पुलिस इंस्पेक्टर ने मिट्टी के बर्तन बेचने वाले बुज़ुर्ग के साथ देखो क्या किया?
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हाजी करीम की कहानी: एक जालिम पुलिस इंस्पेक्टर और एक गरीब परिवार का संघर्ष
गांव की खामोश गलियों में सुबह का वक्त था। मिट्टी के बर्तन बेचने वाली रेहड़ी पर एक सफेद दाढ़ी वाला बुजुर्ग अपनी आवाज़ लगाता था, “मिट्टी के बर्तन ले लो, पकी मिट्टी के उम्दा घड़े ले लो।” यह आवाज़ हाजी करीम की थी। वह रोज अपनी छोटी सी रेहड़ी पर घड़े लादकर गांव-गांव घूमता और अपने मिट्टी के बने बर्तन बेचता। यही उसका रोज़गार था, यही उसका परिवार का सहारा।
हाजी करीम की बीवी बीते कई सालों से बीमारी के कारण इस दुनिया से चली गई थी। फिर कुछ साल बाद उनका इकलौता बेटा एक हादसे में दुनिया छोड़ गया। उस हादसे ने हाजी करीम की कमर तोड़ दी, लेकिन वह अपने ग़म को दबाकर जिंदा रहे क्योंकि अब बेटे की बेवा बहू जैनत और दो छोटे बच्चे, हिना और अफान, सिर्फ उन्हीं पर भरोसा किए बैठे थे।
जैनत खूबसूरती में कमाल की थी। बड़ी-बड़ी आंखें, गोरा चेहरा, सिर पर सादा दुपट्टा, मगर बहुत हया दिल और नरम स्वभाव की। अपने शौहर की मौत के बाद वह अकेली रह गई थी, लेकिन हाजी करीम की छांव में उसने कभी अकेलापन महसूस नहीं किया। वह बच्चों की परवरिश करती और हाजी करीम झुकी कमर के बावजूद बर्तन बेचकर चूल्हा जलाते।
लेकिन उनके पड़ोस में पुलिस इंस्पेक्टर अनीला शाह रहती थी, जो सख्त मिजाज और घमंडी महिला थी। वह अपनी वर्दी का धौंस दिखाकर गरीबों को दबाती थी। उसका भाई रशीद शराबी और आवारा था, जो रात को गलियों में झूमता, लड़कियों को छेड़ता और स्कूल के सामने बदतमीजी करता। गांव वाले उससे तंग थे, लेकिन बहन की वजह से बच जाता।
अब अनीला की बुरी नजरें जैनत पर थीं। वह चोरी-चोरी उसे घूरती और इशारे करती, लेकिन जैनत चुप रहती क्योंकि गांव वाले उसका साथ नहीं देते थे।
रशीद का उत्पीड़न और हाजी करीम का संघर्ष
एक दिन नशे में धुत रशीद ने हद पार कर दी। जैनत के टूटे-फूटे दरवाजे को लात मारकर तोड़ दिया और अंदर घुसकर बदतमीजी करने लगा। जैनत डरकर रोने लगी और अल्लाह का वास्ता देने लगी, “मुझे छोड़ दो। मैं बेवा औरत हूं, बाहर मुंह दिखाने लायक नहीं रहूंगी। रहम करो मेरे मासूम बच्चे।”
रशीद नशे में था, जैनत ने गुस्से में उसे धक्का दिया और बच्चों को अंदर ले जाकर दरवाजा बंद कर लिया। तभी बाहर घड़े बेचकर लौट रहे हाजी करीम ने सब देख लिया। उनका खून खौल उठा। कांपते कदमों से वह रशीद की तरफ बढ़े और उसके मुंह पर जोरदार थप्पड़ जड़ते हुए गरज कर बोले, “तुझे शर्म नहीं आती? यह मेरी बहू है, मेरे बेटे की अमानत। अगर दोबारा इस तरफ नजर डाली तो यह मेरा बुढ़ापा तुझे कब्र में उतार देगा।”
हम गरीब जरूर हैं, मगर गरीबों के पास सिर्फ इज्जत होती है और तूने उसी बेवा औरत पर हाथ डाल दिया।
