पेंशन के पैसे के लिए आई थी बुज़ुर्ग महिला, बैंक मैनेजर ने जो किया… इंसानियत रो पड़ी

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भाग 1: एक साधारण सुबह

लखनऊ के राज्य लोक बैंक में एक सामान्य सुबह थी। पेंशन का दिन था और बैंक में हमेशा की तरह भीड़ उमड़ी हुई थी। लोग एक-दूसरे के साथ खड़े थे, हर कोई अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था। इस भीड़ में एक बुजुर्ग महिला थी, जिसका नाम सरस्वती देवी था। उन्होंने एक पुरानी साड़ी पहन रखी थी, और उनके चेहरे पर थकान की गहरी लकीरें थीं। वह सुबह से लाइन में खड़ी थीं, लेकिन अब समय खत्म होने वाला था।

बैंक के कर्मचारी एक-एक करके काउंटर बंद कर रहे थे। सरस्वती देवी ने हिम्मत जुटाते हुए काउंटर पर जाकर कहा, “बेटा, मेरी पेंशन दे दो, मैं सुबह से खड़ी हूं।” लेकिन कैशियर ने बिना उनकी ओर देखे कहा, “मां, टाइम खत्म हो गया है। अब सोमवार को आइए।”

सरस्वती देवी ने कुछ नहीं कहा और पास की बेंच पर बैठ गईं। उनकी आंखों से आंसू टपक पड़े। वह बुदबुदा रही थीं, “घर में खाने को कुछ नहीं। दवा भी नहीं है। दो दिन कैसे गुजारूंगी?”

भाग 2: बैंक मैनेजर का ध्यान

यह सब देखकर बैंक के मैनेजर, आरव सिन्हा का दिल कांप गया। वह अपने केबिन से बाहर आए और पूछा, “क्या हुआ मां? आप क्यों रो रही हैं?” क्लर्क ने कहा, “सर, टाइम खत्म हो गया है। अब सिस्टम बंद हो गया है।”

आरव ने झुक कर पूछा, “क्या आप कल नहीं आ सकती?” सरस्वती देवी ने कहा, “अगर कल भी आती तो कुछ फर्क नहीं पड़ता। पर अब दो दिन छुट्टी है। मैं भूखी हूं। मेरे पास एक रुपया भी नहीं है।”

पेंशन के पैसे के लिए आई थी बुज़ुर्ग महिला, बैंक मैनेजर ने जो किया… इंसानियत  रो पड़ी

उनकी थरथराती आवाज सुनकर आरव कुछ देर खामोश रहा। उसे वह आवाज अजीब सी जानी-पहचानी लगी। उसने गौर से उनके चेहरे की ओर देखा। उम्र की मार से चेहरा बदल चुका था, लेकिन आंखों की गहराई अब भी वैसी ही थी। आरव के अंदर जैसे कोई लहर सी उठी।

भाग 3: पहचान और मदद

आरव ने धीरे से पूछा, “मां, आपका नाम क्या है?” उन्होंने कहा, “मेरा नाम सरस्वती देवी है।” आरव की आंखें फैल गईं। उनकी सांसे थम गईं। यह वही नाम था जिसने उसकी जिंदगी बदली थी। सरस्वती देवी वही टीचर थीं, जिनकी वजह से आरव आज इस कुर्सी पर बैठा था।

आरव की आंखों में नमी आ गई। उसने कांपते हाथों से अपनी जेब से बटुआ निकाला और ₹5000 निकालकर उनकी हथेली पर रख दिए। “मां, आप यह रख लीजिए। बैंक खुलेगा तो मैं खुद आपकी पेंशन से काट दूंगा।”

सरस्वती देवी हैरान होकर बोलीं, “बेटा, तुम कौन हो जो मेरी इतनी मदद कर रहे हो?” आरव ने कहा, “मैं वही आरव हूं, आपका स्टूडेंट जिसे आपने कभी मुफ्त में पढ़ाया था।”

