भिखारी बच्चा 1cr का चेक लेकर बैंक पहुंचा…फिर जो हुआ उसने हिला कर रख दिया 😲
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रात के गहरे अँधेरे में हड़ताल की सीटी की तरह अचानक सायरन की आवाज गूँज उठी थी। गाँव के छोटे से मैदान में लगी टूटी-फूटी पक्की बत्ती झट से बुझ गई। मंथन कर रहे किसान लौटकर अपने घरों की ओर भाग निकले। सबसे तेज कदम उस बुज़ुर्ग के थे जो दोनों हाथों में थका-सा बैग उठाए खड़ा था। उसका नाम था रिघुवीर। चार दिन पहले जब वह शहर से लौटा था, तब गाँव के लोग उसे चोर समझकर बहुगुणा पुकारा करते थे—क्योंकि उसने बैंक से उधार ली हुई कुछ लाख रुपये वापस लौटा दिए थे। आज उसे गाँव के स्कूल के पीछे अचानक लगी आग ने खिंचा खिंचा कर बुलाया।
पेड़ों की फूँक से लपटें आसमान को छूने लगीं। पुरानी छत ढहने लगी थी, ज़मीन पर बिखरे थे किताबों के खोले पन्ने, बच्चे के सिले हुए बैग से बिछड़े नोटबुक। दौड़कर पहुँचते आग बुझाने वालों ने लाठी के दम पर लपटें चमकाईं तो बच्चे चिल्लाते हुए बच निकले। लेकिन स्कूल के मुख्य दरवाजे के पास मेड्रसाह की मटमैली बनियान में एक लड़का गिड़गिड़ा रहा था—रामू, जिसकी माँ बीमार थी और जो कभी स्कूल नहीं जाता था। रिघुवीर ने रामू को बचाया और उसे गले से लगा लिया। वो लड़का आग की चपेट में आकर बुरी तरह जल चुका था; पर रिघुवीर ने अपने कुर्ते से फौरन पट्टी बांधकर नहलाते हुए कहा, “तू डर मत, बेटा। मेरी ओर देख, सब ठीक हो जाएगा।”
अगले दिन सुबह से ही गाँव में अफरातफ़री मची थी। स्कूल की छत तो किरकिरी रह गई, दीवारों की लिपस्टिक उड़ गई, बेंचों की लोहे की रेल टूटकर बिखर पड़ी। लेकिन बच्चों ने फिर भी स्कूल जाने का निश्चय किया था। वे सब सड़क किनारे इकठ्ठा हुए, एक दूसरे को सहारा देते, “नया स्कूल बनेगा, चिंता मत करो।” पाँचवीं के करणू ने आँखें नम कर दीं और बोला, “लेकिन कहाँ? हमारे पास तो पैसे नहीं।” सबका दिल रोया। तभी गाँव के पटवारी, जो रिघुवीर का पुराना मित्र था, दौड़ता हुआ आया—उसके हाथ में कागज़ों की गठरी। “अब बनाओ, नया स्कूल!”, उसने कहा। सब हैरान रह गए। “ये देखो, नरेंद्र साहब ने बैंक से लॉन के हिस्से पर जो 50 हज़ार रुपये का लोन लिया था, वो लौटा दिए हैं। उन्होंने बोला—बच्चों का भविष्य खरीदना बैंक से पैसे मांगकर नहीं, अपनी दौलत से हो सकता है।”
लोग चौक गए। नरेंद्र साहब वही ठेकेदार थे जिन्होंने कभी गाँव की पंचायत को ठान के रखा था। रिघुवीर उठे और बोले, “इससे बेहतर तो ये है कि हम मिलकर स्कूल फिर से बना लें।” युवा किसान गोविंद ने हाथ उठाया, “मैं ईंटें बनवाऊंगा।” चालीस जमा हुआ मजदूर बंधु बोले, “हम नींव खोदेंगे।” और इतने ज़ोर से तालियाँ बजीं कि आसमान दहल गया।
