पति रोज़ सुबह घर से निकलता था, पत्नी ने एक दिन पीछा किया, जो देखा, पैरों तले ज़मीन खिसक गई.

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जयपुर के एक छोटे से मोहल्ले में राजेश नाम का एक व्यक्ति रहता था। वह एक फर्नीचर बनाने वाली फैक्ट्री में क्लर्क था। उसकी जिंदगी बिल्कुल सामान्य लगती थी, लेकिन उसके अंदर एक ऐसा राज छुपा था जिसे उसकी पत्नी दिव्या तक नहीं जानती थी। हर सुबह राजेश चुपके से उठता, रात के खाने में बची हुई ठंडी रोटियां खाता और फिर दफ्तर जाने के बहाने जल्दी घर से निकल जाता था। किसी को पता नहीं था कि वह ऐसा क्यों करता है, और कहां जाता है।

दिव्या, जो राजेश की पत्नी थी, धीरे-धीरे उसकी इस अजीब आदत पर शक करने लगी। उसने सोचा कि कहीं राजेश किसी दूसरी महिला के साथ तो नहीं है, या फिर वह कोई बड़ा राज छुपा रहा है। उसकी चिंता बढ़ती गई क्योंकि राजेश घर में हमेशा से पराठों का शौकीन रहा था, लेकिन अब वह बिना शिकायत ठंडी रोटी खा रहा था।

एक दिन दिव्या ने सुबह जल्दी उठकर राजेश के लिए आलू के पराठे बनाए। पूरे घर में पराठों की खुशबू फैल गई। वह उम्मीद कर रही थी कि आज राजेश खुश होगा। लेकिन जब उसने पराठों की थाली राजेश के सामने रखी, तो उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “दिव्या, तुम खुद खाओ। मुझे वास्तव में देर हो रही है। मैं बस यह एक ठंडी रोटी खाऊंगा। तुम आर्यन के साथ खा लेना।” दिव्या का दिल बैठ गया। यह सिर्फ एक पराठे की बात नहीं थी, बल्कि उसके प्यार और ध्यान के अस्वीकार होने का एहसास था।

दिन बीतते गए, राजेश की आदत नहीं बदली। दिव्या रोज ताजा खाना पकाती, लेकिन राजेश उसे अनदेखा कर ठंडी रोटी खाता। दिव्या के मन में सवालों का तूफान उठने लगा। क्या राजेश उससे नाराज है? क्या उसके हाथ का खाना स्वाद बदल गया? या फिर उसकी जिंदगी में कोई और आ गया है? मोहल्ले की औरतों की बातें भी उसके मन में गूंजने लगीं, “अरे बहन, मर्दों का क्या है? जब बाहर मुंह मारने लगते हैं तो घर का खाना जहर लगता है।” यह ख्याल एक जहरीले कांटे की तरह उसके दिल में चुभने लगा।

राजेश की तनख्वाह ठीक-ठाक थी, घर का गुजारा चल जाता था, लेकिन पिछले कुछ महीनों से दिव्या ने घर में पैसों की तंगी महसूस की। आर्यन ने नए स्कूल बैग की मांग की, तो राजेश ने पुराना वाला ठीक है कह टाल दिया। नई चादरें खरीदने की बात पर भी उसने कहा कि फिलहाल जरूरत नहीं है। ये सब बातें दिव्या के संदेह को और पक्का कर रही थीं। उसे पूरा यकीन हो गया कि राजेश कोई बड़ा राज छुपा रहा है।

एक दिन मकान मालिक देवेंद्र जी किराया लेने आए। राजेश फैक्ट्री जा चुका था। देवेंद्र जी ने दिव्या के सामने ही परेशानी जताई कि पिछले महीने किराया देर से मिला था। दिव्या ने जब राजेश से पूछा तो उसने कहा, “कुछ नहीं, काम का बोझ ज्यादा है। चिंता मत करो।” लेकिन दिव्या को यकीन नहीं हुआ।

अगली सुबह दिव्या ने ठान लिया कि वह राजेश का पीछा करेगी और सच जानेगी। जब राजेश घर से निकला, तो दिव्या ने सावधानी से उसका पीछा किया। राजेश फैक्ट्री जाने वाली बस में नहीं बैठा, बल्कि एक दूसरी बस में सवार हुआ जो शहर के पुराने हिस्से की तरफ जा रही थी, जहां प्रसिद्ध महाकाल मंदिर था।