भाग 4: भावुक पल

सरस्वती देवी की आंखें फटी रह गईं। वह जैसे शब्द खोज रही थीं। फिर उनके होठों से निकला, “आरव, तू आरव है?” आरव झुक गया और उनके पैरों को छुआ। “मां, आज जो कुछ भी हूं आपकी वजह से हूं। अगर आप ना होतीं तो मैं आज भी सड़कों पर भटक रहा होता।”

पूरा बैंक सन्न हो गया। वहां मौजूद लोग यह दृश्य देखकर रुक गए थे। एक बैंक मैनेजर एक बुजुर्ग औरत के पैरों में सिर झुकाए खड़ा था। आरव ने कहा, “मां, अब आप मेरे साथ चलिए, मैं आपको घर छोड़ देता हूं।”

वह बोलीं, “नहीं बेटा, मैं खुद चली जाऊंगी। तू क्यों परेशान होगा?” आरव ने विनम्रता से कहा, “आपने मुझे इंसान बनाया था। अब मेरी बारी है।”

भाग 5: सफर की शुरुआत

बाहर हल्की बारिश शुरू हो चुकी थी। आरव ने गाड़ी बुलवाई और उन्हें सहारा देकर बैठाया। रास्ते में वह चुपचाप बैठी रहीं। कभी शीशे से बाहर देखतीं, कभी आसमान की ओर। आरव ने महसूस किया कि वक्त ने उन्हें कितना बदल दिया था।

वह औरत, जो कभी बच्चों को उम्मीद सिखाती थी, आज खुद बेबसी की मिसाल बन गई थी। आरव के मन में सैकड़ों सवाल थे। आखिर क्या हुआ उनके साथ? वह कानपुर छोड़कर लखनऊ कैसे आ गईं? कहां गई उनकी जिंदगी की वह इज्जत? लेकिन उसने कुछ नहीं पूछा।

भाग 6: झुग्गी का सच

जैसे ही गाड़ी रुकी, सरस्वती देवी ने झिझकते हुए कहा, “बेटा, बस यहीं रोक दो। मेरा घर यहीं है।” आरव ने देखा सड़क के किनारे टूटी झुग्गियां, कीचड़ से भरी गलियां और बच्चों की आवाजें आईं। उसका दिल डूब गया।

क्या वाकई उनकी टीचर अब यहां रहती हैं? वह कुछ कह नहीं सका। बस गाड़ी से उतरा और बोला, “मां, आप थोड़ी देर रुको। मैं अंदर देख कर आता हूं।”

झुग्गी के अंदर ना दीवारें सही थीं, ना छत। एक कोने में टूटी चारपाई, एक पतीला और मिट्टी का चूल्हा रखा था। यह देखकर आरव की आंखें भर आईं। वह बाहर आया और कहा, “मां, अब आप यहीं नहीं रहेंगी। चलिए मेरे साथ, मेरे घर चलिए।”

भाग 7: नया आशियाना

वह बोलीं, “बेटा, मैं तेरे सिर पर बोझ नहीं बनना चाहती।” आरव ने नम आंखों से कहा, “आपने मुझे सिर उठाकर चलना सिखाया था। अब बोझ नहीं, बरकत बनकर चलिए।”

सरस्वती देवी कुछ नहीं बोलीं। उनके होठ कांप रहे थे। आंखों से आंसू गिर रहे थे। वह धीरे से बोलीं, “चल बेटा। अब शायद ऊपर वाले ने हमें दोबारा मिलाने का वक्त भेजा है।”

आरव ने उनके कांपते हाथ थामे और कहा, “मां, अब आप कभी अकेली नहीं होंगी।” गाड़ी आगे बढ़ी। बारिश की बूंदें शीशे पर गिरती रहीं। और आरव की आंखों से भी वही बूंदें टपकती रहीं।

भाग 8: पुरानी यादें

आरव की कार अब धीरे-धीरे शहर के रास्तों से गुजर रही थी। बाहर बारिश थम चुकी थी। मगर अंदर दोनों की आंखों में पुरानी यादों का तूफान उठ रहा था। सरस्वती देवी खिड़की के बाहर देख रही थीं। लेकिन उनकी आंखों में बरसों पहले का बीता हुआ वक्त घूम रहा था।

