भारतीय बच्ची से अमेरिका की उड़ान में फर्स्ट क्लास की सीट छीनी गई—कुछ मिनट बाद पायलट ने उड़ान रोक दी!
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एक शांत, हरी-भरी घाटी में बसा हुआ एक छोटा सा गाँव था, जिसका नाम था सूरजपुर। यह गाँव अपनी उपजाऊ मिट्टी, मीठे पानी की नदी और मेहनती किसानों के लिए जाना जाता था। यहाँ की सुबहें चिड़ियों की चहचहाहट, मंदिरों से आती घंटियों की धीमी ध्वनि और खेतों की ओर जाते किसानों के गीतों से जीवंत हो उठती थीं। गाँव के बीचों-बीच एक विशाल बरगद का पेड़ था, जो न केवल एक पेड़ था, बल्कि गाँव की आत्मा था। पीढ़ियों से गाँव की पंचायतें, त्योहारों की रौनकें और बड़े-बुजुर्गों की चौपालें इसी पेड़ की छाँव में सजती थीं।
इसी गाँव में एक बुजुर्ग किसान रहते थे, जिनका नाम था शंकर। सत्तर साल की उम्र में भी उनके शरीर में एक नौजवान जैसी फुर्ती और आँखों में अनुभव की गहरी चमक थी। उनकी त्वचा धूप और मेहनत से तपकर ताँबे जैसी हो गई थी और उनके हाथ की लकीरें मिट्टी में खोदे गए हल की तरह गहरी थीं। शंकर के लिए ज़मीन सिर्फ़ एक टुकड़ा नहीं, बल्कि उनकी माँ थी। वह मिट्टी की गंध से बता सकते थे कि बारिश कब होगी, और हवा का रुख़ देखकर फ़सल का मिज़ाज जान लेते थे। उनके दो बेटे थे, जो काम की तलाश में शहर जा बसे थे और कभी-कभार ही गाँव आते थे। शंकर अपनी छोटी सी झोपड़ी में अकेले रहते थे, लेकिन उनके लिए उनके खेत और यह गाँव ही उनका पूरा परिवार था।
एक दिन, गाँव की शांति में एक अजीब सी हलचल हुई। शहर से तीन बड़ी, चमचमाती गाड़ियाँ गाँव की कच्ची सड़कों पर धूल उड़ाती हुई आईं और सीधे सरपंच के घर के सामने रुकीं। उनमें से कुछ लोग उतरे, जिन्होंने महँगे सूट पहन रखे थे और जिनकी आँखों में एक अजीब सी व्यावसायिक चमक थी। उनका नेता एक अधेड़ उम्र का आदमी था, जिसका नाम विक्रम सिंह था। विक्रम सिंह एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी, ‘प्रगति इंडस्ट्रीज’ का मालिक था।
सरपंच ने बड़ी आवभगत के साथ उनका स्वागत किया। शाम को बरगद के पेड़ के नीचे एक पंचायत बुलाई गई। विक्रम सिंह ने एक बड़ी सी स्क्रीन पर अपनी योजना दिखाते हुए गाँव वालों से कहा, “हम आपकी इस ज़मीन पर एक बड़ी फैक्ट्री लगाना चाहते हैं। यह फैक्ट्री आप लोगों की किस्मत बदल देगी। हम आपको आपकी ज़मीन का मुँह माँगा दाम देंगे, गाँव के हर नौजवान को नौकरी देंगे, एक बड़ा स्कूल और एक अस्पताल भी बनवाएँगे। आपके बच्चे शहर जाने के बजाय यहीं काम करेंगे और आपके साथ रहेंगे।”
पैसे, नौकरी और विकास की बातें सुनकर ज़्यादातर गाँव वालों की आँखों में एक सपना तैरने लगा। उन्हें लगा कि उनकी गरीबी और संघर्ष के दिन अब खत्म होने वाले हैं। सरपंच और कुछ अन्य प्रभावशाली लोगों ने तुरंत इस प्रस्ताव का समर्थन कर दिया। हर तरफ़ खुशी का माहौल था, लेकिन उस भीड़ में एक चेहरा शांत और चिंतित था – वह चेहरा शंकर का था।
