तलाकशुदा पत्नी और उसकी बेटी चाय बेच रही थी, तभी फार्च्यूनर में आया पति… आगे जो हुआ दिल तोड़ देगा!”

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एक अनकही कहानी

नमस्कार दोस्तों, आज हम आपके लिए एक ऐसी कहानी लेकर आए हैं जो दिल को छू लेगी। यह कहानी है सचिन और कविता की, जिनकी ज़िंदगी में एक मोड़ आया था, जिसने सब कुछ बदल दिया।

सचिन एक सफल व्यापारी था, जिसने अपनी मेहनत और लगन से एक बड़ा कारोबार खड़ा किया था। वह अपनी पत्नी कविता के साथ खुशहाल जीवन बिता रहा था। दोनों की एक प्यारी बेटी थी, जिसका नाम महिमा था। महिमा की मासूमियत और हंसी सचिन और कविता के लिए जीवन की सबसे बड़ी खुशी थी। लेकिन एक दिन, सब कुछ बदल गया।

सचिन और कविता के बीच कुछ गलतफहमियां बढ़ने लगीं। काम के दबाव और व्यक्तिगत समस्याओं के चलते उनका रिश्ता तनावपूर्ण हो गया। सचिन ने महसूस किया कि कविता अब पहले जैसी नहीं रही। वह हमेशा परेशान रहती थी और छोटी-छोटी बातों पर झगड़ने लगी थी। सचिन ने सोचा कि शायद यह सब काम के कारण हो रहा है, लेकिन वह यह नहीं समझ पाया कि उसकी उपेक्षा और अनदेखी ने कविता को कितना तोड़ दिया था।

एक दिन, सचिन ने कविता से तलाक लेने का फैसला किया। उसे लगा कि इससे दोनों को राहत मिलेगी। लेकिन उसने यह नहीं सोचा कि इस फैसले का उनकी बेटी महिमा पर क्या असर होगा। तलाक के बाद, कविता ने महिमा की परवरिश अकेले ही की। सचिन ने अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ने की कोशिश की, लेकिन उसके दिल में एक खालीपन था। वह अपनी बेटी और पत्नी को बहुत याद करता था, लेकिन गर्व और अहंकार के कारण वह कभी वापस नहीं गया।

वक्त बीतता गया और सचिन ने अपनी ज़िंदगी में काम को प्राथमिकता दी। वह अपने पुराने दोस्तों से भी दूर हो गया और अपनी सफलता में खो गया। लेकिन कभी-कभी, जब वह अकेला होता, तो उसे कविता और महिमा की याद आती। उसकी आँखों में आंसू आ जाते, लेकिन वह उन्हें छुपा लेता।

एक दिन, सचिन एक पुराने क्लाइंट से मिलने के लिए निकला। वह उसी मोहल्ले में गया, जहां उसने कविता के साथ चाय की चुस्कियां ली थीं। जब वह वहां पहुंचा, तो उसने देखा कि सब कुछ बदल गया है। गलियां वही थीं, लेकिन दुकानों के नाम बदल गए थे। दीवारें नए रंगों से सज गई थीं, लेकिन कुछ यादें अब भी उन ईंटों में कैद थीं।

जब वह एक नुक्कड़ पर पहुंचा, तो उसकी नजर एक छोटी सी दुकान पर ठहर गई। एक लकड़ी का ठेला था, जिस पर आम, केले, संतरे और कुछ सब्जियां सजी थीं। पास में पुराना गैस चूल्हा था, जिस पर चाय उबल रही थी। सचिन ने ध्यान से देखा और उसे एक महिला दिखाई दी, जो चाय बना रही थी। वह महिला कोई और नहीं, बल्कि उसकी पूर्व पत्नी कविता थी।

कविता अब सड़क पर चाय और फल बेच रही थी। सचिन का दिल एक पल के लिए धड़क उठा। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उसकी पत्नी, जो कभी एक खुशहाल जीवन जीती थी, अब इस हालत में है। वह चुपचाप खड़ा रहा, उसकी आंखों में आंसू थे।

कविता ने चाय छानते हुए कहा, “क्या दूं साहब? चाय या फल?” सचिन ने खुद को संभाला और धीरे-धीरे बोला, “एक कड़क चाय और कुछ आम दिखाइए।”

जब कविता ने आम की टोकरी निकाली, तो सचिन की नजर एक पुरानी तस्वीर पर अटक गई। तस्वीर में एक मासूम बच्ची मुस्कुरा रही थी। सचिन ने तुरंत पहचान लिया कि यह उसकी बेटी महिमा है। उसकी आंखों में आंसू आ गए। उसने खुद को रोका और बस इतना कहा, “यह आम कैसे दिए?”

