मां ने बहू को बेटी माना… पर उसी बहू ने बेटे के दिल में बूढ़ी मां के लिए ज़हर भर दिया, फिर…
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मां ने बहू को बेटी माना, पर बहू ने बेटे के दिल में जहर भर दिया
शकुंतला देवी का जीवन अपने बेटे विवेक के विवाह के बाद पूरी तरह बदल गया था। जब विवेक ने किरण से शादी की, तो शकुंतला देवी ने अपने जीवन का सबसे बड़ा सपना पूरा होता देखा। वह सोचती थीं कि अब घर में एक बहू आएगी, जो बेटी जैसी होगी, जो मिलकर हंसी-खुशी घर बसाएगी। शादी के पहले कुछ महीने सचमुच सपनों जैसे गुजरे। किरण हसमुख, कॉलेज पढ़ी-लिखी और हर बात में इतनी मिठास कि पूरा घर महक उठता।
शकुंतला देवी हर सुबह उसके लिए चाय बनातीं, और किरण बड़े प्यार से कहती, “मां जी, आप क्यों तकलीफ करती हैं? मैं बना देती हूं।” विवेक को भी लगता था कि उसकी शादी सच में स्वर्ग जैसी है। मगर धीरे-धीरे इस स्वर्ग की चमक फीकी पड़ने लगी।
एक दिन छोटी-सी बात पर शकुंतला देवी ने किरण को कहा, “बेटी, दाल में थोड़ा नमक कम लग रहा है, देख लेना।” किरण ने भें चढ़ा ली, बोली, “मां जी, अब आप मुझे सिखाएंगी कि खाना कैसे बनाते हैं? मेरे घर में भी लोग खाते थे।” शकुंतला देवी चुप रह गईं, पर उस ताने ने उनके दिल में कहीं गहरा ठेस पहुंचाई।
धीरे-धीरे किरण का व्यवहार बदलने लगा। वह ज्यादातर मोबाइल में लगी रहती। सास की बात सुनकर मुस्कुराती, मगर जवाब नहीं देती। घर का काम कम करने लगी। जब शकुंतला देवी कुछ कहतीं, तो कहती, “मां जी, अब पुराना जमाना नहीं रहा, सब कुछ अपने तरीके से करने दीजिए।” विवेक भी धीरे-धीरे अपनी पत्नी का पक्ष लेने लगा। जब भी मां कुछ शिकायत करती, वह कहता, “मां, अब आप भी थोड़ा बदल जाइए, जमाना बदल गया है।”
शकुंतला देवी की आंखों में उस वक्त गुस्सा नहीं, बल्कि दर्द था। वह कहतीं, “बेटा, मैं तो बस इतना चाहती हूं कि घर में प्यार बना रहे।” दिन बीतते गए, और किरण ने धीरे-धीरे घर का सारा नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया—पैसों का हिसाब, बाजार का काम, हर चीज़ वह अपने अनुसार करने लगी। एक दिन उसने कहा, “मां जी, अब आप आराम कीजिए, सारा खर्च मैं संभालूंगी।” शकुंतला देवी ने कुछ नहीं कहा, लेकिन अंदर से ऐसा लगा जैसे किसी ने उनका मां होने का हक छीन लिया हो।
किरण अब सिर्फ घर नहीं संभाल रही थी, वह माहौल भी अपने काबू में कर रही थी। जब भी शकुंतला देवी कुछ बोलतीं, वह कहती, “मां जी, आप समझती क्यों नहीं, अब हम नया दौर जी रहे हैं। आपकी बातें पुरानी हो चुकी हैं।” विवेक बीच में पड़ता और हमेशा पत्नी का पक्ष लेता।
