मासूम बच्चे ने सिर्फ खाना मांगा था, करोड़पति पति–पत्नी ने जो किया… पूरी इंसानियत रो पड़ी
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अगली सुबह जब धुंध छटे, तो आरव अपने बचपन के गाँव आरावती पहुंचा। चारों ओर हरियाली पसरी थी, खेतों में सरसों पीली पीली लहराती, और पुराने नीम के पेड़ की छाया में एक ग्रामीण पगडंडी हवा के झोंके से हिल रही थी। उसे नीम के उस पेड़ के नीचे ही अपना जीर्ण-शीर्ण मड़ुआ घर मिला, जहाँ बचपन की कई यादें थी—मिट्टी की दीवारें, तांबे की लोटियाँ, और फट चुकी खिड़की से झांकता आँगन।
आरव गाँव लौट आया तो महसूस हुआ कि समय ने यहाँ धीमी चाल से कदम बढ़ाए हैं, पर उसकी आत्मा में बदलाव का तूफ़ान उमड़ रहा था। दिल्ली में वर्ष भर बिताकर जब उसने शहर की तेज़ रफ्तार देखी थी, तो यहाँ की शान्ति अजीब लगी। उसकी नज़रें अनायास ही घर के पिछवाड़े बने एक छोटे सरोवर पर टिकीं, जहाँ बंजर जमीन पर कुछ पत्थर रखे थे। बचपन में वह वहीं कूदता-फांदता, तो पत्थरों की गूँज हवा में ताश के पत्तों जैसा गु़ज़र जाया करता।
जब आरव मड़ुआ घर के दरवाज़े पर पहुँचा, तो भीतर उसकी माँ, शारदा देवी, तुलसी की चौकी पर दीपक जला रही थी। उसकी आँसुओ भरी आँखें पलक झपकते भरि-भरि आईं और आवाज़ में कांपन थी—“बेटा तुम आ गए?” आरव ने बारीक मुस्कान दी, हाथ जोड़े, “हाँ मां, तुम्हारे बुलावे पर।” माँ ने फैलते दुःख को दबाकर उसे गले लगाया। आरव ने महसूस किया कि घर की दीवारों से चढ़ती महीन दरारों में दर्द पसर गया था—वह दर्द जो पिता की मृत्यु के बाद कभी कम नहीं हुआ।
दोपहर बीतते-बीतते, जब खिच-खिच करती पड़ाव की घोड़ी चली गई, आरव ने घर का पुरातन तहख़ाना खोलने का निश्चय किया। बचपन में वह अक्सर तहख़ाने में छुपकर मां को चिढ़ाया करता, पर आज उसका उद्देश्य था—अपने पिता के समय के दस्तावेज़, उनकी कविताएं और पुरानी डायरी ढूँढ़ना, ताकि वह अपने परिवार का इतिहास समझ सके। तहख़ाने का दरवाज़ जंग लगा था, धूल से भरा, जैसे दशकों की खामोशी समेटे हो। आरव ने हिम्मत करके लोहे का दरवाज़ा धक्का लगाया। अंदर ठंडी हवा और मिट्टी की गंध थी।
मंडप के कोने-कोने में बचपन के खिलौने, टूटी कुरसी और एक तांबे का डब्बा पड़ा था। जब उसने डब्बा खोला, तो भीतर राखी-बन्द एक पुराना कैरम बोर्ड, एक पेंसिल बॉक्स और एक लाल रंगत की डायरी मिली। डायरी की काया पर पिता का लिखा फटा-पुराना पता और तिथियाँ थीं। आरव ने दिल थामकर पन्ने पलटे। पन्नों पर उकेरे शब्द धीरे से बोलने लगे—“पिताजी की डायरी”—जहाँ माँ से अभिभावित प्रेम, खेती के संघर्ष, गाँव की राजनीति और लेखन की खोज, सब दर्ज था।
उसके पिता, अच्युतनन्द, कलम से उतारते कविता और कहानियाँ गाँव की कठिनाइयों में संवेदना भरते थे। एक नोट में लिखा था—“जब भी माटी सूनी लगे, इधर का बच्चा शहर चला जाता है, पर माटी की कमी वही जानते हैं जिन्हें यहाँ से जाया नहीं।” आरव ने पिता की अपनी इच्छाओं की पीड़ा महसूस की, एक ऐसे आदमी की जो अपने सपनों को पूरा कर न सका।