कविता ने जवाब दिया, “सुबह लाए हैं साहब। मीठे हैं। थोड़ा मुरझाए हैं। ₹100 किलो। खाकर देख लीजिए।” सचिन ने कहा, “सारे दे दो।”

कविता ने चौंकते हुए कहा, “8 किलो हैं साहब। 800 होंगे। सब ले रहे हैं तो 640 लीजिए।” सचिन ने चुपचाप जेब से दो 500 के नोट निकाले और थमा दिए।

जब वह मुड़ने ही वाला था, तभी कविता ने कहा, “साहब, ₹200 ज्यादा दे दिए। भीख नहीं चाहिए।” सचिन रुक गया। उसकी आंखें भर आईं।

कविता ने कहा, “इज्जत बचाने को यह दुकान है। कमजोर नहीं हूं।” सचिन की आंखों में आंसू थे। उसने कांपती आवाज में पूछा, “तुम्हारा पति कुछ नहीं करता?”

कविता ने गहरी सांस ली और कहा, “12 साल पहले तलाक हो गया साहब।” सचिन का दिल जैसे किसी ने मरोड़ दिया।

वह एक पल के लिए थम गया। फिर झोला संभालते हुए धीरे-धीरे वहां से हटने लगा। लेकिन उसकी आंखें अब भी उस तस्वीर पर अटकी थीं जिसमें वह चेहरा था जो शायद आज भी उसे पहचान सकता था।

कविता अब आम समेट रही थी। सचिन अभी भी थोड़ी दूरी पर खड़ा था, हाथ में झोला लेकिन दिल में तूफान। मन में सवाल उमड़ रहे थे, “क्या वह मेरी बेटी थी? क्या मैंने सचमुच सब कुछ खो दिया?”

ज्यादा सोचने की हिम्मत ना थी। बस कदम अपने आप कविता के पीछे चल पड़े। गली तंग थी, झूलते बिजली के तार, छतों से टपकती बूंदें, दीवारों पर मिटे हुए पोस्टर और हर दरवाजे पर थकी सी जिंदगी।

कविता जहां रुकी, वह जगह अलग थी। एक छोटा टूटा फूटा मकान था, जिसके बरामदे में दो खटियां पड़ी थीं। एक पर बूढ़ी औरत, सूखे हाथ, धनंसी आंखें चुपचाप आकाश की ओर ताकती हुई। दूसरी खटिया पर एक 10 साल की लड़की, कमजोर, सांवली, खाली आंखें, बिखरे बाल। पास में एक खिलौना पड़ा था, लेकिन वह उसे छू भी नहीं रही थी।

सचिन वहीं ठिठक गया। कविता ने दरवाजा खोला, बोझ उतारा और भीतर चली गई। लेकिन सचिन की नजर उस बच्ची पर अटक गई। वह महिमा थी, उसकी अपनी बेटी। अब कोई तस्वीर नहीं, कोई झलक नहीं। सच सामने था।

सचिन ने एक कदम बढ़ाया, लेकिन सीने में कुछ कसने लगा। उसकी बेटी इतनी कमजोर, इतनी खामोश। उसे याद आया वह दिन जब एक साल की महिमा उसकी गोद से उतरने को तैयार नहीं थी। आज वह खटिया पर अकेली पड़ी थी जैसे जिंदगी से भी रूठी हो।

वह और पास नहीं जा सका। बस दीवार के साए में खड़ा देखता रहा। उसकी आंखें भर आईं। मन में एक ही ख्याल था, “यह मासूम जान मेरी गलती क्यों भुगत रही है?”

तभी कविता बाहर आई। हाथ में पानी का गिलास। उसकी नजर सचिन पर पड़ी और वह पल भर को ठहरी। चेहरे पर ना गुस्सा ना हैरानी। बस एक थकी स्थिर आवाज। “यहां तक आ ही गए।”

सचिन कुछ ना बोल सका। उसने आंखें झुका लीं। कविता ने महिमा की ओर देखा। फिर सचिन की आंखों में झांकते हुए बोली, “देख भी लिया। शायद अब समझ आया होगा कि अकेले सब कुछ उठाना कितना मुश्किल है।”

