जब 2 साल पहले खोई हुई बेटी करोड़पति बाप को मेले में चूड़ियां बेंचती हुई मिली फिर पिता ने जो किया…
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शाम का समय था। आसमान में ढलते सूरज की लालिमा पूरे गांव भेरापुर के मेले में सोने की चमक बिखेर रही थी। मिट्टी की सौंधी खुशबू और गर्म जलेबियों की मीठी भाप हवा में घुली थी। मेले में हर तरफ रौनक थी। कोई लालू हलवाई की दुकान पर गर्म समोसे तल रहा था तो कहीं मोहन खिलौना भंडार के सामने बच्चों की भीड़ लगी थी। सीताराम पान भंडार, रामदयाल चाट वाले, किशोरी बर्फ गोला सेंटर जैसी दुकानों से आवाजें उठ रही थी।
लोगों की भीड़, ढोल की थाप, बच्चों की खिलखिलाहट और झूलों की चर-चर के बीच एक कोने में एक छोटी सी 12-13 साल की लड़की बैठी थी। जिसकी गोद में एक बड़ी सी टोकरी रखी थी। उसमें ढेर सारी रंग-बिरंगी चूड़ियां सजी थीं। लाल, नीली, हरी, सुनहरी, बैंगनी जैसे उसके सपने हर रंग में कैद हो। वह जोर-जोर से पुकार रही थी, “ले लीजिए चूड़ियां! सस्ती चूड़ियां ले लीजिए! बस ₹5 में। ₹5 में एक दर्जन।” उसके स्वर में मासूमियत भी थी और मजबूरी भी।
गुड़िया की मेहनत
धूल उड़ती थी पर वह हर बार अपनी टोकरी संभाल लेती। कोई ग्राहक रुकता तो मुस्कुरा कर चूड़ियां उसकी कलाई में पहना देती। “देखो दीदी, कितनी सुंदर लग रही है ना!” कुछ लोग बिना बोले चले जाते। कुछ भाव करते, “₹3 कर दे बिटिया।” वह हल्के से मुस्कुराकर कहती, “दीदी, ₹5 में भी तो मुश्किल से घर का चूल्हा जलता है।” और फिर भी कई बार भाव टूट जाता पर उसकी मुस्कान नहीं।
पसीने से भीगी माथे की लटें वह बार-बार हाथ से पीछे करती और फिर उसी जोश से पुकार लगाती, “ले लीजिए चूड़ियां! रंग-बिरंगी चूड़ियां ₹5 में एक दर्जन!” मेले की चमक के बीच उसकी आवाज अलग सी गूंजती थी। जैसे भीड़ में खोया कोई सपना खुद को जिंदा रखने की कोशिश कर रहा हो।
उस छोटी लड़की का नाम गुड़िया था। वही 12-13 साल की मासूम जो भेरापुर के मेले में अपनी रंग-बिरंगी चूड़ियां बेचते हुए अब भी उम्मीद की डोर पकड़े थी। सूरज अब ढल चुका था और मेले की रोशनी पीली झालरों की तरह चमक रही थी। लोग अब मिठाई की दुकानों और झूलों की तरफ ज्यादा खींचने लगे थे। तभी भीड़ के बीच से एक लगभग 55 साल की बुजुर्ग औरत आई।
दादी मां का प्यार
उसके हाथों में भी चूड़ियों की एक टोकरी थी। लेकिन चेहरे पर वक्त की थकान साफ झलक रही थी। उसने गुड़िया के पास आकर धीमी आवाज में कहा, “बेटा, कैसी चल रही है तेरी बिक्री? कुछ चूड़ियां बिकी क्या?” गुड़िया ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया, “नहीं दादी मां, आज तो कोई रुक ही नहीं रहा। सब बड़े दुकानदारों की चमचमाती चूड़ियां पसंद करते हैं। हमारी सस्ती चूड़ियों को कौन देखता है?”
दादी मां ने एक लंबी सांस ली। उनकी आंखों में भी वही निराशा थी जो गुड़िया की थी। “हां बेटा,” वह बोली, “अब मेले में भी दौलत वालों की चीजें बिकती हैं। हमारी मेहनत की नहीं।” दोनों की टोकरी में सजी चूड़ियां अब मेले की रोशनी में थोड़ी धूल भरी लगने लगी थी। गुड़िया ने अपनी टोकरी के किनारे को ठीक किया और बोली, “दादी मां, मैंने तो सोचा था आज अच्छे पैसे मिलेंगे। मां खुश हो जाएगी। पर कोई सुनता ही नहीं।”
दादी मां ने उसके सिर पर हाथ फेरा। “बेटा, जिंदगी भी तो ऐसी ही है। सब चमक की तरफ भागते हैं। सच्चाई की नहीं।” दोनों वहीं एक कोने में बैठे रहे। आसपास से आती ढोल की थाप, गुब्बारे फोड़ने की आवाजें और लोगों की हंसी उनके सन्नाटे को और गहरा कर रही थी। धीरे-धीरे रात गहराने लगी। दुकानों के बल बुझने लगे। मेला सिमटने लगा। लेकिन दोनों की आंखों में बुझा हुआ नहीं। इंतजार था। शायद अगली सुबह कोई उनकी टोकरी की ओर भी नजर डाल दे।

घर की ओर लौटते हुए
ज्यादा बिक्री ना होने के कारण गुड़िया और दादी मां ने अपनी-अपनी चूड़ियों की टोकरी बांधकर अपने सिर पर उठा ली और धीरे-धीरे घर की ओर बढ़े। शाम की ठंडी हवा में उनके पसीने से भीगी चूड़ियां टोकरी में हल्की-हल्की सरकती रही। रास्ते में दोनों थकान से थिरकते हुए चल रहे थे। कभी टोकरी के बोझ को संभालते, कभी एक-दूसरे की ओर हल्की मुस्कान भेजते मगर चेहरे पर झलकता उदासी का साया साफ था।
आखिरकार वे अपनी झोपड़ी के सामने पहुंचे। यह झोपड़ी मिट्टी और टाट के झुरमुट से बनी थी। चारों तरफ हल्की रोशनी, एक धुंधला सा दिया और अंदर की छोटी सी चारपाई उनके स्वागत के लिए तैयार थी। अंदर आते ही दोनों टोकरी नीचे रखकर चुपचाप चारपाई पर बैठ गए। गुड़िया ने अपनी छोटी हथेलियों को घुटनों पर रखकर झुकाया और दादी मां ने सर पर अपने हाथ रखे। कुछ देर दोनों केवल एक-दूसरे की ओर देखते रहे। थकान और निराशा दोनों के चेहरे पर साफ थी।
फिर दादी मां ने धीरे से कहा, “गुड़िया बेटा, आज तो ज्यादा बिक्री नहीं हुई फिर भी मेहनत तो हमारी बराबर चली।” गुड़िया ने सिर हिलाते हुए कहा, “हां दादी मां, सब लोग बड़े दुकानदारों की चमचमाती चूड़ियां ही खरीदते हैं। हमारी मेहनत की कोई कदर नहीं करता। अब हम दोनों का गुजारा कैसे होगा? हम दोनों कैसे जिएंगे?”