आरव की निगाहें भी स्टीयरिंग पर कम, उनके चेहरे पर ज्यादा थीं। वह अब भी सोच रहा था, आखिर उस महान औरत की जिंदगी इस हाल तक कैसे पहुंच गई। रास्ते में चलते हुए उसके दिमाग में एक-एक कर पुरानी बातें खुलने लगीं।

भाग 9: अतीत की परछाई

वो दिन जब उसके पिता सब कुछ खोकर घर आए थे। जब उसके घर का दरवाजा बंद हो गया था। और जब उसकी मां ने भूख छिपाने के लिए बस पानी पीकर रात गुजारी थी। वह वक्त था जब आरव अभी सिर्फ 15 साल का था।

उसके पिता ने अपनी सारी कमाई अपने छोटे भाई को भरोसे में दी थी, जिसने घर के कागज चुराकर बेच डाले। उस धोखे ने आरव के पिता को तोड़ दिया था। कुछ ही महीनों में उन्होंने अपनी जान गवा दी। घर छीन गया। पिता चले गए और मां बीमार पड़ गई।

भाग 10: एक नई शुरुआत

वह दिन आरव के जीवन का सबसे अंधेरा दौर था। ना पैसा था, ना सहारा, ना उम्मीद। उसी वक्त उसकी जिंदगी में एक रोशनी आई। रेखा मैडम यानी अब की सरस्वती देवी। वो स्कूल की टीचर थीं। सख्त भी, दयालु भी। बाकी टीचरों की तरह उन्होंने आरव की गरीबी देखकर मुंह नहीं मोड़ा।

बल्कि उसी दिन उसे अपने पास बुलाया और कहा, “बेटा, स्कूल छोड़ना मत। जब इंसान के पास कुछ नहीं बचता तो ज्ञान ही उसका सहारा बनता है।” आरव ने कहा था, “मैडम, मैं पढ़ नहीं सकता। घर में खाने को नहीं है। फीस कैसे दूं?”

भाग 11: शिक्षा का महत्व

वो मुस्कुराई थीं। “तेरे जैसी मेहनती आंखों में फीस नहीं देखी जाती। बेटा, कल से स्कूल आना। बाकी सब मैं संभाल लूंगी।” उनकी एक बात ने जैसे आरव को नया जीवन दे दिया। वह रोज सुबह स्कूल आता, कैंटीन में काम करता और जब बाकी बच्चे खेलते, वह रेखा मैडम की क्लास में बैठकर पढ़ता।

मैडम खुद अपनी तनख्वाह से उसकी किताबें खरीदतीं। लंच में बचा खाना उसे देतीं। और जब वह थक कर हार जाता तो कहतीं, “थोड़ा और सह ले बेटा, जो तुझे तोड़ना चाहता है वही तुझे बड़ा बनाएगा।” उनकी बातें दवा की तरह असर करती थीं।

भाग 12: संघर्ष और सफलता

आरव दिन-रात मेहनत करने लगा। स्कूल में कैंटीन का झाड़ू लगाता, चाय परोसता और फिर क्लास में जाकर चुपचाप बैठता। कभी कोई उसकी हंसी उड़ाता तो रेखा मैडम सामने आकर कहतीं, “यह लड़का एक दिन तुम सबसे आगे निकलेगा।” उनका विश्वास आरव के लिए वरदान था।

एक दिन जब आरव के पास फीस भरने के लिए पैसे नहीं थे तो उन्होंने खुद अपनी साड़ी गिरवी रख दी थी। किसी को नहीं बताया। बस उसे बुलाकर कहा, “अब चिंता मत कर। पढ़ाई तेरी चलती रहेगी।”

उनकी उस एक बात ने आरव को संजीवनी दे दी। धीरे-धीरे उसने इंटर पास किया। फिर बीए और रेखा मैडम की मदद से यूनिवर्सिटी में एडमिशन भी मिला। वह अक्सर कहतीं, “आरव, मैं तेरे लिए नहीं, तेरे मां-बाप के सपनों के लिए मेहनत कर रही हूं। अगर तू जीत गया तो मुझे लगेगा मेरे जीवन की तपस्या सफल हुई।”

