दोपहर का उजाला: छत्तीसगढ़ के गाँव सरगीपाल की शिक्षिका संध्या वर्मा की कहानी

I. गाँव की दोपहर

दोपहर का समय था। सरगीपाल गाँव की गलियों में हल्की-हल्की हवा बह रही थी। स्कूल की घंटी बज चुकी थी और बच्चे मैदान में शोरगुल करते हुए खेल रहे थे। उसी स्कूल की कक्षा के दरवाजे पर खड़ी थीं संध्या वर्मा—29 वर्षीया शिक्षिका, जिनकी मुस्कान में अपनापन था और आँखों में संघर्ष की चमक।

संध्या ने दो साल पहले पति को एक दुर्घटना में खो दिया था। अब वह अपनी वृद्ध माँ और पाँच साल के बेटे राजू का एकमात्र सहारा थी। जीवन कठिन था, पर संध्या की हिम्मत और लगन ने उसे कभी झुकने नहीं दिया।

स्कूल में कुछ ही समय पहले एक नया चपरासी आया था—लोकेश। लगभग 23 वर्ष का, भोला-भाला, मेहनती और व्यवहार में बेहद सरल। गाँव में उसका कोई नहीं था; वह यहीं रहकर काम करता और पढ़ाई भी करना चाहता था। संध्या उसकी ईमानदारी और मेहनत से प्रभावित थी।

II. पहला मोड़: भरोसे की डोर

एक दिन स्कूल की छत पर पानी की टंकी से रिसाव शुरू हो गया। प्रधानाध्यापक गाँव से बाहर थे। संध्या ने चिंता जताई, “लोकेश, ऊपर टंकी से पानी बह रहा है। देखो, कहीं बच्चे फिसल न जाएँ।”

लोकेश तुरंत सीढ़ियाँ चढ़ गया। रिसाव ठीक करते हुए उसके हाथ कट गए। नीचे आकर बोला, “मैडम, ठीक कर दिया। बस थोड़ा हाथ कट गया है, चिंता मत कीजिए।”

संध्या फौरन फर्स्ट एड बॉक्स लेकर आई और उसके हाथों पर पट्टी बाँधी। उसकी आवाज़ में डाँट कम, ममता ज्यादा थी—“तुम्हें खुद का खयाल रखना चाहिए।”

लोकेश मुस्कुराया, “आप हैं न, इसलिए डर नहीं लगता।”

उस पल संध्या की आंखों में एक नई भावनाओं की चिंगारी थी—न आकर्षण, न दया, बल्कि परिवार जैसा अपनापन।

III. गाँव की हलचल: अहंकार बनाम ईमानदारी

कुछ दिनों बाद स्कूल में हलचल मच गई। प्रधानाध्यापक के रिश्तेदार प्रभात साहू, जो पंचायत में छोटे पद पर थे, स्कूल में बेवजह दखल देने लगे। उनका व्यवहार रूखा और दबंग था।

एक दिन उन्होंने लोकेश को डाँटते हुए कहा, “ए चपरासी! स्कूल देर से क्यों खोलता है? चाय ला!”
लोकेश ने नम्रता से कहा, “साहब, मैं रोज़ छह बजे ही आता हूँ… आज सिर्फ पाँच मिनट––”
“बहुत चतुर बनता है? चल, जा, चाय ला!”

संध्या यह सब देख रही थी। उसे गुस्सा आया, पर तुरंत कुछ नहीं बोली। अगले दिन वही बात दोहराई गई। इस बार वह आगे बढ़ी, “साहू जी, स्कूल चाय की दुकान नहीं है। यह शिक्षा का स्थान है। कृपया स्टाफ से ऐसा व्यवहार मत कीजिए।”

प्रभात ने तिरस्कार से कहा, “बहुत बोलने लगी हो। याद रखना, यह गाँव मेरा है।”
संध्या ने दृढ़ता से जवाब दिया, “गाँव सबका है, किसी एक का नहीं।”

यह घटना गाँव में फैल गई।

IV. साज़िश और अफवाहें

प्रभात को संध्या की हिम्मत रास नहीं आई। उसने लोकेश को धमकाया, “अगर तूने मैडम की तरफदारी बंद नहीं की, तो स्कूल से निकलवा दूँगा।”

लोकेश ने डरते हुए भी कहा, “साहब, मैं सिर्फ काम करता हूँ… किसी की तरफदारी नहीं।”

प्रभात ने मन ही मन ठान लिया—संध्या और लोकेश को बदनाम करना ही उसके अहंकार की संतुष्टि है।

