बुज़ुर्ग माँ को डॉक्टर ने अस्पताल से धक्का देकर निकाला… सफाईकर्मी ने जो किया, इंसानियत रो पड़ी

एक मां की कहानी: इंसानियत की मिसाल

लखनऊ शहर के एक बड़े प्राइवेट अस्पताल के गलियारों में सुबह-सुबह का समय था। मरीजों की भीड़, डॉक्टरों और नर्सों की तेज़ी से चलती हुई गतिविधियाँ, और हर ओर एक हलचल थी। इसी भीड़ में एक दुबली-पतली, बीमार सी बुजुर्ग महिला ने अस्पताल में दाखिल होने का साहस जुटाया। उसकी आँखों में थकान और चेहरे पर गरीबी का बोझ साफ झलक रहा था। उसके कपड़े मैले और फटे-पुराने थे, हाथ कांप रहे थे, और आँखों में डर और उम्मीद का मिश्रण था।

महिला ने हिम्मत जुटाकर डॉक्टर से गुहार लगाई, “बेटा, मुझे बहुत तेज़ बुखार है। सांस भी ठीक से नहीं ली जा रही। जरा देख लो।” लेकिन डॉक्टर ने ऊपर से नीचे तक उसे देखा और बेपरवाही से पूछा, “पैसे हैं इलाज के?” महिला ने कांपती आवाज़ में उत्तर दिया, “नहीं बेटा, पैसे तो नहीं हैं, लेकिन भगवान के लिए मेरा इलाज कर दो।” डॉक्टर का चेहरा कठोर हो गया। उसने हाथ से इशारा किया और सिक्योरिटी को बुलाकर कहा, “इन्हें बाहर निकालो। फ्री का इलाज कराने के लिए हर कोई यही आ जाता है। हमारे पास टाइम नहीं है।”

सिक्योरिटी गार्ड ने झटके से उस महिला को पकड़कर धक्का दिया। बेचारी महिला फर्श पर गिर पड़ी। आसपास खड़े लोग यह सब देख रहे थे, लेकिन किसी ने मदद नहीं की। कोई तमाशा देख रहा था, कोई धीरे से फुसफुसा रहा था, “लगता है कोई बेसहारा औरत है। शायद वृद्धाश्रम से आई होगी।” महिला दर्द से करहाते हुए बाहर के बरामदे में बैठ गई। उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे और दिल में एक ही सवाल गूंज रहा था, “क्या मेरी जिंदगी की कीमत अब सिर्फ पैसे हैं? क्या एक मां इतनी बेसहारा हो सकती है कि उसे अस्पताल से धक्का देकर निकाल दिया जाए?”

तभी वहाँ से गुजर रहा एक गरीब सफाई कर्मी उसकी हालत देख ठिठक गया। उसके हाथ में झाड़ू और कपड़े थे, लेकिन आँखों में इंसानियत थी। वह तुरंत दौड़कर उस महिला के पास आया और बोला, “अम्मा, आप चिंता मत करो। आओ, मैं आपको उठाता हूं।” उसने महिला को सहारा दिया, पानी पिलाया और अपने छोटे से झोपड़े की ओर ले गया।

झोपड़ी बहुत साधारण थी—टीन की छत, टूटी हुई चारपाई और मिट्टी का फर्श। लेकिन दिल बड़ा था उस सफाई कर्मी का। उसने अम्मा को चारपाई पर बैठाया, उनकी नब्ज देखी और फिर दवा की दुकान से अपनी जेब से दवा खरीद कर लाया। महिला ने कांपते होठों से कहा, “बेटा, तू गरीब है फिर भी मेरे लिए दवा ले आया। भगवान तुझे सुखी रखे।” सफाई कर्मी ने मुस्कुराकर जवाब दिया, “अम्मा, गरीब हूं तो क्या हुआ? लेकिन इंसान हूं। इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं होता। आप आराम करो। मैं आपका ख्याल रखूंगा।”

धीरे-धीरे उस महिला की तबीयत सुधरने लगी। लेकिन उसके दिल में एक गहरा जख्म था। वह अक्सर रातों को जागकर रोती और बुदबुदाती, “काश मेरा बेटा मुझे ऐसे बेसहारा ना छोड़ता।” सफाई कर्मी उसकी बातें सुनता था, लेकिन कभी सवाल नहीं करता। उसे लगता था कि शायद इस महिला की कोई अधूरी कहानी है जिसे वक्त के साथ जानना ही बेहतर होगा।

