तीसरी बार भी बेटी होने पर पत्नी को घर से निकाला… पर किस्मत ने जो खेल दिखाया, पति ने सोचा भी नहीं था…
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उस दिन धूप मद्धम थी, पर गाँव की गलियाँ उस मद्धम उजाले में भी अरुना की आँखों की चमक तक नहीं पहुँचा पाती थीं। अरुना चार साल की थी जब उसकी माँ चंद्रिका को यह कहते हुए घर से निकाल दिया गया कि एक और लड़की जन्म ले चुकी है। उसके पिता, रमेश, ने ठहरा कि वंश आगे नहीं बढ़ेगा, खेत गँवा देने का डर उसके दिल में कोई दीपक नहीं जलने देगा। तब से अरुना के जीवन में अँधेरा घिर गया: उसकी माँ बाहर, किसी आँगन में, बारिश में भीगती रहती, और अरुना भीतर, अपनी छोटी बहन राधा को गोद में लेकर, खिड़की से बाहर झाँकती रहती कि माँ कब लौटेगी।
चाँदनी रात में अरुना सपने देखती कि माँ आँगन का लंटा थामे खड़ी थी, मुस्कुरा रही थी; लेकिन सब सपना ही रहा। गाँव के लोग दरवाज़े से झाँक-काँक कर कहते, “यह दूसरी बीबी बेजोड़ निकली, पाँचवी लड़कियाँ ले-लेकर घर में घुटन हो गई।” अरुना के मन में दर्द के साथ एक छोटी-सी विद्रोह की लौ उठी। उसने सोचा, “माँ ने मुझे जन्म दिया है, मुझे प्यार किया है, और गाँव वालों की सोची-अनसोची बातें मेरी खैर नहीं। मैं बड़ा होकर सबको दिखाऊँगी कि एक लड़की से क्या-क्या हो सकता है।”
सातवीं कक्षा में अरुना पढ़ने के लिए गाँव के एक छोटे से स्कूल जाती। रास्ते में कभी खेत की मिट्टी बच्चों के जूते रगड़ देती, कभी घाट की सीढ़ियाँ भीँच जाती, पर अरुना ने कभी हार नहीं मानी। उसके बैग में राधा की मोटी-सी गुलाबी डिज़ाइन वाली ब्लाउज़ रखी रहती। छुट्टी के समय वह उसे पहनाकर स्कूल से घर आती कि भला माँ को भी थोड़ासा गरमाहट मिल जाए। गाँव के बच्चे हँसी उड़ाते: “देखो, यह तो अभी भी लड़कियों के कपड़े पहनकर घर से भाग आई,” पर अरुना मुस्कुरा देती और आगे चल देती।

एग्ज़ाम के दिन जब परिणाम आया, तो अरुना ने पूरे गाँव में टॉप किया। गाँव के सरपंच ने उस दिन सामूहिक चाय पार्टी रखी, पर रमेश को बुलाए बिना ही। सरपंच ने मंच से कहा, “अरुना ने पूरे ब्लॉक में पहला स्थान लाकर दिखाया है। इसने साबित किया कि अगर सही मौका मिले, अगर लड़कियों को पढ़ने का हौसला मिले, तो वो दुनिया बदल सकती हैं।” वह गर्व से पानी की घूँट ले रही थी मगर मन-ही-मन दु:खी भी थी। उसने चाहा कि दौड़कर गाँव की गंगोत्री के पास खड़ी माँ को बुलाए, मगर आँखों से आँसू बह पड़े।