उम्मीद की लौ
दादी मां ने उसकी पीठ थपथपाई। “बेटा, यही हमारी जिंदगी है। पर उम्मीद नहीं छोड़ सकते। कल फिर कोशिश करेंगे।” चारपाई पर बैठे दोनों का सन्नाटा धीरे-धीरे गहराता गया। झोपड़ी के कोने में धुंधली रोशनी में उनकी थकी हारी परछाइयां दीवारों पर लंबी हो रही थी और बाहर मेला धीरे-धीरे खत्म हो रहा था। पर उनके दिलों में अब भी एक हल्की सी आशा की लौ जलती रही।
रात को झोपड़ी में चारपाई पर बैठकर दोनों थक कर सो गए और सुबह गुड़िया ने धीरे-धीरे आंखें खोली। बाहर की हवा में हल्की ठंडक थी और सूरज की पहली किरणें झोपड़ी के टूटे-फूटे दीवारों के बीच छन रही थी। दादी ने पहले ही चावल गर्म कर रखा था। दोनों ने चुपचाप सुबह का साधारण सा नाश्ता खाया और फिर गुड़िया बाहर निकल गई।
गुड़िया की ख्वाहिशें
उसकी आंखों के सामने गांव के बच्चे खेल रहे थे। स्कूल जाते हुए अपने बक्से हाथ में थामे हंसते किलकारी करते हुए गुड़िया का मन ही मन सोचने लगा कि काश अगर वह भीड़ वाली घटना मेरे साथ ना होती तो आज मैं भी किसी अच्छे स्कूल में पापा के साथ जाती। पापा मुझे छोड़ने आते। मां मुझे प्यार से खाना खिलाती। मैं भी अपने दोस्तों के साथ हंस खेलकर अपना सुखी जीवन जीती।
उसकी आंखों में एक हल्की उदासी थी और होठों पर मुस्कान का आभास भी क्योंकि वक्त को कोई रोक नहीं सकता। इसी विचार में खोई हुई गुड़िया की पीठ पर हल्का सा हाथ पड़ा और दादी मां पीछे से आती हुई बोली, “बेटा, हो गया हो तो चलें। मेला शुरू हो गया होगा। शायद आज कुछ कमाई हो जाए जिससे हमारा गुजारा चले। मेहनत करेंगे तो भगवान जरूर साथ देंगे।” गुड़िया ने सिर हिलाया। भीतर हल्की सी उम्मीद जगाई और दोनों ने अपने-अपने टोकरी तैयार किए।
गुड़िया के मन में मिलाजुला भाव था। एक तरफ बचपन की यादें और अधूरापन, दूसरी तरफ दादी की बातें और काम की मजबूरी। उनके बीच बिना बोले भी एक समझ बन गई थी कि आज भी उन्हें मेहनत करनी है और शायद कल की हल्की धूप में एक नई शुरुआत छुपी होगी। सूरज की किरणें अब धीरे-धीरे मेले के पूरे मैदान पर फैल चुकी थी और भेरापुर का मेला फिर अपनी रोजमर्रा की हलचल में जी रहा था। गुड़िया और दादी मां अपनी-अपनी टोकरी सिर पर उठाई झोपड़ी से निकलकर मेले की ओर बढ़ी।
मेले में गुड़िया की मेहनत
रास्ते में हल्की ठंडी हवा उनके पसीने में घुली हुई थी। लेकिन दोनों ने चेहरे पर दृढ़ निश्चय और उम्मीद की झलक रखी। जैसे ही वे मेले में पहुंची, उन्होंने अलग-अलग जगहों पर अपने स्टॉल के रूप में खड़ा होना शुरू किया। गुड़िया ने अपनी छोटी टोकरी हाथ में पकड़ कर जोर-जोर से पुकारना शुरू किया। “भैया, चूड़ी ले लो अपनी बहन के लिए, अपनी मां के लिए, अपनी पत्नी के लिए। बस ₹5 में, सिर्फ ₹5 में एक दर्जन।”
उसकी आवाज में मासूमियत के साथ एक तरह की मजबूरी भी थी और भीड़ में उसकी पुकार अचानक सबकी आंखों में टिक गई। दादी मां भी पास में खड़ी होकर अपनी चूड़ियां दिखाती। कभी किसी बच्चे को हंसते हुए चूड़ियां पहनाकर खुश करती तो कभी किसी महिला से भाव करती। कुछ लोग रुकते, टोकरी में हाथ डालते, चूड़ियां निकाल कर देखकर मुस्कुराते और फिर तीन-पांच थमाकर खुशी-खुशी निकल जाते।
