बेटियों ने अपने बाप का जनाज़ा उठाया | चौधरी की हवेली का राज़
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हवेली के साये में: आयशा और आलिया की कहानी
अध्याय 1: हवेली का सन्नाटा
गांव के बीचोंबीच खड़ी चौधरी सुल्तान अहमद की विशाल हवेली कभी रौनक और दबदबे की गवाह थी।
उसके ऊंचे दरवाजे, संगमरमर की सीढ़ियाँ, और रंगीन कांच की खिड़कियाँ हमेशा चहल-पहल से भरी रहती थीं।
लेकिन अब कई हफ्तों से उस हवेली के मुख्य दरवाजे पर भारी ताला जड़ा था।
चारों तरफ एक अजीब सा सन्नाटा पसरा था, जैसे हवेली खुद किसी गहरे राज को छुपाए बैठी हो।
गांव वाले अक्सर हवेली के सामने खड़े होकर फुसफुसाते,
“आखिर इस बंद दरवाजे के पीछे क्या राज है?”
“चौधरी के बेटे कहां हैं?”
“इतना बड़ा घर, इतनी दौलत…फिर ये वीरानी क्यों?”
अध्याय 2: जनाजे की खामोशी
एक सुबह अचानक वह भारी लोहे का दरवाजा चरमराता हुआ खुला।
गांव वाले दौड़ पड़े, हैरान थे कि आखिर आज क्या होने वाला है।
अंदर से दो जवान लड़कियाँ—आयशा और आलिया—अपने बाप का जनाजा कंधों पर उठाए बाहर निकलीं।
उनके चेहरे पर गम की गहरी लकीरें थीं, आँखों से आंसुओं की बाढ़ बह रही थी,
कदम दुख के बोझ से लड़खड़ा रहे थे।
गांव वाले हक्के-बक्के रह गए।
किसी की हिम्मत नहीं हुई कुछ पूछने की।
बस हैरत भरी निगाहें एक दूसरे से टकराने लगीं।
“यह बेटियाँ जनाजा क्यों उठा रही हैं?”
“चौधरी के बेटे कहां गायब हैं?”
लेकिन आयशा और आलिया खामोशी से जनाजा लिए कब्रिस्तान की ओर बढ़ती चली गईं।
उनकी सिसकियाँ हवा में गूंज रही थीं और दिलों में एक तूफान सा उठ रहा था।
अध्याय 3: सवालों की बौछार
कब्रिस्तान में जनाजा रखा गया।
आसमान को चीरती उनकी रोती आवाजें सबका दिल दहला रही थीं।
तभी गांव के कुछ बुजुर्ग आगे बढ़े और सख्त लहजे में बोले—
“हम जनाजा नहीं पढ़ाएंगे जब तक पूरी हकीकत ना बता दी जाए।
चौधरी जैसा ताकतवर आदमी कैसे मर गया और किसी को खबर तक ना हुई?
उसके बेटे कहां हैं?”

