बुजुर्ग महिला स्टेशन में गिर गयी, उसे उठाने गयी लड़की तो ट्रैन छूट गयी, ऑफिस पहुंची तो नौकरी भी गयी
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एक छोटी नेकी का बड़ा इनाम: कविता की कहानी
परिवार और जिम्मेदारियाँ
25 साल की कविता एक मध्यम वर्गीय परिवार की बड़ी बेटी थी। उसके पिता श्रीकांत जी एक सरकारी स्कूल से रिटायर्ड अध्यापक थे। उनकी मामूली पेंशन से घर का खर्च मुश्किल से चलता था। मां रमा एक कुशल गृहिणी थीं, जिन्होंने हमेशा अपनी जरूरतों को मारकर बच्चों को अच्छी परवरिश दी थी। कविता का छोटा भाई अमित इंजीनियरिंग के फाइनल ईयर में था। उसकी पढ़ाई का खर्च और घर की जरूरतों का बोझ अब कविता के कंधों पर था।
कविता ने बहुत मेहनत से पढ़ाई करके एमबीए किया था और पिछले दो साल से गुड़गांव की एक बड़ी मार्केटिंग कंपनी ‘ग्रो फास्ट सॉल्यूशंस’ में जूनियर एग्जीक्यूटिव के तौर पर काम कर रही थी। उसकी तनख्वाह बहुत ज्यादा नहीं थी, लेकिन परिवार के लिए वह एक बड़ा सहारा थी।
कविता की दिनचर्या
कविता की जिंदगी एक मशीन की तरह थी। रोज सुबह 5 बजे उठती, घर का थोड़ा-बहुत काम करती, फिर 7:30 बजे तक घर से निकल जाती ताकि गाजियाबाद स्टेशन से 8 बजे वाली दिल्ली-गुड़गांव लोकल ट्रेन पकड़ सके। वही ट्रेन उसकी लाइफलाइन थी। अगर वह ट्रेन छूट जाती तो अगली ट्रेन एक घंटे बाद थी, मतलब ऑफिस पहुंचने में निश्चित रूप से देर हो जाना।
उसके बॉस मिस्टर विशाल कपूर एक बेहद अनुशासित, कठोर और सिर्फ नतीजों पर ध्यान देने वाले व्यक्ति थे। उनके लिए कर्मचारी सिर्फ एक संसाधन थे, इंसान नहीं। डिपार्टमेंट में तीन बार से ज्यादा देर से आने का मतलब था नौकरी से इस्तीफा। कविता पहले ही दो बार ट्रैफिक और ट्रेन की देरी से 5-10 मिनट लेट हो चुकी थी और उसे आखिरी चेतावनी मिल चुकी थी। उसके लिए 8 बजे वाली ट्रेन किसी भी कीमत पर पकड़ना जिंदगी और मौत का सवाल था।
घटना का दिन
सोमवार की सुबह। कविता हमेशा की तरह लैपटॉप का बैग और टिफिन लिए दौड़ती हुई गाजियाबाद स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर तीन पर पहुंची। भीड़ हमेशा की तरह थी। 8 बजे वाली ट्रेन प्लेटफार्म पर लग चुकी थी, कुछ ही मिनटों में चलने वाली थी। कविता भीड़ को चीरती हुई लेडीज डिब्बे की तरफ बढ़ रही थी।
तभी उसके ठीक आगे जनरल डिब्बे के पास भगदड़ में एक लगभग 70 साल की दुबली-पतली बुजुर्ग महिला गिर पड़ी। उसके हाथ की पोटली खुल गई, उसमें से रोटियां और एक पुराना चश्मा दूर जा गिरा। उसके सिर में चोट लग गई थी, माथे से खून रिसने लगा था। वह दर्द से कराह रही थी। लेकिन उस भागती भीड़ में किसी के पास उसे उठाने का समय नहीं था। लोग उसे लांघकर अपनी-अपनी सीटों की तरफ भाग रहे थे, जैसे वह कोई पत्थर हो।
कविता का फैसला
कविता ने सब देखा। उसके कानों में ट्रेन का हॉर्न गूंजा। दिमाग चीख-चीख कर कह रहा था, “आगे बढ़ो, ट्रेन छूट जाएगी, नौकरी चली जाएगी।” लेकिन दिल उस महिला में अपनी दादी की छवि देख रहा था। मां-बाप के संस्कार उसे धिक्कार रहे थे। उसने एक पल में फैसला किया। अपनी नौकरी, बॉस का गुस्सा, सब भूल गई। भीड़ की विपरीत दिशा में मुड़ी और महिला के पास पहुंची।
उसने अपना बैग नीचे रखा, प्यार से महिला को सहारा देकर उठाया, पानी की बोतल से चेहरे पर छींटे मारे, साफ रुमाल से माथे का खून पोंछा। बुजुर्ग महिला—शांति देवी—होश में थीं, लेकिन घबराई और दर्द में थीं। कविता ने पूछा, “अम्मा, आप ठीक तो हैं? कहां जाना है?” शांति देवी कांपती आवाज में बोलीं, “पास के गांव से आई हूं, दिल्ली में बेटे से मिलने जा रही थी।”