कुछ लोग केवल देखकर चले जाते। उनकी नजरें चमकती दुकानों पर टिकती। बड़े-बड़े रंग-बिरंगे झूले और खिलौनों की तरफ खींचती। गुड़िया निरंतर अपनी आवाज में उत्साह बनाए रखती। कभी किसी बुजुर्ग के पास झुककर कहती, “दादी मां की मेहनत भी देख लो बेटा। कोई खरीद तो ले इतनी प्यारी चूड़ियां बस ₹5 में।”
उसकी छोटी उंगलियां रंग-बिरंगी चूड़ियों को सजाने में व्यस्त रहती और हर बार जब कोई खरीद लेता तो उसकी आंखों में थोड़ी मुस्कान और थोड़ी राहत आ जाती। दादी मां भी अपने अनुभव और धैर्य के साथ ग्राहकों से बातचीत करती। कभी किसी महिला को समझाती, “बेटा, देखो कितनी सस्ती और अच्छी चूड़ियां हैं। बच्चों के लिए ले लो। घर में खुशियां आएंगी।”
सपनों की तलाश
मेले की हलचल के बीच ढोलक की थाप, बच्चों की हंसी, झूलों की चर-चर की आवाज और मिठाइयों की खुशबू के बीच यह छोटी सी जोड़ी लगातार मेहनत कर रही थी। कुछ लोग खरीदने के बाद उन्हें धन्यवाद कहते, कुछ सिर्फ देखकर मुस्कुराते। कुछ बिना रुके चले जाते, पर गुड़िया और दादी मां लगातार उम्मीद बनाए रखती।
दिन धीरे-धीरे बढ़ता गया। सूरज की गर्मी और भीड़ के शोर के बावजूद दोनों अपनी टोकरी संभाले हौसला बनाए रखते हुए एक-दूसरे की ओर हल्की मुस्कान भेजती जैसे कह रही हो, “आज थोड़ी कमाई हुई या नहीं पर हमारी मेहनत व्यर्थ नहीं जाएगी। हम फिर भी कोशिश कर रहे हैं।” पूरे मेले में उनकी आवाज और मेहनत भीड़ में गुम हुए सपनों की तरह धैर्य और उम्मीद की गूंज बनकर फैल रही थी और यह दिन धीरे-धीरे गुजर रहा था।
गुड़िया अपनी टोकरी में रंग-बिरंगी चूड़ियां सजाए जोर-जोर से पुकार रही थी। “भैया, चूड़ी ले लो अपनी बहन के लिए, अपनी मां के लिए, अपनी पत्नी के लिए बस ₹5 में एक दर्जन में ले लो।” उसकी मासूम आवाज मेले की हलचल में कहीं खो नहीं रही थी बल्कि हवा में गूंज रही थी। लोग कभी रुकते, कभी सिर्फ देखकर आगे बढ़ जाते पर गुड़िया अपनी आवाज में लगातार ऊर्जा बनाए रखती।
पिता की पहचान
तभी मेले के बीच से एक लगभग 35-40 साल का आदमी आया। पहनावे और चाल से ही पता चल रहा था कि वह कोई आम आदमी नहीं बल्कि करोड़पति जैसा दिखता था। उसकी नजरें लोगों पर घूम रही थी लेकिन अचानक उसके कानों में गुड़िया की आवाज पड़ी। वह सुन रह गया। मानो समय रुक गया हो। हर बार जब वह गहरी सांस लेता उसकी धड़कन तेज होती।
यह आवाज तो कहीं से जानी-पहचानी लग रही है। यह वही मासूम स्वर नहीं है जो सालों पहले मेरी गोद में था। हैरत और उलझन के साथ वह उस छोटे स्टॉल की ओर बढ़ा जहां गुड़िया अपनी चूड़ियां बेच रही थी। वह धीरे-धीरे उसके पास आया। कुछ कदम दूर खड़ा होकर गुड़िया को ध्यान से देखने लगा। गुड़िया भी महसूस कर रही थी कि कोई उसे घूर रहा है। उसकी आंखें और चेहरे का तरीका कुछ परिचित था।
धीरे-धीरे उसने चारों तरफ नजर दौड़ाई और अचानक जैसे बिजली गिर गई हो, उसके होठ फड़फड़ा उठे। “पापा!” उसकी आवाज में हैरानी, आश्चर्य और उम्मीद के साथ दर्द भी था। करोड़पति पिता ने आंसुओं से धुंधली आंखों से उसकी ओर देखा और धीरे से कहा, “गुड़िया, मेरी गुड़िया, तू मिल गई। अब तक कहां थी? मैंने तुझे कितना ढूंढा!”