कुछ महीने पहले अरुना को वजीफा मिला था—डिस्ट्रिक्ट लेवल पर बच्चों को पढ़ाने के लिए सरकार ने ख़र्चा भेजा था, और गांव वालों ने भी मिलकर एक कोठी बनवाई जहाँ अरुना नन्हे बच्चों को पढ़ाती। तभी गाँव के ही ठाकुर राजू ने उसे बुलाया और धमकाया: “लड़कियों को पढ़-लिखाकर क्या करोगी? तेरी पढ़ाई से पहनावा बिगड़ेगा, रोज़-ब-रोज़ चप्पल पहनकर घुमती रहेगी।” पर अरुना ने संयम से कहा, “दुनिया देखने से पहनावा नहीं बिगड़ता, सीखने से अकल बढ़ती है।” राजू ठहरा लाचारी में, बगैर कुछ बोले ही वापस चला गया।
समय बीतता गया, अरुना के आँखों में आत्मविश्वास पनपता गया। उसने सरकारी ऑफिस ज्वाइन कर लिया और गाँव-गाँव जाकर लड़कियों को स्कूल भेजवाया। एक बार उसने देखा कि चंद्रिका, उसकी माँ, नदी के किनारे सफेद साड़ी लेकर बारिश में भीग रही थी। अरुना ने फुर्ती से अपनी ओढ़नी उतारी और माँ के कंधे पर बाँध दी। माँ ने सिर झुकाकर कहा, “बेटा, मुझे बहुत ठंड़ लग रही थी।” अरुना ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “अब माँ, जहां तक मैं चल सकती हूँ, वहीँ तक आपका हाथ थामे चलूँगी।” उस दिन चंद्रिका की आँखों में जिस राहत की चमक थी, वह अरुना के दिल में अमिट बनकर रह गई।
फिर एक दिन राज्यपाल ने गाँव में जाँच करके एक नई योजना की घोषणा की: “जो भी गाँव साक्षरता दर में सबसे आगे होगा, उसे पाँच लाख रुपये का अनुदान मिलेगा।” पूरे ब्लॉक में टीचर्स, ग्राम प्रधान और अभिभावक उत्साहित हो गए। अरुना ने तय किया कि अपनी संस्था ‘ज्ञानदीप’ के माध्यम से इस प्रतियोगिता में गाँव को शामिल करेगी। उसने चंद्रिका, अपनी माँ, को संगठित किया कि गाँव की बुजुर्गों को भी साक्षरता सिखाएं, बच्चों को पढ़ाएं, और युवतियों को सिलाई-कढ़ाई तथा आईटी प्रशिक्षण दें।
सप्ताह भर की मेहनत के बाद जब राज्यपाल फिर गाँव पहुँचा, तो उसने देखा कि गांव की चौपाल पर बच्चे-युवती-पुराने सब मिलकर कंप्यूटर को समझा रहे हैं, अंग्रेजी वर्तनी लिख रहे हैं; सड़क पर नाइंटीन की वर्कशॉप लगी थी, और बुजुर्ग अपने नाम और हस्ताक्षर सीख रहे थे। राज्यपाल ने आँखे फाड़ीं और मुस्कराया, “ऐसा गाँव मैं कभी नहीं देख पाया।” फिर धनराशि घोषित की गई। पांच लाख रुपये की चेक जब ग्राम पंचायत को मिली, तो गाँव की मिट्टी से उठती खुरदरी खुशियाँ देखते ही बनती थीं।
वहीं इस बीच रमेश की तबीयत बिगड़ी। उसे समझ नहीं आता था कि दूसरा परिवार, दूसरा घर कैसे बना। पहली बीवी का जाना दर्द था, अब अरुना के काम ने उसे चकरा दिया था। उसने बड़े-बुजुर्गों को जगाया और कहने लगा, “मेरी बेटियाँ बवाल मचा रही हैं, सम्मान गिर रहा है।” किंतु इन बेटियों ने उस दिन उसे गाँव के स्कूल दिखाया—जहाँ बिना एक रुपये की फीस लिए, मंदिर के पिछवाड़े में ‘ज्ञानदीप केंद्र’ में रोजाना सौ से ज्यादा छात्र मिलते थे। आपने आँखे झपकाएँ और बोले, “मुझे शर्म आ रही है।” पहली बार उसने गर्व महसूस किया कि उसके घर की बेटियाँ न केवल गाँव का नाम रौशन कर रही हैं, बल्कि गरीब बच्चों के जीवन को भी उजाला दे रही हैं।