दोपहर ढल चुका था, अरव ने तय किया कि वह गाँव में स्कूल खोलेगा, जहाँ लड़के-लड़कियाँ खेतों की जगमगाहट में लिपटे मीठे सपने पढ़ सकें। उसने तुरंत माँ को बताया। शारदा देवी ने आँसुओं से मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, पिता ने भी यही सोचा था, पर वक्त ने उन्हें रोक लिया।” आरव ने ज़मीन पर हाथ फेरकर प्रण लिया कि वह पिता का सपना पूरा करेगा।
तब तक सूरज डूबने को था। आँगन के नीम के पेड़ तले लोग इकट्ठा हो रहे थे। गाँव के वृद्ध, किसान, महिलाएँ, बच्चे—सबने सोचा था कि आज आरव कुछ घोषणा करेगा। उसने गंभीर स्वर में कहा, “मैं यहाँ एक स्कूल खोलना चाहता हूँ, जहाँ बच्चों को मुफ्त शिक्षा मिलेगी, किताबें और ड्रेस मिलेगी, ताकि वे शहर का मोह छोड़कर यहाँ की ज़िंदगी की सुंदरता जानें।” गाँव वाले सन्न रह गए। कुछ ने कहा, “शहर का लड़का समझे क्या?” कुछ ने हँसकर कहा, “किसने देखा इसने स्कूल?” पर आरव ने धैर्य से आँगन की मिट्टी में गहरे पदचिह्न छोड़े।
अगले दिन से आरव ने काम शुरू किया। उसने शहर के मित्रों से किताबें मँगवाई, पुराने घर की बरामदे को सफाई से पेंट करवाया, काँच के टूटे खिड़कियाँ बदलवाईं। गाँव की निर्मल झील से पानी लगाने की व्यवस्था की और बच्चों के लिए एक छोटा पुस्तकालय बनाया। गाँव की महिलाएँ पहले विरोध कर रही थीं—उनके लिए घर से बाहर पढ़ना नया आइडिया था। लेकिन जब आरव की माँ ने अपनी गोद में पोती-बेटियाँ बिठाकर गिनती सिखाई, तो वे देखीं कि पढ़ने से आत्मविश्वास बढ़ता है।
एक महीने में गलियों में बच्चे पढ़ने आने लगे। आरव हर सुबह उन्हें गेट पर खड़ा मिलकर किताबें बाँटता, उनकी टोपियाँ ठीक करता, उनका मनोबल बढ़ाता। बच्चे कविताएँ गुनगुनाने लगे—“माटी की खुशबू, ज्ञान की राह, आरव ने दी है शिक्षा की चाह।” गुरुवार को जब पहला “बहस मंच” लगा, तो बच्चे छोटे-छोटे समूहों में गाँव की समस्याओं पर अपनी राय रखते—पानी की कमी, पेड़ों की कटाई, बच्चों की पढ़ाई। गाँव वालों ने देखा कि ये नन्हे मुखिया अब स्वयं की आवाज़ उठा रहे हैं।
समय बीतता गया, और स्कूल की दीवारों पर अब गणित के सूत्र, हिंदी के व्याकरण, विज्ञान के चित्र खिले। आरव को सरकारी सहायता भी मिल गई। विद्यालय का नाम रखा गया—“अच्युत शिक्षा निकेतन”। उद्घाटन का दिन आया तो गाँव के सरपंच ने शान-ओ-शौकत से पास के ज़िले के वकील, डॉक्टर, और पत्रकार बुलवाए। वे हैरान थे कि कैसे एक अकेला युवक गाँव की सोच बदल गया। विद्यार्थियों ने स्वागत गीत गाया, माँ शारदा देवी ने पिता की स्मृति में एक दीप जलाया, और आरव ने संकल्प दोहराया कि वह यहाँ का भविष्य चमकाएगा।
फिर गाँव की पहली मेला आयी, जहाँ आरव ने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की कला प्रदर्शनी लगवाई—कागज़ के कछुए, मिट्टी से बने हाथी, पत्र-पेंटिंग में गाँव की तस्वीरें। लोगों की उत्सुक भीड़ ने देखा कि ये बच्चे कितनी खूबसूरती से सीख रहे हैं। महिलाओं ने चावल की खीर और बाजरे की रोटियाँ बचपन की याद दिलाती रसोई से लाई, बच्चों ने चटख रंगों से झाँकी सजाई, और पूरा मेला शिक्षा का उत्सव बन गया।
