पति आईपीएस बनकर लौटा तो पत्नी रेलवे स्टेशन पर चाय बेच रही थी फिर जो हुआ सब हैरान।
“कविता की कहानी — आत्मसम्मान की लड़ाई”
दिल्ली के व्यस्त प्लेटफार्म नंबर तीन पर सुबह की हलचल अपने चरम पर थी। लोग इधर-उधर भाग रहे थे, ट्रेनें आ रही थीं और जा रही थीं। इसी बीच कविता नाम की एक महिला चाय के ठेले पर ग्राहकों को चाय के गिलास दे रही थी। उसका चेहरा थकान से भरा था, लेकिन उसके हाथ थमे नहीं थे। वह लगातार चाय बना रही थी, ग्राहकों की मांग पूरी कर रही थी।
कविता की ज़िंदगी कोई आसान कहानी नहीं थी। सात साल पहले उसकी शादी हुई थी रोहन से, जो एक साधारण परिवार से था। रोहन ने नौकरी पाने के लिए गाँव छोड़ दिया था और दिल्ली आ गया था। शादी के बाद दोनों ने एक साथ नई ज़िंदगी शुरू करने की ठानी थी। लेकिन कुछ ही महीनों में रोहन ने अचानक से संपर्क तोड़ लिया। न फोन, न चिट्ठी, न कोई खबर। कविता अकेली रह गई, एक छोटे से कमरे में, बिना किसी सहारे के।
दिन बीते, महीने बीते, साल बीते, लेकिन रोहन का कोई पता नहीं चला। कविता ने अपने परिवार की मदद से चाय बेचने का काम शुरू किया ताकि अपनी ज़िंदगी चला सके। उसने कभी हार नहीं मानी। वह जानती थी कि अपने पैरों पर खड़े होने के लिए उसे खुद ही संघर्ष करना होगा।
एक दिन उस व्यस्त प्लेटफार्म पर, जब कविता ग्राहकों को चाय दे रही थी, अचानक एक लंबा चौड़ा आदमी आया। उसकी आँखों में आत्मविश्वास था, कंधे पर बैग लटकाए वह सीधे कविता के पास आया। कविता ने उसे देखा, पर उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। उसने चाय का गिलास दिया और कहा, “लो जी चाय, ₹10 का गिलास है।”
आदमी ने चाय का गिलास लिया, एक घूंट पीया और धीरे से बोला, “कविता, मैं हूं रोहन। तुम्हारा पति।”
कविता ने बिना पलक झपकाए उसकी आँखों में देखा और कहा, “गलत पहचान है आपकी। मेरा कोई पति नहीं है।”
रोहन गुस्से में बोला, “तुम मुझे पहचानने से इंकार कर रही हो? यह नाटक बंद करो। मैं सात साल बाद लौटा हूं, आईपीएस बनकर।”
“सात साल?” कविता ने तंज कसते हुए कहा, “सात साल तक तुम्हारा कोई पता नहीं था। ना फोन, ना चिट्ठी। तुम्हें मेरी याद तब आई जब तुमने वर्दी पहन ली।”
रोहन ने कहा, “मैंने तुम्हारे लिए मेहनत की, तुम्हें बेहतर ज़िंदगी देने के लिए।”
कविता ने जवाब दिया, “बेहतर ज़िंदगी? जिसमें पत्नी को भुला दिया जाए? मैं अब वही नहीं जो तुम्हें विदा करने स्टेशन आई थी। मैं अपने दम पर खड़ी हूं।”
उनकी बातचीत सुनकर आसपास के लोग रुके, कुछ ने मोबाइल निकाल कर वीडियो बनाना शुरू कर दिया। तभी एक रेलवे पुलिस कांस्टेबल अंदर आया और कहा, “साहब, यहां भीड़ जमा हो रही है। लोग कह रहे हैं कि किसी महिला को जबरदस्ती अंदर ले जाया गया है।”
रोहन ने कांस्टेबल को धमकाया, “तुम्हें पता है तुम किससे बात कर रहे हो? मैं आईपीएस रोहन कुमार हूं।”
कविता ने कहा, “वीडियो बनाओ, सबको पता चले कि यह आदमी कैसे मुझे जबरदस्ती खींच कर लाया।”
कांस्टेबल ने कहा, “मामला महिला का है, बिना स्टेशन मास्टर की अनुमति के दरवाजा बंद नहीं रहने देंगे।”
कविता ने अपने ठेले की ओर जाते हुए कहा, “मैं डरने वाली नहीं हूं। जो करना है कानून के रास्ते से करो।”
अगले दिन रोहन पुलिस के साथ आया और कहा, “कविता, मैं तुम्हें थाने ले जाऊंगा।”
कविता ने कहा, “ले जाओ। मैं किसी से नहीं डरती।”
थाने में एसएओ ने दोनों को बुलाया और कहा, “यह मामला पति-पत्नी का विवाद है। आपको दोनों को कानून मानना होगा।”
रोहन ने कहा, “मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि मेरी पत्नी मुझे पहचानने से इंकार करे।”
कविता बोली, “मैं यह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि कोई आदमी वर्दी की आड़ लेकर मुझे गुलाम समझे। अगर तुम सच में मेरे पति हो तो कानून से साबित करो।”
अंत में मामला अदालत में गया। वहां पता चला कि रोहन की असली पत्नी कहीं और है और वह कविता को धोखा दे रहा था। कोर्ट ने भी कविता का पक्ष लिया और रोहन को फटकार लगाई।
कविता की नई शुरुआत
अदालत के फैसले के बाद कविता की जिंदगी में एक नई उम्मीद जगी। उसने अपनी छोटी सी चाय की दुकान को बढ़ाने की ठानी। उसने अपने आप को मजबूत बनाया और अपने सपनों को पूरा करने लगी। वह जानती थी कि अब उसे किसी की जरूरत नहीं, वह खुद अपनी ज़िंदगी की मालिक है।
कविता ने अपने छोटे भाई-बहनों की पढ़ाई का जिम्मा उठाया। उसने मेहनत से पैसा कमाया और एक दिन एक बड़ा कैफे खोलने का सपना देखा। उसने अपने संघर्षों से सीखा कि जीवन में आत्मसम्मान सबसे बड़ा धन है।
संघर्ष से सफलता तक
कविता की कहानी समाज में एक मिसाल बन गई। उसने साबित किया कि चाहे कितनी भी मुश्किलें आएं, अगर हिम्मत और आत्मसम्मान साथ हो तो कोई भी बाधा बड़ी नहीं होती।
उसने अपने कैफे का नाम रखा “आशा” — क्योंकि यही उसका संदेश था, कि हर महिला को अपनी ज़िंदगी में आशा और सम्मान चाहिए।
समापन
कविता की कहानी हमें यह सिखाती है कि जीवन में कभी हार नहीं माननी चाहिए। चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन हों, अपने आत्मसम्मान और हक के लिए लड़ना चाहिए। सही समय पर सही फैसले लेना और अपने अधिकारों की रक्षा करना ही सच्ची जीत है।
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