जब सब लोग अपनी सहमति दे रहे थे, तब शंकर धीरे से खड़े हुए। उनकी आवाज़ शांत लेकिन दृढ़ थी। “साहब, आपकी बातें सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं, लेकिन यह बताइए कि आपकी यह फैक्ट्री हमारी इस नदी का क्या करेगी? यह जो धुआँ उगलेगी, वह हमारी हवा का क्या करेगा? और यह जो ज़मीन आप हमसे ले लेंगे, वह हमारी माँ है। हम उसे बेचकर अनाथ हो जाएँगे। पैसा आज है, कल नहीं रहेगा, लेकिन यह ज़मीन पीढ़ियों तक हमारा पेट भरती है।”
विक्रम सिंह मुस्कुराया, एक ऐसी मुस्कान जिसमें विनम्रता कम और अहंकार ज़्यादा था। “बाबा, आप पुरानी बातें कर रहे हैं। यह विकास का ज़माना है। हम पर्यावरण का पूरा ध्यान रखेंगे। फैक्ट्री में आधुनिक मशीनें लगेंगी, जो नदी या हवा को कोई नुकसान नहीं पहुँचाएंगी। आप लोग बस हम पर भरोसा रखिए।”
लेकिन शंकर को उसकी आँखों में सच्चाई नहीं दिखी। उन्हें लगा जैसे कोई शिकारी अपने जाल को मीठी बातों से ढक रहा हो। पंचायत खत्म हो गई, लेकिन गाँव दो हिस्सों में बँट चुका था। एक तरफ़ वे लोग थे, जो फैक्ट्री के सपने देख रहे थे, और दूसरी तरफ़ शंकर जैसे कुछ मुट्ठी भर लोग, जो अपनी ज़मीन और अपनी जड़ों को खोने से डर रहे थे।

अगले कुछ हफ्तों में, कंपनी के लोग गाँव में घूमने लगे। वे लोगों को पैसे का लालच देते, उनके बीच फूट डालते और जो कोई शंकर की बात करता, उसे डराते-धमकाते। उन्होंने गाँव के कई लोगों से ज़मीन के कागज़ों पर अँगूठे लगवा लिए। शंकर का दिल यह सब देखकर रोता था। उन्होंने लोगों को समझाने की बहुत कोशिश की, “यह ज़मीन सिर्फ़ मिट्टी नहीं, हमारा इतिहास है, हमारी पहचान है। एक बार यह चली गई, तो हम अपनी आत्मा खो देंगे।” लेकिन विकास के शोर में उनकी धीमी आवाज़ दबकर रह गई। यहाँ तक कि उनके अपने बेटों ने भी फोन पर कहा, “बापू, आप ज़िद छोड़ दीजिए। ज़माना बदल गया है। फैक्ट्री लगने दीजिए, गाँव का भला होगा।”
शंकर ने हार नहीं मानी। उन्होंने तय कर लिया कि वह अपनी ज़मीन और अपने गाँव को बचाने के लिए अकेले ही लड़ेंगे। उन्होंने सूचना के अधिकार (RTI) के तहत विक्रम सिंह की कंपनी और उसकी अन्य फैक्ट्रियों के बारे में जानकारी माँगी। शहर जाना, सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटना, यह सब उनके लिए नया और मुश्किल था, लेकिन उनके इरादे चट्टान की तरह मज़बूत थे।
इसी दौरान, शहर की एक युवा पत्रकार, प्रिया, को इस मामले की भनक लगी। प्रिया एक छोटे से समाचार पत्र के लिए काम करती थी, लेकिन उसकी कलम में सच्चाई और हिम्मत थी। वह अपनी एक रिपोर्ट के लिए सूरजपुर गाँव पहुँची। जब उसने गाँव वालों से बात की, तो ज़्यादातर ने कंपनी की तारीफ़ की, लेकिन जब वह शंकर से मिली, तो उसे कहानी का दूसरा पहलू नज़र आया।
शंकर ने उसे अपनी झोपड़ी में बिठाया और अपनी सारी चिंताएँ बताईं। उन्होंने कहा, “बेटी, ये लोग हमें विकास का सपना दिखाकर हमारी ज़िंदगी छीन लेना चाहते हैं। मैं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ, लेकिन मैं प्रकृति की भाषा समझता हूँ। यह फैक्ट्री हमारी नदी को ज़हर बना देगी और हमारी हवा में मौत घोल देगी।”