ठीक उसी पल कविता की ट्रेन प्लेटफार्म छोड़ने लगी। कविता ने बेबस नजर से जाती ट्रेन को देखा। लगा, उसके सपने, नौकरी, सब उस ट्रेन के साथ जा रहे हैं। लेकिन शांति देवी का चेहरा देखकर उसे अपने फैसले पर अफसोस नहीं हुआ।
मदद और दुआ
कविता ने रोटियां इकट्ठा कीं, चश्मा उठाया, महिला को बेंच पर बिठाया। स्टेशन के फर्स्ट एड बूथ पर ले गई, मरहम पट्टी करवाई। बेटे का नंबर लेकर फोन किया। एक घंटे में बेटा आ गया। मां को सुरक्षित देखकर उसकी आंखों में आंसू आ गए। उसने कविता के हाथ जोड़ लिए, “बहनजी, आज आप ना होतीं तो मेरी मां का क्या होता? भगवान आपका भला करे।”
शांति देवी ने भी कविता के सिर पर हाथ रखा, “जीती रह बेटी, तूने आज एक मां की लाज रख ली। मेरी दुआ है कि तू जिंदगी में इतनी तरक्की करे कि तुझे कभी किसी चीज की कमी ना हो।”
कविता ने उन्हें अगली ट्रेन में बैठाया। जब सब निपटाकर स्टेशन से बाहर निकली, सुबह 10 बज चुके थे। ऑफिस जाने का कोई मतलब नहीं था। भारी दिल से घर लौटी। बॉस को फोन किया, सब सच बताने की कोशिश की। लेकिन मिस्टर कपूर ने बात सुने बिना गुस्से में फोन काट दिया, “कल सुबह 10 बजे केबिन में मिलना।”
नौकरी का अंत
अगली सुबह कविता डर और आशंका के साथ ऑफिस पहुंची। माहौल में अजीब सी खामोशी थी। सहकर्मी सहानुभूति से देख रहे थे। कांपते कदमों से केबिन में गई। मिस्टर कपूर ने बैठने को नहीं कहा, सीधे बोले, “यह कंपनी प्रोफेशनल संस्था है, कोई धर्मशाला नहीं। आपकी गैर हाजिरी और पिछली चेतावनियों को देखते हुए, मैनेजमेंट ने फैसला लिया है कि अब हमें आपकी सेवाओं की जरूरत नहीं है। यू आर फायर्ड।”
यह शब्द कविता के सिर पर हथौड़े की तरह लगे। आंखों के सामने अंधेरा छा गया। एक इंसान की मदद करने की इतनी बड़ी सजा? वो बिना एक शब्द कहे अपनी सीट पर आई, सामान डिब्बे में भरा और एक जिंदा लाश की तरह ऑफिस से बाहर निकल गई।
घर नहीं गई। रिटायर्ड पिता को क्या बताती? भाई की फीस का क्या होगा? उसी बेबसी में वापस स्टेशन पहुंच गई। उसी बेंच पर बैठ गई, जहां कल शांति देवी को बिठाया था। दुपट्टा मुंह पर रखकर फूट-फूट कर रोने लगी। उसे लगा, जिंदगी खत्म हो चुकी है, सारे रास्ते बंद हो चुके हैं।
कहानी में नया मोड़
लेकिन वह नहीं जानती थी कि पिछले दो दिनों से एक जोड़ी आंखें खामोशी से उसे देख रही थीं। कहानी में प्रवेश होता है—मिस्टर आनंद प्रकाश का। दिल्ली की एक बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनी ‘इनोवेट टेक’ के संस्थापक और सीईओ, जमीन से जुड़े नेक दिल इंसान।
मिस्टर प्रकाश पिछले दो दिनों से गाजियाबाद में थे। उनकी कंपनी रेलवे प्रोजेक्ट पर काम कर रही थी। वह आम आदमी की तरह स्टेशनों का दौरा कर रहे थे। परसों उन्होंने कविता को देखा था, कल सुबह पूरी घटना देखी थी—कैसे भीड़ में बुजुर्ग महिला गिरी, लोग नजरअंदाज कर गए, कविता ने मदद की, ट्रेन छोड़ी, नौकरी खोने का डर भी देखा और उस डर पर इंसानियत की जीत भी।
कविता से मुलाकात
आज जब उन्होंने कविता को उसी बेंच पर टूटकर रोते देखा, वे समझ गए कि उसके साथ कुछ बुरा हुआ है। वह शांत कदमों से उसके पास पहुंचे, बगल वाली बेंच पर बैठ गए। कुछ देर खामोश रहे, फिर पिता जैसी आवाज में कहा, “बेटी, क्या मैं तुम्हारे लिए कप चाय ला सकता हूं?”