मिलन का पल
उसके शब्दों में सालों की बेचैनी, चिंता और प्यार सब झलक रहे थे। गुड़िया की आंखों में भी आंसू उमड़ आए। उसने कांपती आवाज में जवाब दिया, “पापा, मैं भी आपको बहुत ढूंढ रही थी। दिन-रात सिर्फ यही सोचती थी कि आपको कैसे ढूंढूं पर आपको कहीं नहीं देखा।” फिर दोनों के आंसू एक साथ बहने लगे। गुड़िया ने अपने छोटे हाथों से पिता को गले लगा लिया और पिता ने भी अपनी बाहों में उसे कसकर समेट लिया।
भीड़ में मेले की रौनक और लोगों की आवाजों के बीच यह छोटा सा कोना बस इन दोनों के आंसुओं, राहत और मिलन की गूंज से भर गया। गुड़िया और उसके पिता रोते हुए एक-दूसरे को पकड़ कर ऐसे लगे जैसे सालों का दर्द, हर अधूरी याद और हर खोई हुई उम्मीद बस उसी पल बहकर मिट गई हो। उनके बीच की खामोशी अब शब्दों की नहीं, सिर्फ आंसुओं और दिल की धड़कनों की भाषा में बदल गई थी।
और मेले की भीड़ के शोर के बावजूद यह पल एकदम अलग। पवित्र और यादगार लग रहा था। दरअसल दोस्तों यह कहानी लगभग 2 साल पहले की है जब भेरापुर में करोड़पति व्यवसाई अनिल सिंह अपनी छोटी सी बेटी आरती के साथ बेहद खुशहाल जीवन बिता रहे थे। प्यार से लोग उसे गुड़िया कहते थे। आरती की मां समीरा सिंह भी अपनी बेटी की हर छोटी सी खुशी में अपने जीवन का सबसे बड़ा आनंद पाती थी।
गुड़िया का सुखद बचपन
यह तीनों का तालमेल और अपनापन ऐसा था कि हर दिन उनके लिए किसी त्यौहार की तरह होता। सुबह सूरज की पहली किरण के साथ अनिल और समीरा गुड़िया की प्यारी मुस्कान देखकर दिन की शुरुआत करते और रात में उसकी हंसी और उसकी छोटी-छोटी शरारतों की यादों के साथ सोते। अनिल सिर्फ एक बड़े बिजनेसमैन नहीं थे बल्कि उनके पास शहर भर में फैले बड़े-बड़े कारोबार, कई आलीशान बंगले, लग्जरी कारें, निजी हेलीकॉप्टर और नौकर चाकर का पूरा स्टाफ था जो हर पल उनकी सुविधा और सुरक्षा का ध्यान रखता।
लेकिन यह सब भौतिक साधन केवल उनके आराम और सुविधा के लिए थे। असली दौलत उनके लिए आरती की मुस्कान और घर में बिखरी खुशियों में थी। गुड़िया की हर हंसी, उसकी एक मासूम नजर, उसकी छोटी सी बातों का जादू उनके दिलों को सुकून देता। गुड़िया अपने छोटे से संसार में बहुत नटखट और जिज्ञासु थी। अगर वह कहती, “मम्मी, पापा, मुझे चॉकलेट चाहिए,” तो कोई देर नहीं होती।
समीरा तुरंत उसकी पसंदीदा चॉकलेट लेकर आती और अनिल उसे अपने हाथों से देते हुए मुस्कुराते, “लो बेटा, तेरी गुड़िया की खुशी में ही हमारी दुनिया बसती है।” गुड़िया के छोटे-छोटे शौक चाहे रंग-बिरंगे कपड़े हों, खिलौने हों, स्कूल के बैग हों या बगीचे में झूला लगवाना हो, सब कुछ तुरंत पूरा कर दिया जाता।
घर के हर कोने में गुड़िया की हंसी, उसके खेल और उसकी मासूमियत की गूंज रहती। कभी वह अपने माता-पिता के पास जाकर कहती, “पापा, मुझे नया किताब चाहिए,” और अगले ही पल अनिल उसके लिए वही किताब ढूंढ लाते। घर में सिर्फ आलीशान सामान ही नहीं था बल्कि प्यार की भरमार थी। समीरा हमेशा ध्यान रखती कि गुड़िया के लिए कुछ भी कमी ना रह जाए।
खुशियों का संसार
सुबह का नाश्ता, स्कूल की तैयारी, उसकी पसंद की चाय या हल्का स्नैक सब पूरी तरह से उसकी खुशी और स्वास्थ्य के हिसाब से होता। अनिल और समीरा हर शाम बैठकर गुड़िया के दिन की बातें सुनते। उसकी छोटी-छोटी खुशियों और परेशानियों में हिस्सा लेते और उसे यह एहसास दिलाते कि उसका हर सपना उनके लिए सबसे कीमती है। गुड़िया भी हर पल अपने माता-पिता के साथ पूरी तरह मग्न रहती।
उनकी बातें सुनती, उनकी गोद में खेलती और कभी-कभी उनकी आंखों में झांक कर मुस्कुराती जैसे कह रही हो, “मुझे और कुछ नहीं चाहिए। बस आप दोनों के पास रहना है।” उनका जीवन इतना खुशहाल और स्नेहपूर्ण था कि उनके आलीशान घर की दीवारें, फूलों से सजी बगिया, महंगी गाड़ियां, नौकर चाकर सब कुछ उनके प्यार और अपनेपन के सामने फीका लगता।
घर की हर छोटी सी चीज में गुड़िया के मुस्कान और उसके माता-पिता का प्यार झलकता और यही उनके लिए सबसे बड़ी दौलत थी। गुड़िया की आंखों में हमेशा चमक रहती, उसकी हंसी में जादू और उसके छोटे-छोटे शब्दों में उनके लिए एक पूरी दुनिया छिपी होती थी। हर दिन चाहे वह स्कूल का समय हो या खेल का, गुड़िया की हर इच्छा पूरी की जाती।