प्रिया को शंकर की आँखों में एक गहरी सच्चाई दिखी। उसने इस मामले की तह तक जाने का फैसला किया। उसने शंकर की मदद से उस नदी के पानी का नमूना लिया, जिसके किनारे फैक्ट्री लगनी थी। फिर वह उस दूसरे शहर गई, जहाँ ‘प्रगति इंडस्ट्रीज’ की एक पुरानी फैक्ट्री पहले से चल रही थी। वहाँ जाकर जो नज़ारा उसने देखा, वह भयावह था। फैक्ट्री के पास की नदी एक काले, बदबूदार नाले में बदल चुकी थी। आसपास के गाँवों में लोग अजीब-अजीब बीमारियों से पीड़ित थे। बच्चों का विकास रुक गया था और ज़मीन बंजर हो चुकी थी।
प्रिया ने वहाँ के लोगों से बात की, उनकी तस्वीरें लीं और उस काली नदी के पानी का नमूना भी इकट्ठा किया। जब लैब में दोनों नमूनों की जाँच हुई, तो रिपोर्ट चौंकाने वाली थी। पुरानी फैक्ट्री के पास की नदी के पानी में खतरनाक केमिकल और भारी धातुएँ थीं, जो कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों का कारण बन सकती थीं।
प्रिया के पास अब एक बड़ा सबूत था। उसने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि कैसे ‘प्रगति इंडस्ट्रीज’ विकास के नाम पर पर्यावरण और इंसानी जिंदगियों को तबाह कर रही है। उसने अपनी रिपोर्ट में शंकर के संघर्ष और सूरजपुर गाँव पर मंडरा रहे खतरे का भी ज़िक्र किया।
जैसे ही यह रिपोर्ट अखबार में छपी, हड़कंप मच गया। पर्यावरण के लिए काम करने वाली कुछ संस्थाएँ और सामाजिक कार्यकर्ता सूरजपुर गाँव पहुँच गए। अब शंकर अकेले नहीं थे। उनके साथ पढ़े-लिखे और अनुभवी लोगों का एक समूह था, जो उनकी लड़ाई में उनका साथ देने के लिए तैयार था।
दूसरी तरफ, विक्रम सिंह अपनी फैक्ट्री की नींव रखने की तैयारी कर रहा था। उसने एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया, जिसमें एक मंत्री को भी बुलाया गया था। उसे लगा कि एक बार नींव रख दी गई, तो कोई उसे रोक नहीं पाएगा।
जिस दिन नींव रखी जानी थी, उस दिन सूरजपुर में तनाव का माहौल था। एक तरफ़ कंपनी के लोग, मशीनें और पुलिस का पहरा था, और दूसरी तरफ़ शंकर, प्रिया और उनके साथ सैकड़ों प्रदर्शनकारी, जो शांति से विरोध कर रहे थे।
जैसे ही मंत्री ने नींव का पत्थर रखने के लिए फावड़ा उठाया, शंकर आगे बढ़े और उन्होंने मंत्री के हाथ जोड़कर कहा, “मंत्री जी, आप जिस विकास की नींव रख रहे हैं, वह असल में हमारे विनाश का पत्थर है। कृपया एक बार हमारी बात सुन लीजिए।”
पुलिस वालों ने शंकर को हटाने की कोशिश की, लेकिन तभी प्रिया और अन्य सामाजिक कार्यकर्ता आगे आ गए। प्रिया ने अपनी रिपोर्ट, लैब की जाँच और पुरानी फैक्ट्री की तस्वीरें मंत्री के सामने रख दीं। उसने कहा, “सर, यह विकास नहीं, यह एक सोची-समझी साज़िश है। यह कंपनी यहाँ के लोगों को मौत के मुँह में धकेल रही है।”
विक्रम सिंह चिल्लाया, “यह सब झूठ है! यह लड़की मेरी कंपनी को बदनाम करने की कोशिश कर रही है।”
