पुनर्जन्म | 8 साल की लड़की ने बताई अपने पिछले जन्म की कहानी | 8 साल की लड़की निकली दो बच्चों की माँ

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पुरानी हवेली के विशाल द्वार पर जंग लगी घंटी आज भी उसी अजीब सी आहट के साथ बजती थी, जैसे किसी अनदेखी शक्ति का संदेसा सुना रही हो। हवेली के भीतर सूनी दीवारों पर धूल जमी रहती, जिसे छूते ही गुमनाम इंसान के नक़्श मिट जाते। गाँव वालों का कहना था कि इस हवेली में रात होने पर कोई परछाई घूमती, धीमे स्वर में बड़बड़ाती और कभी-कभी हँसी की खनक सुनाई देती। कोई भी उस हवेली के भीतर कदम डालने की हिम्मत नहीं जुटाता, पर मेरे भीतर जिज्ञासा का दरिया लबालब बह रहा था।

मैं हिमालय की तलहटी में बसा ‘चिरगाँव’ नामक गाँव का एक युवक था, नाम वीरेंद्र शर्मा। बचपन से ही मुझे भूत-प्रेत, रहस्य और पुराने खंडहरों की कहानियाँ बेहद रोमांचक लगीं। मेरे पिता बाबा शिवनाथ मेरा बचपन गाँव में ही व्यतीत कर गए थे। उन्होंने बताया था कि यह हवेली पचास-छह साल पहले खड़ी की गई थी, तब इसके मालिक थे अमृत चंद गुप्ता—एक धनी ज़मींदार, जो लालच और क्रूरता की दुर्दांत मिसाल थे। कहा जाता है उसने बड़ी-बड़ी सरकारी फाइलें और नक़ली दस्तावेज़ बनवाए, अपने खेतों का रिकॉर्ड बढ़ाया, गाँव वालों का अपहरण किया और बदले में उनसे ज़मीन वसूल की। जब अमृत चंद को सरकारी जाँच की सूचना मिली, तब उसने हवेली में छुपकर उनका अभिलेख लुका दिए और अपने नौकरों से सब कुछ नष्ट करने को कहा। लेकिन किन्हीं अज्ञात कारणों से आग लगी, भारी धमाका हुआ और अमृत चंद वहीं रहस्यमय ढंग से गायब हो गया।

गाँव में यह कहानी सुनते-सुनते मैं बड़ा हुआ, पर कभी सच की तह तक जाने की हिम्मत नहीं की। पर उसी दिन अचानक मेरे पास एक चिट्ठी आई, जिस पर सिर्फ इन शब्दों का अंकन था—“अगर जाननी है सच्चाई, आतीर हवेली आ जाना मध्यान्ह के बाद।” कोई नाम नहीं, कोई पता नहीं। मेरी आँखों में कौतूहल जग गया। मैं उस शाम अपने छोटे बैग में एक टॉर्च, एक नोटबुक, एक पुराना कैमरा और एक पोर्टेबल रिकॉर्डर लेकर हवेली की ओर निकल पड़ा।

दोपहर के बाद हवेली का शांत द्वार धकेलते ही सुरम्य अँधेरा आ कर गले लग गया। हवेली के भीतर का मार्ग चूने-पत्थर से बना था, दरवाज़ों पर जंग लगे ताले झन-झन करके जैसे चेतावनी दे रहे हों। एक लंबी काली कॉरिडोर थी, जिसमें खिड़कियाँ ऊँची बनी थीं, पर शीशे टूटे-फूटे थे, और बाहर की रोशनी बीच-बीच में थरथराती छापे जैसी चमक छोड़ जाती थी। मैंने टॉर्च की किरण एक विशाल चित्र पर पड़ी—कैंची से कटे सुरम्य गुलाब के फूलों के बीच एक जोड़ी आँखें उभरती थीं, मानो मुझे घूर रही हों।