कभी वह कहती, “मम्मी, पापा, मुझे आइसक्रीम चाहिए,” तो तुरंत उसके लिए अलग-अलग फ्लेवर की आइसक्रीम लाई जाती। “पापा, मेरे लिए नया रंगीन बैग चाहिए।” अगले ही पल उसका बैग तैयार। हर फरमाइश, हर छोटी सी मांग उनके लिए केवल खुशी का माध्यम थी। इस परिवार की दुनिया सिर्फ दौलत या भौतिक सुख सुविधाओं से नहीं बल्कि आपसी प्यार, ध्यान और जुड़ाव से चमक रही थी।
गुड़िया के लिए हर दिन जादू और खुशी से भरा हुआ था और उसके माता-पिता के लिए उसकी मुस्कान से बड़ा खजाना कोई और नहीं था। एक दिन की बात है जब अनिल सिंह को अपने बड़े बिजनेस के सिलसिले में आगरा जाने की जरूरत पड़ी। शाम को घर लौटकर वह अपनी पत्नी समीरा से बैठकर कहता, “समीरा, मुझे कुछ दिनों के लिए आगरा जाना पड़ेगा। कंपनी की मीटिंग है, बहुत जरूरी है। यहां तुम्हें कोई भी चिंता नहीं करनी है।”
समीरा की चाहत
समीरा ने थोड़ी नाराजगी भरी मुस्कान से कहा, “अनिल, मुझे भी चलना है। प्लीज। मैं तो ताजमहल देखना चाहती हूं। इतने सालों में कभी बाहर घूमने का मौका ही नहीं मिला।” अनिल ने मुस्कुराते हुए हल्का सा मना किया। “नहीं, यह मेरी मीटिंग के लिए है। वहां तुम्हारा कोई काम नहीं है। तुम लोग यहां घर पर रहो।”
समीरा ने जिद पकड़ ली। “आप तो शादी के बाद हमें कहीं ले ही नहीं जाते। अब भी नहीं, हम भी तुम्हारे साथ जाना चाहते हैं।” आरती भी पीछे नहीं रही। उसकी छोटी मासूम आवाज में हंसी और उम्मीद थी। “पापा, मुझे भी ताजमहल दिखाना। प्लीज, प्लीज पापा।”
अनिल ने गहरी सांस ली। पहले तो थोड़ा टालने की कोशिश की। लेकिन फिर उसकी पत्नी और बेटी की ज़िद और मासूम आग्रह देखकर आखिरकार वो हार मान गए और बोला, “ठीक है, चलो फिर लेकिन मेरी मीटिंग के समय तुम लोग अकेले मत घूमना।”
आगरा की यात्रा
अगले दिन सुबह तीनों अपनी कार में बैठकर आगरा के लिए निकल पड़े। रास्ते में समीरा और आरती की खुशी देखते ही बनती थी। लगातार खिड़की से बाहर झांकते हुए हर पेड़, खेत और शहर की गलियों पर मुस्कुराती रहीं। आगरा पहुंचकर सबसे पहले उन्होंने ताजमहल का दौरा किया। गुड़िया यानी आरती अपने छोटे हाथों में कैमरा लिए बार-बार फोटो खींच रही थी।
उसकी आंखों में चमक थी और चेहरे पर उत्साह की मुस्कान। समीरा ने अपनी बेटी के हाथ पकड़कर कहा, “देखो बेटा, यह हमारी छोटी सी दुनिया है। कितना सुंदर है।” अनिल भी पीछे-पीछे चलते हुए कहता, “हां, यहां की खूबसूरती सच में अद्भुत है। लेकिन ध्यान रखना, मीटिंग के लिए समय पर लौटना है।”
ताजमहल के बगीचों में तीनों घूमते, फूलों की खुशबू में सांस लेते और सफेद संगेमरमर के सामने फोटो खिंचवाते। गुड़िया बार-बार कहती, “पापा, मुझे यहां रहना है। कितनी सुंदर जगह है।” समीरा उसकी छोटी-छोटी शरारतों पर हंसती और कहती, “बिल्कुल बेटा, जीवन में ऐसे पल बस यादों में रह जाते हैं।”
खुशियों का सफर
पूरे दिन उन्होंने आगरा के बाजार भी घूमे। वहां की मिठाइयां चखी। छोटे-छोटे गिफ्ट खरीदे और हाथों में गुब्बारे लिए घूमते रहे। अनिल अपनी मीटिंग के समय ऑफिस में गया। लेकिन उसका दिल बार-बार अपनी पत्नी और बेटी के साथ बिताए पलों में ही रम गया। मीटिंग पूरी करने के बाद उसने जल्दी ही दोनों को ढूंढा और फिर तीनों ने वापस कार में बैठकर हंसी-खुशी से घर लौटने की तैयारी की।
आगरा के दिन भर के सफर में हर जगह खुशियां, फोटो, हंसी और प्यार भरे पल दर्ज हो गए थे और अब उनका मन हल्का और संतुष्ट था क्योंकि उन्होंने मिलकर परिवार के साथ समय बिताया। नए अनुभव किए और ताजमहल की अद्भुतता का आनंद लिया।
खुशियों का अंत
अगले दिन सुबह-सुबह अनिल, समीरा और आरती आगरा से घर लौटने के लिए कार में बैठ गए। रास्ते में सूरज की सुनहरी किरणें खेतों और गलियों पर पड़ रही थी और कार की धीमी चाल में हवा में ताजमहल की यादें अभी भी ताजा थी। तभी आरती की नजर रास्ते में एक उड़ने वाले गुब्बारे की दुकान पर पड़ी। उसके पास ही एक गन्ने का जूस वाला स्टॉल भी था।
उसकी छोटी-छोटी आंखें चमक उठी और उसने जोर-जोर से कहा, “पापा, मुझे वो बैलून चाहिए। प्लीज, प्लीज मुझे गुब्बारा लेना है।” समीरा ने मुस्कुराते हुए कहा, “चलो ठीक है। 1 मिनट रुकते हैं बेटा।” अनिल ने पहले तो मना किया। “बस जल्दी, मीटिंग से थोड़ी देर ही फुर्सत है।” लेकिन आरती की ज़िद इतनी प्यारी और मासूम थी कि वह हार मान गए।
