बेटे ने माँ से कहा… बता अपनी दूध की कीमत, आज तेरा हर कर्ज चुकाना चाहता हूं, फिर जो हुआ, सबक बन गया
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क्या आपने कभी सोचा है कि जिस माँ ने आपको चलना सिखाया, जिसके बिना आप एक कदम भी नहीं चल सकते थे, उसी के लिए आज आप दो कदम चलने को तैयार नहीं हैं? जिसने अपनी पूरी जिंदगी आपके नाम कर दी, आज आप उसी के प्यार की कीमत लगा रहे हैं। यह कहानी एक ऐसी ही माँ — पार्वती देवी — की है, जो अपने बेटे सूरज के लिए सब कुछ लुटा चुकी हैं, मगर बदले में सिर्फ तिरस्कार और अकेलापन पाती हैं।
गाँव की मिट्टी में माँ
पार्वती देवी, उम्र 70 साल। झुर्रियों में लिपटी ममता की जीवंत मूर्ति। भद्रपुर गाँव की फटी पुरानी साड़ी में लिपटी वो अकेली रहती थी। उनका इकलौता बेटा सूरज अब हैदराबाद में एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी का सीईओ था। अरबों की संपत्ति, आलीशान बंगला, चमचमाती कारें, नौकर-चाकर, और शहर की चकाचौंध में डूबी जिंदगी। लेकिन इस सबके बीच उसकी माँ जैसे उसकी दुनिया से गायब हो चुकी थी।
पार्वती देवी की जिंदगी कभी आसान नहीं रही। उनके पति एक साधारण किसान थे, जो सूरज के पाँच साल का होते ही गुजर गए। उस वक्त पार्वती की उम्र थी केवल 28 साल। एक युवा विधवा के सामने पूरा जीवन अंधेरे की तरह खड़ा था। गाँव के लोग ताने मारते, समाज की रूढ़ियाँ उन्हें हर कदम पर रोकतीं। लेकिन पार्वती ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने बेटे सूरज को पालने का जिम्मा उठाया। जैसे कोई योद्धा युद्ध के लिए तैयार होता है।
गाँव में दूसरों के खेतों में मजदूरी की। धूप में पसीना बहाया। बारिश में भीगते हुए फसल काटी। कई बार रात को भूखे सोई ताकि सूरज का पेट भरा रहे। स्कूल की फीस के लिए अपनी माँ से मिली एकमात्र सोने की चूड़ियाँ बेच दीं। पति की निशानी एक पुरानी अंगूठी भी बाजार में उतार दी। लेकिन सूरज को कभी नहीं बताया कि उसकी किताबों के लिए माँ ने क्या-क्या कुर्बान किया।
माँ के आँसू और बेटे की तरक्की
सूरज को पढ़ाने के लिए पार्वती ने गाँव के स्कूल में दाखिला करवाया। हर सुबह उसे तैयार करके पुराने चप्पलों में पैदल स्कूल छोड़ने जातीं। जब सूरज अच्छे नंबर लाता, पार्वती की आँखें खुशी से चमक उठतीं। मगर उस खुशी में हमेशा हल्की उदासी होती, क्योंकि उन्हें पता था कि सफर आसान नहीं होगा।

सूरज बड़ा हुआ। उसने इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया। पार्वती ने सिलाई का काम शुरू किया, कभी-कभी दूसरों के घरों में बर्तन माँजकर उसकी फीस भरी। सूरज को कभी नहीं पता चला कि उसकी कॉलेज की डिग्री के पीछे माँ के कितने आँसू और पसीने की कहानी थी।
