट में पी, तो उसकी भौंहें एक पल के लिए चौंकीं, पर फिर उसने सोच लिया कि यही दवा यार का चिराग फिर जला देगी। उसी शाम कविता के मोबाइल पर फोन आया—सुरेश खुशखबरी सुनाते हुए बोला, “मां, पापा चंद दिन में आ रहे हैं। ऑफिस की छुट्टी मिल गई।” कविता की खुशी का ठिकाना न रहा, पर उसने किसी तरह पर्दा रखा कि पापा का “डॉक्टर ने दवा दे रखी” वाला理由 ठीक है।
अंततः सुरेश लौटा। घर में संजीव बरसात-सी थी—बेटे की आवाज़, उसकी गिड़गिड़ाती बातें, पिता की छीनती लंबी झलकियाँ। पर खुशी चैन की नींद न थी, चिंता भीतर ही भीतर दहक रही थी कि पिता उन्मुक्त नहीं रहेंगे। तीन दिनों के भीतर ही सुरेश ने उसे दिल्ली बुला लिया, एक बड़े फ्लैट में, जहां वे रहते थे। धर्मपाल को अकेला न छोड़ने के बहाने एक नौकरानी भी रखी—सोनू, जिसने मध्यम हँसी और नम्रता से मामले पाले। एक शाम सोफे पर बैठे सुरेश ने कहा, “पापा, अब तो दिल्ली में हर सुख है, यहाँ आप एक स्मार्टफोन भी रख लीजिए, दुनिया की हर चीज़ आपके हाथ आएगी।”
अगले दिन सोफे पर नया स्मार्टफोन देख धर्मपाल की दिलचस्पी जागी। उसने पहली बार डेटिंग एप खोली। झटपट “अपलोड फोटो” और “इच्छुकों से चैट” की दुनिया में पैर रख दिया और एक सुंदर चेहरे की प्रोफ़ाइल पर खिंच गया—नाम पायल, उम्र तीस के करीब, आँखों में चमक, मुस्कान में लाउड ‘हाय’। धर्मपाल ने झटपट नम्बर कॉपी किया और कॉल कर डाला। एक गुलाबी आवाज़ में पायल ने नमस्ते की झाँकी दी, और दोनों के बीच अनकहे सुरों की धुन सेट होने लगी।

अगले कुछ दिनों में वे रोज शाम को चैट करते, वीडियो कॉल पर हँसते, दिल की खामोशी खोलकर रख देते। फिर पायल ने कहा, “आपसे मिलने आना चाहती हूं।” और वह दिन नहीं था जब धर्मपाल ने कह डाला, “बिलकुल आओ।” पायल आई तो मैकअप-टीका बिखरे चेहरे को कवर कर लेगी, हाथ में महंगे ब्रांड का पर्स, रास्ते में सब दुकानों में सेल्फ़ी और गिग्गलिंग। धर्मपाल ने बियर परोसी, पी ली, और पायल ने आईने में अपने होंठों को छापा। फिर उसने धीमी आवाज़ में कहा, “मैं तुम्हारे साथ बाहर किसी होटल चलना चाहती हूं।” धर्मपाल ने अपनी थकान की भूली-सी धीमी आँखें चमका दीं, “चलो।”
होटल के कमरे में पहुंचकर पायल ने लाजनिता से कहा, “जितने पैसे चाहिए, लीजिए।” धर्मपाल ने हँसते हुए बोला, “पैसे नहीं आपकी संगत चाहिए।” पायल ने प्रेमप्रस्ताव बीच में रखकर सामने पापा जी को धोखे की नई दुनिया में लुटवाने की जिद कर डाली। “अगर तुम मुझे बीवी मानोगे तो शादी कर लूंगी।” धर्मपाल ने लाल आँखों से हाँ कह दिया। तभी उसके फोन पर सुरेश की सख्त आवाज़ गूंज उठी, “पापा, अभी घर वापस आइए!”