सचिन की आवाज कांप रही थी। “यह महिमा है ना?” कविता की आंखों में नमी छलकी। पर उसने कोई इल्जाम ना लगाया। “हां, वही है जो कभी तुम्हें पापा कहती थी। अब बस बीमार पड़ी रहती है।”

सचिन के होंठ कांपे। उसने खुद को संभाला। फिर धीमे से बोला, “मुझे नहीं पता था कि हालात इतने हैं।”

कविता ने बात काट दी, “पता होता तो क्या करते?” सचिन खामोश रहा। उसने महिमा की ओर देखा, जो अब भी उसी खटिया पर थी।

तभी महिमा ने करवट ली और अपनी खाली आंखों से सामने देखा। उसकी नजर सचिन से मिली। सचिन घबरा गया। छट से पीछे हटा जैसे गुनाह में पकड़ा गया हो। लेकिन महिमा ने कुछ ना कहा। वह बस देख रही थी जैसे कोई भूली पहचान याद करने की कोशिश में हो।

कविता ने कहा, “अगर वाकई कुछ करना है तो एक बार उसके सामने जाओ। ना भूत की तरह ना छुपकर, बस एक बार बाप बनकर।”

सचिन दीवार से टिका खड़ा रहा। महिमा अब खटिया से थोड़ा उठकर बैठी थी। उसके चेहरे पर वही थकी मासूमियत थी जो उन बच्चों में दिखती है जो कम बोलते हैं, ज्यादा सहते हैं।

उसने अपनी मां की ओर देखा। फिर उस अनजान आदमी की तरफ जिसकी आंखों में डर, पछतावा और एक अनकही उम्मीद थी। कविता महिमा के पास गई। धीरे से उसके सिर पर हाथ फेरा और हल्के स्वर में बोली, “बेटा, यह तुम्हारे पापा हैं।”

महिमा ने कुछ ना कहा। बस आंखें उठाकर सचिन को देखा। फिर नीचे। सचिन खुद को ना रोक सका। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा और महिमा के सामने घुटनों के बल बैठ गया। आंसू बहने लगे।

कांपती आवाज में बोला, “मैं बहुत साल चुप रहा। बेटा, बहुत बड़ी गलती की। तुम्हें छोड़ा, तुम्हारी मां को छोड़ा और खुद को भी खो दिया। पता नहीं अब हक बचा है या नहीं, पर क्या तुम मुझे एक बार माफ कर सकती हो?”

महिमा की आंखों में गुस्सा नहीं, बस एक खालीपन था जो कह रहा था, “इतने साल कहां थे पापा?” खामोशी छाई रही। फिर महिमा ने धीरे से हाथ बढ़ाया और सचिन के आंसुओं से भीगे चेहरे को छुआ।

कोई शब्द ना निकला, पर उस स्पर्श में वह सब था जो एक बच्ची कभी कह ना पाई थी। महिमा उठी और धीमे से सचिन के गले लग गई। सचिन ने अपनी बेटी को सीने से चिपकाया। रोता रहा। उसकी रुलाई में अब कमजोरी नहीं, बल्कि वह पीड़ा थी जो सालों से उसकी आत्मा में कैद थी।

कविता पास खड़ी थी। आंखें भीगी पर चुप। उसने महिमा के सिर पर हाथ रखा और उस खामोशी में सब कुछ कह दिया गया। महिमा फिर खटिया पर लेट गई थी। करवट लेकर दीवार की ओर मुंह कर लिया। शायद आंखें बंद थीं या शायद वह उस स्पर्श को अब भी सीने में समेट रही थी।

सचिन वहीं जमीन पर बैठा था। चुप निशब्द। उसकी नजर महिमा पर थी पर भीतर एक तूफान उमड़ रहा था। मन बार-बार कह रहा था, “पूछ, क्या तू फिर उसका पापा बन सकता है? कविता से कह, क्या तू उसके साथ फिर जिंदगी जी सकता है?”

मगर उसकी आंखें कविता की ओर गईं। वह खामोश खड़ी थी। ना इशारा ना रोक। बस वही थकी पलकें थीं जिनसे कोई सफाई नहीं चाहिए थी। सचिन ने हथेलियां जमीन पर टेकी। धीरे से उठा और एक बार फिर महिमा को देखा।

कुछ बोलना चाहा पर शब्द दिल के दर्द में डूब गए। वह मुड़ा, एक कदम चला। फिर रुका जैसे दिल पीछे खींच रहा हो। मगर जुबान कह रही थी, “अभी नहीं।” बिना आवाज किए वह गली से बाहर निकल गया। ना दरवाजा खटका, ना अलविदा कहा। बस चला जैसे हार कर नहीं बल्कि वक्त का कर्ज चुकाने का वादा लेकर।

गाड़ी के पास पहुंचा, दरवाजा खोला पर बैठने से पहले आसमान की ओर देखा। सुनसान आकाश, शांत हवा और कहीं गहराई से उठती एक आवाज, “तू लौटेगा ना?”