दो दिन में गाँव में उत्साह भर गया था। सब कोई शाम ढलते ही स्कूल के मैदान पर इकट्ठा होकर काम में जुट गया। मज़दूर थक जाते, तो गाँव की पारम्परिक बांसुरी बजाने वाले पप्पू मास्टर क्लासरूम में बैठे बच्चों को गाना सुना देते। महिलाएँ खींचती रेत और गारे का बोरा, पुरुष बढ़ई, मोची और किसान मजदूर ईंटों के बीच भट्ठी जला रहे थे। रिघुवीर खुद दिन भर लौहे की गाड़ियां चलाता, शाम होते ही मिट्टी की तहें पर चढ़कर छत की रफ़्तार देखता। वह वृद्ध लग सकता था, पर आँखों में बालक-सी चमक थी।
 
पांचवें दिन नए कच्चे पक्के चबूतरे पर चमकीली सीमेंट की पहली परत सनी। बच्चों ने रंग-गुलाल की फुहार की, बूढ़े-कम-बूढ़े सब ने मिलकर नारे लगाए—“शिक्षा हमारी ताकत!”, “ना रोको ना टोकों, पढ़ने दो बच्चों!” गाँव की चौपाल के निकलते दृश्य रिकॉर्ड करने आई एक टीवी टीम ने कैमरे घुमा कर पूछा, “आप सब इतना उत्साह क्यों?” गोविंद ने मुस्कुराकर कहा, “क्योंकि एक आंधी आई थी—भीषण आग की, जिसने हमें डराया था। पर उससे बड़ी आग हमें तब लगी जब बच्चों के सपनों पर धूल पड़ रही थी।”
बचपन से सरकार के सहारे रहे गाँव वाले इसे असंभव समझ रहे थे, लेकिन जब गाँव के सरपंच ने कहा, “हमारे यहाँ जितनी मज़दूरी में काम मिलता है, उससे स्कूल के लोहे के पोल के अलावा और क्या? पर जो काम हम अपना दो हाथ आगे बढ़ाकर कर सकते हैं, उस पर शर्म नहीं आनी चाहिए”, तो सब पुरानी सोंच से उबर आए।
दो सप्ताह बीते, तब तक सीमेंट की मजबूत नींव तैयार हो गई थी, दीवारें ऊपर बढ़ रही थीं, छज्जे पर रंग पड़ा, झरने लगे। बच्चों ने नई मेज़-दीवारें टाँगने में मदद की, लड़कियाँ इठलाती रंग का ग्लास पैनल चिपकाने लगीं। सब काम एक उत्सव बन गया था। साँझ होते ही स्कूल की ओर जाते तो पहले ताली बजाते, फिर गोविंद के कंधे पर चढ़कर वो पहला पत्थर रखते, जैसे शिलान्यास हो रहा हो।
रिघुवीर ने एक शाम कहा, “कल सुबह खामोशी से आएगा सरकुलर—इस स्कूल को जिला काउंसिल मंजूर कर चुकी है। अब मास्टर कह सकेंगे कि सरकारी शिक्षक आकर पढ़ाएँ। तुम खुद स्कूल बंद कराकर कोटा नं. 102 की दरख्वास्त दे दो, मैं ख़त लिखता हूँ।” सबने तालियाँ बजाईं और रात भर सोचे कि सरकारी स्कूल खुलने पर उनकी फीस नहीं आएगी, पर पेटू बच्चों को मिड-डे-मील जरूर मिलेगा।
अगले ही दिन गाँव के स्कूल के ईंटों से उखड़ी धूल पर नया सर्कुलर टंगा मिला। ज़बर्दस्त खुशी में गांव वालों ने तिहाई गीत गाया और चर्च की घंटी की तरह घंटी बजाकर जश्न मनाया। मास्टर आ गया, पढ़ाई शुरू हुई। छोटे-छोटे चेहरों में उम्मीद चमक रही थी।