जब सूरज ने अपनी पहली नौकरी पाई, पार्वती ने मंदिर में माथा टेका और भगवान से कहा, “मेरे बेटे को अब सब कुछ मिल गया, बस उसे खुश रखना।” सूरज ने तरक्की की, हैदराबाद में बस गया, शानदार जिंदगी बनाई। लेकिन जैसे-जैसे उसकी दुनिया बड़ी होती गई, उसकी माँ की दुनिया सिमटती चली गई।
पहले वह हर हफ्ते फोन करता, फिर महीने में एक बार, और अब तो साल में एक बार ही उसकी आवाज सुनाई देती। पार्वती के लिए सूरज का एक फोन कॉल ही जैसे जीवन का सबसे बड़ा तोहफा था। मगर वह कॉल भी अब आना बंद हो चुका था।
माँ की उम्मीद और बेटे का तिरस्कार
आज सूरज का 36वाँ जन्मदिन था। पार्वती देवी सुबह से ही अपने पुराने टूटे-फूटे फीचर फोन को हाथ में थामे बैठी थीं। उनकी धुंधलाती आँखें बार-बार दरवाजे की ओर उठतीं, जैसे उम्मीद हो कि आज सूरज खुद फोन करेगा। शायद आज उसे अपनी माँ की याद आएगी।
भद्रपुर की सन्नाटे भरी गलियों में वो अपने छोटे से आँगन में बैठी पुरानी यादों में खोई रहीं। वो दिन जब सूरज ने पहली बार “माँ” कहा था, जब उसने पहली बार साइकिल चलाई थी, जब उसने अपनी पहली नौकरी की खुशी माँ से बाँटी थी। हर पल उनकी आँखों के सामने तैर रहा था।
लेकिन दिन ढल गया, सूरज डूब गया और फोन की स्क्रीन अब भी खामोश थी। रात के 11:00 बजे कांपते हाथों से पार्वती देवी ने खुद फोन लगाया। उस वक्त सूरज हैदराबाद के एक लग्जरी क्लब में अपने दोस्तों और बिजनेस पार्टनर्स के साथ जन्मदिन की शानदार पार्टी मना रहा था। मेज पर महंगी शराब, चारों ओर हँसी-ठहाके और तेज संगीत की गूंज।
फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर “माँ” का नाम चमका। लेकिन सूरज ने एक नजर देखा और फोन साइड में रख दिया। उसने सोचा, “अभी पार्टी चल रही है, बाद में बात कर लूंगा।” पार्वती ने फिर कॉल किया। फिर और फिर, लेकिन जवाब नहीं मिला।
रात गहरी हो चुकी थी। जब सूरज क्लब से अपने पेंटहाउस लौटा, शराब और थकान से उसकी आँखें भारी थीं। तभी फिर फोन बजा। गुस्से में उसने फोन उठाया और चिल्लाया, “माँ, बार-बार फोन क्यों कर रही हो? रात हो चुकी है। मैं थक गया हूँ। सुबह नहीं कॉल कर सकती थी क्या?”
दूसरी तरफ पार्वती देवी की आवाज कांपी, लेकिन उसमें ममता की वही मिठास थी जो कभी कम नहीं हुई। “बेटा, आज तेरा जन्मदिन है। बस तुझे दुआ देने का मन किया। दो साल हो गए तुझे देखे हुए। बस एक बार आजा, मैं तुझे देखना चाहती हूँ।”
सूरज ने झुझलाहट में कहा, “ठीक है माँ, मैं परसों आता हूँ। अभी मीटिंग्स हैं। टाइम नहीं है।” बस इतना सुनकर पार्वती देवी के चेहरे पर जैसे चाँदनी छा गई। वो रात भर खिड़की के पास बैठीं रहीं, बेटे के आने की उम्मीद में। “परसों मेरा सूरज आएगा…” यही सोचकर मुस्कुराती रहीं।
सूरज की वापसी और माँ की परीक्षा