रशीद ने सरख आंखों से कहा, “ओ बाबे, तेरा वक्त गया। अब तेरी बहू पर मेरा हक है। देखना, एक दिन उसे मेरे कदमों में झुकना पड़ेगा। तेरी तो टांगे कब्र में हैं, कब तक इसे कमा कर खिलाएगा? आखिरकार आज ना सही कल तू मर ही जाएगा। फिर यह अकेली क्या करेगी? मेरे साथ रिश्ता कायम कर ले, मैं इसे ऐश करवा दूंगा।”
थाने में न्याय की गुहार और जालिमों का खेल
हाजी करीम कांप उठे और सीधे थाने की तरफ गए ताकि रिपोर्ट दर्ज करवा सकें। मगर वहां मौजूद सिपाहियों ने उनका मज़ाक उड़ाया। “बाबा जी, रशीद हमारा खास आदमी है। उस पर इल्जाम लगाते हो? तुम्हें शर्म नहीं आती? तुम्हारी अपनी बहू ही इसके साथ आंख मटकाती होगी। जाओ, अपनी उम्र देखो और घर बैठो। हमें और काम है।”
हाजी करीम की आंखों में आंसू आ गए और दिल ही दिल में बोले, “या अल्लाह, यह कैसा इंसाफ है? जालिम आजाद फिरते हैं और मजलूम को आवाज उठाने की इजाजत भी नहीं।”
वे रोते हुए थाने से बाहर निकले ही थे कि उसी वक्त थाने में नया इंस्पेक्टर वकार अहमद दाखिल हुआ। उसने हाजी करीम की फरियाद सुनी और पहली बार किसी के चेहरे पर यकीन की झलक देखी। “बाबा जी, आप फिक्र न करें। सच छुपता नहीं। मैं आपको इंसाफ दिलाकर रहूंगा।”
अनीला शाह और रशीद की साजिश
रशीद को पता चला कि नया अफसर उसके खिलाफ खड़ा हो गया है। उसने अपनी बहन अनीला शाह को कहा, “कुछ करना पड़ेगा, वरना वह नया इंस्पेक्टर उस बुड्ढे की बातों में आ जाएगा और मैं जेल चला जाऊंगा।”
अनीला शाह के चेहरे पर सख्ती और घमंड की लकीरें उभर आईं। उसने कहा, “इस बुड्ढे की इतनी हिम्मत कि मेरे भाई के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाए? आज तक इस गांव में किसी की इतनी हिम्मत नहीं हुई। रशीद, तू बिल्कुल फिक्र मत कर, मैं संभाल लूंगी। एक कमजोर बूढ़े को तोड़ना मेरे लिए मुश्किल नहीं।”
रशीद ने हंसते हुए कहा, “अगर तू है तो मुझे कोई फिक्र नहीं। अब देखना वो बुड्ढा करीम कैसे रोता है।”
नशे की साजिश और हाजी करीम का फंसना
अगले दिन हाजी करीम अपनी रेहड़ी पर घड़े लादकर गली में निकले और आवाज लगाने लगे, “मिट्टी के बर्तन ले लो, पकी मिट्टी के उम्दा घड़े ले लो।”
इसी बीच अनीला शाह अपने कमरे में रशीद और उसके यार अकरम के साथ बैठी थी। अकरम गांव का बदमाश था, जो अनीला के इशारों पर चलता था। रशीद ने शराब की बोतल गटकते हुए कहा, “दीदी, अगर कल तक कुछ ना किया तो मैं फंस जाऊंगा। वो नया थानेदार मेरी गर्दन पकड़ लेगा।”
अनीला ने मक्कार मुस्कान के साथ कहा, “अकरम, कल हाजी करीम की रेड़ी में घड़े लादने हैं ना, बस उनमें यह नशा छुपा देना। बाकी तमाशा मैं कर लूंगी।”
रात को जब हाजी करीम थक कर सो गए, अकरम दबे पांव आंगन में घुसा और कुछ घड़ों में नशे के पैकेट रख दिए और ऊपर से मिट्टी से सील कर दिया। बूढ़े को खबर भी नहीं हुई कि उसकी मेहनत का सहारा अब उसकी बर्बादी का सामान बन चुका था।
नशे के पैकेट बरामद और हाजी करीम पर इल्जाम