अफवाहें फैलने लगीं—“अरे, सुना क्या? संध्या मैडम और लोकेश स्कूल में देर तक रुकते हैं…”
“ज़रूर कोई चक्कर है!”
गाँव में कानाफूसी की आग तेज़ी से फैल गई। संध्या अनजान थी, लेकिन लोकेश परेशान रहने लगा।

V. चरित्र पर हमला

एक दिन पंचायत ने स्कूल के बाहर मीटिंग बुलाई। भीड़ जमा थी। प्रभात ने आरोप लगाया, “गाँव वालों, इस स्कूल में गलत हरकतें हो रही हैं! लोकेश और संध्या मैडम स्कूल के कमरों में घंटों बंद रहते हैं!”

भीड़ में शोर उठ गया।

संध्या ने सख्ती से कहा, “आप झूठ बोल रहे हैं! कोई सबूत है आपके पास?”

प्रभात हँसा, “सबूत नहीं तो क्या? पूरा गाँव बोल रहा है!”

संध्या की आँखों में आँसू थे, पर वह टूटी नहीं। “मैं 8 साल से बच्चों को पढ़ा रही हूँ। बच्चों की माँ जैसी हूँ। ये बातें मेरे चरित्र पर हमला हैं!”

लोकेश बोला, “मैडम मेरे लिए माँ जैसी हैं। मैं सिर झुकाकर काम करता हूँ।”

कुछ बुज़ुर्गों और महिलाओं ने संध्या की ईमानदारी की गवाही दी।

एक दादी बोली, “संध्या बिटिया ऐसी नहीं है। यह सब ईर्ष्या है।”

VI. सच्चाई की लड़ाई

संध्या ने हार नहीं मानी। वह धमतरी के शिक्षा अधिकारी के पास गई, पूरी घटना बताई।

अधिकारी ने कहा, “हम जाँच करवाएँगे। अगर अफवाह फैलाई गई है, तो दंड होगा।”

दो दिन बाद टीम गाँव पहुँची। प्रभात, ग्रामीणों, स्टाफ से पूछताछ हुई। बच्चों और शिक्षकों ने कहा, “मैडम अनुशासित हैं, हमने कभी ऐसा कुछ नहीं देखा।”

सच्चाई सामने आई—अफवाहें प्रभात ने ही फैलाई थीं।

VII. न्याय का दिन

शिक्षा अधिकारी ने स्कूल के मैदान में सबको बुलाया।

“संध्या वर्मा और लोकेश पर लगाए गए आरोप झूठे हैं,” अधिकारी ने घोषणा की।

भीड़ में हलचल मच गई।

“प्रभात साहू ने निजी दुश्मनी के चलते अफवाह फैलाई। उन पर कानूनी कार्रवाई होगी।”

प्रभात का चेहरा उतर गया। गाँव के बुज़ुर्गों ने उसे पकड़ लिया।

VIII. सम्मान की वापसी और नया आरंभ

संध्या की आँखों में राहत के आँसू थे। लोकेश ने कहा, “मैडम, डरिए मत। सच कभी हारता नहीं।”

गाँव की महिलाओं ने संध्या को गले लगाया, “हम सब आपके साथ हैं।”

बच्चों ने तख्तियों पर लिखा—“हमारी मैडम सबसे अच्छी हैं।”
पूरा स्कूल तालियों से गूंज उठा।

एक महीने बाद स्कूल में CCTV लग गए, माहौल बदल गया। प्रधानाध्यापक ने लोकेश को स्थायी नौकरी दिलवाई। संध्या और मजबूत बन गई। उसने गाँव की महिलाओं और युवाओं के लिए अभियान शुरू किया—“सच को बोलने दो।”

बैठकें, नाटक, जागरूकता कार्यक्रम हुए। गाँव की सोच बदलने लगी।

IX. अंतिम दृश्य

एक शाम संध्या स्कूल के बरामदे में बैठी थी। आसमान नारंगी था। लोकेश बच्चों को खेल सिखा रहा था। हवा में हँसी और खुशी घुली थी।

संध्या ने मन ही मन कहा, “दर्द से गुज़रकर जो इंसान बचता है, वह सिर्फ मजबूत नहीं होता… बल्कि रोशनी का रास्ता बन जाता है।”

गाँव के चौपाल पर नए पोस्टर लगे थे—

“अफवाहें रिश्ते नहीं, समाज तोड़ती हैं।
सच को बोलने दें।”

सरगीपाल गाँव में एक नई शुरुआत हुई— जहाँ शिक्षा, ईमानदारी और साहस ने अंधेरे को मात दी।

समाप्त।