परसों सुबह जब सूरज भद्रपुर पहुँचा, पार्वती देवी उसे देखते ही लिपट गईं। “बेटा, तू आ गया… तीन साल बाद तुझे देखा है।” उनकी आँखों में आँसुओं के साथ खुशी झलक रही थी।
लेकिन सूरज का चेहरा ठंडा था। वह माँ की ममता को नहीं, बल्कि अपनी डिजाइनर जैकेट पर लगी गाँव की धूल को झाड़ रहा था। उसने अपने ड्राइवर को सामान रखने का इशारा किया और माँ से कहा, “माँ, जल्दी बोल, कितने दिन रुकना है? मेरे पास टाइम कम है। अगले हफ्ते दुबई की फ्लाइट है।”
जब पार्वती देवी ने उसे छूकर आशीर्वाद देना चाहा, वह थोड़ा पीछे हट गया और बोला, “माँ, तू हमेशा कहती थी कि माँ का कर्ज कोई नहीं चुका सकता, लेकिन मैं तेरा कर्ज जरूर चुकाऊँगा। बता क्या चाहिए? बंगला, गाड़ी, पैसा… मैं सब अरेंज कर दूँगा। तुझे इस गाँव में अब और नहीं रहना चाहिए।”
पार्वती देवी ने एक गहरी सांस ली और धीरे से मुस्कुराई। उनकी मुस्कान में दर्द था, लेकिन ममता अब भी अटूट थी। “बेटा, मुझे तेरा प्यार चाहिए। वह एहसास चाहिए जो तू भूल चुका है। लेकिन अगर तुझे सचमुच मेरा कर्ज चुकाना है, तो तीन काम करने होंगे। तभी मानूँगी कि तूने कोशिश की।”
सूरज ने तुरंत कहा, “ठीक है माँ, बता मैं हर काम करूंगा। बस तू खुश रह।”
पहली परीक्षा: माँ का बोझ
पार्वती देवी ने सूरज की ओर देखा और कहा, “पहला काम — तुझे एक 5 किलो का पत्थर लेना होगा। उसे कपड़े में लपेटकर अपने पेट से कसकर बाँधना होगा। जैसे एक माँ अपने गर्भ में बच्चा रखती है और उसे 24 घंटे तक बिना उतारे, बिना शिकायत किए हर काम करना होगा। तभी तुझे एहसास होगा कि एक माँ क्या सहती है।”
सूरज ने हल्की हँसी के साथ कहा, “बस इतना? यह तो आसान है माँ, मैं कर लूंगा।”
गाँव के बाहर से एक बड़ा पत्थर उठाया। उसे माँ की पुरानी साड़ी में लपेटा और अपने पेट से कसकर बाँध लिया। शुरू के 2 घंटे तो उसे लगा कि यह कोई बड़ी बात नहीं। वह आँगन में टहलता रहा, स्मार्टफोन पर ईमेल चेक करता रहा।
लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, पत्थर का वजन उसे खलने लगा। तीसरे घंटे में कमर में हल्का दर्द शुरू हुआ। हर कदम पर पत्थर पेट को दबाता, जैसे कोई भारी बोझ उसे कुचल रहा हो। जब बैठने की कोशिश करता, पत्थर और भारी लगता। दोपहर में खाना खाते वक्त बार-बार कराह उठता। शर्ट पसीने से भीग चुकी थी और चेहरा लाल हो गया था।
माँ रसोई में चुपचाप रोटियाँ बेल रही थीं, मगर उनकी नजरें सूरज पर टिकी थीं। शाम तक सूरज की हालत खराब हो चुकी थी। उसने झुझलाकर कहा, “माँ, यह तो बहुत मुश्किल है। न बैठा जाता है, न लेटा जाता है। मैं तो थक गया।”
