जिंदगी से जूझ रहे पिता के लिए बेटी ने डॉक्टर की शर्त मान ली… फिर जो हुआ, इंसानियत रो पड़ा |
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कभी-कभी ज़िंदगी इंसान को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है, जहाँ से या तो रास्ते छूटते हैं या फिर इंसान खुद टूट जाता है। और उस दोराहे पर खड़ी थी रिया। एक जवान लड़की, जो अपने बीमार पिता को अपनी पूरी दुनिया मानती थी, आज उन्हें एक स्ट्रेचर पर लेकर अस्पताल की ठंडी, सफ़ेद दीवारों के बीच भटक रही थी। उसके माथे पर चिंता की गहरी लकीरें थीं और आँखों में एक ऐसा डर था जो हर पल बढ़ता जा रहा था, कि कहीं कुछ देर न हो जाए। उसके पिता, राम प्रसाद जी, जो अब बिस्तर पर पड़े-पड़े बस अपनी बेटी की आँखों में झाँक रहे थे, जैसे कह रहे हों, “बेटा, जो बन पड़े करना, मैं अब थक गया हूँ। अब तेरी आँखों में ही उम्मीद बची है।”
रिया ने काँपते कदमों से पर्ची कटवाई और जल्दी से पिता को लेकर इमरजेंसी वॉर्ड में भर्ती करवा दिया। डॉक्टरों की भाग-दौड़, मशीनों की बीप-बीप की आवाज़ और दवाइयों की गंध, सब मिलकर उसके दिल पर एक भारी बोझ डाल रहे थे। हर गुज़रता पल उसके डर को और गहरा कर रहा था। थोड़ी देर बाद, जाँच पूरी हुई और फिर अस्पताल का सबसे बड़ा डॉक्टर, जो उसी अस्पताल का मालिक भी था, उसने रिया को अपने केबिन में बुलवाया।
केबिन बड़ा और आलीशान था, लेकिन उसकी हवा में एक अजीब सी ठंडक थी। डॉक्टर की आँखें गंभीर थीं और लहज़ा ऐसा, जैसे वह कोई बड़ा बोझ रखने जा रहे हों। “देखिए,” उन्होंने कहना शुरू किया, “आपके पिताजी की हालत बहुत नाज़ुक है। लिवर और किडनी, दोनों खराब हो चुके हैं। अगर जल्द से जल्द इलाज शुरू नहीं हुआ, तो बहुत देर हो जाएगी।”
रिया ने अपनी साँस रोक ली। “इलाज… इलाज तो करना ही है, डॉक्टर साहब।”
“इलाज का खर्च लगभग पंद्रह लाख रुपए आएगा,” डॉक्टर ने बिना किसी भाव के कहा।
यह सुनते ही रिया के चेहरे पर मानो बिजली गिर गई हो। पंद्रह लाख! यह रक़म उसके लिए पहाड़ जैसी थी। उसने अपनी पूरी ज़िंदगी में इतने पैसे एक साथ नहीं देखे थे। वह एक छोटी सी प्राइवेट कंपनी में काम करती थी, जहाँ से घर का गुज़ारा और छोटे भाई-बहन की पढ़ाई का ख़र्च मुश्किल से निकल पाता था। उसने काँपते होठों से पूछा, “लेकिन डॉक्टर साहब, इतना पैसा… इतनी जल्दी कहाँ से लाऊँगी मैं?”
डॉक्टर ने ठंडी साँस भरी। “देखिए, हमारे पास रोज़ ऐसे कई केस आते हैं। हम इलाज शुरू कर सकते हैं, लेकिन आपको एडवांस जमा करना होगा। आप तय कीजिए, इलाज करवाना है या नहीं।”
रिया के कानों में अब कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। वह धीरे-धीरे बाहर आई। अपने पिता की ओर देखा, जिनकी साँसें तेज़ चल रही थीं और आँखें बंद थीं। रिया की रूह काँप रही थी। पिता की आँखों में अब भी वही भरोसा था, जो एक बाप को अपनी बेटी पर होता है। लेकिन रिया के पास कुछ नहीं था। न ज़मीन, न ज़ेवर, न कोई ऐसा रिश्तेदार जो इतनी बड़ी रक़म दे सके। उसके पास थे तो सिर्फ़ कुछ अधूरे सपने और ज़िम्मेदारियों का पहाड़। वह सोच रही थी कि क्या इस बार भी एक बेटी हार जाएगी? क्या एक बेटी पैसों के आगे मजबूर होकर अपने बाप को नहीं बचा पाएगी?