अगली सुबह, जैसे ही हाजी करीम ने गली में आवाज लगाई, गांव वाले चुपचाप देख रहे थे और आपस में कह रहे थे, “यही वे घड़े हैं जिनमें नशा आता है। हम तो सोचते थे हाजी करीम सीधा आदमी है, मगर यह तो नशा बेचकर दिहाड़ी लगाता है।”
कुछ ही देर में पुलिस की जीप गली में दाखिल हुई। अनीला शाह दो सिपाहियों के साथ उतरी और पीछे रशीद और अकरम खड़े हंस रहे थे। अनीला ने जोर से कहा, “गांव वालों, आज इस ड्रामेबाज बुड्ढे का असली चेहरा सामने आएगा।”
सिपाही घड़े तोड़ने लगे। पहला घड़ा टूटा तो सिर्फ मिट्टी का पानी निकला। दूसरा भी खाली निकला, लेकिन तीसरे घड़े से छोटे-छोटे नशे के पैकेट बाहर गिरने लगे। भीड़ हक्का-बक्का रह गई।
हाजी करीम की आंखों में आंसू भर आए। कांपती आवाज में बोले, “यह सब झूठ है। यह नशा मेरा नहीं। यह कोई सोची-समझी साजिश है। मुझे इसकी कोई खबर नहीं। मैं तो बस मेहनत मजदूरी करता हूं।”
मगर किसी ने उनकी बात नहीं सुनी। अनीला शाह हंसकर बोली, “चोर हमेशा यही कहता है। ये जो पैकेट घड़ों से निकले हैं, क्या इन्हें टांगे लगी थीं जो खुद चलकर अंदर चले गए?”
जैनत का विरोध और अनीला की क्रूरता
तभी जैनत बच्चों के साथ आगे बढ़ी और रोते हुए बोली, “मेरा ससुर बेगुनाह है। खुदा के लिए, यह उसका काम नहीं। वह पांच वक्त का नमाजी है। उसने कभी बुराई नहीं की।”
अनीला ने घूर कर चिल्लाया, “चुप रह, वरना तुझे भी जेल में डाल दूंगी। तू खुद भी तो बुड्ढे के जाने के बाद गली के लड़कों से आंख मटकाती है और यह बूढ़ा नशा बेचता है। और तू कहती है पांच वक्त का नमाजी है?”
फिर गुस्से में चाबुक उठाकर हाजी करीम की झुकी हुई कमर पर मारा। बूढ़ा कांप उठा। हिना और अफान चीख पड़े, “दादा, दादा!”
अनीला ने सिपाहियों को आदेश दिया, “इसकी रेड़ी उलट दो।” रेड़ी जमीन पर गिर गई, घड़े चकनाचूर हो गए और मिट्टी के साथ-साथ हाजी करीम के बरसों के ख्वाब भी बिखर गए।
हाजी करीम का गिरफ्तार होना और परिवार की मजबूरी
अनीला ने आदेश दिया, “इसका घर भी तोड़ दो। ऐसे मुजरिम को गांव में रहने की जगह नहीं।”
जैनत जमीन पर गिरकर फरियाद करती रही, मगर किसी ने उसकी बात नहीं सुनी। उस दिन गांव की गलियों में सिर्फ दो आवाजें गूंज रही थीं—एक बूढ़े की चीखें और मासूम बच्चों की सिसकियां।
अनीला शाह को तनिक भी रहम नहीं आया। वह यह नहीं जानती थी कि गरीब की बद्दुआ सीधे आसमान तक जाती है और अर्श को हिला देती है।
सिपाहियों ने हाजी करीम को हथकड़ियों में जकड़ लिया। बूढ़े के कांपते हाथ और आंसू बह रहे थे, मगर गांव वालों के सामने वह सब कुछ सहते जा रहे थे। उनकी जुबान पर बस यही शब्द थे, “या अल्लाह, मैं बेकसूर हूं। मेरा जुर्म क्या है? मैंने तो बस मेहनत मजदूरी की है।”
थाने में जालिमों का व्यवहार और बच्चों की बेबसी
अनीला शाह ने तंज भरी हंसी के साथ कहा, “बस बस, बाबे, अदालत में यही ड्रामा करना। अभी तो हवालात का मजा चखो, वो भी मुफ्त में।”