शकुंतला देवी अब पूजा में शांति ढूंढती थीं। वह भगवान से कहतीं, “हे प्रभु, घर में सुकून बना दो, मेरी बहू का मन बदल दो।” पर शायद भगवान भी उस दिन सुन नहीं रहे थे।
एक शाम जब विवेक दुकान से लौटा, किरण ने बातों का जहर धीरे-धीरे फैलाना शुरू किया। उसने कहा, “आपकी मां को अब किसी चीज़ की कदर नहीं रही। आज मैंने नया पर्दा खरीदा तो कहने लगी, पैसे उड़ाने लगी हो।” विवेक बोला, “मां ने ऐसा कहा?” किरण ने आंखें झुका लीं, बनावटी उदासी से बोली, “मैं अब कुछ नहीं बोलूंगी।” विवेक के मन में शकुंतला देवी के लिए पहली बार एक कड़वाहट उतर गई।
शाम को जब मां पूजा कर रही थी, उसने जाकर कहा, “मां, अब हर बात में टोकाटाकी मत किया करो।” शकुंतला देवी चौंक गईं, “बेटा, मैंने क्या किया?” विवेक बस इतना बोला, “किरण दुखी रहती है, आप समझ क्यों नहीं पाती?” और कमरे से चला गया।
उस रात शकुंतला देवी बहुत देर तक आंगन में बैठी रहीं। चांदनी हल्की थी, लेकिन उनका दिल अंधेरे में डूबा हुआ था। वह सोचती रहीं, “क्या यही है वह बेटी जिसे मैंने मां की तरह गले लगाया था?” वह अपने कमरे में जाकर तकिए में चेहरा छिपाकर रो पड़ीं, आवाज दबाकर ताकि कोई सुन न ले।
अगले दिन उन्होंने सोचा कि बहू से प्यार से बात करेंगी। सुबह किरण डाइनिंग हॉल में बैठी थी, चाय की प्याली के साथ मोबाइल चला रही थी। शकुंतला देवी ने कहा, “बेटी, जरा मंदिर के लिए फूल ले आना।” किरण ने बिना देखे जवाब दिया, “मां जी, आप खुद ले लीजिए, मैं ऑफिस की रिपोर्ट बना रही हूं।” शकुंतला देवी का चेहरा उतर गया।
इतने में विवेक अंदर आया और किरण ने तुरंत कहा, “देखिए, आपकी मां को मेरी कोई परवाह नहीं है, मुझे बस नौकरानी समझती है।” विवेक कुछ कहने ही वाला था कि मां ने रोक दिया, “बेटा, रहने दो,” और मुस्कुराने की कोशिश की, लेकिन वह मुस्कान आंखों तक नहीं पहुंची।
दिन पर दिन किरण का व्यवहार और जहरीला होता गया। कभी मां के लिए झूठे आरोप लगाती, कभी बातें तोड़-मरोड़कर विवेक को बताती। विवेक धीरे-धीरे उस जहर में घुलने लगा था। मां अब घर में पराई लगने लगी। वह पूजा में बैठती तो उनके आंसू चुपचाप भगवान की मूर्ति पर गिरते रहते।
एक दिन किरण ने डाइनिंग हॉल में सबके सामने कहा, “मां जी, आप हमेशा मुझे नीचा दिखाती हैं, क्या मैं इस घर में पराई हूं?” विवेक वहीं खड़ा था। शकुंतला देवी स्तब्ध थीं। उन्होंने कहा, “बेटी, मैंने तो हमेशा तुझे अपना समझा है।” किरण ने बीच में काटा, “अगर ऐसा होता तो हर वक्त मुझ पर शक नहीं करती।”