भाग 13: कठिनाई और धैर्य

लेकिन किस्मत ने एक दिन फिर मोड़ लिया। जब आरव एमए कर रहा था तो एक सुबह उसे खबर मिली। रेखा मैडम ने स्कूल छोड़ दिया है। ना कोई विदाई, ना कोई वजह। वो बस गायब हो गई थीं। घर जाकर देखा तो ताला लटक रहा था। पड़ोसियों ने कहा, “बेटा, वह तो कहीं चली गईं, शायद किसी और शहर।”

आरव उस दिन टूट गया। जिस औरत ने उसे संभाला था, वही बिना बताए चली गई थी। उसकी आंखों में सवाल थे। “क्या मैं उनके लिए बोझ बन गया था? या शायद वह थक गई थीं?” लेकिन जवाब उसे कभी नहीं मिला।

भाग 14: संघर्ष का सिलसिला

समय बीतता गया। आरव ने खुद को संभाला। उसने सोचा, “अगर वह मुझ पर भरोसा करती थीं तो मुझे उनकी उम्मीद पर खरा उतरना है।” वो दिन-रात काम करता रहा और धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाने लगी। सरकारी परीक्षा पास की, बैंक में नौकरी मिली और कुछ ही सालों में प्रमोशन पर प्रमोशन मिलता गया।

भाग 15: पुनर्मिलन

आज जब वह अपनी टीचर को इस हालत में देख रहा था, झुर्रियों में लिपटी पेंशन के लिए तरसती हुई भूखी बैठी, तो उसे लगा जिंदगी का पूरा चक्र उसके सामने घूम गया है। कार अब उसके घर के बाहर रुक चुकी थी। आरव ने गाड़ी का दरवाजा खोला और बोला, “मां, अब आप यहीं रहेंगी। यह घर अब आपका है।”

सरस्वती देवी ने उसकी तरफ देखा। आंखों में वही ममता थी जो बरसों पहले थी। वह बोलीं, “बेटा, अब तू मुझे मां कहता है तो मुझे लगता है मेरी तपस्या पूरी हो गई।” आरव कुछ बोल नहीं पाया। बस उनके पैर छू लिए। उनके चेहरे पर पहली बार मुस्कान थी।

भाग 16: नया जीवन

उस दिन आरव को एहसास हुआ। गुरु और मां में फर्क सिर्फ जन्म का होता है। ममता दोनों में बराबर होती है। आरव ने सरस्वती देवी को अपने घर में सबसे अच्छे कमरे में ठहराया। उन्होंने कमरे में जाते ही दीवारों को छुआ। जैसे बरसों बाद किसी सुकून भरे ठिकाने को महसूस कर रही हों।

उनके चेहरे पर शांति थी। पर आंखों में अब भी वही सन्नाटा था। जो अकेलेपन के लंबे सफर से आता है। आरव ने नौकरानी को बुलाकर कहा, “अब से मां के सारे काम तुम देखना। खाना, दवा सब।”

भाग 17: प्रेम और देखभाल

वो मुस्कुराईं। “बेटा, मुझे मां क्यों कह रहा है?” आरव ने झुक कर कहा, “क्योंकि मां वो नहीं होती जिसने जन्म दिया। मां वो होती है जिसने गिरते को थाम लिया।” उनकी आंखें भर आईं।

वह बोलीं, “अगर तू मुझे मां मानता है तो अब मैं तेरी मां ही हूं।” रात को आरव ने उनके लिए गर्म खाना बनवाया। दाल, चावल, रोटी और थोड़ा सा हलवा। उन्होंने पहली बार इतने बरसों बाद तृप्ति से खाना खाया।

हर निवाले के साथ उनकी आंखों से आंसू बहते रहे। वह बोलीं, “बेटा, जब तू स्कूल में मेरे पास खाना मांगने आता था तो मुझे लगता था काश मैं तुझे कुछ अच्छा खिला पाती। आज तू मुझे खिला रहा है। भगवान ने तेरी मेहनत का फल दे दिया।”