तभी एक वॉर्ड बॉय आया और बोला, “मैडम, जूनियर डॉक्टर साहब ने आपको बुलाया है। वह आपसे कुछ ज़रूरी बात करना चाहते हैं।”
रिया भारी मन से जूनियर डॉक्टर के केबिन की ओर बढ़ी। उसे कोई उम्मीद नहीं थी। केबिन का दरवाज़ा खोला और सामने जो बैठा था, वह था जूनियर डॉक्टर अर्जुन। एक जाना-पहचाना चेहरा, लेकिन रिया ने उस पर ध्यान नहीं दिया।
डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा, “देखिए रिया जी, मुझे पता है आप पैसों की व्यवस्था नहीं कर पा रही हैं। पर अगर आप चाहें, तो मैं आपके पिताजी का इलाज करवा सकता हूँ।”

रिया की आँखों में आशा की एक हल्की सी चमक आई। “सच? आप कर सकते हैं?”
डॉक्टर का चेहरा गंभीर हो गया। “हाँ। बस, इसके लिए आपको मेरे साथ आज शाम एक होटल में चलना होगा। बस एक रात… और कोई आपसे कोई सवाल नहीं करेगा।”
यह सुनते ही रिया के चेहरे का रंग उड़ गया। सिर्फ़ सन्नाटा था। उसकी आँखों से आँसू नहीं, सवाल टपक रहे थे। “आपने यह कैसे सोच लिया? मैं मजबूर हूँ, बेबस हूँ, लेकिन इतनी भी नहीं कि अपने पिता को बचाने के लिए ख़ुद को गिरवी रख दूँ।”
डॉक्टर अर्जुन की आँखों में एक अजीब सी चमक थी। वह बोला, “मैं तुम्हें मजबूर नहीं कर रहा। यह तुम्हारा फ़ैसला है। अगर चाहो तो जाओ, पर याद रखना, अगर तुम्हारे पिताजी की जान चली गई, तो तुम्हारा घमंड, तुम्हारा ज़मीर, तुम्हारी ज़िंदगी… सब उसी के साथ ख़त्म हो जाएगा।”
रिया वहाँ से निकली नहीं। उसके क़दम वहीं रुक गए। कंधे ढीले पड़ गए, हाथ काँपने लगे। पिता की हर साँस उसे आवाज़ दे रही थी, “बेटी…” वह कुछ देर तक आँखें मूँदकर खड़ी रही। एक तरफ़ उसका आत्म-सम्मान था, दूसरी तरफ़ उसके पिता की ज़िंदगी। एक लंबी, ख़ामोश लड़ाई उसके भीतर चली। फिर उसने धीरे से अपनी आँखें खोलीं और एक हारी हुई आवाज़ में बोली, “ठीक है, मैं चलूँगी आपके साथ। लेकिन मेरे पापा को बचा लीजिए।”
डॉक्टर अर्जुन मुस्कुराया। “कल सुबह गाड़ी तुम्हें लेने आएगी। होटल का नाम और जगह यह रही।”
रिया ने काँपते हाथों से वह कागज़ लिया। उसे पढ़ा भी नहीं। बस आँखें बंद कर लीं और मन ही मन बुदबुदाई, “हे भगवान, अगर यह मेरी परीक्षा है, तो मुझे इतना मज़बूत बनाना कि मैं ख़ुद से नज़रें मिला सकूँ।”
अगले दिन सुबह का उजाला अभी पूरी तरह फैला भी नहीं था और रिया की आँखों से नींद जैसे रूठ गई थी। वह ख़ामोशी से पिता के बिस्तर के पास बैठी थी और उनके चेहरे को देख रही थी, जैसे हर साँस गिन रही हो। जैसे सोच रही हो कि अगर मैंने आज हार मान ली, तो यह आँखें हमेशा के लिए बंद हो जाएँगी। भीतर एक तूफ़ान चल रहा था। पसीने से भीगे माथे को वह बार-बार पोंछती, लेकिन मन के अंदर जो बर्फ़ जमी थी, वह नहीं पिघल रही थी।
सुबह दस बजे, अस्पताल की पार्किंग में एक महँगी एसयूवी आकर रुकी। ड्राइवर बाहर आकर पूछता है, “मैडम रिया हैं क्या?”