शकुंतला देवी की आंखें भर आईं। उन्होंने बेटे की तरफ देखा जैसे कुछ कहना चाहती हों, मगर विवेक खड़ा रहा, चुप। जैसे किसी और के इशारे पर। वह चुप थी। वही पल था जब मां का दिल सचमुच टूट गया।
उस रात उन्होंने भगवान से कहा, “अगर मेरी बहू सच में बेटी है, तो एक दिन उसे अपनी गलती का एहसास जरूर कराना।” और अपनी आंखें बंद कर लीं जैसे सारी उम्मीद भगवान पर छोड़ दी हो।
अगली सुबह घर में सन्नाटा था। डाइनिंग हॉल की बड़ी घड़ी टिक-टिक कर रही थी, लेकिन उस आवाज में अब घर की गर्मी नहीं थी। कभी इस घर में हंसी की गूंज थी, अब बस ठंडी खामोशी रह गई थी। किरण ने धीरे-धीरे अपने शब्दों से दीवारें खड़ी कर दी थीं। एक मां और बेटे के बीच जो कभी एक-दूसरे के बिना अधूरे थे, वो हमेशा अपनी बातों में मीठा जहर घोल देती थी।
विवेक कहता, “तुम्हारी मां अब मुझसे प्यार नहीं करती। कभी-कभी लगता है मैं इस घर में सिर्फ नाम की बहू हूं।” विवेक का दिल पिघल जाता, वह मां के पास जाता, लेकिन सवालों के साथ। मां किरण कहती, “आप उससे ठीक से बात नहीं करती।” शकुंतला देवी बस मुस्कुरा देतीं, “बेटा, मैं तो उसे अपनी बेटी समझती हूं।” विवेक की आंखें झुक जातीं, पर दिल में संदेह फिर भी रहता।
धीरे-धीरे मां का कोना तय हो गया। मंदिर का एक छोटा हिस्सा और बस वही उनका संसार बन गया। सुबह से शाम तक पूजा करतीं, लेकिन उनकी आंखें अब भगवान से नहीं, खुद से बातें करती थीं, “क्या मैंने किसी का बुरा चाहा था? क्यों मेरा अपना बेटा मुझसे दूर हो गया?”
एक दिन मोहल्ले की कावेरी आंटी मिलने आईं। उन्होंने देखा शकुंतला देवी के चेहरे पर थकान और गम की रेखाएं थीं। “बहन, क्या हुआ? तुम बहुत कमजोर लग रही हो।” शकुंतला देवी ने मुस्कुराते हुए कहा, “कुछ नहीं बहन, बस अब उम्र हो चली है।” कावेरी आंटी ने धीरे से कहा, “मैंने सब देखा है, तेरी बहू तेरे साथ अच्छा नहीं करती।” शकुंतला देवी ने हाथ जोड़ लिए, “बस बहन, भगवान से दुआ कर कि मेरे घर में सुकून लौट आए।” पर वो सुकून अब लौटने वाला नहीं था।
एक दिन शाम को किरण ने झूठ का एक नया जाल बुना। वह डाइनिंग हॉल में खड़ी थी और विवेक ऑफिस से लौटा। उसने बनावटी आंसू बहाए और कहा, “विवेक, तुम्हारी मां ने मुझे सबके सामने अपमानित किया।” विवेक ने हैरानी से पूछा, “क्या हुआ?” किरण ने रोते हुए कहा, “मैं बस कहा कि हमें खर्चे का हिसाब साथ में देख लेना चाहिए।” तो मां ने कहा कि मैं घर लूटने आई हूं। विवेक गुस्से से उबल पड़ा।