सफाई कर्मी ने उस बुजुर्ग महिला की सेवा ऐसे की जैसे अपनी मां की करता हो। सुबह उठकर उसे खिचड़ी खिलाता, दवा देता और शाम को उसके पास बैठकर उसका हाल पूछता। धीरे-धीरे अम्मा का चेहरा थोड़ा खिलने लगा। लेकिन आँखों में छिपा दर्द अब भी साफ दिखाई देता था। एक दिन सफाई कर्मी ने हिम्मत जुटाकर धीर से पूछा, “अम्मा, आप अकेली क्यों हैं? कोई अपना नहीं आपका?”

महिला ने कुछ पल खामोशी साधी। फिर आँखों से आंसू ढलक पड़े। कांपती आवाज में बोली, “बेटा, मेरे अपने ही मेरे लिए पराए हो गए। सबसे बड़ा दुख तो यही है।” सफाई कर्मी ने सहानुभूति से पूछा, “कैसे अम्मा? जरा बताइए। शायद आपका मन हल्का हो जाए।” महिला ने गहरी सांस ली और फिर अपने अतीत के पन्ने खोलने लगी।

“मेरा एक ही बेटा है जिसके लिए मैंने अपनी पूरी जिंदगी दांव पर लगा दी। उसके पिता जल्दी गुजर गए थे। मैं अकेली ही उसे पाल-पोस कर बड़ा करती रही। मजदूरी करके लोगों के घरों में झाड़ू पोछा लगाकर मैंने उसे पढ़ाया। उसे अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाया। उसके लिए मैंने अपनी नींदें, अपनी भूख-प्यास सब कुर्बान कर दी और मेरी मेहनत रंग भी लाई। वो आईपीएस ऑफिसर बन गया।” महिला का चेहरा गर्व से चमका। लेकिन अगले ही पल वो चेहरा मुरझा गया। “बेटा बड़ा अफसर बना। गाड़ी में बैठने लगा। लोग उसे सलाम करने लगे। लेकिन उसकी शादी हुई और बहू घर आई तो सब कुछ बदल गया। बहू को मेरा घर में रहना अच्छा नहीं लगता था। उसे लगता था कि मैं बोझ हूं। मेरी देखभाल करना उसकी जिम्मेदारी नहीं है। वह अक्सर मेरे बेटे से कहती, ‘तुम्हारी मां अब बूढ़ी हो गई है। हमेशा बीमार रहती है। मैं उसके साथ नहीं रह सकती।’ शुरू में बेटा मेरा पक्ष लेता था। लेकिन धीरे-धीरे वो भी बहू की बातों में आ गया।”

“एक दिन उसने मुझे अपने सामने बैठाया और बोला, ‘मां, मैं तुम्हें वृद्धाश्रम छोड़ आऊंगा। वहां तुम्हारा ख्याल अच्छे से रखा जाएगा।’ मैंने रोते हुए कहा, ‘बेटा, मैंने तुम्हारे लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। क्या आज तुम मुझे अपने ही घर से निकाल रहे हो?’ लेकिन उसने मेरी एक ना सुनी। अगले ही दिन मुझे गाड़ी में बैठाकर वृद्धाश्रम छोड़ आया।”

महिला फूट-फूट कर रोने लगी। सफाई कर्मी के दिल पर जैसे किसी ने चोट कर दी हो। उसने अम्मा के कांपते हाथ थामे और बोला, “अम्मा, यह कैसी नाइंसाफी है। जिस मां ने बेटे को पालने में अपनी पूरी जिंदगी लगा दी, वही बेटा आज आपको वृद्धाश्रम छोड़ आया।”

अम्मा ने आंसुओं से भीगी आँखें पोंछते हुए कहा, “हां बेटा, यही सच है। मैंने सोचा था कि मेरी बुढ़ापे की लाठी मेरा बेटा बनेगा, लेकिन उसने तो मुझे ही बोझ समझ लिया। वृद्धाश्रम में मैं रह तो रही थी लेकिन वहां दिल घुटता था। जब बीमार पड़ी तो सोचा अस्पताल में इलाज हो जाएगा। लेकिन वहां से भी धक्के मारकर निकाल दिया गया।”