सिपाहियों ने हाजी करीम को घसीट कर जीप में डाला। हिना और अफान दौड़े और दादा के कदमों से लिपट गए। हिना चीख रही थी, “मेरा दादा बेकसूर है, इसे छोड़ दो।”
अनीला ने सिपाहियों को डांटते हुए कहा, “बच्चों को हटाओ। यह मुजरिम है। कानून सबसे ऊपर है।”
जैनत गिड़गिड़ाते हुए बोली, “खुदा के लिए, यह सब साजिश है। मेरे ससुर पांच वक्त के नमाजी हैं। उन पर ऐसा घिनौना इल्जाम मत लगाओ।”
गांव वाले तमाशाई बने खड़े थे। कुछ सर हिलाकर कह रहे थे, “अरे जैनत, हमें तो पहले ही शक था। कोई इतनी मेहनत कहां करता है बिना कुछ कमाए? यह सब घड़े तो बहाना थे।”
रशीद की धमकियां और जैनत की मजबूरी
रशीद पास ही खड़ा फतहाना मुस्कान के साथ कह रहा था, “मैं तो कब से कह रहा था ना, यह बुड्ढा सीधा नहीं है। देख लो, सबके सामने पकड़ा गया।”
रात ढल गई। हाजी करीम हवालात की अंधेरी कोठरी में बैठे थे। आंखों के सामने बेटे की कब्र का मंजर घूम रहा था। दिल ही दिल में अपने रब से कह रहे थे, “या अल्लाह, तू जानता है मैं बेकसूर हूं। अगर मेरे नसीब में यह जिल्लत लिखी है तो मैं सब्र करूंगा। लेकिन मेरी बहू और मेरे यतीम पोते-पोती पर रहम फरमा।”
रशीद का फिर उत्पीड़न और वकार अहमद का संकल्प
रशीद ने मौका गनीमत जाना। वह रात के अंधेरे में जैनत के दरवाजे पर आया। शराब के नशे में झूमता हुआ जोर-जोर से दरवाजा पीटने लगा, “ओ जैनत, अब तेरा सहारा हवालात में है। मेरे बगैर तू एक दिन भी जिंदा नहीं रह सकती। दरवाजा खोल, अब तुझे मेरे साथ चलना पड़ेगा।”
जैनत ने बच्चों को पास किया और दरवाजा मजबूती से थाम लिया। कांपती आवाज में बोली, “दफा हो जा, रशीद। तेरा चेहरा देखने के बजाय मैं मौत कबूल कर लूंगी।”
रशीद हंसा, “सोच ले, ज्यादा वक्त नहीं है तेरे पास। तेरा बुड्ढा ससुर अब कभी वापस नहीं आएगा। तू और तेरे बच्चे भूखे मर जाओगे। मेरे साथ चलना ही तेरा हल है। एक रात में तेरा सब कुछ ठीक हो जाएगा।”
वकार अहमद की जांच और सच का पता लगाना
थाने के अंदर नया इंस्पेक्टर वकार अहमद अपनी कुर्सी पर बैठा सोच रहा था। उसने अपनी आंखों से हाजी करीम के घड़ों से नशा बरामद होते देखा था, मगर दिल कह रहा था कि यह सब झूठ है। वह अपनी डायरी में लिखता गया, “यह केस साफ नहीं लगता। कुछ ना कुछ गड़बड़ है। मुझे असली सच तक पहुंचना होगा।”
गांव में सत्य की खोज और बच्चे की गवाही
रात के अंधेरे में गांव की गलियां सुनसान थीं। उसी सन्नाटे में एक अकेला शख्स खामोश कदमों से गांव के बीचों-बीच बढ़ रहा था। वह वकार अहमद था, नया थानेदार, जिसका दिल लगातार कह रहा था कि हाजी करीम बेकसूर है।
वह गांव के कचरे के ढेर पर रुका, जहां दिन में हाजी करीम के घड़े तोड़े गए थे। जमीन पर मिट्टी के टुकड़े बिखरे थे, कुछ अब भी गीले थे। वकार ने ध्यान से एक टुकड़ा उठाया और अचानक उसकी नजर एक निशान पर पड़ी। घड़े के कोने पर हाथ का पुराना निशान जमा हुआ था। वह साफ तौर पर किसी जवान और खुरदरे हाथ का था, जबकि हाजी करीम के हाथ कमजोर और झुर्रियों से भरे थे।