मां ने ऐसा कहा? किरण ने आंखें नीची कर लीं, “अब मैं क्या बताऊं? शायद मुझे यहां कभी अपनापन नहीं मिला।” विवेक उसी वक्त मां के पास गया, “मां, आपने किरण से ऐसा क्यों कहा?” शकुंतला देवी हैरान रह गईं, “मैंने कुछ नहीं कहा बेटा। वो खुद हिसाब मांगने लगी थी। तो मैंने कहा कि पैसे संभालना मेरा काम है।” विवेक की आवाज ऊंची हो गई, “आपको हर चीज़ पर हक चाहिए, कभी किसी को बराबर नहीं मानती।” शकुंतला देवी के होंठ कांप उठे, “बेटा, मैंने सिर्फ तेरे लिए यह घर संभाला है।” “नहीं मां,” विवेक ने ठंडी आवाज में कहा, “अब घर संभालने की जरूरत नहीं, अब किरण संभालेगी।” और उसने अपनी जेब से घर की चाबियां निकालकर किरण को थमा दीं।
शकुंतला देवी के हाथ से पानी का गिलास गिर पड़ा। वह बिना कुछ बोले कमरे में चली गईं। उस रात वह तकिए में मुंह छिपाकर रोती रही। दिल में एक ही बात घूमती रही, “जिस बेटे को गोद में उठाया था, आज वही मेरा विश्वास तोड़ गया।”
किरण अब इस जीत पर अंदर ही अंदर खुश थी। उसके चेहरे पर शांति थी, लेकिन वह शांति जहर से भरी थी। अब वह खुलकर शकुंतला देवी को नीचा दिखाने लगी। कभी रसोई में कहती, “मां जी, यह आपसे नहीं होगा, रहने दीजिए।” कभी मेहमानों के सामने ताना देती, “आजकल मां जी बस पूजा में रहती हैं, काम तो मुझे ही करना पड़ता है।” विवेक सब सुनता, पर कुछ नहीं कहता।
शकुंतला देवी के लिए अब घर की हर चीज़ दर्द का प्रतीक बन गई थी। वह कुर्सी, वह मंदिर, वह डाइनिंग टेबल जहां कभी बेटा उनके हाथ का खाना खाता था। एक दिन सुबह पूजा करते हुए गलती से दिया का तेल फर्श पर गिर गया। किरण दौड़ती आई और चिल्लाई, “मां जी, ध्यान नहीं रहता आपसे? क्या पूरे घर में आग लगा देंगी?” वह गुस्से में झाड़ू उठाकर फेंकने वाली थी कि विवेक ने आवाज सुनी और अंदर आया। किरण बोली, “देखिए, मैं तो दिन भर काम करती हूं और यह मुझ पर झूठे आरोप लगाती है।” विवेक ने बस इतना कहा, “मां, अब आप आराम कीजिए, काम करना छोड़ दीजिए।” शकुंतला देवी ने कुछ नहीं कहा, बस धीरे से बोलीं, “ठीक है बेटा, अब मैं कुछ नहीं करूंगी।”
उस रात सन्नाटा और गहरा हो गया। वह घर जो कभी मां के दुलार से महकता था, अब वहां सिर्फ अपमान की गंध रह गई थी। मां ने अपने तकिए के नीचे बेटे की बचपन की तस्वीर रखी, जहां वह मुस्कुराता हुआ उनके गोद में बैठा था। उन्होंने तस्वीर पर हाथ फेरते हुए कहा, “भगवान, अगर मेरे बेटे की आंखों पर पर्दा पड़ा है तो उसे सच दिखाना, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए।”
दिन अब पहले जैसे नहीं रहे थे। वह घर जो कभी रिश्तों की गर्मी से भरा था, अब हर दीवार से ठंडक टपकती थी। शकुंतला देवी अब बहुत कम बोलती थीं। मंदिर में बैठकर बस भगवान से बात करतीं, “हे प्रभु, मैंने किसी का बुरा नहीं किया, फिर मेरी परीक्षा इतनी लंबी क्यों?”