एक अनहोनी
कार रोकी गई और तीनों वहां रुके। गुड़िया ने अपना पसंदीदा लाल और नीला बैलून लिया और दोनों माता-पिता गन्ने का जूस पीते हुए खुश हो गए। हल्की ठंडी हवा और ठंडी मिठास में मजा लेते हुए। लेकिन तभी एक तेज हवा का झोंका आया और आरती का बैलून हवा में उड़ गया। आरती अचानक पीछे दौड़ने लगी। गुब्बारे को पकड़ने की कोशिश करती हुई धीरे-धीरे काफी दूर निकल गई।
अनिल और समीरा अपने जूस में व्यस्त थे और उन्हें इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं हुआ कि उनकी बेटी इतनी दूर निकल गई है। कुछ समय बाद जब उन्होंने देखा तो आरती उनके पास नहीं थी। पहले तो उन्होंने सोचा शायद वह थोड़ी ही दूर घूम रही होगी। लेकिन जब आसपास ढूंढने पर भी कहीं नहीं मिली तो उनके चेहरे पर डर और घबराहट झलकने लगी।
उन्होंने जोर-जोर से चिल्लाना शुरू किया। “आरती बेटा, आरती!” लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। उन्होंने आसपास हर जगह देखा। स्टॉल, सड़क के किनारे, आसपास के गलियों में लेकिन कोई सुराग नहीं मिला। इस बीच आरती खुद एक सुनसान कस्बे में पहुंच गई थी।
आरती की खोज
उसकी आंखों में डर और आंसू थे। वो जोर-जोर से चिल्ला रही थी। “पापा, मम्मी, आप कहां हो? आप कहां हो?” उसकी छोटी आवाज सुनसान गलियों में गूंज रही थी। उधर अनिल और समीरा भी हर तरफ दौड़ रहे थे। हाथ फैलाकर उसे ढूंढते हुए। लेकिन हर जगह खालीपन और डल ही मिला।
उन्होंने आसपास के लोगों से पूछा, “कृपया बताइए क्या आपने इस लड़की को देखा?” लोग सिर हिलाकर मना करते रहे और माता-पिता का डर और बढ़ता गया। थोड़ी देर बाद उन्होंने मजबूरी में सबसे नजदीकी पुलिस स्टेशन पहुंचे और कंप्लेंट दर्ज करवाई। पुलिस भी पूरे इलाके में तलाश करने लगी, लेकिन कोई सुराग नहीं मिला।
घर लौटते समय अनिल और समीरा की आंखों से आंसू बह रहे थे। उनका दिल डर और चिंता से भारी था। कार में चुपचाप बैठते हुए अनिल बार-बार खुद को कोस रहा था। “काश मैंने उसे रोक लिया होता। काश उसकी ज़िद में उसे पीछे नहीं जाने दिया होता।” समीरा भी धीरे-धीरे रोते हुए कह रही थी, “मेरी ही वजह से, मेरी ही जिद की वजह से, मेरी गुड़िया।”
बूढ़ी महिला का सहारा
गुड़िया यानी आरती के खो जाने का एहसास दोनों माता-पिता को तोड़ रहा था। घर पहुंचते ही दोनों थके और टूटे हुए चारपाई पर बैठ गए। आंखों में आंसू, दिल में डर और आत्मग्लानि की आग। समीरा बार-बार कहती, “मेरा बच्चा, मेरी बेटी कैसे ऐसा हुआ? मैं ही तो उसे रोक सकती थी।” अनिल भी सिर पकड़कर बैठा रहा। “मेरी ही लापरवाही, मेरी ही वजह से हमारी गुड़िया हमारे पास नहीं है।”
चारों दीवारें, झोपड़ी का सन्नाटा और घर की तंग गलियां इस दर्द को और गहरा कर रही थी। उनकी मासूम बेटी की हंसी और प्यारी मुस्कान की यादें उनके सामने थी, लेकिन वह अभी उनके हाथ में नहीं थी। दोनों अपने-अपने तरीके से रोते रहे। खुद को कोसते रहे और सोचते रहे कि यह सब उनकी ज़िद और लापरवाही की वजह से हुआ।
उनके दिल में डर और खौफ के साथ एक गहरी उदासी थी और इस डर ने उनके पूरे दिन और रात को अंधेरे में बदल दिया। दूसरी तरफ जब आरती कस्बे की सुनसान गलियों में रोते-रोते भटक रही थी। अपने मम्मी पापा को बार-बार जोर-जोर से पुकार रही थी। “पापा, मम्मी, आप कहां हो? मुझे ढूंढो। मुझे घर वापस जाना है।” उसका छोटा सा चेहरा आंसुओं से भीग चुका था।
एक नई शुरुआत
हाथ-पैर कांप रहे थे और उसके छोटे पैर धूल भरे रास्तों पर थक कर चल रहे थे। हर तरफ सुनसान गलियां, टूटी-फूटी दुकानें और खाली जगह उसे और डराने लगी। वो बार-बार अपने मम्मी-पापा का नाम पुकारती लेकिन उसकी आवाज हवा में गुम हो जाती। तभी कस्बे की एक झोपड़ी से बाहर एक वृद्ध महिला निकली जिसकी उम्र लगभग 50 से 55 साल थी।
उसके चेहरे पर वर्षों की मेहनत और कठिन जीवन की छाप साफ थी। लेकिन आंखों में गर्मजोशी और दयालुता झलक रही थी। उसने देखा कि यह छोटी लड़की इतनी दूर तक अकेले डर और हताशा के बीच रो रही है। महिला झुक कर धीरे से बोली, “बेटा, तुम कौन हो? यहां क्या कर रही हो? तुम रो क्यों रही हो? तुम्हारे मम्मी-पापा कहां हैं?”