एक शाम सराहना समारोह में राज्यपाल ने अरुना को बुलाकर कहा, “आपने न केवल शिक्षा की रोशनी जलाई, बल्कि समाज की चेतना भी जगाई है। आपकी माँ ने आपके दर्द को सींचकर एक वरदान पैदा किया।” तब चंद्रिका, जो मंच के पीछे खड़ी थी, अपने आँसू पोंछते हुए गाली दे रही थी: “देखा बेटा, मैता-पूता नहीं, बेटियों ने हमारी इज्जत बचाई।” पूरे गाँव ने तालियाँ बजाईं। रमेश ने मंच पर आकर अपनी बेटी का हाथ थामा और कहा, “बाह-बाह, मैंने गलत सोचा था, बेटियाँ बोझ नहीं भगवान का दिया हुआ उपहार होती हैं।” अरुना ने विनम्रता से सिर हिलाया, किन्तु उसकी आँखों में मानो लुक्का-छुप्पी की चमक थी—कि बेटियाँ उपहार हैं, किंतु पल्लवी इस बदलाव की असली नायिका थी। धीरे-धीरे गाँव-गाँव तक इस घटना की गूँज फैल गई कि एक छोटी-सी लड़की ने एक बड़े समाज को झकझोर दिया।
समय का पहिया घूमता रहा। पन्द्रह वर्ष बाद जब गाँव के मेले में एक पुनर्मिलन कार्यक्रम हुआ, तो देखा कि ‘ज्ञानदीप केंद्र’ अब एक आधुनिक विद्यालय में बदल चुका था। वहाँ कम्प्यूटर लैब, विज्ञान प्रयोगशाला, पुस्तकालय चमक रहे थे। अरुना अब उस स्कूल की प्रधानाध्यापक थी। उसके साथ राधा भी प्रधानाचार्य सहायक बनी थी। गाँव के बच्चे इंग्लिश, गणित, विज्ञान में दिग्गज बनकर बाहर जा रहे थे। गाँव में औरतों का उत्साह चरम पर था; कृषि में तकनीकी मदद, सिलाई-बुनाई में स्वरोजगार, और स्वास्थ्य शिविरों में अपने आप को सक्षम समझ रही थीं।
और रमेश जी? उन्हें गाँव के सम्माननीय अधिवक्ता के तौर पर चुना गया। अस्पताल में इलाज कराने गए बीमार मरीजों का शिलान्यास तय करते, गाँव की कानूनी समस्याओं को निःशुल्क हल करते। वह सब दिन भूल गया था जब उसने कोख में पल रहे जीवन को बोझ समझा था। अब वह जीवन भर के लिए ऋणी बनकर खड़ा हुआ, अपनी बेटियों की क़दमों में सिर रखकर विनती करता, “बेटियों, अपने पापा को माफ़ कर दो।”
सभा में अरुना ने आँखें नम करते हुए कहा, “जब माँ ने हमें गोद में लिया, तब दर्द भी था और सुकून भी। उस दर्द ने हमें मजबूत बनाया; उस सुकून ने हमें भला करने की राह दिखाई। पिता ने वंश बढ़ाने का सपना देखा, पर माँ ने वंश को संस्कारों और श्रम से आगे बढ़ाया। आज हमारा वंश शिक्षा, समता और सहानुभूति का वंश कहलाता है।” चारों ओर तालियों की गड़गड़ाहट गूँजी। छोटे बच्चे अपने इंग्लिश स्लोगन बुलाने लगे, “Girl Power!”, “शिक्षित बेटी देश की शान!” गाँव के बुजुर्ग आँसू पोछकर मुस्कुरा रहे थे।
