मै तुम्हे रोटी दूंगा पर मेरे साथ होटल चलना होगा? फिर जो उसके साथ हुआ
“एक नई पहचान”
पटना जंक्शन की भीड़भाड़ वाली गलियों में हर रोज़ की तरह शोरगुल था। रिक्शों की घंटियां, चाय वालों की आवाज़ें, और यात्रियों की भाग-दौड़ जैसे इस जगह की पहचान बन चुकी थी। लेकिन इसी भीड़ में, एक कोने में बैठी एक लड़की की मौन पीड़ा को कोई नहीं देख पा रहा था। 23 साल की मीरा, जिसकी आंखों में भूख और लाचारी का दर्द साफ झलक रहा था, अपने सामने रखे टूटे हुए कटोरे को देख रही थी। कटोरे में कुछ सिक्के पड़े थे, जो शायद उसकी दिनभर की मेहनत का नतीजा थे।
लोग उसके पास से गुजरते, पर जैसे उसे देख ही नहीं रहे थे। कोई दया की नजर डालता, तो कोई उसे तिरस्कार भरी निगाहों से देखता। मीरा हर गुजरते व्यक्ति से उम्मीद करती, पर हर बार उसकी उम्मीदें टूट जातीं।
सूरज ढलने को था, जब अचानक एक काली चमचमाती कार जंक्शन के पास आकर रुकी। उसमें से एक युवक उतरा। उसकी उम्र करीब 24 साल की थी। उसका नाम सिद्धार्थ था। उसके चेहरे पर गंभीरता और आंखों में एक अलग ही चमक थी। वह सीधे मीरा के पास आया और उसके सामने खड़ा होकर बोला, “मैं तुम्हें रोटी दूंगा।”
मीरा ने शर्म और डर से सिर झुका लिया। उसने सोचा, यह भी शायद उन लोगों जैसा होगा जो मदद के नाम पर मजबूरी का फायदा उठाते हैं। लेकिन सिद्धार्थ ने उसकी झिझक को भांपते हुए कहा, “भीख से पेट तो भर सकता है, लेकिन जिंदगी नहीं बदल सकती। अगर सच में जीना है तो मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें ऐसा काम दूंगा जिसमें इज्जत भी होगी और रोटी भी।”
भीड़ में खड़े लोग यह सुनकर हैरान रह गए। कुछ फुसफुसाने लगे, तो कुछ शक भरी नजरों से देखने लगे। मीरा के दिल में डर और उम्मीद का अजीब सा मिश्रण था। वह सोच रही थी कि कहीं यह भी धोखा तो नहीं? लेकिन सिद्धार्थ की आवाज में ऐसा यकीन था कि मीरा के कदम रुक गए।
सिद्धार्थ ने कार का दरवाजा खोला और इशारा किया। मीरा ने कांपते हुए कदम बढ़ाए। उसने भीड़ की ओर देखा। किसी की आंखों में दया थी, तो किसी की आंखों में तिरस्कार। लेकिन उसे लगा कि यह पल उसकी किस्मत का फैसला करने वाला है। वह कार में बैठ गई।
गाड़ी पटना जंक्शन से दूर निकलने लगी। मीरा का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह सही कर रही है या नहीं। करीब आधे घंटे बाद गाड़ी एक साधारण से मोहल्ले में रुकी। वहां एक छोटे से मकान के बाहर सिद्धार्थ ने गाड़ी रोक दी।
सिद्धार्थ ने मुस्कुराते हुए कहा, “डरने की जरूरत नहीं, मीरा। यह मेरा घर और मेरा काम है। आज से तुम्हारी जिंदगी यहीं से बदलेगी।”
मीरा ने हैरानी से उसकी ओर देखा। साधारण सा मकान, लेकिन अंदर का नजारा बिल्कुल अलग था। एक तरफ बड़े-बड़े स्टील के टिफिन सजे थे, और दूसरी तरफ गैस स्टोव पर सब्जियां पक रही थीं।