आरती ने डर, थकान और आंसुओं के बीच अपनी पूरी कहानी बयां कर दी। “मेरा नाम आरती है। लोग मुझे प्यार से गुड़िया बुलाते हैं। मैं अपनी मम्मी-पापा के साथ आगरा से लौट रही थी। मैं गुब्बारे के चक्कर में पीछे-पीछे चली गई और अब मुझे नहीं पता कि वे कहां हैं। मुझे मेरा घर वापस जाना है। मुझे अपनी मम्मी-पापा से मिलना है।”
महिला ने उसकी आंखों में आंसू देखे और प्यार और स्नेह भरी आवाज में बोली, “ठीक है बेटा, अभी घबराओ मत। मैं तुम्हारे मम्मी-पापा को ढूंढने की कोशिश करती हूं।” उसने आरती को अपने गले से लगाया। उसकी छोटी पीठ को सहलाया और धीरे-धीरे उसे अपनी गोद में उठा लिया।
सुरक्षा का अहसास
वे दोनों कस्बे के हर कोने में ढूंढने लगे। दुकानों के आसपास, गलियों में, लोगों से पूछताछ की। लेकिन कहीं भी कोई सुराग नहीं मिला। लोग सिर हिलाकर मना करते और अनजाने में ही आरती की मां-बाप की यादें उनके दिलों में और गहराती गईं। थक हारकर महिला ने आखिरकार उसे अपनी झोपड़ी ले जाकर बैठाया और धीरे से कहा, “बेटा, अभी तुम मेरे पास रहो। जैसे ही तुम्हारे मम्मी-पापा तुम्हें ढूंढ लेंगे, तुम उनके पास चले जाना। अभी तुम सुरक्षित हो और मैं तुम्हारा ध्यान रखूंगी।”
आरती ने उसकी गोद में सिर रख दिया। धीरे-धीरे रोते हुए अपने डर और अकेलेपन का बोझ कुछ हल्का महसूस किया। धीरे-धीरे समय बीतता गया और आरती उस महिला के साथ रहने लगी। महिला गरीब थी लेकिन मेहनती और समझदार। उसने आरती को छोटे-मोटे काम सिखाए। झोपड़ी की सफाई, खाना बनाना, आसपास की चीजें संभालना।
आरती ने भी हर काम में हाथ बटाना शुरू किया। उसी समय महिला ने उसे सिखाया कि कैसे छोटी-छोटी चीजें बेचकर घर का गुजर-बसर किया जा सकता है। धीरे-धीरे आरती ने चूड़ियां बेचने का काम शुरू किया। वो अपने रंग-बिरंगे छोटे-छोटे झोले और टोकरी में चूड़ियां सजाकर पास के मेले और गलियों में जाती।
एक नई पहचान
लोगों से प्यार और विनम्रता से कहती, “भैया, चूड़ियां ले लो। अपनी बहन या मां के लिए बस ₹5 में।” धीरे-धीरे उसने लोगों की आदत और ग्राहकों का ध्यान आकर्षित करना सीख लिया। इस तरह आरती की जिंदगी अब उस महिला के साथ गुजर-बसर करने, मेहनत करने और चूड़ियां बेचने की साधारण लेकिन संघर्षपूर्ण दुनिया में बदल गई।
उसने सीखा कि ज़िद और अकेलापन कभी-कभी हमें कठिन परिस्थितियों में मजबूर कर देते हैं। लेकिन मेहनत, लगन और दूसरों के साथ भरोसा ही जीवन की कठिन राहों में सुरक्षा और उम्मीद की डोर बनती है। यहीं से उसकी नई जिंदगी की शुरुआत हुई। अपनी मासूमियत और मेहनत के साथ रंग-बिरंगी चूड़ियां बेचते हुए एक छोटे से कस्बे में अपने दिन प्रतिदिन के संघर्ष को जीती हुई।
मिलन का पल
आज जब गुड़िया मेले में अपने रंग-बिरंगी चूड़ियां बेच रही थी तभी उसकी नजर उसके पिता अनिल सिंह पर पड़ी। वो एक क्षण के लिए जैसे ठहर गई। उसके छोटे हाथ झोले की तरह थे। लेकिन आंखों में चौक और खुशी की चमक थी। गुड़िया दौड़ी और जोर-जोर से चिल्लाई, “पापा!” अनिल भी दौड़ते हुए उसके पास आए और उसे अपनी बाहों में भर लिया।
रोते-रोते गुड़िया ने अपने पिता को सारी बातें बताई कि कैसे वह आगरा से घर लौटते समय गुब्बारे के चक्कर में भटक गई। कैसे वह सुनसान कस्बे में रोते-रोते चली गई और कैसे उस वृद्ध महिला ने उसे गोद में उठाया, खाना खिलाया, अपने घर में रखा और 2 साल तक उसकी देखभाल की।
अनिल ने अपनी बेटी को मजबूती से गले लगाते हुए कहा, “बेटा, अब तुम्हें इधर-उधर चूड़ियां बेचने की जरूरत नहीं है। अब तुम्हारा पापा तुम्हें ढूंढ ही गया है। अब चलो मेरे साथ।” गुड़िया ने हंसते-रोते कहा, “हां पापा, अब मैं आपके साथ चलूंगी। लेकिन पहले आप मुझे उस महिला से मिलवाइए जिसने मुझे बचाया।”
दादी का प्यार
वह अपने पिता को लेकर बूढ़ी महिला के पास गई और बोली, “पापा, यह वही महिला है जिन्होंने मुझे 2 साल तक अपने घर में रखा और मेरी रक्षा की।” अनिल ने महिला की ओर झुककर हाथ जोड़ते हुए कहा, “आपने मेरी बेटी को बचाकर मुझे मेरी जिंदगी दे दी। मैं कैसे आपका धन्यवाद करूं? आपने हमारी सबसे बड़ी दौलत सुरक्षित रखी।”
बूढ़ी महिला ने मुस्कुराते हुए कहा, “अब तुम उसे अपने साथ ले जाओ। वह तुम्हारी बेटी है। तुम्हारी अमानत।” अनिल ने आंसू भरे स्वर में कहा, “धन्यवाद। आपने हमारी जिंदगी बदल दी। अब मैं अपनी बेटी को अपने साथ ले जा सकता हूं।” महिला ने सिर हिलाते हुए कहा, “हां, वह अब आपके पास सुरक्षित है।”
गुड़िया ने महिला को प्यार से देखा और कहा, “आपने मुझे बचाया, मैं कभी नहीं भूलूंगी।” महिला ने उसे सहलाया और कहा, “बेटा, खुश रहो, मेहनत करो और अपने पापा के साथ सुरक्षित रहो।” इसके बाद गुड़िया और उसके पिता कार की ओर बढ़े। लेकिन गुड़िया बार-बार पीछे मुड़कर महिला को देखती रही। आंखों में उदासी और कृतज्ञता दोनों झलक रहे थे।