रिया कुछ नहीं कहती। बस एक नज़र पिता पर डालती है, फिर अपने छोटे भाई-बहन को हिदायत देती है, “पापा का ध्यान रखना। मैं अभी आती हूँ।”
ड्राइवर के साथ बैठते समय उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। गाड़ी की खिड़की से बाहर देखती रिया को हर मोड़, हर पेड़, हर साइन बोर्ड एक सवाल की तरह लग रहा था, “क्या तुम सही कर रही हो?”
कुछ ही देर में गाड़ी शहर के एक बड़े होटल के सामने जाकर रुकती है। होटल के गेट पर रेड कार्पेट बिछा था। सामने रिसेप्शन पर चमकते चेहरे और भीतर की चकाचौंध, बिल्कुल एक अलग दुनिया लग रही थी। ड्राइवर उसे ऊपर एक कमरे तक ले जाता है। कमरा नंबर 804। एक आलीशान कमरा, जहाँ अंदर पहले से ही डॉक्टर अर्जुन बैठा था।
अर्जुन ने रिया को देखा और मुस्कुराकर कहा, “मैं जानता हूँ, यह आसान नहीं था तुम्हारे लिए। लेकिन तुम आई, यही बहुत बड़ी बात है।”
रिया ने कुछ नहीं कहा। बस एक कोना देखा और जाकर वहाँ बैठ गई। हाथ काँप रहे थे, होंठ सूख गए थे। कमरे की घड़ी की टिक-टिक उसकी धड़कनों से टकरा रही थी।
अर्जुन ने एक कप चाय मंगवाई और ट्रे रिया के सामने रख दी। फिर बोला, “डरो मत। मैं पहले तुमसे कुछ ज़रूरी बात करना चाहता हूँ। बिना किसी ज़बरदस्ती के।”
रिया ने उसकी तरफ़ देखा। चेहरे पर घृणा, लाचारी और शंका, तीनों एक साथ थे। “आपने जो कहा था, उसके बाद अब किस बात की बातें बची हैं?”
डॉक्टर अर्जुन ने एक गहरी साँस ली। फिर धीरे से बोला, “रिया, मुझे आज भी वह लड़का याद है। क़रीब आठ साल पहले की बात है। उसे सिर्फ़ इसलिए नीचा दिखाया गया था क्योंकि वह ग़रीब था। उसने बस इतना ही किया था कि एक अमीर लड़की से सच्चा प्यार कर बैठा था। और उस दिन, उस लड़के ने मन में ठान लिया था कि एक दिन वह इतना कुछ हासिल करेगा कि लोग उसे देखकर अफ़सोस करेंगे और शायद, शर्मिंदा भी होंगे।”
रिया की आँखें अब हैरान थीं। उसने धीरे से पूछा, “तुम… राहुल?”
डॉक्टर अर्जुन मुस्कुराया। “हाँ, वही राहुल। जो दिल्ली की गलियों में मज़दूरी करता था, कोचिंग सेंटर के बाहर किताबें बेचता था और रात को होटल में झूठे बर्तन धोता था, ताकि नीट की फ़ीस भर सके।”
रिया की आँखों से आँसू छलकने लगे। “तो तुम… बदला लेने आए हो?”