वकार के दिल ने कहा, “यह निशान सबूत है। यह किसी और का है।”
रशीद और अनीला की साजिश का पर्दाफाश
अगले दिन थाने का मंजर ही कुछ और था। रशीद अपने दोस्तों के साथ शराब पी रहा था और अनीला शाह कुर्सी पर बैठकर घमंड से कह रही थी, “अब वह बूढ़ा कुछ नहीं कर पाएगा। पूरा गांव उसके खिलाफ है। हमारी जीत पक्की है।”
इतने में दरवाजा खुला और वकार अहमद अंदर आया। सीधी कमर, आंखों में सख्ती और होठों पर हल्की मुस्कान। उसने रशीद को घूरते हुए कहा, “रशीद, अब जरा बात करनी है।”
रशीद नशे में झूमता हुआ खड़ा हुआ और हंसते हुए बोला, “हां भाई, थानेदार पूछ क्या पूछना है?”
वकार ने नरम लहजे में जाल बिछाया, “बस यही जानना था कि घड़ों में नशा कैसे आया। बूढ़े के पास तो अकल भी नहीं थी। इस बंदे को तो दाद देनी चाहिए जिसने इतनी होशियारी से यह काम किया।”
रशीद ने जोर से कहका लगाया, “अरे भाई करता भी क्यों ना? उसकी बहू है ही इतनी खूबसूरत कि कोई भी उस पर मर मिटने को तैयार था। लेकिन जो शातिर खेल खेला गया उसका इनाम तो भाई बनता ही है।”
रशीद की गवाही और गिरफ्तारी
रशीद खिलखिला कर हंस पड़ा और कहने लगा, “फिर मानते हो ना रशीद की होशियारी को? आया बड़ा बुड्ढा भागकर मेरे खिलाफ थाने में रिपोर्ट लिखवाने वाला। उसके तो फरिश्तों को भी खबर नहीं होगी कि उसके साथ यह सब हो जाएगा।”
फिर वह खिलखिला कर हंस पड़ा। बैठो इंस्पेक्टर, मैं तुम्हें तफसील से बताता हूं। आखिर तुम भी तो इंस्पेक्टर हो। तुमसे क्या छुपाना? फिर हम बूढ़े की बहू की खूबसूरती मिल बांट कर छकेंगे। क्या ही मजा आएगा। यह काम कोई और ही कर सकता है।”
रशीद ने जोर का कहका लगाया, गिलास मेज पर दे मारा और बोला, “ओए थानेदार, असली खेल तो हमने किया है। वो घड़ों में नशा मैंने रखवाया था। अकरम को भेजा था ताकि वह बूढ़ा करीम जलील हो जाए। हां हां हां, यह सब मेरा प्लान था।”
यह सुनकर कमरे के कोने में खड़ा सिपाही चौंक गया। वह सब सुन चुका था। वकार ने तुरंत इशारा किया, “याद रख, आज की हर बात तू गवाही देगा।”
रशीद को होश आया कि उसके मुंह से सब कुछ निकल गया है। वह घबरा गया, पसीने से तर हो गया।
अनीला शाह ने गुस्से से भाई को देखा और बोली, “चुप कर बदबख्त जबान संभाल, वरना हम दोनों डूब जाएंगे।”
मगर देर हो चुकी थी। उस वक्त वकार अहमद की सख्त आवाज गूंजी, “अब खेल खत्म हो गया। इंस्पेक्टर साहिबा, तुम्हारा झूठ पकड़ा जा चुका है।”
न्याय की जीत और गांव का बदलाव
बाहर शोर मच गया। गांव के लोग थाने के बाहर जमा हो गए। सबको खबर हो चुकी थी कि रशीद ने खुद जुर्म का इकरार कर लिया है।
अंदर जैनत अपने बच्चों के साथ खड़ी थी। उसकी आंखों में उम्मीद की चमक थी।
वकार ने हाजी करीम को हवालात से बाहर निकाला। बूढ़ा जिस्म लड़खड़ाता हुआ बाहर आया। पीठ पर कोड़ों के निशान अब भी ताजा थे। छोटी हिना दौड़कर दादा से लिपट गई। “दादा, आप बेकसूर हैं ना?”