आगे बढ़ा तो दीवारों पर तख़्ती लगी मिली—“जो तलाशी न ले, वह रहस्य का मोरा है न खोले”—जिसका मैंने अर्थ निकाला कि जो व्यक्ति यहाँ खुदाई नहीं करेगा, उसे कुछ पता नहीं चलेगा। मैंने टॉर्च की रोशनी ऐसे-कैसे कोनों में डाली, पुरानी कालीनें उठा कर दरवाज़ों के लक्कड़्यान अभी खटखटाए, लेकिन सब बंद मिले। तभी मैंने एक सीढ़ियाँ ऊपर जाती देखा, और चढ़ते ही सामने एक विशाल हॉल खुल गया, जहाँ भित्ति चित्रों की पंक्तियाँ थीं। प्रत्येक चित्र में अमृत चंद गुप्ता अलग-अलग मुक़ामों पर खड़ा था—एक में वह खून से लथपथ कागज़ों का थैला लिए खड़ा था, दूसरे में तहख़ाने के ताले तोड़ रहा था, तीसरे में तहख़ाने की तिजोरी से निकलते हुआ रुपयों के ढेर के बीच।

मेरी साँसें तेज़ हुईं। सच में वहाँ एक तहख़ाना अवश्य होगा। मैंने हॉल के किनारे बने छोटे से कांच के ऐलार्म-बॉक्स पर हाथ फेरा, लेकिन वह न टूटा, न खुला। फिर एक ख़ास तख़्ती पर मैंने लिखा देखा—“गुप्‍त द्वार के लिए खोजो तीन कुंजियाँ”—और खरोंचों से उकेरे अक्षर चमक रहे थे। मैंने नोटबुक में लिख लिया। तीन कुंजियाँ? मुझे अंदेज़ा हुआ कि अवश्य इस हवेली में कहीं कोई गुप्‍त द्वार है, जो इतिहास के अभिलेख रखता होगा।

हवा में एक खुरदरी आवाज़ सी गूँजी—“तलाशी रुक।” मैं डर गया, पर याद आई वह चिट्ठी मुझे बुला रही थी। मैंने रिकॉर्डर चालू कर दिया। आवाज़ फिर आई—“कहीं भी मत मुड़।” धीरे-धीरे म़ें आगे बढ़ता गया, टॉर्च की रोशनी झटकों में हिलती रही। मैं जो सोच रहा था, वैसा ही हुआ; एक दीवार पर तीन विभिन्न आकार के निशान—एक तिकोना, एक वृत्त, एक वर्ग—उकेरे गए थे। मैंने टॉर्च के प्रकाश से केल्क किए कर उन निशानों को नोट किया।

उसके ठीक बगल में मौजूद तीन छोटे-छोटे द्वार थे, जिन पर बटन दबाने का तंत्र था। मैंने पहले तिकोने पर टैप किया, तभी एक धीमी क्लिक की आहट के साथ एक बटन अंदर धँस गया। फिर वृत्त पर, फिर वर्ग पर—तीनों बटन दबते ही दीवार में सेंध लग गई और सामने एक संकरी सी सीढिय़ाँ ऊपर जाती दिखी। मन प्रसन्न था। मैं सीढ़ियाँ चढ़ा, और सामने लौह द्वार। उसकी जंग लगी सतह पर उत्कीर्ण था—“सैंडस्टोन”—और नीचे बगल में एक छोटा कुंडलीदार हैंडल।

मैंने हैंडल घुमाया तो दरवाज़ खुली और भीतर एक ठंडी हवा का झोंका आया। मैंने टॉर्च की किरण उस तहखाने में डाली—धीमें-धीमें आँखों ने आकार पहचान लिए। बीच में एक तिजोरी खड़ी थी, जो सौ साल पुरानी लग रही थी। उसके सामने तीन वस्तुएँ रखी थीं—एक हार्ड ड्राइव जिस पर “PROJECT SANDSTONE PHASE-III” अंकित था, एक भंगार-सा लॉकेट जिसमें तस्वीर उगीली नहीं थी, और एक पुराना कांट्रैक्ट पेपर, जिसपर सरकारी मुहरें मुरझा चुकी थीं। मैं जान गया कि यही वह प्रमाण हैं जो अमृत चंद के काले सौदों का रहस्य खोलते। मैंने अपना कैमरा निकाला और तस्वीरें क्लिक की।