सफाई कर्मी की आँखें लाल हो गईं। उसने ठान लिया कि अब यह अम्मा अकेली नहीं रहेगी। उसने मन ही मन कसम खाई, “जब तक मेरी सांस चलेगी, मैं आपका सहारा बनूंगा।” अम्मा ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बेटा, तूने आज मुझे अपनाकर वह दिया है जो मेरे अपने ने छीन लिया। भगवान तुझे बहुत खुश रखे।”

उस रात झोपड़ी में अम्मा ने लंबी सांस ली। उसे लगा कि अपने दर्द का बोझ हल्का हो गया। लेकिन सफाई कर्मी के दिल में यह बात गहरे उतर गई कि कैसे एक मां जिसने आईपीएस बेटा बनाया, वही आज बेसहारा होकर सड़कों पर धक्के खा रही है।

लेकिन वक्त का पहिया अब बड़ा मोड़ लेने वाला था। एक दिन लखनऊ की वही भीड़भाड़ वाली सड़कें, जहां लोग अपने-अपने कामों में भाग रहे थे, उसी शहर में एक बड़ा कार्यक्रम रखा गया था—स्वच्छता अभियान का उद्घाटन। इस कार्यक्रम में शहर के नामी गिरामी लोग, पत्रकार और आम नागरिक इकट्ठा हुए थे। मंच पर मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था आईपीएस अधिकारी आदित्य वर्मा को। आदित्य साफ सुथरी वर्दी में मंच पर पहुंचा। सलामियों की गूंज बीचोंबीच फैल गई। पत्रकारों ने फोटो खींचे। भीड़ ने तालियां बजाई। आदित्य गर्व से भाषण देने लगा, “हम सबको मिलकर समाज से गंदगी मिटानी होगी। हमें गरीबों और बेसहारा लोगों की मदद करनी चाहिए। यह हमारा कर्तव्य है।”

भीड़ तालियों से गूंज उठी, लेकिन उसी वक्त सामने बैठी भीड़ में एक बुजुर्ग महिला की आँखों से आंसू छलक पड़े। यह वही अम्मा थी जिन्हें कुछ दिनों पहले अस्पताल से धक्का मारकर निकाला गया था। और जिन्हें अब सफाई कर्मी सहारा दे रहा था। अम्मा ने कांपते होठों से कहा, “यह यही तो मेरा बेटा है।”

सफाई कर्मी चौंक कर उनकी ओर देखने लगा। उसने हैरानी से पूछा, “क्या यह अफसर आपका बेटा है?” अम्मा की आँखों में आंसू थे। “हां बेटा, यही मेरा खून है जिसके लिए मैंने अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी। लेकिन आज यह मुझे पहचानने से भी कतराता है।” सफाई कर्मी के दिल में गुस्से की लहर दौड़ गई। लेकिन उसने अम्मा का हाथ थाम लिया।

कार्यक्रम खत्म होने के बाद आदित्य मंच से नीचे उतरा। तभी भीड़ के बीच उसकी नजर अपनी मां पर पड़ी। पल भर के लिए उसका दिल धक से रह गया। चेहरा पीला पड़ गया। वह ठिठक कर रुक गया। आँखें चौड़ी हो गईं। “ये ये मां यहाँ कैसे?” उसने मन ही मन सोचा।

अम्मा खड़ी थी। उनकी आँखों से आंसू बह रहे थे। उन्होंने थरथराती आवाज में कहा, “बेटा, क्या आज भी तू मुझे देखकर अनजान बनेगा?” भीड़ का शोर अचानक सन्नाटे में बदल गया। सबकी नज़रें आईपीएस अधिकारी और उस बुजुर्ग महिला पर टिक गईं। पत्रकार कैमरे लिए भागे और फोटो खींचने लगे। आदित्य के चेहरे पर शर्म की लालिमा दौड़ गई। उसके कानों में मां की आवाज गूंज रही थी, “बेटा, मैं तेरी मां हूं। वही मां जिसने तुझे पाल-पोस कर बड़ा किया। अपनी भूख-प्यास भूलकर तुझे पढ़ाया और तुझे आज इस वर्दी तक पहुंचाया। लेकिन तूने मुझे ही वृद्धाश्रम में छोड़ दिया।”