धर्मपाल जैसे हुआ हवा में भटकता और फ्लैट के रास्ते भागा। पर अंदर आया था तो पायल के साथ कोर्ट मैरिज के कागज़ात लहरा रहे थे। उसने दरवाज़ा खोला तो बेटी बहू कविता ने मरा हुआ चेहरा दिखाया, और वही पायल नई बीवी-अदा में खड़ी थी। धर्मपाल ने सख्त लहजे में कहा, “यह घर अब मेरा है, मेरी मर्जी चलेगी।” कविता के आँसुओं ने ढील दे दी, सुरेश का गुस्सा चिपका रहा, “पापा, क्या मतलब है आपका?” धर्मपाल ने खुद को जवानी और प्यार के ठगों की आग में झोंक रखा था, रिश्तों की राख उड़ गई थी।
फिर अचानक घर में सख्त खट-पट हुई—दरवाज़ा टूटा, दो पुलिस वाले, वर्दी में आईपीएस अंजलि, कविता की बड़ी बहन, आंखों में आग लेकर आई। “पापा, यह जो आपने शादी की है, यह एक शातिर ठगनी है।” पायल घबरा कर भागने लगी, उसके हाथ-पांव चूचे-बले बन गए, पुलिसवालों ने हाथ कड़ी कर ली। धर्मपाल की सांस थम गई। अंजलि ने कागज़ पेश किए—ठगी के कई मामले, बुजुर्गों से ठगी करने की शिकायतें, पायल की तस्वीरें, उसके कई ठगी-पुलिस थाने तक के दस्तावेज़।
धर्मपाल को घुटन हुई कि उसकी लाचारी उसे अजनबी के हवाले कर गई थी। उसने बेटे-दामाद और बहू को रोते देखा, उनका दर्द भीतर चुभता चला गया। उसने मुँह छिपाया, सर झुकाया, और कहा, “मैंने गलती की, मुझे माफ़ कर दो।” सुरेश ने कोमलता से कंधे से पकड़ लिया, “पापा, हम आपको कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे।” कविता ने हाथ जोड़कर कहा, “ससुर जी, हमारा परिवार अपना है, झूठी जवानी के वादों के पीछे मत भागिए।”
पायल को ले जाते समय अंजलि ने कहा, “पिताजी, रिश्तों से बड़ा कोई सहारा नहीं। आप लाए गए हैं तो लौट जाइए उस घर में, जहाँ आपका बेटा आपका इंतजार कर रहा है।” धर्मपाल की आँखों में सुकून की बूंदें उतर आईं। उसने अपने पुराने फोन से पायल के एप्स डिलीट कर दिए, शराब की बोतलें भी अलमारी में बंद कर दीं। अगले दिन, देश का बड़ा शहर छोड़कर, उसने रिहा रहने का फैसला किया—अपने बेटे-कविता के साथ वहीं फ्लैट, जहां गलियाँ ‘माँ-बेटा-बेटी’ की तन्हा माला से सजती थीं।
कुछ महीनों में धर्मपाल ने सीखा कि दौलत, जवानी, नशा—डरावना लगता है पर फरेब है। असली दौलत रिश्ते हैं—बेटे का हाथ, बहू की हँसी, बहन की पुलिस वर्दी में दमकती मुस्कान। आलोचना-बेइज्जती सब बदल गए, मोह भंग हुआ, मगर जीवन फिर से जुड़ गया। हर शाम जब धर्मपाल सोफे पर चाय भिगोकर बैठता है, तो एक कोना सुखद यादों का समंदर खोल देता है—सौम्य बहू की पुकार, बेटे का दर्पण-सा चेहरा, बहन की डंडे जैसी वर्दी, सब में घुला प्यार।
धर्मपाल अब कभी “शादी करूँ” की बात नहीं करता। वह खिड़की से देखता है कि पसरी शाम में नगर की हलकी-सी रौनक है, बुजुर्गों की कुर्सियाँ भी दुनिया की खबर सुनाती हैं, और घर की आँगन में एक छोटा-सा बगीचा अंबर-सा खुला हुआ है। वह जानता है कि सचमुच का सहारा अपने बेटे-दामाद-बहू के हाथों की नर्मी है, जो उसे फिर से जीना सिखा गई। शाम के उस पहले आँचल में जब सूरज ढलकर छिप जाता है, धर्मपाल बस एक बात दोहराता है—“पराया मोह मृगतृष्णा भर था, अपने अपना ही अपना है।” उसकी तन्हाई खत्म हो चुकी थी, क्योंकि परिवार ने उसे फिर से अपनी बाहों में समेट लिया था।
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