पर कहानी का अहम मोड़ तब आया जब सरकारी शिक्षा विभाग के निरीक्षक प्रेमचंद सिंह बने स्कूल का पहला निरीक्षण करने आए। उन्हें नयी छत, नयी दीवार, नए फर्नीचर देखकर आश्चर्य हुआ। लेकिन एक बात ने उनकी भौंहें चढ़ा दीं—दसवीं कक्षा के बच्चों को पढ़ाने के बजाय गाँव वाले सभी एक साथ हाथ मिलाकर रंगोली बना रहे थे। प्रेमचंद बोले, “ऐसा क्या महोत्सव है?” तब प्रधानाध्यापक बीना देवी ने कहा, “सर, हम चाहते हैं कि ये स्कूल हमारी धरोहर बने। पढ़ाई-अध्ययन आसान दिल से मिलेगी जब बचपन की रचनात्मकता खिली होगी।” प्रेमचंद ने ठण्डा लहजा अपनाया, “ठीक है, लेकिन पढ़ाई नहीं होगी तो आने वाले समय में बोर्ड परीक्षा देंगे कैसे?” बीना देवी ने आँखें सजल कर मुस्कुराहट की, “सर, यही रंगोली है—मूल अक्षर सीखना, रेखाकला सीखना, सब ऐंठन गायब करती है।” प्रेमचंद ने फाइल में दूसरी तारीख नोट की।
दस दिन बाद फिर निरीक्षण पर आए तब स्कूल का पहला मिड-डे मील भी चल रहा था। मिट्टी के तवे पर बने चपाटे, चावल-डाल, खिचड़ी, गुड़। बच्चों को सहवास और संस्कृति दोनों सीखने को मिले। प्रेमचंद ने अपनी तिकड़म से दबंगाई में पूछा, “ये खाना किसने पकाया?” सब बच्चे खड़े हो गए, “मैम और गांव की महिलाएँ।” प्रेमचंद की गर्दन में झुरा-सा दिखा, वह ठिठका। शाम को बैठे तो बीना देवी ने कहा, “सर, मैंने ख़ुद सीखा है कि पढ़ाई-बिना भूख शांत नहीं होती।” प्रेमचंद अवाक् था। किसी ने तो उसे बताया होगा कि सरकारी स्कूल में बच्चों को फ्री में खाना मिलना जरूरी है—पर किसानों की भठ्ठी से गाँठ-बंधन सीखना? यह नया था।
अचानक प्रशासन ने सबकी सोच हिला दी—वह स्कूल जहाँ कभी बच्चों के सपनों पर धूल जमा होने के डर से आग लगी थी, अब उस आग से भी शक्तिशाली बन गया। चार महीने बाद इस गाँव के स्कूल में जिला स्तरीय सांस्कृतिक प्रतियोगिता आयोजित हुई। गाँवों के झुण्ड-झुण्ड बच्चे नाच गाकर आ चुके थे, पर इस स्कूल का म्यूजिकल ड्रामा सबका दिल चुरा गया। विषय था ‘अज्ञान से आत्म-निर्भरता तक’। मंच पर दिखाया गया कि कैसे इस गाँव के लोगों ने सरकारी सहारे की उम्मीद छोड़कर खुद अपने हाथों से इमारत बनाई, सरकारी मित्र मिला, शिक्षा से बच्चों का परिवर्तन हुआ, और शासन ने मदद दी। गांववासियों ने खुद गाया—“जहाँ उजाला बचपन का छिपा रहता, वहीं खड़ा था हमारा निराशा का कहर। पर जब हमने मिलकर हाथ से ईंट रखी, तब खुद ब खुद टूट गया अँधेरे का पहरा।”
शाम के अँधेरे में जब घोषणा हुई कि इस सांस्कृतिक कार्यक्रम में प्रथम पुरस्कार इस गाँव के स्कूल का है, तो प्रेमचंद ने देखा कि वही गाँव वाले जिन्हें वह कभी मामूली समझता था, तालियों से तालियां बजा रहे हैं; और वही किसान जीत के लिए नाच रहे हैं, जिनके हाथों में पहले फावड़ा था। उस दिन उन्होंने मान लिया कि विकास सिर्फ योजनाओं की किताबों तक सीमित नहीं होता, बल्कि मन की समझ से होता है।