आरव बस मुस्कुराया और बोला, “अब सब कुछ आपका है।” मां अगले कुछ हफ्तों में सरस्वती देवी की तबीयत सुधरने लगी। उनका चेहरा खिल उठा था।

भाग 18: परिवार का सुख

अब वह हर सुबह पूजा करतीं। घर की बालकनी में बैठकर अखबार पढ़तीं और चाय पीते हुए आरव का इंतजार करतीं। जब आरव ऑफिस से लौटता तो वह हमेशा दरवाजे पर खड़ी मिलतीं। हाथ में थाली जिसमें दीपक जल रहा होता।

वह कहतीं, “बेटा, भगवान का नाम लेकर अंदर आओ। दिन भर की थकान उतर जाएगी।” आरव मुस्कुराता और झुककर उनके पैर छूता। घर में अब सुकून था, शांति थी और सबसे बढ़कर एक मां का आशीर्वाद था।

भाग 19: शादी की तैयारी

एक दिन उन्होंने आरव को बुलाकर कहा, “बेटा, अब तेरी जिंदगी में खुशियां पूरी होनी चाहिए। मैं चाहती हूं कि तू शादी कर ले। मैंने तेरे लिए एक लड़की देखी है। सीधी सादी संस्कारी और तेरे जैसी सच्ची।”

आरव ने सिर झुकाकर कहा, “मां, आप जिसे पसंद करेंगी वही मेरी किस्मत बनेगी।” उनकी आंखों में चमक थी। “अब मुझे यकीन है कि तेरे जीवन की अधूरी कहानी पूरी हो जाएगी।”

कुछ महीनों बाद आरव की शादी तय हो गई। शादी के दिन सरस्वती देवी सबसे ज्यादा खुश थीं। उन्होंने खुद अपने हाथों से बहू के माथे पर तिलक लगाया और बोलीं, “बहू, अब मेरा बेटा तेरा है। तू इसका ध्यान रखना।”

भाग 20: नया अध्याय

वो दिन पूरे घर के लिए सबसे बड़ा पर्व था। शादी के बाद घर में नए रंग भर गए थे। बहू अनन्या बेहद समझदार और विनम्र थी। उसने सास को मां की तरह अपनाया। हर सुबह वो उनके पैर छूती और दवा देती।

सरस्वती देवी हर बार यही कहतीं, “भगवान करे हर बेटे को ऐसी बहू मिले।” लेकिन वक्त कभी एक जैसा नहीं रहता। एक शाम सरस्वती देवी पूजा करते हुए गिर गईं। आरव और अनन्या भागते हुए पहुंचे।

भाग 21: स्वास्थ्य का संकट

डॉक्टर को बुलाया गया। जांच के बाद डॉक्टर ने गंभीर आवाज में कहा, “इनकी उम्र ज्यादा है। दिल बहुत कमजोर है। अब ज्यादा वक्त नहीं है।” आरव का दिल जैसे टूट गया।

वो उनके पास बैठा। उनके हाथ थामे बोला, “मां, आप ठीक हो जाएंगी। मैं आपको किसी अच्छे अस्पताल ले जाऊंगा।” वह मुस्कुराईं। “नहीं बेटा, अब जाने का वक्त आ गया है। मैं बहुत खुश हूं कि तूने मुझे मां कहा। वरना मैं तो जिंदगी भर अकेली रह जाती।”

भाग 22: अंतिम विदाई

आरव की आंखों में आंसू थे। उन्होंने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “मैं तुझे छोड़कर नहीं जा रहा। तेरे दिल में रहूंगी बेटा। जैसे तू मेरे दिल में सालों से रहा।” इतना कहकर उनकी आंखें धीरे-धीरे बंद हो गईं।

आरव का सिर उनके सीने पर था और कमरे में बस सन्नाटा रह गया। अगले दिन पूरे बैंक स्टाफ ने जब सुना कि आरव की मां नहीं रहीं तो सब श्रद्धांजलि देने आए।