कार में बैठते ही उसने अपने पिता को गले लगाते हुए कहा, “पापा, अब मैं घर जा सकती हूं, लेकिन मैं उस महिला को कभी नहीं भूलूंगी।” अनिल ने धीरे से मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, अब हम घर लौट रहे हैं। तुम्हारी मम्मी भी तुम्हें बहुत ढूंढ रही होगी।”
घर की खुशी
घर पहुंचते ही गुड़िया दौड़कर अपनी मम्मी समीरा के पास जाकर उसे गले लगा लिया। समीरा भी आंसुओं से भरी आंखों के साथ अपनी बेटी को थामे रही और दोनों रोते हुए अपने प्यार और मिलन की खुशी को साझा करने लगे। अनिल और समीरा ने मिलकर अपनी बेटी को बार-बार गले लगाया। उसके छोटे हाथों को अपनी बाहों में दबाया और उसे बताया कि अब सब ठीक है। अब वह सुरक्षित और अपने परिवार के पास है।
घर की झोपड़ी में हर जगह प्यार और खुशियां लौट आईं और गुड़िया ने अपनी आंखों में आंसू और मुस्कान दोनों लिए अपने माता-पिता के साथ बैठकर उन दिनों की कठिनाइयों और आज के मिलन की खुशी को महसूस किया। गुड़िया यानी आरती जब अपने माता-पिता के साथ घर पर रहने लगी तो उसे खुशी तो थी कि अब वह अपने पापा के पास थी लेकिन उसका मन अक्सर उदास रहता था और वह कई बार खिड़की के पास बैठकर दूर कहीं सोच में डूब जाती थी।
दुख और प्यार का संतुलन
कुछ दिनों तक गुड़िया को ऐसे उदास देखकर उसके माता-पिता अनिल और समीरा अजीब सा महसूस करने लगे। एक शाम वे दोनों बैठकर आपस में चर्चा करने लगे और गुड़िया से प्यार से पूछने लगे, “बेटा, तुम उदास क्यों हो? अब तो हम सब साथ हैं। तुम्हें डरने या खोने की कोई बात नहीं है।” गुड़िया ने धीरे से सिर झुकाया। उसकी आंखों में आंसू थे और उसने हिचकिचाते हुए कहा, “पापा, मम्मी, मुझे उन बूढ़ी मां की याद आती है जिन्होंने मुझे 2 साल तक अपनी गोद में लिया। मेरा ख्याल रखा। मुझे खाना खिलाया और अपने घर में सुरक्षित रखा।
चाहे वह कैसी भी थी, उन्होंने मेरे लिए मम्मी-पापा की जगह बनाई और मुझे प्यार दिया। मैं उन्हें बहुत याद करती हूं। अगर आप उन्हें हमारे साथ घर पर लेकर आ सकते हैं तो मैं बहुत खुश हो जाऊंगी। वैसे भी मेरी कोई दादी नहीं है। हम सब मिलकर रहेंगे, खेलेंगे और खुश रहेंगे। आप भी उनका प्यार पाएंगे और मैं भी उनकी देखभाल कर सकूंगी।”
अनिल मुस्कुराए और धीरे से बोले, “बेटा, अब सो जाओ। हम कल इस पर विचार करेंगे।” गुड़िया सो गई लेकिन उसके शब्द उनके दिल और दिमाग में घर कर गए।
नई शुरुआत
अनिल और समीरा ने आपस में चर्चा की और उन्होंने महसूस किया कि सही में उस बूढ़ी महिला की वजह से उनकी बेटी आज उनके पास सुरक्षित है। अगर वह महिला नहीं होती तो शायद गुड़िया आज कहां होती? किस हाल में होती यह सोचकर उनका दिल भारी हो गया।
अगले दिन सुबह अनिल और समीरा अपनी बेटी के साथ उस कस्बे गए जहां वृद्ध महिला रहती थी। उन्होंने निवेदन किया, “आप हमारे साथ आइए। हमारी बेटी आपके बिना बहुत उदास है। हम सब मिलकर रहेंगे, खेलेंगे और खुश रहेंगे।” बूढ़ी महिला ने प्यार भरी मुस्कान के साथ हामी भरी और उनके साथ घर आ गई।
परिवार का पुनर्मिलन
जब गुड़िया सोकर उठी और देखा कि वही दादी मां उसके सामने है, उसकी आंखें खुशी और आश्चर्य से चमक उठी। वो दौड़ी और उन्हें जोर-जोर से गले लगा लिया। उसके छोटे हाथ उनके गले में लिपट गए और आंसू और हंसी दोनों उसके चेहरे पर थे। अब उनका परिवार तीन नहीं बल्कि चार सदस्य बन गया था। अनिल, समीरा, गुड़िया और बूढ़ी महिला।
घर की झोपड़ी में अब हर जगह हंसी की आवाजें गूंजने लगीं। साथ में खाना बनाना और खाना खाना, उठना, बैठना, खेलना, कूदना और दिन-रात एक-दूसरे के साथ बिताना अब उनकी दिनचर्या बन गई। गुड़िया ने अपने मम्मी-पापा और दादी मां के बीच का प्यार महसूस किया।
खुशियों का नया अध्याय
उनके साथ खेली, पढ़ाई की, छोटी-छोटी बातें साझा की और हर पल को खुशियों से जीना शुरू किया। अब गुड़िया की छोटी-छोटी मुस्कान पूरे घर को रोशन कर देती। उसके हाथों की नन्ही-नन्ही हरकतें, उसकी हंसी, उसकी बातें सबको प्यार और स्नेह की गर्माहट देती। वे चारों मिलकर हर दिन साथ रहते, बातें करते, खाना खाते, उठते बैठते और एक-दूसरे की देखभाल करते।
गुड़िया अब ना केवल अपने मम्मी-पापा की बहुमूल्य बेटी थी बल्कि दादी मां के स्नेह की भी प्यारी दोस्त बन गई। उनका घर चारों के साथ हर दिन प्रेम और खुशी से भरा रहता। और यही उनकी नई हैप्पी एंडिंग वाली जिंदगी थी। जहां कोई अकेलापन नहीं, केवल प्यार और मिलन था।
समापन
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कहानी का सारांश
गुड़िया और उसकी दादी मां की कहानी हमें यह सिखाती है कि जीवन में कठिनाइयों के बावजूद उम्मीद और मेहनत कभी खत्म नहीं होनी चाहिए। प्यार और स्नेह से भरे रिश्ते ही जीवन को संजीवनी देते हैं। गुड़िया का अपने माता-पिता के साथ पुनर्मिलन और दादी मां के प्रति उसकी कृतज्ञता इस बात का प्रतीक है कि सच्चे रिश्ते और प्यार हमेशा एक-दूसरे को जोड़ते हैं।
धन्यवाद!
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