यह सुनकर आयशा और आलिया का सब्र टूट गया।
वो फूट-फूट कर रोने लगीं।
गांव वालों ने खामोशी से उनकी कहानी सुनी।
सबके दिल धड़क रहे थे कि वह कौन सा राज है जो सालों से हवेली के बंद दरवाजों के पीछे दफन था।
अध्याय 4: हवेली का घमंड
चौधरी सुल्तान अहमद की हवेली में हमेशा घमंड और रुतबे की हवा बहती थी।
वह एक ऐसा शख्स था जिसे दौलत और ताकत पर बेहिसाब नाज था।
अय्याशी उसकी आदत बन चुकी थी और जुल्म उसकी फितरत।
औरतों की इज्जत उसके लिए बस एक खेल थी।
इसी घमंड की आग में उसने गांव की एक सीधी-सादी मासूम लड़की नूरा से शादी कर ली।
नूरा बेहद नेक दिल और भोली थी,
जो चौधरी की चालाकियों और बदमाशियों को कभी समझ ना पाई।
चौधरी अक्सर उस पर हाथ उठाता, उसे बेइज्जत करता।
नूरा सब कुछ चुपचाप सहती रही।
वह जानती थी कि विरोध करना अपनी मौत को दावत देना है।
अध्याय 5: डर और उम्मीद
वक्त गुजरा और अल्लाह ने नूरा पर रहम फरमाया।
वह उम्मीद से हो गई।
लेकिन खुशी की जगह उसके दिल पर खौफ का साया छा गया।
जब चौधरी को पता चला तो उसने सख्ती से कहा—
“मुझे बेटा चाहिए। अगर बेटी हुई तो तुम्हारी और उसकी खैर नहीं।
मैं उन्हें जिंदा नहीं छोडूंगा।”
नूरा के रोंगटे खड़े हो गए।
उसका दिल कांप उठा लेकिन जुबान बंद हो गई।
अध्याय 6: जन्म और जुल्म
वो घड़ी आई जब नूरा ने दो खूबसूरत जुड़वा बेटियों को जन्म दिया।
नन्हीं परी जैसी बच्चियां जिनके आने से मां का दामन खुशियों से भर गया।
लेकिन जैसे ही यह खबर चौधरी तक पहुंची वो आग बबूला हो गया।
वो कमरे में दहाड़ते हुए नूरा पर टूट पड़ा—
“इन्हें मेरी नजरों से दूर कर दो। अगर हवेली में देखा तो याद रखना तुम सबकी शामत आएगी।”
नूरा की आंखों से आंसुओं की बौछार हो गई।
उसने अपनी कमजोर बाहों में रोती-बिलखती बच्चियों को समेट लिया और दिल पर पत्थर रखकर हवेली के पिछवाड़े की ओर चल पड़ी।
अध्याय 7: अम्मा जान का सहारा
वो नौकरानी के सबसे छोटे कमरे, एक पुराने क्वार्टर में पहुंची,
जहां अम्मा जान बैठी थी।
नूरा ने कांपते हाथों से बच्चियों को उसके हवाले किया—
“अम्मा जान, यह मेरी जान की टुकड़ी है। इनका ख्याल रखना।
मैं कुछ नहीं कर सकती, बस तुम्हारे रहम पर छोड़ रही हूं।”
अम्मा जान ने लरजते हाथों से बच्चियों को थामा और उनके मासूम चेहरों को निहारा।
नूरा ने एक-एक को चूमा।
अपनी ममता का आखिरी कर्ज उतारा और नम आंखों से लौट गई।
अध्याय 8: छुप-छुपकर ममता
उस दिन के बाद नूरा जब भी मौका मिलता,
छुप-छुप कर उस कमरे में आती।
अपनी बेटियों को गले लगाती,
उनके नन्हे हाथ चूमती और दिल की प्यास बुझाती।
लेकिन हकीकत यह थी कि आयशा और आलिया को हवेली की दहलीज पार करने की मनाही थी।
वो मां-बाप के होते हुए भी अनाथों जैसी जिंदगी जी रही थीं।
उनका हिस्सा बस क्वार्टर की तंग गलियां और अम्मा जान की गोद थी।
अध्याय 9: फिर उम्मीद
फिर अल्लाह ने दोबारा नूरा पर मेहरबानी की।
वो फिर उम्मीद से हुई।
उसके दिल पर फिर खौफ छा गया।
वो रात-दिन रो-रो कर दुआ मांगती—
“या अल्लाह, इस बार बेटा दे। मैं और दुख नहीं सह सकती।”
उसकी दुआ कबूल हुई।
नूरा ने दो जुड़वा बेटों को जन्म दिया।
इस बार चौधरी की खुशी का ठिकाना ना रहा।
उसने पूरे गांव में मिठाइयां बांटी।
बड़े-बड़े जश्न मनाए और फक्र से ऐलान किया—
“यह मेरे बेटे हैं। मेरा सरमाया, मेरा फक्र।”
नूरा कोने में खड़ी सब देखती रही।
उसके होंठ खामोश थे, लेकिन दिल जख्मी।
अध्याय 10: बेटियों का संघर्ष
वक्त की रफ्तार से आयशा और आलिया बड़ी होने लगीं।
लेकिन मां-बाप के प्यार से महरूम।
उनका दिल भी हवेली के आंगन में खेलने को तरसता।
एक दिन जब वह छह-सात साल की थीं,
खेलते-खेलते हवेली के सहन में पहुंच गईं।
उनकी आंखों में सपने थे, दिल में आरजू।
लेकिन अचानक चौधरी की गरजदार आवाज गूंजी—
“यह मनहूस लड़कियां यहां क्या कर रही हैं?