हाजी करीम की आंखों से आंसू छलक पड़े। “हां बेटी, दादा बेकसूर है। यह सब अल्लाह का करम है कि सच सामने आ रहा है।”
मगर अनीला शाह अभी भी अड़ी हुई थी। बोली, “यह सब झूठ है। रशीद नशे में था। उसकी बात कोई सबूत नहीं मानी जा सकती। मैं वर्दी में हूं, मेरा कहा ही कानून है।”
वकार आगे बढ़ा और सख्त लहजे में बोला, “नहीं अनीला शाह, अब तुम्हारी वर्दी नहीं। सबूत बोलेगा।”
उसने जेब से मिट्टी का वही टुकड़ा निकाला जिस पर हाथ का निशान था। “यह निशान रशीद का है, हाजी करीम का नहीं। और यह बच्चा भी गवाही देगा कि अकरम रात को बाबा के घर आया था।”
गांव वाले हक्का-बक्का रह गए। सच उनके सामने खुलने लगा।
जैनत रोते हुए बोली, “या अल्लाह, तेरा शुक्र है। आखिर मेरा ससुर बेगुनाह साबित हो रहा है।”
रशीद बौखला गया। जेब से छुरी निकालकर चीखा, “मैं सबको मार डालूंगा। किसी को कुछ साबित नहीं होने दूंगा।”
वह आगे बढ़ ही रहा था कि अचानक उसके कदम लड़खड़ा गए। जमीन पर मुंह के बल गिर पड़ा और हाथ से छुरी दूर जा गिरी। सब ने देखा, अल्लाह की लाठी चली।
अनीला शाह और रशीद की गिरफ्तारी
अनीला शाह ने भाई को संभालने की कोशिश की, मगर देर हो चुकी थी।
गांव वाले चिल्लाए, “जालिमों का अंजाम यही होता है।”
वकार अहमद ने सिपाहियों को हुक्म दिया, “अनीला शाह और रशीद दोनों को गिरफ्तार करो। यह कानून के नहीं, इंसानियत के मुजरिम हैं।”
सिपाहियों ने दोनों को जकड़ लिया। रशीद की आंखों से शराब और डर का पसीना बह रहा था। अनीला की आंखों में घमंड टूट चुका था।
नई शुरुआत और परिवार की खुशहाली
हाजी करीम ने आसमान की तरफ देखा और कहा, “या अल्लाह, तेरा शुक्र है। तूने मजलूम की लाज रख ली।”
जैनत ने बच्चों को करीब किया। उनके नन्हे हाथ दादा के झुर्रियों भरे हाथों में समा गए।
गांव के लोग शर्म से सर झुकाए खड़े थे, जो कल तक हाजी करीम को मुजरिम कहते थे, आज उनकी जुबानें बंद थीं।
थाने में रशीद और अनीला शाह हथकड़ियों में जकड़े खड़े थे। वही अनीला जो कल तक गांव वालों पर रब जमाती थी, आज उसके चेहरे से घमंड की सारी लकीरें मिट चुकी थीं। वर्दी में होते हुए भी अब वह सबके सामने मुजरिम नजर आ रही थी।
वकार अहमद ने गांव के लोगों को इकट्ठा कर कहा, “यह लोग बरसों से कानून की वर्दी का गलत फायदा उठा रहे थे। आज अल्लाह ने इनका झूठ खुद इनकी जुबान से निकलवा दिया है। हाजी करीम पर लगाए गए सारे इल्जाम झूठे थे।”
गांव वालों के सिर पर जैसे हथौड़ा पड़ा। वही लोग जो कल तक हाजी करीम को बुरा-भला कहते थे, आज शर्मिंदगी से जमीन पर नजरें झुकाए खड़े थे।
कोई सरगोशी कर रहा था, “हम तो हमेशा डरते थे, सोचते थे वर्दी वाले कभी गलत नहीं हो सकते।”