लेकिन सबूत इतने पुख्ता थे कि उन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था। भीड़ में मौजूद गाँव वाले भी अब सच्चाई देखने लगे थे। उन्हें पुरानी फैक्ट्री की तस्वीरें देखकर अपनी गलती का एहसास हुआ। वे समझ गए कि शंकर सही थे। वे भी अब शंकर के समर्थन में नारे लगाने लगे।
माहौल बिगड़ता देख मंत्री ने तुरंत कार्यक्रम को रोक दिया और मामले की उच्च-स्तरीय जाँच का आदेश दिया। विक्रम सिंह का चेहरा सफ़ेद पड़ चुका था। उसका सारा घमंड और आत्मविश्वास एक पल में ढह गया।
जाँच में ‘प्रगति इंडस्ट्रीज’ के सारे काले कारनामे सामने आ गए। पता चला कि कंपनी ने पर्यावरण की मंजूरी के लिए जाली दस्तावेज़ बनाए थे और अधिकारियों को रिश्वत दी थी। अदालत ने तुरंत सूरजपुर में फैक्ट्री के निर्माण पर रोक लगा दी और कंपनी पर भारी जुर्माना लगाया। विक्रम सिंह और उसके कई साथियों को धोखाधड़ी और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।
जिस दिन यह खबर गाँव पहुँची, उस दिन सूरजपुर में दिवाली जैसा माहौल था। गाँव वाले ढोल-नगाड़ों के साथ शंकर की झोपड़ी पर पहुँचे और उन्हें कंधों पर उठा लिया। जिन लोगों ने कल तक शंकर का मज़ाक उड़ाया था, आज वे शर्मिंदगी से अपनी आँखें झुकाए खड़े थे। शंकर के बेटों ने भी फोन करके अपने पिता से माफ़ी माँगी और कहा कि उन्हें उन पर गर्व है।
बरगद के पेड़ के नीचे फिर से एक पंचायत जुड़ी। इस बार गाँव वालों ने तय किया कि उन्हें बाहरी विकास नहीं, बल्कि अपना विकास खुद करना है। उन्होंने शंकर के मार्गदर्शन में जैविक खेती करने का फैसला किया। गाँव के नौजवानों ने शहर जाने के बजाय गाँव में ही छोटे-छोटे उद्योग लगाने की योजना बनाई, जो पर्यावरण के अनुकूल हों।
प्रिया ने अपने अखबार में इस पूरी कहानी को छापा, जिसका शीर्षक था – “एक किसान की ज़िद ने बचाया एक गाँव”। उसकी इस रिपोर्ट को बहुत सराहना मिली और उसे पत्रकारिता का एक बड़ा पुरस्कार भी मिला।
कुछ साल बाद, सूरजपुर की तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी थी। गाँव अब पहले से ज़्यादा हरा-भरा और समृद्ध था। यहाँ के जैविक उत्पादों की माँग दूर-दूर तक थी। नदी का पानी शीशे की तरह साफ़ था और हवा में ताज़गी थी। गाँव का स्कूल अब बेहतर हो गया था और एक छोटा सा स्वास्थ्य केंद्र भी खुल गया था। यह वह विकास था, जो बाहर से थोपा नहीं गया था, बल्कि गाँव की अपनी जड़ों से उपजा था।
शंकर अब और भी बूढ़े हो गए थे, लेकिन उनकी आँखों में एक गहरी संतुष्टि की चमक थी। वह अक्सर बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर नई पीढ़ी के बच्चों को अपनी ज़मीन और अपनी प्रकृति का सम्मान करने की कहानियाँ सुनाते। वह कहते, “विकास का मतलब ऊँची इमारतें और बड़ी-बड़ी मशीनें नहीं होता। असली विकास तब है, जब इंसान और प्रकृति दोनों एक साथ मुस्कुराएँ।”
और सूरजपुर गाँव, उस एक बूढ़े किसान की हिम्मत और दूरदर्शिता के कारण, इसी सच्ची मुस्कान के साथ जी रहा था, यह साबित करते हुए कि जड़ें अगर मज़बूत हों, तो कोई भी तूफ़ान उन्हें उखाड़ नहीं सकता।
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