राजेश ने मंदिर के पास उतरा और भीड़ में खो गया। दिव्या ने देखा कि वह मंदिर की मुख्य सीढ़ियों की बजाय एक पुराने पीपल के पेड़ के नीचे गया। वहां एक छोटा तख्ता था, जिसमें राजेश ने एक छोटी अलमारी खोली। उसमें से उसने गैस सिलेंडर, चूल्हा, बर्तन, आटे की बोरी, पानी की बोतल और तवा निकाला। दिव्या हैरान रह गई।

राजेश ने तवे पर रोटियां सेंकनी शुरू कीं। धीरे-धीरे आसपास के बेसहारा, बूढ़े, बीमार और बच्चे उसके पास आने लगे। राजेश ने अपने टिफिन बॉक्स से निकली रोटियां और सब्जी उन लोगों को प्रेम और आदर से दी। दिव्या को समझ आ गया कि राजेश ने जो ठंडी रोटियां खाई थीं, वे उसने अपने लिए नहीं रखीं थीं, बल्कि उन जरूरतमंदों के लिए थीं।

दिव्या की आंखों से आंसू बह निकले। वह सोचने लगी कि उसने राजेश पर शक क्यों किया। वह कोई धोखेबाज नहीं था, बल्कि एक फरिश्ता था जो निस्वार्थ सेवा कर रहा था। राजेश बीमार बुजुर्गों को पानी पिला रहा था, बच्चों के सर पर हाथ फेर रहा था। उसकी आंखों में शांति और संतोष था।

दिव्या अपने पति के पास जाने ही वाली थी कि दो गुंडे वहां आ गए। वे रोजाना ₹300 हफ्ता मांगने लगे। राजेश ने हाथ जोड़कर कहा कि उसके पास इतने पैसे नहीं हैं, यह सब वह अपनी तनख्वाह से बचाकर करता है। गुंडे उसकी बात नहीं सुन रहे थे। उनमें से एक ने राजेश के आटे में लात मारने की कोशिश की। दिव्या ने हिम्मत जुटाई और गुंडों के सामने खड़ी हो गई। उसने भीड़ को आवाज दी कि यह राजेश गरीबों की सेवा कर रहा है और गुंडे उससे हफ्ता मांग रहे हैं।

दिव्या की बहादुरी देखकर आसपास के लोग भी राजेश का साथ देने लगे। गुंडे अकेले पड़ गए और धमकी देते हुए वहां से भाग गए। भीड़ ने दिव्या की हिम्मत की तारीफ की। दिव्या ने राजेश के हाथ से बेलन लिया और उसके साथ बैठकर रोटियां सेकने लगी। राजेश ने कहा कि उसे यह सब करने की जरूरत नहीं है, लेकिन दिव्या ने कहा कि अब वह भी इसमें हिस्सा लेना चाहती है।

उस दिन राजेश और दिव्या साथ मिलकर गरीबों को खाना खिलाने लगे। मोहल्ले की महिलाएं भी उनके साथ जुड़ गईं। फैक्ट्री के मालिक को जब यह पता चला तो उसने राजेश की तनख्वाह बढ़ा दी और काम पर एक घंटा देरी से आने की अनुमति दे दी ताकि उसकी सेवा में कोई बाधा न आए।

राजेश और दिव्या की जिंदगी बदल गई। उनके रिश्ते में जो खामोशी और दूरी थी, वह खत्म हो गई। उनका प्रेम गहरा और मजबूत हो गया। उनकी कहानी मोहल्ले तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि इंसानियत, विश्वास और त्याग की मिसाल बन गई।

यह कहानी हमें यह सिखाती है कि कभी-कभी सबसे बड़े राज हमारे अपने घर में छुपे होते हैं। हमें अपने करीबियों को समझने और उनके अच्छे कामों को पहचानने के लिए धैर्य और समझदारी की जरूरत होती है। राजेश और दिव्या की कहानी एक प्रेरणा है कि सच्चा प्रेम और सेवा हमेशा समाज को बेहतर बनाती है।