दूसरा बोला, “हमने हाजी करीम के साथ बहुत जुल्म किया। हम सब भी गुनहगार हैं।”
जैनत की आंखों में आंसू भर आए, मगर इस बार यह आंसू खुशी के थे।
बच्चों ने दादा के हाथ थामे और कहा, “दादा, अल्लाह ने आपको बचा लिया।”
अनीला शाह की वर्दी उतारना और सजा
उस रात थाने की सख्त आवाज गूंजी, “अनीला शाह की वर्दी उतार दो।”
वकार अहमद का हुक्म सुनकर सिपाही आगे बढ़े और सबके सामने अनीला शाह की वर्दी उतरवा दी गई।
वो औरत जो कल तक घमंड और ताकत के नशे में अंधी थी, आज मामूली कैदी की तरह खड़ी थी।
वह चीखी-चिल्लाई, “यह सब ज्यादती है। मैं इंस्पेक्टर हूं, मुझे कोई हाथ नहीं लगा सकता।”
मगर वकार ने ठहरे लहजे में कहा, “नहीं अनीला शाह, अब तू इंस्पेक्टर नहीं। अब तू सिर्फ एक मुजरिम है। यह वर्दी अब तेरी जिंदगी में कभी वापस नहीं आएगी।”
रशीद पर अलग मुकदमा दर्ज किया गया। उसकी शराब-नशी, ज़ैनत को तंग करने और घरों में नशा रखने के जुर्म में उसे लंबी सजा दी गई।
अनीला शाह को भी नौकरी से बर्खास्त कर कानून के कटहरे में खड़ा किया गया।
गांव में खुशहाली और नई जिंदगी
कुछ हफ्तों बाद गांव की फिजा बदल गई। वही हाजी करीम जो कभी घड़ों के साथ रोता था, अब अपने पोते-पोती के साथ हंसता दिखाई देता।
जैनत अपने बच्चों को पढ़ाती और मोहल्ले की औरतें उसकी तारीफ करतीं।
लोग हाजी करीम के पास आकर माफी मांगते, “बाबा जी, हमें माफ कर दो। हम अंधे हो गए थे। हमने आपको गलत समझा।”
हाजी करीम मुस्कुरा कर कहते, “बेटा, मैंने सब कुछ अल्लाह पर छोड़ दिया है। तुम्हारे माफ मांगने से दिल को सुकून मिला। मगर याद रखो, मजलूम की आह कभी राईगाँ नहीं जाती।”
गांव की गलियों में फिर वही आवाज गूंजती, “मिट्टी के घड़े ले लो, पक्की मिट्टी के उम्दा बर्तन ले लो।” मगर अब उस आवाज में एक सुकून, एक जीत और एक इज्जत की खुशबू थी।
खुशहाल परिवार और भविष्य की उम्मीदें
जैनत अपने बच्चों के साथ आंगन में बैठी थी। हिना दादा की गोद में हंस रही थी और अफान किताब हाथ में लेकर कह रहा था, “दादा जी, मैं बड़ा होकर आप जैसा मेहनती इंसान बनूंगा।”
हाजी करीम की आंखें नम हो गईं। “बेटा, मेहनती जरूर बनना, मगर साथ-साथ हक के लिए आवाज भी उठाना, क्योंकि अगर आवाज ना उठाई जाए तो जुल्म और बढ़ता है।”
रात को सब ने मिलकर छोटे से घर में खाना खाया। जैनत ने चूल्हे पर रोटियां पकाई। बच्चे दादा के इर्द-गिर्द खेलते रहे।
वह गरीब घर अब महल से कम नहीं लग रहा था क्योंकि वहां सुकून और इज्जत लौट आई थी।
दूसरी तरफ अनीला शाह और रशीद जेल की सलाखों के पीछे सड़ रहे थे। वे दोनों बार-बार कहते, “हम तो ताकत वाले थे, हमारे साथ यह सब कैसे हो गया?”