किरण अब और भी हावी हो चुकी थी। वह अपने तरीके से घर चलाती और किसी की परवाह नहीं करती। विवेक अब मां से दूरी बना चुका था। वह हर बात पर पत्नी की बातों पर भरोसा करने लगा था।
एक दिन सुबह किरण ने नया नाटक रचा। उसने अपनी बाह पर हल्का लाल निशान बना लिया और शाम को पूरे मोहल्ले के सामने चिल्लाने लगी, “देखिए सब लोग, सास ने मुझे तवे से जला दिया। मुझे इस घर में रोज अपमान झेलना पड़ता है। सास मुझे नौकरानी समझती है, खाना तक नहीं देती।”
लोग दौड़े चले आए और वह सबके सामने रोने लगी। लोगों की भीड़ डाइनिंग हॉल तक आ गई। शकुंतला देवी बाहर आईं, चेहरा पीला पर शांत, बोलीं, “बेटी, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया, तुम क्यों झूठ बोल रही हो?” किरण रोते हुए बोली, “अब आप सबके सामने भी झूठ बोलेंगी।” विवेक अंदर आया और एक पल के लिए वह भी सहम गया।
“किरण, यह क्या हो गया? आपकी मां ने मुझे मारा है। देखिए निशान!” किरण चिल्लाई। शकुंतला देवी की आंखों से आंसू निकल पड़े, “बेटा, तू मुझे क्या समझता है? मैंने किसी को चोट नहीं पहुंचाई।” लेकिन विवेक कुछ नहीं बोला। वह उलझन में था, बस किरण को पकड़ कर कमरे में ले गया।
मोहल्ले में बातें फैलने लगीं। लोग कहने लगे, “अब तो बात बिगड़ गई, बहू पर हाथ उठाना ठीक नहीं। शकुंतला देवी को समझाओ, नहीं तो इज्जत चली जाएगी।” उसी शाम मोहल्ले के बुजुर्गों ने पंचायत बुलाने का फैसला किया।
अगले दिन पूरे मोहल्ले के लोग उनके घर के बड़े डाइनिंग हॉल में जमा हुए। शकुंतला देवी कुर्सी पर बैठी थीं। पास में उनका छोटा बेटा सुमन खड़ा था, जो कुछ दिन पहले ही कॉलेज से लौटा था। सामने किरण और विवेक बैठे थे। माहौल में सन्नाटा था।
पंचायत के मुखिया हरिदास जी बोले, “देखो भाई, यह मामला अब घर का नहीं रहा। मोहल्ले की इज्जत का सवाल है। किरण बहू, तुम बताओ क्या हुआ?” किरण ने आंसू पोछे और झूठ का नाटक शुरू किया, “मैं तो हमेशा इस घर की बहू बनकर सबका सम्मान किया। लेकिन मां जी मुझे रोज ताने देती हैं, काम का अपमान करती हैं। कल तो उन्होंने गुस्से में तवे से मेरा हाथ जला दिया। मैं तो कुछ नहीं बोलती, मगर अब सहा नहीं जाता।”
उसकी आवाज कांप रही थी, लेकिन आंखों में नकली दर्द था। लोग सन्न रह गए। कुछ औरतें तो रुमाल निकालकर आंसू भी पोछने लगीं। विवेक ने भी सिर झुका लिया। तभी सुमन खड़ा हुआ, “यह सब झूठ है। मैंने सब देखा है। भाभी खुद तवा पकड़े हुई थी, मां तो पूजा में बैठी थीं।” किरण गुस्से में बोली, “तू चुप रह, तू हमेशा मां का पक्ष लेता है।” सुमन ने कहा, “क्योंकि मां सच बोलती हैं और तू झूठ।”
माहौल गर्म हो गया। लोग इधर-उधर फुसफुसाने लगे। तभी पड़ोस की बुजुर्ग सरोज काकी बोली, “मैं आंखों से देखा था, बहू ने खुद ही अपने हाथ पर तेल गिराया था और फिर शोर मचाया। बेचारी मां तो पूजा में थीं।”