उसी क्षण तहखाने के दरवाज़ के बाहर तिपहिया चप्पू की खड़खड़ाहट सी सुनाई दी। मेरा दिल धक् से रुक गया। मैंने हार्ड ड्राइव, लॉकेट और कांट्रैक्ट अपने बैग में दबोच लिए और दरवाज़ ज़ोर से बंद किया। लॉक फिर जुड़ गया। पर आवाज़ पास आती रही—कोई भीतर धक्का दे रहा था। मैं काँपता हुआ पीछे हट गया, तब तक सामने की दीवार अचानक सरक गई और एक पुरुष की परछाई झाँकी—ऊँचे कंधों वाला, सफ़ेद कोट पहने, हाथ में पुराना कैमरा थामे। उसकी आँखों में शून्यता थी; उसने धीमे स्वर में कहा—“सिया… तुम लौटी हो।”

मैंने कुछ कहने से पहले रिकॉर्डर रुकवा दिया। पर उस अजनबी ने मुझे पहचान लिया—“वीरेंद्र?” अवाक रह गया मैं। फिर उसने एक कदम बढ़ाया, पर तभी सीढ़ियों के ऊपर से भारी कदमों की आहट गूँजी। दरवाज़ के पास एक तेज-तर्रार लौह छड़ी गिरी और अचानक तेज़ रोशनी से वह अजनबी धुँधला हो गया। चप्पू की आवाज़ तेज हुई, और बाहर गुज़र रही क़दमताल सुनकर मेरे होश उड़ गए। मैंने पीछे मुड़कर देखा—सीढ़ियाँ उपर से बंद हो चुकी थीं।

मैंने जल्दी से पीछे की एक खिड़की से कूदने का मन बनाया, पर तभी शादी सी छत से टिमटिमाती मोमबत्तियों की लौ आँखों में आई—यहाँ कोई विवाह नहीं, कोई आराधना चल रही थी। दीवारों पर छितरे दाग़दार कमर्चियाँ, खिड़कियों से उतरते उजाले पर रक्तस्रावी रंग की परछाइयाँ पड़ रही थीं। उस अजनबी ने फिर कहा—“तुमने दस्तावेज़ चुराए। तुम्हें नहीं जाना”—और तब सदमी सी आवाजें आईं—कोई मंत्र जाप रहा था, गुफा जैसी छत से गिरकर चौंकाने वाले उत्थान का प्रमाण दे रहा था।

मन में बलख़्वराहट सी उठी और मैं दौड़ पड़ा पीछे की ओर, पर हवेली ने सोचा-अनसोचा खेल दिखाया। वहाँ दरवाज़ों की कमी थी, खिड़कियाँ अचानक बंद मिलीं और सीढ़ियाँ असहाय हो गईं। पैर रास्ता खोज रहे थे, पर घूम-घूम कर वही कोहरा सामने था। एक मोड़ पर मैंने देखा—दीवार पर उकेरा था—“याद रखा जाएगा”—और तभी कोई कचोट कर मेरी बाँह पकड़े ले गया। मैंने जोर से चीखा; सामने तेज़ एक उजाला हुआ और फिर सब बंद हुआ।

जब मैं बेहोश हुआ, मुझे लगा खुद को समंदर में डूबा हुआ महसूस कर रहा हूँ। पर तभी किसी ने मुझे खींचकर बाहर निकाला। आँख खुली तो देखा अन्दरूनी आँगन में खामोशी छाई थी। सामने थी नंदिता चौहान की फ़ौजी वर्दी—वहाँ खड़ी थी वही तेजतर्रार डीसीपी, जिसने कभी शहर के बड़े मामलों को गरमा-गरम ढंग से सुलझाया था। उसने मारे गुस्से मुझे बाँहों में थामा, बोली—“तुम किसके खेलने आए थे यहाँ?” मैं घबरा गया, पर बैग देखा तो दस्तावेज़ सुरक्षित थे।

नंदिता ने दस्तावेज़ उठाए, और खुद ट्वीट की भाषा में बोली—“यह सब क्या?” मैंने पूरी कहानी सुनाई—चिट्ठी, रहस्य, सैंडस्टोन का नाम, अवैध सौदे, तहखाना, तिजोरी। नंदिता की आँखों में तीव्र चमक थी; उसने कहा—“इन्हें यहीं छोड़ो, और मुझे हवेली से बाहर ले चलो।” तब मैंने देखा पहरेदार उतर रहे थे—कुछ सफेद कोट वाले, कुछ काले नकाब पहने। सभी के हाथों में उभरे हॉवर-बॉल की झिलमिलाती छड़ियाँ थीं। वे घेर रहे थे।