निर्वाचन नज़दीक आए, तो गाँव ने तय किया कि ‘ज्ञानदीप फाउंडेशन’ को एक ट्रस्ट बने, जिससे पाँच और पासकैन स्वास्थ्य एवं शिक्षा के शिविर आनुवाई से हर गाँव तक पहुँचे। अरुना को ट्रस्ट की चेयरमैन नियुक्त किया गया। चंद्रिका पहले अंधविश्वासों में जकड़ी रहती थी, पर अब वे महिलाएँ जो पूजा-पाठ मेंचले आती थीं, उन्हें गाँव की महिलाएँ भी समझने लगीं कि जो काम दान-पुण्य से बड़ा है, वह है शिक्षा और सेवा। मंदिर की घंटियाँ अब शिक्षा की घंटियाँ थीं, और धूप-दीपक की लौ अब कम्प्यूटर स्क्रीन और लैब फ्लास्क में जली दिखती थी।
समाज का उस गाँव को चाँद की तरह मढ़ने वाला नया दिवस आया, जब नारी शक्ति को मोदी सरकार ने राष्ट्रीय सम्मान से नवाज़ा। ‘ज्ञानदीप केंद्र’ में हर बेटी के दस्तावेज पर एक लाल रिबन बांधा गया, क्योंकि वे राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा में ‘विद्यापीठ गौरव’ सूची में नाम दर्ज करा रही थीं। तब रमेश ने सार्वजनिक रूप से कहा, “बच्चियों ने मुझसे वह लिया जो देने में मैं नाकाम था: सम्मान, काम और समाज में नया स्थान।” उस दिन चंद्रिका और अरुना ने पिता को गले लगाकर कहा, “हमें माफ़ कर दो, पापा—तुमने हमें जन्म देकर यहाँ पहुंचाया।” फिर पूरे गाँव ने पुरानी बातों को भुलाकर नए सपनों को गले लगाया।

अब उस गाँव में बच्चियाँ न तो बोझ हैं न केवल उपहार; वे वरदान हैं। स्कूल की छत पर ध्वज रहते हैं, जिन पर लिखा है: “बेटियां घर की अमन-चैन हैं, उनके सपनों में देश सोन चिरैया बनता है।” सुबह-शाम पेड़ों पर लगे बाँटो-पत्रों में उन बेटियों की तस्वीरें लगी थीं, जो फिजिक्स और मैथ्स में नाम लेकर आई थीं, और जिनके हाथों से सिलाई मशीन चलती थी। गाँव का तालाब अब ‘ज्ञानतालाब’ कहलाता, जहाँ पढ़ते छात्रों के लिए नाव सेवा चलती है। भीतर की जलवाही जो वर्षों तक सिमटी रही, अब ज्ञान की लहर में बदल गई।
जीवन चक्र चलते-चलते वहाँ तक पहुँचा कि अब कोई गाँव वाले मुस्कुरा कर पूछते, “अरे, यह वही घर है जहां दशकों पहले लड़की पैदा होने पर ढोंग-फरमाई होती थी?” तब अरुना सिर हिलाकर जवाब देती, “हाँ, पर वहाँ अब नफ़रत नहीं, दया पनपती है; बोझ नहीं, बुलंदियाँ खिलती हैं।” और बच्चों के ऊँचे स्वर गूंजते, “हम हैं ‘ज्ञानदीप’ की लौ; हमें बुझाओ ना, हमें बुझाओ ना।”
इस तरह उस गाँव की कहानी ने हम सबको यह सिखाया कि बेटियाँ बोझ नहीं वरदान होती हैं; वंश नाम से नहीं सद्भावना और शिक्षा से आगे बढ़ता है; रिश्ते खून से नहीं व्यवहार से बनते हैं; और न्याय—चाहे समाज दे या भगवान—समय के साथ सदा सही साबित होता है। तभी ताने-बाने में फँसी आपकी बहन, बेटी, माँ, सब सम्मान पाती हैं, और अँधेरे में भी उम्मीद की लौ जली रहती है।
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