अब पूरा हॉल शांत हो गया। लोग एक-दूसरे को देखने लगे। पंचायत के मुखिया बोले, “बहू, अब कुछ कहना है?” किरण का चेहरा उतर गया। उसके झूठ की दीवार अब हिल चुकी थी। वह हकलाकर बोली, “सब मेरे खिलाफ हैं।” पर अब किसी ने उसकी बात नहीं मानी। मुखिया बोले, “बहू, अगर तू सच में घर जोड़ना चाहती है तो सास से माफी मांग और आगे ऐसा कभी न हो।” किरण ने झुककर माफी मांगी, पर उसकी आंखों में शर्म नहीं थी, बस जलन थी। वह सोच रही थी, “आज तो पंचायत ने मुझे नीचा दिखाया, पर मैं ऐसा वार करूंगी कि सबको पछताना पड़ेगा।”
उस दिन के बाद कुछ दिनों तक घर में शांति रही। किरण बाहर से मीठी लगने लगी। सांस के सामने मुस्कुराकर बात करती, पति के सामने सेवा भाव दिखाती। पर उसके भीतर बदले की आग जल रही थी। वह बार-बार सोचती, “मुझे सबके सामने झुकाया गया है। अब इस घर की हकदार मैं नहीं तो कोई नहीं रहेगा।”
उस रात वह देर तक छत पर बैठी रही। हवा में हल्की ठंडक थी, लेकिन उसके दिल में नफरत की आग जल रही थी।
नीचे कमरे में शकुंतला देवी अपने भगवान के सामने दीपक जला रही थीं और धीरे-धीरे कह रही थीं, “हे प्रभु, अब बहुत सह लिया। अगर मैं गलत नहीं हूं तो सच एक दिन सबके सामने आना ही चाहिए।” वह नहीं जानती थीं कि अब सच आने वाला नहीं, बल्कि एक और तूफान उनके घर में दस्तक देने वाला है।
कुछ दिनों बाद एक शाम जब विवेक दुकान से लौटकर आया, तो किरण की आंखों में आंसू थे। वह बनावटी दर्द भरी आवाज में बोली, “विवेक, अब मुझसे नहीं सहा जाता। तुम्हारी मां और सुमन दोनों मुझे सताते हैं। आज तो सुमन ने मुझे धमकाया कि मुझे इस घर से निकाल देगा।” विवेक चौंक गया, “क्या? सुमन ने ऐसा कहा?” “हां,” किरण ने झूठे रोने की आवाज में कहा, “तुम्हारी मां तो उसकी हिमायत करती है। दोनों मुझे पागल बना देंगे।”
विवेक के चेहरे पर गुस्सा उभर आया। उस रात उसने सुमन से झगड़ा किया, “तू कब तक मेरी पत्नी का जीना हराम करेगा?” सुमन ने कहा, “भैया, आप गलत सोच रहे हैं। मैं सिर्फ मां का साथ दे रहा हूं, मुझे बहाने मत सुना।” विवेक चिल्लाया और कमरे से चला गया।
उस रात शकुंतला देवी के दिल में कुछ टूट गया। वह मंदिर के पास बैठकर बोलीं, “प्रभु, अगर सच्चाई मेरे साथ है तो खुद सामने आ जाना।”
कुछ दिन बाद किरण ने नई चाल चली। उसने अपनी बाहों पर खुद नाखून के निशान बना लिए और विवेक को दिखाया, “देखो, तुम्हारी मां और भाई ने मुझे मारा है।” विवेक ने देखा और दंग रह गया, “क्या सच में?” किरण ने कहा, “अब मैं पुलिस में शिकायत करूंगी।” विवेक घबरा गया, “नहीं किरण, प्लीज ऐसा मत करो।” वह पूरी तरह पत्नी के झूठ में फंस चुका था।
लेकिन उसी रात जब विवेक दुकान बंद कर रहा था, उसने गलती से किरण को फोन पर अपनी सहेली से बात करते सुना। वह कह रही थी, “मैं तो पूरा खेल पलट दिया। अब सास और देवर दोनों डर कर रहेंगे। मुझे झूठा कौन कहेगा?”
यह सुनकर विवेक के पैरों तले जमीन खिसक गई। उसका चेहरा पीला पड़ गया। वह चुपचाप कमरे में गया और पूरी रात करवटें बदलता रहा। “क्या मां सच में निर्दोष हैं? क्या मैं पूरे समय अंधा रहा?”