भीड़ फुसफुसा रही थी, “क्या यह सच है? एक आईपीएस अफसर ने अपनी मां को वृद्धाश्रम में छोड़ दिया।” आदित्य की पत्नी भीड़ में खड़ी थी। उसका चेहरा भी शर्म से झुका हुआ था। लोग उसकी ओर घूर-घूर कर देख रहे थे।

सफाई कर्मी आगे बढ़ा और बोला, “हां, यही सच है। जिस मां ने अपना सब कुछ कुर्बान करके इस बेटे को बनाया, उसी मां को इसने बहू के कहने पर वृद्धाश्रम में छोड़ दिया। अगर मैंने उस दिन अम्मा को अस्पताल से उठाकर अपने झोपड़े में ना ले जाता, तो आज शायद यह जिंदा भी ना होती।” उसकी आवाज में सच्चाई और गुस्सा दोनों थे।

आदित्य के कदम लड़खड़ाने लगे। उसके दिल पर जैसे किसी ने पहाड़ रख दिया हो। भीड़ की फुसफुसाहट अब सवालों में बदल चुकी थी। पत्रकारों के कैमरे लगातार चल रहे थे। आदित्य अपनी मां की ओर दौड़ा और उनके पैरों में गिर गया। आंसुओं से उसकी वर्दी भीग गई। “मां, मुझे माफ कर दो। मैं बहुत बड़ा गुनहगार हूं। मैंने पत्नी की बातों में आकर सबसे बड़ा पाप किया। मुझे उस दिन आपको वृद्धाश्रम नहीं छोड़ना चाहिए था।”

अम्मा ने कांपते हाथों से बेटे के सिर को उठाया और कहा, “बेटा, तुझे माफ कर दूंगी, लेकिन याद रखना, मां-बाप को ठुकराने वाला कभी सुखी नहीं रह सकता। मेरी पीड़ा तुझे जिंदगी भर याद रहेगी।” भीड़ की आँखें नम हो गईं। सफाई कर्मी के चेहरे पर भी आंसू थे। लेकिन उसके दिल में यह संतोष था कि सच्चाई आखिर सामने आ गई।

लेकिन असली परीक्षा अभी बाकी थी। कार्यक्रम का वह दिन आदित्य वर्मा की जिंदगी का सबसे कड़वा और सबसे बड़ा सच बन गया। जिस मंच पर खड़े होकर वह समाज को इंसानियत और सेवा का भाषण दे रहा था, वहीं उसकी अपनी मां की पीड़ा ने उसके चेहरे से नकाब उतार दिया। मां के पैरों में गिरकर माफी मांगने के बाद आदित्य देर तक वहीं बैठा रहा। उसकी वर्दी पर धूल लग चुकी थी। आँखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।

भीड़ खामोशी से देख रही थी। कुछ लोग भावुक हो गए। कुछ ने सिर हिलाया और कहा, “आज यह अफसर ही नहीं बल्कि बेटा भी टूटा है।” आदित्य ने अपनी मां को उठाया और झुक कर कहा, “मां, आज से आप कहीं और नहीं जाएंगी। मैं आपको अपने घर ले जाऊंगा। और जो गलती मैंने की है, उसे इंसानियत की सेवा करके सुधारूंगा।”

उसकी पत्नी भी चुपचाप खड़ी थी। उसकी आँखें शर्म से झुकी हुई थीं। जब सबकी नज़रें उस पर पड़ीं, तो वह खुद ही रोते हुए बोली, “मां जी, मुझे माफ कर दीजिए। मेरी जिद और गलत सोच की वजह से ही यह सब हुआ। मैंने आपको बोझ समझा जबकि आप तो घर की बरकत थीं।”

मां ने भारी मन से कहा, “बहू, अब यह गलती दोबारा मत करना। मां-बाप कभी बोझ नहीं होते। अगर हमें छोड़ दिया जाता है, तो घर से बरकत चली जाती है।” आदित्य की आँखों में पछतावे की आग धधक रही थी।