राहुल धीरे से बोला, “नहीं रिया, मैं तुम्हें नीचा दिखाने नहीं आया। मैं सिर्फ़ यह जानना चाहता था कि क्या वह लड़की, जिसने कभी मुझे क़ाबिल नहीं समझा था, वह अपने पिता को बचाने के लिए अपनी इज़्ज़त दाँव पर लगा सकती है।”
रिया का चेहरा लाल हो गया। वह फूट-फूटकर रो पड़ी। “मैं मजबूर थी, राहुल। बहुत मजबूर। अगर मेरे पापा को कुछ हो जाता, तो मैं जीते-जी मर जाती।”
राहुल उसके पास आया, एक चादर उसके काँपते कंधों पर रखी और बोला, “मैं जानता हूँ। और इसीलिए, मैंने तुम्हारे साथ कुछ भी ग़लत नहीं किया। मैं बस तुम्हारी आँखों की सच्चाई देखना चाहता था, और मैंने देख ली। अब मैं चाहता हूँ कि हम दोनों की ज़िंदगी एक नई शुरुआत करे। बिना नफ़रत, बिना हिसाब… सिर्फ़ भरोसे पर।”
रिया कुछ नहीं बोल सकी। बस चुपचाप उठी और कमरे से निकल गई। लेकिन उसके पीछे जो आँसू गिर रहे थे, वे सिर्फ़ शर्म के नहीं थे। वे उन एहसासों के थे, जो सालों बाद किसी ने छू दिए थे।
उस दिन होटल से लौटने के बाद रिया एकदम ख़ामोश हो गई थी। न उसके चेहरे पर डर था, न शर्म, बस एक गहरी सोच। एक ऐसी चुप्पी, जो उसके भीतर बहुत कुछ कह रही थी। उसकी आँखें अब भी भीगी थीं, लेकिन उन आँसुओं में अब वह बेबसी नहीं थी जो कल थी। अब उनमें एक सुकून था, क्योंकि जिसने कभी उसे झुका हुआ देखा था, आज उसी ने उसे टूटने से बचा लिया था।
लगभग दस दिन बाद, अस्पताल से उसके पिता को छुट्टी मिल गई। इलाज पूरा हो चुका था और शरीर अब थोड़ा-थोड़ा साथ देने लगा था। रिया ने अस्पताल का बिल देखा। सिर्फ़ एक पंक्ति में लिखा था, “Paid by Dr. Arjun (Rahul)”। रिया ने बिल देखा, फिर अपने पापा की ओर देखा। पापा उसकी आँखों में झाँके और बोले, “बेटा, यह तो लाखों का ख़र्च है। कहाँ से आई इतनी बड़ी रक़म?”
रिया कुछ देर चुप रही, फिर मुस्कुरा दी। “पापा, मेरे ऑफ़िस के मालिक ने मदद की। उन्होंने कहा, बेटी के पिता के इलाज में कोई कसर नहीं होनी चाहिए।” पिता ने आँखें बंद कर लीं। “तेरे जैसे बच्चों के लिए ही तो भगवान ऐसे लोग भेजता है। बेटा, तू भाग्यशाली है।” रिया ने एक बार फिर उन झूठी बातों को सच की तरह कहा, क्योंकि कभी-कभी सच्चाई से ज़्यादा ज़रूरी होता है किसी अपने का भरोसा बचाए रखना।
तीन दिन बीते। एक सुबह, जब रिया घर के आँगन में कपड़े सुखा रही थी, तभी गली के बाहर एक काली, चमचमाती कार आकर रुकी। रिया ने दरवाज़े से झाँका और जैसे ही कार का शीशा नीचे हुआ, दिल की धड़कन एक पल को थम गई। कार से उतरे वही डॉक्टर अर्जुन, पर आज राहुल की तरह, न कि अस्पताल के डॉक्टर की तरह। उसके हाथ में मिठाई का डिब्बा था, चेहरे पर मुस्कान, लेकिन आँखों में एक साफ़ इरादा।
राहुल ने बिना हिचकिचाहट सीधे घर के अंदर क़दम रखा। रिया हैरान रह गई। “राहुल, तुम यहाँ?”
राहुल ने उसके सवाल को अनसुना किया और सीधा उसके पापा के पास पहुँचा। “नमस्ते चाचा जी। मैं डॉक्टर अर्जुन। रिया के इलाज के समय से आपको जानता हूँ।”
राम प्रसाद जी ने उसे ग़ौर से देखा। “बेटा, तुम ही हो जिसने मेरी जान बचाई?”
“जी। और अब मैं आपके सामने एक और फ़रियाद लेकर आया हूँ।” सभी की आँखें राहुल पर टिक गईं। उसने गहरी साँस ली और झुके हुए सिर से कहा, “क्या आप अपनी बेटी की शादी मुझसे करने की इज़ाज़त देंगे?”
यह सुनकर रिया तो जैसे एकदम शॉक में चली गई। पापा की आँखें भी फटी की फटी रह गईं। “बेटा, तू तो पढ़ा-लिखा, डॉक्टर, अमीर… और हम ग़रीब, छोटे लोग। हमारी बेटी के पास न दहेज़ है, न रुतबा।”
राहुल ने झट से कहा, “मुझे सिर्फ़ रिया चाहिए, चाचा जी। बाक़ी कुछ नहीं। और अगर आपने इज़ाज़त दी, तो मैं इसे दुनिया की सबसे ख़ुशहाल लड़की बना दूँगा।”
रिया अब भी स्तब्ध थी। यह वही राहुल था, जिसे कभी उसने ठुकरा दिया था, जिसे जलील किया था, और आज वह उसे ज़िंदगी भर के लिए अपनाना चाहता था। राम प्रसाद जी की आँखों में आँसू थे। उन्होंने रिया की तरफ़ देखा और धीरे से कहा, “बेटी, तू तैयार है?”