अगले दिन उसने दुकान से एक छोटा रिकॉर्डर खरीदा और घर के कोनों में छिपा दिया—डाइनिंग हॉल, रसोई और अपने कमरे में। वह कुछ नहीं बोला, बस हर बात को सुनने का इंतजार करने लगा।
तीन दिन बाद जब उसने रिकॉर्डिंग सुनी, तो उसकी रूह कांप गई। किरण की आवाज साफ थी, “बुढ़िया, अब तेरी चलने वाली नहीं है। मैं जो चाहूंगी वही होगा। सुमन को बोल देना, अगर उसने ज्यादा बोले तो पुलिस में फोन कर दूंगी। मां को घर से निकाल कर ही दम लूंगी।”
विवेक के हाथ कांप रहे थे। रिकॉर्डर नीचे गिर गया। उसकी आंखों से आंसू फूट पड़े। वह वहीं जमीन पर बैठ गया और बुदबुदाने लगा, “हे भगवान, मैंने कितनी बड़ी गलती की। मैंने अपनी मां को गलत समझा।”
सुबह होते ही वह मां के पास गया। उनके पैरों में गिर पड़ा, “मां, मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। मैंने उस औरत के झूठ पर भरोसा किया जिसने हमें तोड़ दिया।” शकुंतला देवी के आंसू बह निकले। उन्होंने बेटे के सिर पर हाथ रखा, “बेटा, सच्चाई देर से ही सही, लेकिन सामने आ गई।”
उस शाम मोहल्ले में फिर पंचायत बुलाई गई। विवेक ने सबके सामने कहा, “आज मैं सच सुनाना चाहता हूं।” फिर उसने रिकॉर्डर चलाया। किरण की आवाज पूरे हॉल में गूंज उठी, “बुढ़िया, तेरी अब चलने वाली नहीं है। पुलिस में झूठ बोलकर सबको फंसा दूंगी।”
पूरा हॉल सन्न हो गया। लोग एक-दूसरे को देखने लगे। कावेरी काकी ने सिर झटका, “देखा, मैंने कहा था ना सच्चाई छुपती नहीं।”
पंचायत के मुखिया ने कहा, “बहू, अब कुछ कहना है?” किरण के पास कोई जवाब नहीं था। उसकी आंखों से नकली आंसू गायब हो चुके थे। वह घुटनों के बल बैठ गई और बोली, “मां जी, मुझसे गलती हो गई।”
शकुंतला देवी की आंखों से भी आंसू बह निकले, पर उनमें अब दर्द नहीं, बल्कि शांति थी। उन्होंने कहा, “बेटी, मैंने तुझे माफ किया। बस आगे किसी की मां को रुलाना मत।”
विवेक ने सबके सामने कहा, “आज से इस घर में मां का आदर सबसे ऊपर होगा। जिसने उनकी ईज़्ज़त तोड़ी, वह मेरी पत्नी नहीं रह सकती।”
किरण सिर झुका कर रोने लगी, पर अब देर हो चुकी थी। उसकी चालाकी ने खुद उसका घर उजाड़ दिया था।
उस रात घर में बहुत समय बाद फिर से दीपक जला। मंदिर के सामने बैठी शकुंतला देवी ने मुस्कुराकर कहा, “प्रभु, तूने न्याय किया। अब इस घर में फिर से सुकून लौट आया।”
सुमन पास खड़ा बोला, “मां, देखा ना, अंत में सच की ही जीत हुई।” शकुंतला देवी ने बेटे का सिर सहलाते हुए कहा, “बेटा, कभी किसी के शब्दों से रिश्तों में जहर मत घोलने देना। और याद रखो, बहू अगर बेटी बन जाए तो घर स्वर्ग बनता है, पर बेटा अगर मां को भूल जाए तो वही घर नरक बन जाता है।”
दीपक की लौ झिलमिलाई, और वह घर जो कभी अंधेरे में डूबा था, अब फिर से रोशनी से भर गया। मां के आशीर्वाद और बेटे के पछतावे से चमकता हुआ।
दोस्तों, कभी अपनी मां को गलत मत समझो, क्योंकि उसके आंसू किसी शिकायत की तरह नहीं, बल्कि उस प्रार्थना की तरह होते हैं जो सीधे भगवान तक पहुंच जाती है। एक बहू अगर सच में बेटी का दिल लेकर घर में आए, तो वही घर मंदिर बन जाता है। लेकिन अगर बेटा अपनी मां की बातों पर शक करने लगे, तो वही घर धीरे-धीरे बिखर कर रिश्तों का मलबा बन जाता है।
अब बताइए, अगर कभी कोई तुम्हारी मां के खिलाफ जहर घोलने लगे, तो क्या तुम सच्चाई का साथ दोगे? या रिश्तों की खामोशी में खुद को खो दोगे? कमेंट में जरूर बताइए।
समाप्त
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