मेरी हवेली को अपवित्र कर रही हो। निकालो इन्हें।”
दोनों सहम गईं।
हाथ पकड़कर रोती हुई भागीं और क्वार्टर में छुप गईं।
अध्याय 11: मां का अंत
नूरा का कलेजा फट गया।
वो खून के आंसू रोती रही लेकिन बेबस थी।
चंद दिन बाद नूरा यह दुख सह ना सकी।
उसकी नाजुक जान टूट गई और वह अपने रब के पास चली गई।
अब आयशा और आलिया पूरी तरह बेसहारा थीं।
बस अम्मा जान उनका सहारा थी,
जो मां बनने की कोशिश करती रही।
अध्याय 12: बेटों की परवरिश
दूसरी तरफ चौधरी ने बेटों अहमद और फहीम की परवरिश अपने रंग में की।
घमंड, रब, सख्ती—यही सिखाया।
बेटों को शाही अंदाज में जीना, महफिलें जमाना,
बहनों का वजूद तक पता ना था।
आयशा और आलिया की जिंदगी चूल्हे की आंच, झाड़ू, बर्तनों में गुजरने लगी।
सुबह से शाम तक मेहनत,
लेकिन उनके हिस्से में सिर्फ तिरस्कार था।
अध्याय 13: जुल्म की हद
एक दिन आलिया तेज बुखार में भी काम कर रही थी।
कमजोरी से लड़खड़ाती हुई लाउंज में पहुंची।
सोफे पर बैठ गई, सिर हाथों में थामा, आंखों के आगे अंधेरा।
तभी दरवाजा खुला और चौधरी के बेटों का दोस्त रईस अंदर आया।
आलिया को अकेला देख उसकी आंखों में शैतानी चमक आ गई।
वो पास आया, नरमी का नाटक करते हुए कंधे पर हाथ रखा—
“क्या हुआ आलिया, ठीक तो हो?”
आलिया को बिजली का झटका लगा।
वो झटके से खड़ी हुई—
“बेशर्म, हिम्मत कैसे हुई? निकलो यहां से!”
रईस हंसा, जहरीली हंसी—
“कौन सुनेगा तुम्हारी?”
उसने हाथ पकड़ लिया।
आलिया चीखने ही वाली थी कि चौधरी अंदर आया।
रईस ने धक्का देकर चिल्लाया—
“अंकल, यह आपकी इज्जत मिट्टी में मिला रही थी!”
चौधरी का गुस्सा भड़क उठा—
“बेशर्म, यह हरकत!”
वो आलिया पर टूट पड़ा।
थप्पड़, लातें—आयशा भागी आई, पैर पकड़े लेकिन चौधरी ना रुका।
दोनों को मारा और निकाल दिया।
अध्याय 14: बहनों का ठिकाना
रोती-बिलखती बहनें अम्मा जान के पुराने मिट्टी के घर पहुंचीं।
वहां फैसला किया—यही ठिकाना।
चौधरी खुश था, बोझ उतरा।
बेटों पर भरोसा।
एक दिन बेटे फाइल लेकर आए—
“अब्बा, साइन कर दें।”
चौधरी ने बिना पढ़े कर दिए।
बेटों की मुस्कान चालाक थी।
अध्याय 15: हवेली की राजनीति
वक्त गुजरा।
बेटों की शादियां हुईं, नई बहुएं आईं
लेकिन चौधरी की सख्ती पसंद ना आई।
एक दिन बेटे बोले—
“अब्बा, आप अलग रहें। बीवियां डिस्टर्ब हैं।”
चौधरी हैरान—
“यह मेरा घर!”