एक दिन बारिश की रात हुई, ज़ोरदार तूफ़ान आया, नीम का पेड़ गिर गया और स्कूल की छत टूटने लगी। सुबह आरव जब पहुँचा, तो नन्हें छात्र आंसूं बहा रहे थे। आरव के लिए यह क्षण चुनौती से कम न था। उन्होंने गाँव वालों को बुलाया, और सबने मिलकर माटी की ईंट से मरम्मत शुरू की—महिलाएँ मिश्रण लायीं, पुरुष ईंटें जमाते रहे। बच्चे भी हाथ बटाने लगे। दो दिन में छत फिर से मजबूत हुई। तभी गाँव वालों को अहसास हुआ कि पढ़ाई ही नहीं बल्कि मिलकर काम करने का उत्साह भी इस स्कूल की सीख है।
समय के साथ आरव की मेहनत रंग लाई। पाँच वर्ष बीत गए। “अच्युत शिक्षा निकेतन” अब ब्लॉक स्तर पर अव्वल विद्यालय बन गया। पास की पंचायतें दूर तक आईं, और आरव को “गाँव नवजीवन पुरुष्कार” मिला। पर आरव का सच का इनाम नहीं बल्कि बच्चों की मुस्कान थी—उनके आँखों में चमक, आत्मविश्वास, और ज्ञान की दौड़।
एक सुबह जब आरव स्कूल में टहल रहा था, उसने देखा एक छोटा-सा लड़का, लाल धारीदार शर्ट में, उस डीए-वीडी रिक्शा वाले अमर प्रसाद का बेटा, जो घर में खाने के लिए तरसता था, अब टिफ़िन में चपाती निकालकर दोस्तों को बाँट रहा है। अमर प्रसाद चकित था—उसके बेटे ने कभी खाना नहीं बांटा था। पर स्कूल की संस्कृति ने उसे सिर्जनाकारी सिखा दी।
शाम को आरव जब तहख़ाने की पुरानी डायरी पलट रहा था, तो एक अंतिम पन्ना दिखा, जिस पर पिता ने लिखा था—“जिस दिन मेरे बच्चे गाँव में शिक्षा का दीप जलाएगा, तब मेरी आत्मा चैन पाएगी।” आरव की आँखें नम थीं। पिता की इच्छा पूरी हो गई थी।
इसी बीच एक रिसर्च टीम आई, जो ग्राम विकास मॉडल देख रही थी। उन्होंने आरावती गाँव की कहानी लिखी—कैसे एक युवा ने पुराने बोझ को किताबों की रोशनी से बदल दिया। कहानी राजस्थान, बिहार, तमिलनाडु तक फैल गई। बहुत से युवा गाँव लौटे, अपना स्कूल चलाने, जन स्वास्थ्य सुधारने, कोल्ड स्टोरेज बनाने, उन्नत बीज बाँटने। इस तरह आरव की शुरुआत ने एक ज्वाला जलाई।
आज, दस वर्ष बाद, आरावती गाँव में हर घर के बच्चे पढ़ते हैं। वहाँ की धरती पर फसलें उगती हैं, स्कूल की घंटी गूंजती है, खेल के मैदान पर टीचर और विद्यार्थी मिलकर खेलते हैं। वह नीम का पेड़ अब सूना नहीं; उसकी जड़ों में ज़िंदा कहानियाँ उठती हैं। अच्युत शिक्षा निकेतन की बेंचों पर अब तीसरी पीढ़ी लिखती है—समाज सेवा, विज्ञान, कला और खेल की चमक।
आरव जब अपने पिता की तस्वीर के सामने हाथ जोड़ता है, तो उसे महसूस होता है कि कोई जादू नहीं, सिर्फ प्यार और दृढ़ संकल्प का बल है, जो असंभव को संभव कर देता है। गाँव की मिट्टी अब सुनहरी उम्मीदों से लबालब है, और हर व्यक्ति जानता है कि शिक्षा ही जीवन की सबसे बड़ी पूँजी है। इस तरह आरावती की धारा पलटी, जहां बचपन खो गया था, वहीं बचपन फिर से खिल उठा। उसकी कहानी गूँजती है दूर-दूर तक—एक युवा की जिद, एक माँ का आशीर्वाद, और मिट्टी की सुगंध में बसी वह कविता, जो कभी तहख़ाने में छुपी थी, अब हर दिल में धड़क रही है।
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