रिघुवीर अपनी छाती पर हाथ रखकर बोला, “देखा, मेहनत और ईमानदारी का फल मिलता है।” उस शाम गांव के चौपाल पर दीपावली सी रौनक थी—रौशनी की लौएँ, मिठाइयाँ, गीत। पुराने समय की बात चल पड़ी कि कैसे चार महीने पहले आग ने सबको डराया था, और कैसे उसी आग ने उन्हें एक जुट किया। सीपों से पका मकान, खिड़कियों पर तखा हुआ ताम्बे का हत्था, नयी स्कूल की छत से उड़ते पक्षी सब कुछ नए भाव से जगमगा रहे थे।
अगले वर्ष जब चुनाव की विभीषिका हुई, तब इस गाँव का नाम आदर्श मॉडल के तौर पर विधानसभा में आया। नेता बोले, “यदि गाँव वाले मिलकर स्कूल बना सकते हैं, तो बाकी विकास कार्य क्यों नहीं कर सकते?” गाँव ने जवाब दिया—“पहला विकास तो स्वाभिमान का हुआ है।” इस कहानी ने आसपास के पच्चीस गाँव को भी प्रेरित किया। स्कूल, चेक डैम, कन्वेयर, गाँव भवन—सब मिल-जुलकर बनवाए गए।
वह पुरानी आग ख़त्म हो चुकी थी, पर स्कूल की चौखट पर अब एक पट्टिका लगी थी—‘आत्मशक्ति विद्यालय’। उस पर लिखी थी, “जहाँ खुद की आग बुझाने के लिए हाथों ने चिंगारी जगाई, वहाँ ईंटों से मजबूत इमारत ही नहीं, आत्म-निर्भरता का आधार भी पक्का हुआ।” हर दिन सुबह स्कूल के बच्चे झंडावंदन करने आते, उनके हाथ में तिरंगा होता, आँखों में विश्वास होता। गाँव में कोई भी भूखा नहीं सोता, क्योंकि मिड-डे मील के बाद शाम को मुफ्त कक्षाएँ भी चलती थीं, जहाँ बड़े किसानों ने स्वयं पढ़ाया।
वर्षों बाद रिघुवीर जब छठी कक्षा का पेपर लेने पहले पंक्तियाँ पढ़ रहा था, तो उसने खुद एक पैराग्राफ देखा—‘स्वयं सहायता से शिक्षा की वृद्धि’। उसी पैराग्राफ को उलट-पुलट कर उसने लिख दिया—‘जब इंसान की चाहत पक्की हो, तो सामर्थ्य खुद निर्माण कर लेता है।’ उसकी इस पंक्ति को बोर्ड ने भी पुरस्कृत किया।
वह गाँव जहाँ कभी टूटी-फूटी स्कूल में आग लगी थी, अब शिक्षा के मेले से गुलज़ार था। नदी के किनारे बच्चों ने रंगोली बनाई थी—एक तरफ आग का चित्र, दूसरी तरफ स्कूल की इमारत। बीच में लिखा था—“आग ने हमें डराया, पर डर ने हमें रोका नहीं; हमने मिलकर नया स्कूल बनाया।”
इस कहानी में गाँव के हर चेहरे पर जो चमक थी, वह बताती थी कि विकास योजनाएँ, अनुदान और अनुद्योग मुफ्त नहीं, बल्कि स्थानीय स्वाभिमान का उपहार हैं। जब लोग मिलकर संकट का सामना करते हैं, तब स्वयं की ऑंखों में विश्वास जागता है। तभी अँधेरे की लपटों ने उन्हें सही राह दिखलाई थी—स्वयंस्फूर्ति से बन जाने वाले भविष्य की।
और इस तरह, एक छोटी सी चिंगारी ने संपूर्ण गाँव की सोच में क्रांति ला दी, बन गई आत्मशक्ति विद्यालय, जहाँ हर बच्चा खुद को शिक्षित, सशक्त और आत्मनिर्भर समझता था। उस रात जब लोग घर लौटे, तो न दिल में डर था न हाथ में उम्मीद की तिलिस्म, बल्कि आत्मबल था, जो कभी नहीं बुझता।
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