बेटे हंसे—
“अब हमारा, आपने ट्रांसफर कर दिया।”
चौधरी को निकाल दिया गया।
वो एक झोंपड़ी में पहुंचा।
तन्हाई, गरीबी, बीमार पड़ा।
अध्याय 16: पछतावा
चौधरी जिनके लिए सब किया, उन्होंने छोड़ दिया।
नूरा, आयशा, आलिया की याद आती, पछतावा खाता।
एक पुरानी नौकरानी ने बहनों को बताया।
वह दौड़ीं—
चौधरी हड्डियों का ढांचा, लाचार।
बहनों ने सेवा की—पानी, खाना, दवा।
चौधरी रोता, माफी ना मांग सका।
हालत बिगड़ी।
अध्याय 17: अंतिम विदाई
बहनों ने भाइयों को फोन किया—
“अब्बा गुजर गए।”
जवाब आया—
“व्यस्त हैं।”
दोनों ने जनाजा उठाया।
गांव को कहानी पता चली।
इमाम ने जनाजा पढ़ाया।
बहनें कब्र पर दुआ मांगती रहीं।
अध्याय 18: हवेली की उथल-पुथल
चौधरी की मौत के बाद हवेली में नई उथल-पुथल शुरू हुई।
अहमद और फहीम की बीवियां जो पहले चौधरी से शिकायत करती थीं,
अब आपस में लड़ने लगीं।
दौलत की चकाचौंध में दोनों भाई एक-दूसरे के गले पड़ गए।
अहमद चाहता था कि सारी जायदाद उसकी हो।
फहीम कहता कि बराबर बंटवारा।
महफिलें अब झगड़ों में बदल गईं।
गांव वाले देखते और कहते—
“देखो चौधरी का घमंड अब उसके वारिसों को खा रहा है।”
अध्याय 19: बहनों की मेहनत
आयशा और आलिया अम्मा जान के छोटे से घर में रहने लगीं।
शुरुआत में मुश्किलें थीं—ना पैसा, ना सहारा।
लेकिन दोनों मेहनती थीं।
आयशा ने गांव की औरतों को सिलाई सिखानी शुरू की।
आलिया ने छोटी सी दुकान खोल ली,
जहां सब्जियां और घरेलू सामान बेचती।
धीरे-धीरे उनका काम चलने लगा।
गांव की औरतें उनकी इज्जत करने लगीं—
“यह वो बहनें हैं जिन्होंने बाप का जनाजा उठाया।”
अध्याय 20: रईस की वापसी
एक दिन रईस फिर गांव आया।
अब वो अमीर बन चुका था, लेकिन उसकी नियत वही।
उसने आलिया की दुकान पर नजर डाली और पास आकर बोला—
“आलिया, पुरानी बातें भूल जाओ। अब मैं तुम्हें खुश रख सकता हूं।”
आलिया की आंखें क्रोध से लाल हो गईं—
“तुम्हारी हिम्मत! उस दिन की बदमाशी भूल गई क्या?”
