ढाबे वाले ने भूखे फौजी को मुफ्त में खाना खिलाया था, एक रात में जब कुछ गुंडे ढाबे पर हफ्ता मांगने आए
नेकी का फल: बलवंत और फौजी की कहानी
दिल्ली और जयपुर को जोड़ने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 48, जिसे देश के सबसे व्यस्त सड़कों में से एक माना जाता है। यह सड़क सिर्फ एक रास्ता नहीं थी, बल्कि यह लाखों यात्रियों की उम्मीदों और कहानियों का गवाह भी थी। इस हाईवे पर दिन-रात गाड़ियां दौड़ती रहती थीं। ट्रक ड्राइवर, व्यापारी, यात्री और कभी-कभी फौजी भी। इसी हाईवे के किनारे, लगभग 50 किलोमीटर दूर, एक छोटा सा ढाबा था।
ढाबे के ऊपर एक पुराना लकड़ी का बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था: “बलवंत दा ढाबा – घर जैसा खाना”। यह ढाबा और इसके मालिक बलवंत सिंह उस सुनसान हाईवे की आत्मा थे।
बलवंत सिंह और उनका ढाबा
60 साल के बलवंत सिंह एक साधारण, शांत और नेकदिल इंसान थे। उनके चेहरे पर झुर्रियों की लकीरें उनकी मेहनत और संघर्ष की कहानी बयां करती थीं। सिर पर राजस्थानी पगड़ी, सादा धोती-कुर्ता और होठों पर हमेशा मुस्कान। बलवंत सिंह के लिए उनका ढाबा सिर्फ एक व्यापार नहीं, बल्कि सेवा का माध्यम था। उनका मानना था कि किसी भूखे का पेट भरना सबसे बड़ा धर्म है।
उनकी पत्नी का देहांत कई साल पहले हो चुका था और अब उनकी दुनिया का केंद्र था उनका 15 साल का बेटा सूरज। सूरज पढ़ाई में बहुत होशियार था और बलवंत का सपना था कि वह पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बने। बलवंत ने अपनी जिंदगी गरीबी और संघर्ष में बिताई थी, लेकिन वह चाहते थे कि सूरज की जिंदगी उनसे बेहतर हो।
तूफानी रात और फौजी का आगमन
जुलाई का महीना था। उस रात आसमान में काले बादल घिरे हुए थे। बिजली की कड़-कड़ाहट और मूसलाधार बारिश से पूरा इलाका सुनसान हो गया था। हाईवे पर गाड़ियां कम हो चुकी थीं। बलवंत अपने ढाबे के बाहर चारपाई पर बैठे हुक्का पी रहे थे। वह सूरज का इंतजार कर रहे थे, जो पास के कस्बे से आखिरी बस पकड़कर लौट रहा था।
तभी, दूर से एक सरकारी रोडवेज की बस की हेडलाइट दिखाई दी। लेकिन अचानक गड़गड़ाहट की आवाज के साथ बस रुक गई। बस खराब हो चुकी थी। उसमें बैठे यात्री परेशान हो गए। कुछ सवारियां बस से उतर कर मदद की तलाश में चल पड़ीं।
उन सवारियों में एक फौजी भी था। उसकी उम्र लगभग 35-36 साल रही होगी। थका हुआ चेहरा, गीली वर्दी और आंखों में गहरी थकान। वह एक अग्रिम चौकी से लंबी ट्रेनिंग के बाद घर लौट रहा था। उसका गांव अभी भी 100 किलोमीटर दूर था।
वह फौजी बारिश में भीगता हुआ बलवंत के ढाबे तक पहुंचा। उसने कांपती आवाज में कहा, “चाचा जी, क्या कुछ खाने को मिल सकता है? मेरे पास ज्यादा पैसे नहीं हैं। बस ₹10 ही बचे हैं।”
बलवंत ने फौजी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “बेटा, तू हमारा मेहमान है। तू इस देश का रखवाला है। तुझसे पैसे लेना तो पाप होगा। तू आराम कर, मैं अभी तेरे लिए गरमागरम खाना बनाता हूं।”
नेकी का बीज बोया गया