पार्वती देवी ने शांत स्वर में जवाब दिया, “बेटा, तूने तो अभी 9 घंटे भी नहीं बिताए, और वह भी नकली बोझ के साथ। मैंने तुझे 9 महीने अपने गर्भ में रखा। खेतों में काम किया, दूसरों के घरों में झाड़ू-पोछा किया, भूखी रही, फिर भी कभी शिकायत नहीं की। तेरा बाप जब गया तब भी तुझे सीने से लगाए रखा। तुझे कभी नहीं बताया कि मेरे पैरों में कितना दर्द था।”
सूरज की आँखें नम हो गईं। लेकिन उसने अपने आँसुओं को छिपाने की कोशिश की। उसका अहंकार अभी पूरी तरह टूटा नहीं था।
दूसरी परीक्षा: माँ की रात
रात गहरी हो चुकी थी। भद्रपुर की ठंडी हवाएँ घर की खुली खिड़कियों से आ रही थीं। पार्वती देवी ने पुरानी खाट पर चादर बिछाई और सूरज से कहा, “बेटा, आज तू मेरे कमरे में ही सो जा। यही तेरी दूसरी परीक्षा है।”
सूरज ने सिर हिलाया और थकान से भारी शरीर के साथ खाट पर लेट गया। उसने अपने महंगे जूते उतारे, स्मार्टफोन साइड में रखा और नींद की तलाश में आँखें बंद की।
लेकिन जैसे ही वह नींद की आगोश में जाने वाला था, माँ की आवाज गूंजी, “बेटा, प्यास लगी है। जरा एक गिलास पानी ला दे।”
सूरज ने आँखें मलते हुए उठकर पानी लाकर दिया। पार्वती देवी ने गिलास लिया, दो घूंट पिए और फिर जैसे उनका हाथ काँप गया हो, बाकी पानी सूरज की खाट पर गिर गया।
सूरज चौंक पड़ा, “माँ, यह क्या? जहाँ मैं सो रहा हूँ वहाँ पानी गिरा दिया।”
पार्वती देवी ने शांत स्वर में कहा, “बेटा, बुढ़ापे में हाथ काँप जाते हैं, आँखें धुंधला जाती हैं। गलती हो गई।”
सूरज ने कुछ नहीं कहा और चुपचाप खाट के दूसरे कोने पर लेट गया। थोड़ी देर बाद फिर माँ की आवाज आई, “बेटा, फिर प्यास लगी है। एक गिलास पानी और ला दे।”
सूरज अब झुझलाहट में उठा, “माँ, अभी तो दिया था। इतनी जल्दी…” फिर भी चुपचाप पानी लाकर दिया। पार्वती देवी ने फिर वही किया — दो घूंट पिए, बाकी पानी खाट पर गिरा दिया।
अब सूरज का गुस्सा फूट पड़ा, “माँ, यह क्या पागलपन है? बार-बार मेरा बिस्तर गीला कर रही हो। अब मैं कहाँ सोऊँ?”
पार्वती देवी ने गहरी सांस ली और कहा, “बेटा, जब तू छोटा था, तू हर रात बिस्तर गीला कर देता था। मैं बिना शिकायत किए तुझे सूखी जगह पर सुलाती थी और खुद गीले बिस्तर पर सोती थी। तू रात में रोता था, मैं उठकर तुझे थपकियाँ देती थी। कभी तुझ पर गुस्सा नहीं किया। आज मैंने बस दो बार पानी माँगा, तू मुझ पर चिल्लाने लगा।”
सूरज की आँखें झुक गईं। उसका गुस्सा शर्म में बदल गया। वह चुपचाप माँ के पास बैठ गया और बोला, “माँ, मुझे माफ कर दो। तीसरा काम बता, मैं उसे पूरी ईमानदारी से करूंगा।”
तीसरी परीक्षा: माँ के सवाल
सुबह की पहली किरण जब खिड़की से आई, पार्वती देवी पहले से जागी हुई थीं। उनके चेहरे पर शांति थी। सूरज सामने खड़ा था, नींद से भारी लेकिन उसकी आँखों में अब घमंड नहीं, बल्कि पश्चाताप और समझदारी की चमक थी।
पार्वती देवी ने खिड़की की ओर इशारा किया, जहाँ एक छोटा सा कबूतर बैठा था। “बेटा, यह क्या है?”