उसने जोर से चिल्लाया।
गांव वाले इकट्ठे हो गए।
रईस भाग खड़ा हुआ।
इस बार गांव वालों ने उसे सबक सिखाया।
उसकी कार तोड़ दी और चेतावनी दी कि दोबारा ना आए।
अध्याय 21: नई रोशनी
बहनों की जिंदगी में नई रोशनी आई जब एक दिन शहर से एक एनजीओ वाली आई।
उसने उनकी कहानी सुनी और मदद का वादा किया—
“तुम्हारी हिम्मत प्रेरणा है।”
एनजीओ ने उन्हें स्कॉलरशिप दी।
आयशा ने कॉलेज जाना शुरू किया।
आलिया ने बिजनेस को बढ़ाया।
साल भर में उनका छोटा घर चमकने लगा।
वह अब गांव की मिसाल थीं—
“बेटियां बोझ नहीं, ताकत हैं।”
अध्याय 22: हवेली का पतन
दूसरी तरफ हवेली अब खंडहर बनने लगी।
भाइयों की लड़ाई अदालत पहुंची।
जायदाद बंटी लेकिन दोनों कंगाल हो गए।
उनकी बीवियां भाग गईं।
अहमद और फहीम अब सड़कों पर भीख मांगते दिखते।
लोग कहते—
“चौधरी ने बेटियों को निकाला। अल्लाह ने बेटों को सजा दी।”
अध्याय 23: बहनों की सफलता
आयशा और आलिया कभी हवेली नहीं लौटीं।
लेकिन हर साल बाप की कब्र पर जातीं, फातिहा पढ़तीं।
उनके दिल में नफरत नहीं, सिर्फ सबक था।
एक दिन आयशा ने आलिया से कहा—
“बहन, हमने साबित कर दिया कि बेटी होना गुनाह नहीं।”
आलिया मुस्कुराई—
“और जो हमें बोझ समझते हैं, वह खुद बोझ बन जाते हैं।”
अध्याय 24: गांव में बदलाव
गांव में अब नई कहानियां गूंजतीं।
औरतें अपनी बेटियों को पढ़ाती, सिखाती।
चौधरी की हवेली की दीवारें गिरने लगीं।
लेकिन आयशा और आलिया का छोटा सा घर उम्मीद की मिसाल बन गया।
उनकी जिंदगी लंबी थी, संघर्षों से भरी लेकिन अंत में सुकून की।
वो खेलती, हंसती और दूसरों की मदद करतीं।
अध्याय 25: बाढ़ का इम्तिहान
एक बार गांव में बाढ़ आई।
हवेली डूब गई, लेकिन बहनों का घर ऊंचाई पर था।
उन्होंने सबको पनाह दी, खाना बांटा।
लोग कहते—
“यह फरिश्ते हैं।”
भाई कभी मदद मांगने आए, लेकिन बहनों ने मना कर दिया—
“अब देर हो चुकी। जुल्म का फल खुद छको।”
अध्याय 26: नई शुरुआत
साल गुजरे।
आयशा डॉक्टर बनी, आलिया बिजनेस वूमन।
उन्होंने स्कूल खोला,
जहां गरीब बच्चियों को मुफ्त पढ़ाई।
उनकी शादियां हुईं नेक दिल लड़कों से,
जो उन्हें इज्जत देते।
बच्चे हुए, जिन्हें वह प्यार से पालतीं।
अध्याय 27: माफ करना
कभी पुरानी यादें आतीं तो वह कहतीं—
“दुख ने हमें मजबूत बनाया।”
चौधरी की कब्र अब घास से ढकी थी,
कोई नहीं आता था।
लेकिन बहनें हर ईद पर फूल चढ़ातीं—
“अब्बा, माफ कर दिया। अल्लाह तुम्हें माफ करे।”
अध्याय 28: गांव की मिसाल
गांव बदल गया।
बेटियों को बोझ नहीं, रहमत समझा जाता।
आयशा और आलिया की कहानी हर जुबान पर थी।
एक सबक, एक प्रेरणा—
“दौलत चली जाती है, घमंड टूट जाता है,
लेकिन नेकी और हिम्मत अमर रहती हैं।”
अंतिम संदेश
आयशा और आलिया का छोटा सा घर
अब गांव की उम्मीद बन गया था।
उनकी हिम्मत, संघर्ष और सफलता ने
हर दिल को छू लिया।
अगर कभी हवेली की दीवारों से कोई आह निकलती,
तो वह बस यही कहती—
“बेटी होना गुनाह नहीं,
बल्कि सबसे बड़ी ताकत है।”
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