उस रात वह घर नहीं गया। मां और सफाई कर्मी दोनों को साथ लेकर अपने क्वार्टर में बैठा रहा। बार-बार मां का हाथ पकड़कर कहता, “मां, अब मैं आपकी सेवा करके ही चैन लूंगा। मैं चाहता हूं कि मेरी गलती का बोझ समाज के हर उस बेटे तक पहुंचे जो अपने मां-बाप को बोझ समझते हैं।” मां चुप थी। उनकी आंखों से आंसू बह रहे थे। लेकिन दिल में यह संतोष था कि बेटा आखिरकार जाग गया।

अगले ही दिन आदित्य ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई। मीडिया वाले जुटे। पत्रकारों ने कैमरे लगाए। आदित्य मंच पर आया और सीधे कहा, “आज मैं एक आईपीएस अधिकारी नहीं बल्कि एक गुनहगार बेटा बनकर आपके सामने खड़ा हूं। मैंने अपनी मां को पत्नी के दबाव में आकर वृद्धाश्रम छोड़ा। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी गलती थी। मां ने मुझे जन्म दिया, पाला, पढ़ाया और आईपीएस बनाया। लेकिन मैंने ही उन्हें बेसहारा छोड़ दिया। इसके लिए मैं अपनी मां से, समाज से और भगवान से माफी मांगता हूं।”

पूरा हॉल खामोश हो गया। कई लोगों की आँखें भर आईं। फिर आदित्य ने ऐलान किया, “आज से मैं अपनी मां को घर ले जा रहा हूं। और साथ ही मैं एक एनजीओ शुरू करने जा रहा हूं—’मां की छांव’। इसमें हर बेसहारा मां-बाप, हर भूखा गरीब और हर बेघर इंसान को सहारा मिलेगा। कोई भी मां-बाप सड़कों पर धक्के खाते नजर नहीं आएंगे।”

लोगों ने तालियां बजाई। पत्रकारों ने उसकी बातों को सुर्खियां बना दीं। लेकिन आदित्य यही नहीं रुका। उसने सफाई कर्मी की ओर इशारा करते हुए कहा, “और इस एनजीओ का नेतृत्व मैं खुद नहीं करूंगा। बल्कि वह इंसान करेगा जिसने मेरी मां को तब सहारा दिया जब मैंने उन्हें ठुकरा दिया था। मैं इस सफाई कर्मी भाई को एनजीओ का हेड घोषित करता हूं।”

भीड़ तालियों से गूंज उठी। सफाई कर्मी की आँखों से आंसू बह निकले। उसने हाथ जोड़कर कहा, “साहब, मैं तो एक छोटा सा आदमी हूं। लेकिन अगर इंसानियत की सेवा का मौका मिलेगा, तो यह मेरे लिए भगवान का आदेश होगा।” मां ने बेटे और सफाई कर्मी दोनों को गले से लगा लिया। उस पल वहां खड़े हर इंसान ने महसूस किया कि इंसानियत का असली रूप यही है—गलतियों को स्वीकारना, मां-बाप को अपनाना और गरीब को सम्मान देना।

कुछ ही दिनों में आदित्य वर्मा के नए एनजीओ ‘मां की छांव’ की चर्चा पूरे लखनऊ में फैल गई। अखबारों की सुर्खियां थीं—”आईपीएस अफसर ने अपनी गलती मानी, बेसहारा मां-बाप के लिए खोला सहारा।” शहर के बड़े-बड़े लोग, छोटे दुकानदार, कॉलेज के छात्र और यहां तक कि आम रिक्शा वाले भी आगे आकर मदद करने लगे। कोई राशन लाता, कोई पैसे देता, तो कोई आकर सेवा करने लगता।

धीरे-धीरे एनजीओ का पहला केंद्र खुल गया। वहां एक बड़ा हॉल था जहां बेसहारा मां-बाप आराम से रह सकते थे। साफ सुथरे कमरे, दवाइयों का इंतजाम और रोजाना भरपेट भोजन की व्यवस्था की गई। सबसे खास बात यह थी कि एनजीओ की कमान उस सफाई कर्मी के हाथ में थी जिसने इंसानियत का असली फर्ज निभाया था। उसे अब सब लोग भाई साहब कहकर सम्मान देने लगे।