सूरज ने जवाब दिया, “माँ, यह कबूतर है।”
माँ ने फिर पूछा, “यह क्या है?”
सूरज थोड़ा चौंका, “माँ, कबूतर ही है।”
माँ ने तीसरी बार वही सवाल दोहराया, “बेटा, यह क्या है?”
अब सूरज का धैर्य जवाब दे गया, “माँ, तुम ठीक हो? तीन बार एक ही सवाल… कबूतर है, कबूतर! बार-बार क्यों पूछ रही हो?”
पार्वती देवी ने गहरी सांस ली और बोली, “बेटा, जब तू 3 साल का था, तूने मेरी गोद में बैठकर यही सवाल पूछा था। खिड़की पर कबूतर बैठा था और तूने पूछा, ‘माँ, यह क्या है?’ मैंने कहा, कबूतर। तूने फिर पूछा, फिर पूछा… उस दिन तूने यह सवाल 40 बार दोहराया। मैंने हर बार प्यार से जवाब दिया, तुझे गले लगाया, कभी झुझलाहट नहीं दिखाई। आज मैंने बस तीन बार पूछा और तू चिल्ला पड़ा। सवालों की कीमत तब नहीं थी क्योंकि तू मासूम था, और आज सवाल वही है, लेकिन तू बदल गया है बेटा।”
सूरज अब टूट चुका था। वह माँ के पैरों में गिर पड़ा, आँसुओं से भीगा हुआ, “माँ, मैं बहुत गलत था। मैंने कभी तुम्हारी ममता की कीमत नहीं समझी। मुझे लगा था कि पैसा, बंगला, गाड़ी देकर मैं तुम्हारा कर्ज चुका दूँगा। लेकिन अब समझ आया कि माँ का कर्ज चुकाया नहीं जा सकता, सिर्फ निभाया जा सकता है।”
माँ का जवाब और बेटे का वादा
पार्वती देवी ने उसके सिर पर हाथ फेरा और बोली, “बेटा, जिस दिन तूने मुझे ‘माँ’ कहा, उसी दिन से तेरा हर कदम मेरा कर्ज बन गया। मैंने तुझे चलना सिखाया, बोलना सिखाया, गिरने पर उठाया, रातों को जागकर तेरा बुखार उतारा। तू कहता है कर्ज चुकाएगा? कोई बेटा माँ का कर्ज नहीं चुका सकता। बस इतना कर कि मुझे कभी दुख ना दे। मेरे लिए यही सबसे बड़ी दौलत है।”
सूरज ने माँ का हाथ थामा और कहा, “माँ, अब मैं यहीं रहूँगा। तेरे पास, तेरे साथ। मैं तुझे वह समय, वह प्यार, वह सम्मान दूँगा जो तूने मुझे दिया। मैं अब कभी तुझे अकेला नहीं छोड़ूँगा।”
पार्वती देवी की आँखें भर आईं। उन्होंने सिर्फ इतना कहा, “बेटा, यही मेरी सबसे बड़ी जीत है। मेरी जिंदगी का मकसद पूरा हुआ।”
सीख
तो दोस्तों, क्या आपने कभी सोचा कि जिस माँ ने हमें एक-एक शब्द बोलना सिखाया, हम आज उसी से ऊँची आवाज में बात कैसे कर बैठते हैं? क्या आपने कभी अपनी माँ को वह वक्त दिया जो उन्होंने आपके लिए बिना गिनती के दिया? क्या आपने कभी उस ममता के एहसान को महसूस किया, जो उन्होंने बिना शर्त आपको दिया?
माँ का कर्ज चुकाया नहीं जा सकता। बस प्यार, समय और सम्मान देकर उसे महसूस किया जा सकता है। आइए आज से एक वादा करें — अपनी माँ को वह प्यार, वह वक्त दें जो वह हकदार है। क्योंकि माँ रहे तो सब कुछ है और माँ ना रहे तो कुछ भी नहीं।
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