कविता ने चौंक कर सिर उठाया, लाल सूजी आंखों से देखा। ना में सिर हिला दिया।
मिस्टर प्रकाश बोले, “देखो बेटी, मैं जानता हूं कि मैं अजनबी हूं, लेकिन कभी-कभी अपना दुख किसी अजनबी से बांट लेने से मन हल्का हो जाता है। मैं कल सुबह भी यहीं था, सब देखा था।”
यह सुनना था कि कविता की आंखों से आंसू फिर बहने लगे। उसने हिचकियों में अपनी पूरी कहानी बता दी—नौकरी की जरूरत, बॉस का निकालना, सब कुछ। मिस्टर प्रकाश ध्यान से सुनते रहे, चेहरे पर शांति थी।
बात खत्म होने पर उन्होंने अपना बिजनेस कार्ड कविता को दिया, “बेटी, रोना बंद करो। जो होता है अच्छे के लिए होता है। शायद पुरानी नौकरी तुम्हारे लायक ही नहीं थी। यह मेरी कंपनी का कार्ड है। कल सुबह 11 बजे इस पते पर आकर मुझसे मिलो।”
कविता ने हैरानी से कार्ड देखा—आनंद प्रकाश, सीईओ, इनोवेट टेक।
“सर, मैं तो मार्केटिंग से हूं, आपकी तो सॉफ्टवेयर कंपनी है…”
मुस्कुराते हुए बोले, “मैं तुम्हारी एमबीए की डिग्री के लिए नहीं, तुम्हारी इंसानियत की डिग्री के लिए नौकरी देना चाहता हूं। जिस इंसान में सही-गलत की इतनी गहरी समझ हो, जो अजनबी की मदद के लिए सब कुछ दांव पर लगा सके, वो किसी भी कंपनी के लिए संपत्ति है। स्किल्स सिखाई जा सकती हैं, संस्कार नहीं। कल आ जाना।”
नई शुरुआत
अगली सुबह कविता डर और उम्मीद के साथ उस पते पर पहुंची। गुड़गांव के साइबर हब में विशाल शीशे की इमारत, पुरानी कंपनी से कहीं ज्यादा भव्य। कांपते कदमों से सीईओ के ऑफिस में गई। मिस्टर प्रकाश मुस्कुराए, “आओ कविता, हम तुम्हारी इंतजार कर रहे थे।”
उस दिन कोई इंटरव्यू नहीं हुआ। मिस्टर प्रकाश ने उसे सीधे अपॉइंटमेंट लेटर दिया। कविता ने पढ़ा—इनोवेट टेक के कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (CSR) डिपार्टमेंट की हेड। तनख्वाह पुरानी नौकरी से तीन गुना ज्यादा।
मिस्टर प्रकाश बोले, “मुझे ऐसे इंसान की जरूरत थी जो सिर्फ मुनाफे की नहीं, इंसानियत की भाषा भी समझे, और तुमसे बेहतर कोई नहीं।”
जिंदगी का नया रंग
उस दिन कविता अपॉइंटमेंट लेटर लेकर घर पहुंची, मां-बाप को खुशखबरी सुनाई। घर में सालों बाद दिवाली और ईद एक साथ मन गई। कविता ने नई नौकरी को पूरी लगन से किया। कंपनी की तरफ से कई प्रोजेक्ट्स शुरू किए, जो गरीबों की मदद करते थे। वह अक्सर शांति देवी और उनके परिवार से मिलने जाती, उनकी हर तरह से मदद करती। अब रोज उसी ट्रेन से गुड़गांव जाती थी, लेकिन आंखों में डर नहीं, आत्मविश्वास और संतोष होता था।
निष्कर्ष
कविता को जिंदगी का सबसे बड़ा सबक मिल चुका था। नेकी का रास्ता मुश्किल जरूर है, उस पर चलने में बहुत कुछ खोना पड़ सकता है, लेकिन उसकी मंजिल हमेशा खूबसूरत होती है। एक इंसान की मदद के लिए उठाया गया छोटा सा कदम भी आपकी तकदीर बदल सकता है। गरीब और लाचार के दिल से निकली दुआ कभी खाली नहीं जाती, एक दिन लौटकर आपकी जिंदगी को ऐसी खुशियों से भर देती है, जिसकी आपने कभी उम्मीद भी नहीं की होती।
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