रिया कुछ पल चुप रही। फिर उसने राहुल की तरफ़ देखा। उसके चेहरे पर अब कोई अहंकार नहीं था। सिर्फ़ एक इंसान था, जिसने वक़्त बदलने के बाद भी अपनी इंसानियत नहीं बदली थी। रिया ने अपनी आँखों से हामी भर दी और शायद पहली बार, उसके चेहरे पर एक सच्ची मुस्कुराहट आई थी।
उस दिन से घर में चूल्हा सिर्फ़ रोटियों के लिए नहीं, सपनों के पकने के लिए भी जलने लगा। कुछ ही हफ़्तों में सब कुछ बदल गया था। वह रिया, जो कभी किराए के मकान में अपने भाई-बहनों के साथ संघर्षों की चादर ओढ़कर जी रही थी, आज वही रिया लाल जोड़े में, शर्म से झुकी पलकों में एक नई ज़िंदगी की दहलीज़ पर खड़ी थी। शादी बिल्कुल सादगी से हुई। राहुल के माँ-बाप ने रिया को उसी दिन बेटी मान लिया, क्योंकि जब राहुल ने कहा था, “मुझे सिर्फ़ यह लड़की चाहिए, इसका अतीत नहीं, इसका साथ चाहिए,” तो फिर किसी और बात की गुंजाइश ही नहीं बची थी।
शादी के तीन दिन बाद, एक शाम राहुल और रिया लिविंग रूम के सोफ़े पर बैठे थे। दोनों के हाथों में चाय का कप था, बाहर हल्की-हल्की बारिश हो रही थी और कमरे के अंदर एक अजीब सी ख़ामोशी थी। फिर रिया ने धीरे से कहा, “राहुल, मैं कुछ पूछूँ?”
राहुल ने मुस्कुराकर उसकी तरफ़ देखा, “पूछो न। अब तो हक़ भी है और जगह भी।”
रिया की आँखें थोड़ी झुकी हुई थीं। “उस दिन होटल में… तुमने सब कुछ कह दिया था, लेकिन कुछ किया क्यों नहीं?”
राहुल ने चाय का कप मेज़ पर रखा, रिया के पास आया और उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला, “क्योंकि उस दिन जब तुम कमरे में आई थी, तो तुम्हारे चेहरे पर एक मजबूरी नहीं, एक इज़्ज़त की भीख थी। तुम्हारी आँखें मुझसे नहीं मिल रही थीं, लेकिन तुम्हारे आँसू मेरे सीने में उतर रहे थे। मैंने देखा कि तुम सिर्फ़ एक बेटी नहीं, एक ऐसी इंसान हो जो अपनी आत्मा बेचने को भी तैयार हो, सिर्फ़ अपने बाप को बचाने के लिए। उसी वक़्त मैंने सोच लिया था, रिया, जिस लड़की में इतना हौसला हो, उसे कभी टूटने नहीं दूँगा। मैं तुम्हें कभी किसी सौदे की तरह नहीं देख सकता था।”
रिया अब फूट-फूटकर रो रही थी, लेकिन इन आँसुओं में आज डर नहीं था। यह आँसू उस इंसान के लिए थे जिसने उसे उसके सबसे मुश्किल वक़्त में टूटने नहीं दिया। राहुल ने उसकी आँखों से आँसू पोंछे। “अब कोई डर नहीं। अब हम एक-दूसरे की ताक़त हैं, न कोई मजबूरी, न कोई शर्त।”
समय बीतता गया। राहुल ने अपना वादा निभाया। उसने रिया के छोटे भाई को अच्छे कॉलेज में दाख़िला दिलवाया, छोटी बहन को शहर के नामी स्कूल में भेजा और सबसे बढ़कर, राम प्रसाद जी की देखभाल और इज़्ज़त में कोई कमी नहीं आने दी। यह कहानी हमें बताती है कि मजबूरी में लिए गए फ़ैसले हमेशा ग़लत नहीं होते, अगर उनमें सच्चाई और हौसला हो। और सबसे बड़ी बात, कि बदला लेने से बेहतर है किसी को समझना और उसकी इज़्ज़त बचाना, क्योंकि यही सच्चा प्यार है जो सालों की नफ़रत को पल में मिटा देता है।
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