रात भर सचिन सो ना सका। करवटें बदलते हुए उसकी आंखों के सामने बस महिमा का चेहरा घूमता रहा। वह नजरें जो कुछ ना बोली पर सब कह गई। तकिए पर सिर रखा, लेकिन नींद जैसे महिमा के पास चली गई थी।

उसने खुद से कहा, “मैं आज सिर्फ देखकर लौटा। अब बाकी है वह प्यार। वह साथ जो एक बेटी को सबसे पहले अपने पापा से मिलना चाहिए।”

रात आंखों में ही बीती। सुबह होते ही सचिन उठ खड़ा हुआ। उसके कदमों में अब डर नहीं, एक संकल्प था। वह उस कोने की दुकान पर गया, जहां कभी कविता के लिए चूड़ियां खरीदा करता था। आज उसके हाथ नहीं कांपे। चेहरे पर एक ठहराव था जो वक्त से बहुत कुछ सीखने के बाद आता है।

उसने एक छोटा पैकेट बनवाया। कुछ रंगीन चूड़ियां, एक जोड़ी बालियां और एक सादा मंगलसूत्र। कुछ कीमती नहीं, पर हर चीज में अधूरे रिश्ते की भरपाई छुपी थी। वहां से किराने की दुकान गया। दूध, फल, दवाइयां, बिस्कुट, कुछ किताबें और एक छोटी सी गुड़िया सब कुछ उसने अपने हाथों से पैक करवाया।

वह नहीं चाहता था कि आज कोई बच्ची उसे सिर्फ गले लगाने वाला अजनबी समझे। आज वह पूरा पापा बनकर जाना चाहता था। दोपहर ढल रही थी। गर्मी कुछ कम हो गई थी। सचिन ने कार का डिक्की बंद किया और उसी गली की ओर बढ़ा, जहां कल उसकी जिंदगी का सबसे गहरा आईना मिला था।

गली वैसी ही थी। टपकती टंकियां, तंग दरवाजे और हर चौखट पर थकी जिंदगी। लेकिन आज सचिन की चाल अलग थी। कल उसके कदम कांप रहे थे। आज उनमें भरोसा था।

कविता का घर नजदीक आया। दूर से ही महिमा खटिया पर बैठी दिखी। आज वह लेटी नहीं थी। पुरानी कॉपी में कुछ लिख रही थी। पास में वही खिलौना पड़ा था जिसे शायद सालों से किसी ने छुआ नहीं था।

सचिन रुक गया। गहरी सांस ली और धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ा जिसे उसने खुद से कभी बहुत दूर कर दिया था। महिमा ने उसे देखा। इस बार उसके चेहरे पर अजनबियत नहीं थी। वह थोड़ा चौकी पर आंखों में हल्की चमक थी।

“पापा,” उसने धीमे से कहा। सचिन रुक ना सका। उसने बाहें फैलाई और महिमा दौड़ कर उसके गले लग गई। महिमा का गले लगना इस बार हिचकिचाहट से मुक्त था। जैसे उसे यकीन हो गया हो कि यह सिर्फ एक पल का नहीं, अब रोज का होगा।

सचिन ने उसे गोद में उठाया और भीतर ले गया। कविता दरवाजे पर खड़ी थी। चुपचाप देख रही थी। ना मुस्कान ना सवाल। बस उसकी आंखों में इंतजार का सन्नाटा।

सचिन ने महिमा को खटिया पर बैठाया। फिर डिक्की से लाया थैला खोला। दवाइयां, दूध, फल, किताबें, एक गुड़िया सब एक-एक कर सामने रख दिया। फिर जेब से वह छोटा पैकेट निकाला और कविता की ओर बढ़ाया।

“यह तुम्हारे लिए,” उसने धीमे से कहा। कविता ने उसे देखा। फिर पैकेट खोला। चूड़ियों के बीच मंगलसूत्र देखकर वह ठिठकी। उसकी आंखें भीग गईं। कुछ बोलना चाहा पर आवाज भीतर ही टूट गई।