नंदिता ने वॉकी-टॉकी पकड़ा और कोड दिया—“ऑपरेशन सैंडस्टेप इनिशिएट।” तभी चारों ओर से पुलिस वाहन दौड़े, आसपास से एनएसजी और कोबरा कमांडो छलांग लगाए और नकाबपोशों को घेर लिया। बीचहदरी में नंदिता ने खामोशी से मेरी ओर देखा—“दस्तावेज़?” मैंने बैग दे दिया। उसने हार्ड ड्राइव को खोला, लॉकेट बेल्ट से टांगा और कांट्रैक्ट पेपर को अपने हाथों की ढाल के नीचे रखा।

कमांडो ने नकाबपोशों से पूछताछ की, जिनमें उंगली के निशान भी नहीं थे। ताबड़तोड़ फोरेंसिक टीम ने तहखाने के अवशेष बरामद किए और गवाहों के बयान दर्ज किए। पता चला कि अमृत चंद ने यह पूरा प्रोजेक्ट सरकारी अफसरों के शीर्ष स्तर पर गुपचुप लेन-देन के लिए डिजाइन किया था। नाम ही था ‘सैंडस्टोन’। इस प्रोजेक्ट के तहत इंसानी यादों और बायोमेट्रिक डेटा को तिजोरी में बंद कर, हथियारों के सौदे के बदले लग्ज़री जीवन खर्च करने के पापड़ों को चूसा जाता था।

अगले एक सप्‍ताह में दिल्ली के मुख्य न्यायालय ने इस मामले में विशेष जाँच दल गठित किया। अमृत चंद तो अभी तक लापता था, पर सरकारी दस्तावेजों में दर्ज तिहाई रकम की रंगदारी का लेखा-जोखा मिल गया। एक उच्च स्तरीय अदालत ने सैंडस्टोन को राष्ट्रीय सुरक्षा के तहत घोषित किया और इस बाल्क गुजारे का पर्दाफाश कर दिया।

मैं और नंदिता तब चिरगाँव लौटे, दस्तावेज़ों को सुरक्षित संग्रहालय में सकते से रखवाया। गाँव के वार्डन ने हवेली से बेहोश अवस्था में मिले लॉकेट पर कहा—“यह सिया कपूर का था”—तो मेरी आँखें नम हो गईं। शायद सिया कपूर का सच कभी सामने न आया, पर अब उसकी यादें सुरक्षित थीं, खुली किताब की तरह।

चिरगाँव के नए महापौर ने हवेली को ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर दिया। चंद्रो मोड़ पर बनी हवेली में अब सील लगा दी गई; वाहनों का आना-जाना बंद कर दिया गया। लेकिन उस दिन से गाँव वालों ने फिर कभी भूत-प्रेत की कहानियाँ नहीं सुनीं। खिड़कियों से टिमटिमाती रोशनी ने अब सौहार्द्र की आहट दी।

मैं वीरेंद्र शर्मा आज भी चिरगाँव का वही लड़का हूँ, जो हवेली की दहलीज़ पार कर गया था। मेरी जिज्ञासा ने इतिहास बदल दिया, और सच ने न्याय की मशाल जलाई। सैंडस्टोन का अभिलेख अब टेबल पर जमा है, और बस वही एक तिजोरी रह गई है, जिसमें अमृत चंद गुप्ता की गवाही—उसकी लम्बी-सीट प्रशासनिक चालबाज़ियाँ, मशीनों में बंद यादों की दहाड़ और चिरगाँव वालों की अब निडर आँखों का नया इतिहास—सब समाया है। भूत-प्रेत की कथाएँ मायावी हो गईं, पर हवेली की सूरज बादल से लड़ने की कहानी आज भी हवेली के दरवाज़े पर बजती जंग लगी घंटी में गूँजती है, पल-पल बुलन्द स्वर में: “सच माँगने वालों का अभिलेख कभी धीमा नहीं होता।”