सफाई कर्मी हर सुबह अम्मा के चरण छूकर दिन की शुरुआत करता और बाकी बुजुर्गों की सेवा में लग जाता। अम्मा अब खुश थीं। उनकी आँखों में संतोष था कि बेटा अपनी गलती सुधार चुका है और सफाई कर्मी जैसा नेक दिल इंसान अब सैकड़ों मां-बाप का सहारा बन रहा है।

एक दिन अम्मा ने आंसू भरी आँखों से बेटे से कहा, “आदित्य, तूने अपनी गलती मान ली। यही तेरी सबसे बड़ी जीत है। भगवान तुझे और तेरे इस कदम को आशीर्वाद देंगे।” आदित्य ने मां के पैर छुए और बोला, “मां, अगर मैं आपको खो देता तो शायद जिंदगी भर चैन से जी नहीं पाता। अब मेरी पूरी कमाई, मेरा पूरा पद और मेरी ताकत गरीबों और बेसहारों की सेवा में लगेगी।”

धीरे-धीरे एनजीओ का दायरा बढ़ता गया। दूरदराज से बेसहारा मां-बाप वहां आने लगे। जिनके पास रहने का ठिकाना नहीं था, उन्हें छत मिली। जिनके पास खाना नहीं था, उन्हें भरपेट भोजन मिला। जो अकेलेपन से टूट चुके थे, उन्हें नया परिवार मिल गया। लोग कहते, “यह जगह किसी आश्रम से ज्यादा एक सच्चे घर जैसी है। यहां बूढ़े मां-बाप को सम्मान मिलता है, जिन्हें उनके अपने बेटे-बहू ने ठुकरा दिया।”

आईपीएस अधिकारी आदित्य वर्मा अक्सर वहां आकर बुजुर्गों से मिलते। उनका हालचाल पूछते और सफाई कर्मी को गले लगाकर कहते, “अगर उस दिन तुमने मेरी मां को सहारा ना दिया होता तो शायद मैं कभी इंसानियत का असली रूप ना देख पाता। आज यह सब तुम्हारी वजह से मुमकिन हुआ है।”

सफाई कर्मी विनम्रता से मुस्कुराता और कहता, “साहब, मैंने कुछ नहीं किया। यह तो मेरा फर्ज था। भगवान ने मुझे मौका दिया कि मैं एक मां की सेवा कर सकूं। असली फर्ज तो आपका है। आपने इस काम को इतना बड़ा बना दिया। समाज के लिए यह एनजीओ एक मिसाल बन गया। वहां से हर दिन दुआएं निकलतीं। बुजुर्गों के चेहरों पर मुस्कान लौट आई। और अम्मा का चेहरा अब चमकने लगा क्योंकि उन्हें अपना बेटा वापस मिल गया था और अपने साथ सैकड़ों नए बेटे-बेटियां भी।

एक दिन एनजीओ के एक कार्यक्रम में आदित्य ने जनता से कहा, “दोस्तों, मां-बाप को बोझ समझना सबसे बड़ा पाप है। अगर आप उन्हें छोड़ देंगे तो कभी चैन नहीं मिलेगा। मैंने अपनी गलती से सीखा है कि मां-बाप को ठुकराने वाला हमेशा अंदर से खाली रह जाता है। लेकिन उनकी सेवा करने वाला इंसानियत का असली सपूत कहलाता है।”

अम्मा ने बेटे और सफाई कर्मी दोनों का हाथ पकड़कर कहा, “याद रखना, इंसान की असली इज्जत पैसे या पद से नहीं होती बल्कि दूसरों की सेवा और नेकी से होती है।” भीड़ तालियों से गूंज उठी। हर किसी की आँखें नम थीं। लेकिन दिल में इंसानियत की लौ जल चुकी थी।

इस कहानी से हमें यही संदेश मिलता है कि मां-बाप को कभी बोझ मत समझो। उनकी सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है और इंसानियत का असली रूप तब सामने आता है जब हम दूसरों की पीड़ा को अपना मानते हैं।

दोस्तों, अगर आप आदित्य वर्मा की जगह होते तो क्या अपनी मां को दोबारा अपनाकर उनकी सेवा करते और सफाई कर्मी जैसे किसी बेसहारा की मदद कर इंसानियत का सम्मान और अपना फर्ज निभाते? कमेंट करके जरूर बताइए। आपका जवाब हमारे लिए बहुत मायने रखता है।

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