बलवंत ने फौजी को खाट पर बैठाया और उसे तौलिया दिया। उन्होंने तुरंत तंदूर जलाया और बाजरे की रोटियां, लहसुन की चटनी और गाढ़ा दूध परोसा। फौजी ने खाना खाया और उसकी आंखों में आंसू आ गए। उसने बलवंत का धन्यवाद करते हुए कहा, “चाचा जी, आपकी इस नेकी को मैं जिंदगी भर नहीं भूलूंगा।”
फौजी ने बलवंत को अपना नाम बताया: सूबेदार मेजर प्रताप सिंह। उसने अपनी जेब से एक कागज का टुकड़ा निकाला और उस पर अपना नाम, यूनिट का नाम और फोन नंबर लिखकर बलवंत को दिया।
“चाचा जी, मैं एक मामूली सिपाही हूं। मेरे पास आपको देने के लिए कुछ नहीं है। लेकिन अगर कभी आपको मेरी जरूरत पड़े, तो इस नंबर पर फोन कर लीजिए। मैं चाहे जहां भी रहूं, आपके लिए जरूर आऊंगा।”
बलवंत ने वह कागज अपनी पगड़ी में बांध लिया और फौजी को विदा किया।
गुंडों का आतंक
एक साल बीत गया। हाईवे के किनारे के इलाकों में एक नए भूमाफिया और गुंडों का आतंक फैल गया। यादव नाम का यह गुंडा हाईवे के ढाबों और दुकानों से जबरन वसूली करता था। जो भी उसे पैसा देने से मना करता, उसकी दुकान में तोड़फोड़ की जाती।
एक दिन यादव अपने गुंडों के साथ बलवंत के ढाबे पर पहुंचा। उसने बलवंत से हर महीने ₹5000 देने की मांग की। बलवंत ने साफ इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, “मैं अपनी मेहनत की कमाई खाता हूं। हराम की नहीं।”
यादव यह सुनकर गुस्से में आ गया। उसने अपने गुंडों को ढाबे में तोड़फोड़ करने का आदेश दिया। उन्होंने कुर्सियां तोड़ दीं, पानी के मटके फोड़ दिए और ग्राहकों को भगा दिया। यादव ने धमकी दी, “अगर अगले हफ्ते तक पैसे नहीं मिले, तो तेरा ढाबा जला दूंगा।”
बलवंत ने पुलिस में शिकायत की, लेकिन वहां भी कोई मदद नहीं मिली। पुलिस यादव से मिली हुई थी।
नेकी का फल
हफ्ते भर बाद यादव अपने गुंडों के साथ ढाबे पर आया। उन्होंने ढाबे को घेर लिया और उसे आग लगाने की तैयारी शुरू कर दी। बलवंत और सूरज डर से सहमे हुए थे।
तभी बलवंत को अपनी पगड़ी में बंधा वह कागज का टुकड़ा याद आया। उन्होंने कांपते हुए सूरज से कहा, “इस नंबर पर फोन कर।” सूरज ने नंबर मिलाया।
दूसरी तरफ से आवाज आई, “हेलो, मैं सूबेदार मेजर प्रताप सिंह। कौन बोल रहा है?” सूरज ने रोते हुए सारी बात बताई। प्रताप सिंह ने कहा, “घबराओ मत। मैं कुछ करता हूं।”
गुंडों का अंत
प्रताप सिंह ने तुरंत आर्मी हेडक्वार्टर से संपर्क किया। उन्होंने जयपुर के आईजी को फोन कर पूरी स्थिति बताई। आईजी ने तुरंत कार्रवाई की।
कुछ ही देर में पुलिस की गाड़ियां ढाबे पर पहुंचीं। यादव और उसके गुंडों को गिरफ्तार कर लिया गया। बलवंत और सूरज की जान बच गई।
सूरज का भविष्य
अगले दिन प्रताप सिंह ने बलवंत के लिए एक खास तोहफा भेजा। सूरज का एडमिशन जयपुर के सबसे अच्छे स्कूल में करवाया गया और उसकी पढ़ाई का सारा खर्च आर्मी वेलफेयर फंड ने उठाया।
बलवंत की आंखों में आंसू थे। उन्होंने आसमान की ओर देखकर कहा, “नेकी का फल कभी बेकार नहीं जाता।”
निष्कर्ष
यह कहानी हमें सिखाती है कि इंसानियत और नेकी का बीज जब बोया जाता है, तो वह एक दिन विशाल बरगद बनकर हमें हर मुसीबत से बचाता है। नेकी का फल जरूर मिलता है, चाहे देर से ही क्यों न हो।
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