सचिन पास आया। बहुत धीमे से बोला, “उस दिन तुमने कुछ नहीं कहा। पर तुम्हारी आंखों में मैंने देखा, तुमने सब नहीं खोया। अगर माफ कर सको तो इस बार सिर्फ महिमा को नहीं, मुझे भी अपना बना लो।”

कविता कांप रही थी। उसने मंगलसूत्र थामा। उसे देर तक देखा। फिर धीरे से बोली, “अगर फिर वही गलती की, तो यह चूड़ियां कभी नहीं पहनूंगी।”

सचिन की आंखें भर आईं। उसने सिर झुकाया और कहा, “इस बार ना तुमसे ना खुद से कोई झूठ बोलूंगा।”

उस शाम सचिन पहली बार उस घर में ठहरा जहां कल तक वह छुप कर खड़ा था। आज उसी घर से महिमा की खिलखिलाहट गूंज रही थी। कविता रसोई में थी। चूल्हे पर चाय चढ़ी थी और गैस की धीमी आवाज के साथ चूड़ियों की खनक सुनाई दे रही थी।

वह मंगलसूत्र अब उसकी गर्दन में था जिसे सालों पहले आंसुओं में बहा दिया गया था। महिमा दरवाजे पर अपनी नई किताबें पलट रही थी। बीच-बीच में सचिन को देखकर मुस्कुराती जैसे आंखों से कह रही हो, “अब कभी मत जाना पापा।”

सचिन खिड़की के पास बैठा था। उसका चेहरा थका नहीं, शांत था। सालों बाद उसे ना दौलत याद थी ना दुकान। बस यह तीन जिंदगियां दिख रही थीं जो आज एक साथ सांस ले रही थीं।

मगर सुख की शुरुआत से पहले कुछ अधूरे पन्ने बंद करने थे। अगली सुबह सचिन अपनी दुकान पहुंचा। वहां उसका बड़ा भाई खड़ा था। चेहरे पर ताज्जुब। “दो दिन से फोन बंद, दुकान रुकी हुई। कहां था?”

सचिन शांत रहा। कुर्सी खींची, बैठा और स्थिर आवाज में बोला, “अब यह दुकान और मेरी जिंदगी मेरी मर्जी से चलेगी।”

भाई चौंका, हंसने की कोशिश की। “क्या मतलब?” सचिन ने उसकी आंखों में देखा। “मतलब अब मैं अपने रिश्तों को फिर से जीना चाहता हूं। अपने गुनाहों को माफ नहीं, सुधारना चाहता हूं।”

“पागल हो गया है,” भाई चिल्लाया। “तेरी जिंदगी हमने संभाली वरना तू कहीं का ना था। वो औरत जो तुझे छोड़ गई थी।”

सचिन ने बात काटी, “नहीं, वो औरत जो मेरा सब कुछ थी और जिसे मैंने चुप रहकर खो दिया। अब मैं चुप नहीं रहूंगा।”

भाई तमतमाया, “तो दुकान छोड़ देगा।” सचिन ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “नहीं, अब दुकान मेरे साथ चलेगी पर इंसानियत के साथ। पैसों के पीछे दौड़ते नहीं। बेटी की हंसी और पत्नी की इज्जत के साथ।”

भाई खामोश रह गया। सालों बाद वह अपने छोटे भाई को एक आदमी की तरह खड़ा देख रहा था जो अब झुक नहीं रहा था।

सचिन उस दिन घर लौटते हुए चुप रहा। मगर उसकी शांति चेहरे पर झलक रही थी। रास्ते में उसने फल, दवाइयां और दो स्कूल बैग खरीदे।

कविता के घर पहुंचा तो वह दरवाजे पर खड़ी थी जैसे इंतजार में। सचिन ने झोले रखे। महिमा को बुलाया और चुपचाप बोला, “अब कोई हमें अलग नहीं कर पाएगा।”

महिमा दौड़कर उसकी कमर से लिपट गई। कविता पीछे आई, उसका हाथ थामा। तीनों चुप थे, लेकिन उस खामोशी में अब दर्द नहीं, एक नई शुरुआत थी।

कहानी यहीं खत्म नहीं होती। यहीं से बिखरे रिश्ते फिर एक कमरे में सांस लेने लगे। एक टूटा इंसान फिर से पिता, पति और सबसे पहले इंसान बन गया।

कभी-कभी हम चुप रहकर उन बातों को होने देते हैं जो रिश्तों को तोड़ देती हैं। लेकिन जब वक्त दूसरा मौका दे, तो वह सजा नहीं, एक आईना लाता है जो दिखाता है कि हमने क्या खोया?

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