मगर अंदर से वे जानते थे कि यह सब हाजी करीम की मजलूम आंसुओं और दुआओं का नतीजा है।
वकार अहमद का प्रस्ताव और नई शुरुआत
एक रात जैनत अपने बच्चों और ससुर के साथ बैठी थी कि दरवाजा खटखटाया गया।
हाजी करीम ने दरवाजा खोला तो सामने वकार अहमद खड़े थे। उन्होंने बड़े अदब से सलाम किया और कहा, “हाजी साहब, मैं आपसे कुछ जरूरी बात करने आया हूं। दरअसल, मैं इस दुनिया में अकेला हूं। मेरे मां-बाप गुजर चुके हैं। एक बहन थी, वह भी शादी करके मुल्क से बाहर चली गई। अब मैं यहां बिल्कुल तन्हा रह गया हूं और तन्हाई मुझे बहुत सताने लगी है। मैं यह चाहता हूं कि अगर आप अपनी बहू का हाथ मेरे हाथ में दे दें तो मैं इन बच्चों का सहारा भी बन जाऊंगा और आप लोगों के साथ रहूंगा। सारी जिंदगी आपका एहसान नहीं भूलूंगा।”
यह सुनकर हाजी करीम सन्न रह गए। उन्होंने गहरी सांस लेकर जवाब दिया, “कल मैं तुझे सोच-समझकर जवाब दूंगा।”
शादी और खुशहाल जिंदगी
वकार अहमद वहां से चले गए। हाजी करीम ने अपनी बहू को पास बुलाया और कहा, “बेटा, तेरे लिए रिश्ता आया है। अगर तुम मुनासिब समझती हो तो यह लड़का बहुत अच्छा है। और तुम जवानी में बेवा हो गई, मैं नहीं चाहता कि तुम इस तरह जिंदगी गुजारो। मेरी सांसों का कोई भरोसा नहीं।”
यह बात सुनते ही जैनत की आंखों में आंसू आ गए और उसने शर्मिंदगी से सर झुका लिया, जैसे कहना चाहती हो, “बाबा, जैसे आप खुश वैसे मैं भी खुश।”
अगले दिन वकार अहमद को जब यह खुशखबरी सुनाई गई कि जैनत मान गई है, तो वह भी बहुत खुश हुए। फिर गांव वालों ने मिलकर जैनत की शादी की तैयारियां की और वकार अहमद के साथ जैनत की शादी करवा दी गई।
परिवार की खुशहाली और बाबा करीम का अंतिम सफर
वकार अहमद जैनत, बच्चों और हाजी करीम को अपने आलीशान घर ले गए। उन्होंने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया, अच्छी तालीम दिलवाई, उनका भविष्य बनाया और जैनत के साथ बहुत ही हंसी-खुशी जिंदगी गुजारने लगे।
बाबा करीम उम्र के तकाजे और बीमारी की वजह से बहुत कमजोर हो गए थे। इलाज करवाने के बावजूद तबीयत ठीक नहीं हो पाई और एक दिन ऐसा आया कि बाबा करीम इस दुनिया से रुखसत हो गए।
जैनत और बच्चों को इस बात का गहरा सदमा लगा। वकार अहमद भी बहुत रोए क्योंकि उन्होंने बाबा करीम को अपना बाप माना था। उनके मां-बाप बचपन में ही गुजर चुके थे और उन्हें लगा कि उनका अपना बाप इस दुनिया से चला गया।
बाबा करीम के कफ़न-दफ़न के बाद जब वे घर लौटे तो उन्होंने बच्चों को ढाँस बांधाया और कहा, “मैं तुम्हें कभी दुख नहीं दूंगा। तुम्हारी आंखों में हमेशा मुस्कान देखना चाहता हूं।”
फिर सब हंसी-खुशी जिंदगी गुजारने लगे। लेकिन दिल से बाबा करीम को कभी भुला न सके।
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