भाग 23: एक नई पहल

किसी ने कहा, “सर, हमें लगा यह आपकी असली मां है।” आरव ने आंखों से आंसू पोंछते हुए कहा, “असल मां वो नहीं होती जिसने जन्म दिया। असल मां वो होती है जिसने इंसानियत सिखाई।”

उनकी अंतिम यात्रा में आरव ने खुद कंधा दिया। उसने वही सफेद शॉल ओढ़ी थी जो कभी रेखा मैडम ने उसे इंटर परीक्षा के वक्त दी थी। जब उसने कहा था, “बेटा, ठंड है इसे रख ले।”

भाग 24: समाज की जिम्मेदारी

जब चिता जल रही थी, आरव ने आसमान की तरफ देखा और धीरे से कहा, “मां, आपने जो बीज मेरे अंदर बोया था, वह अब इंसानियत का पेड़ बन चुका है। मैं वादा करता हूं अब कोई सरस्वती देवी इस शहर में भूखी नहीं रहेगी।”

कुछ महीनों बाद आरव ने बैंक की मंजूरी से एक फंड शुरू किया। “सरस्वती स्मृति पेंशन सहायता योजना” जिसके तहत हर महीने बुजुर्ग औरतों को आर्थिक मदद दी जाने लगी।

भाग 25: प्रेरणा का स्रोत

वह कहता, “यह मेरी मां का सपना था कि कोई भी बुजुर्ग औरत किसी बैंक लाइन में बेबस होकर ना रोए।” लोग कहते थे, “आरव सर का दिल बहुत बड़ा है।” लेकिन जो लोग नहीं जानते थे, वो यह था कि आरव के दिल में एक औरत का साया हमेशा जिंदा था।

वो टीचर, वो मां जिसने इंसानियत की असली परिभाषा लिखी थी। हर साल उनकी पुण्यतिथि पर आरव अपने बैंक में छोटा सा दीप जलाता और उनके पसंदीदा शब्द दोहराता। “मेहनत कभी बेकार नहीं जाती बेटा। बस दिल सच्चा रखना।”

भाग 26: एक नई पहचान

उस दिन जब वो दीप जलाता तो उसे लगता जैसे हल्की हवा में कहीं सरस्वती देवी की आवाज गूंजती है। “बेटा, तूने मेरा फर्ज पूरा किया। अब मैं चैन से हूं।” आरव की आंखों से फिर वही पुराने दिन बहने लगते।

लेकिन इस बार उन आंसुओं में दर्द नहीं, सिर्फ गर्व होता था। कहानी वहीं खत्म होती है, जहां इंसानियत की शुरुआत होती है। जब एक बेटा अपनी गुरु को मां समझ लेता है और एक मां अपने शिष्य में अपना पूरा संसार।

भाग 27: सीख और संदेश

दोस्तों, इस कहानी की सबसे बड़ी सीख यही है। मां, पिता या गुरु कभी पुराने नहीं होते। बस हम ही वक्त के साथ बदल जाते हैं। अगर आज आप अपने जीवन में सफल हो तो जरा पीछे मुड़कर देखिए।

शायद किसी सरस्वती देवी ने आपको भी कभी गिरने से बचाया हो। अगर आपकी जिंदगी में भी कोई ऐसा इंसान है जिसने बिना स्वार्थ आपके लिए कुछ किया हो, क्या आपने उसे कभी धन्यवाद कहा है?

भाग 28: अंत में

कमेंट में बताइए। क्या आपने भी कभी किसी ऐसे बुजुर्ग की मदद की है जिसने आपको मां या पिता जैसा प्यार दिया हो? और अगर इस कहानी ने आपका दिल छू लिया हो तो लाइक कीजिए, शेयर कीजिए और चैनल “स्टोरी बाय बीके” को सब्सक्राइब कीजिए ताकि इंसानियत की यह कहानियां हर दिल तक पहुंच सके।

मिलते हैं अगले वीडियो में। तब तक इंसानियत निभाइए, नेकी फैलाइए और माता-पिता एवं गुरुओं का कद्र कीजिए।