“यह मेरा छोटा सा टिफिन सर्विस का बिजनेस है,” सिद्धार्थ ने कहा। “मैं खाना बनाता हूं और डिलीवरी बॉय इन्हें दफ्तरों और हॉस्टलों तक पहुंचाते हैं। यह काम छोटा है, लेकिन इसमें मेहनत भी है और इज्जत भी। और यही इज्जत मैं तुम्हें देना चाहता हूं।”
मीरा ने हिचकिचाते हुए पूछा, “लेकिन मैं क्या कर पाऊंगी? मुझे तो कुछ आता ही नहीं।”
सिद्धार्थ ने उसकी ओर देखा और कहा, “काम सीखने से आता है। शुरुआत में तुम बस बर्तन धोना और साफ-सफाई करना सीखो। धीरे-धीरे सब्जी काटना, आटा गूंथना, और एक दिन टिफिन बनाना भी आ जाएगा। सवाल यह नहीं है कि तुम्हें आता है या नहीं, सवाल यह है कि तुम्हारे अंदर मेहनत करने का हौसला है या नहीं।”
मीरा का गला भर आया। उसने सिर झुकाकर कहा, “मैं कोशिश करूंगी।”
धीरे-धीरे मीरा की जिंदगी बदलने लगी। उसने बर्तन धोने से लेकर सब्जियां काटने तक का काम सीख लिया। सिद्धार्थ हर कदम पर उसे समझाता, “यह सिर्फ खाना बनाना नहीं है, मीरा। यह किसी के लिए घर का स्वाद पहुंचाना है। हर टिफिन में हमारी मेहनत के साथ-साथ अपनापन भी जाना चाहिए।”
लेकिन समाज इतना आसान नहीं था। मोहल्ले के लोग अब भी ताने कसते। “अरे, यही तो वही भिखारिन है जो जंक्शन पर बैठती थी। देखो, अब लड़के के नीचे काम कर रही है।” यह बातें मीरा के दिल को चीर देतीं। कई बार उसका मन होता कि सब छोड़कर भाग जाए।
लेकिन हर बार सिद्धार्थ के शब्द उसे थामे रखते। वह कहता, “भीख आसान है, मेहनत मुश्किल है। लेकिन इज्जत हमेशा मेहनत से ही मिलती है।”
एक शाम, जब मीरा बहुत दुखी थी, सिद्धार्थ ने उसके पास आकर कहा, “लोग चाहे कुछ भी कहें, फर्क नहीं पड़ता। जब तुम गिरती हो, तब भी लोग बोलते हैं, और जब उठती हो, तब भी। फर्क बस इतना है कि आज तुम गिरकर भीख नहीं मांग रही, बल्कि उठकर मेहनत कर रही हो। याद रखना, आज जो लोग तुम्हारा मजाक उड़ा रहे हैं, कल तुम्हारी मिसाल देंगे।”
यह शब्द जैसे मरहम बनकर मीरा के दिल पर लगे। उस रात उसने ठान लिया कि अब वह हार नहीं मानेगी।
छह महीने बीत चुके थे। अब मीरा पहले जैसी बिल्कुल नहीं दिखती थी। उसके हाव-भाव में आत्मविश्वास झलकने लगा था। टिफिन सर्विस में उसकी भूमिका सिर्फ मददगार की नहीं रही। वह काम बांटती, नए हेल्परों को सिखाती, और ग्राहकों से बात भी करती।
एक दिन, एक मशहूर अखबार में उनके बारे में लेख छपा। “फुटपाथ से टिफिन साम्राज्य तक: मीरा और सिद्धार्थ की मिसाल।” यह खबर पूरे पटना में फैल गई। लोग अब उन्हें तिरस्कार की नजर से नहीं, बल्कि सम्मान की नजर से देखने लगे।
एक शाम, काम खत्म होने के बाद मीरा चुपचाप सिद्धार्थ के पास बैठी और बोली, “सिद्धार्थ जी, अगर आप उस दिन मुझे जंक्शन से ना उठाते, तो मैं आज भी वहीं भीख मांग रही होती।”
सिद्धार्थ ने उसकी ओर देखा और दृढ़ स्वर में कहा, “मीरा, मैंने सिर्फ हाथ बढ़ाया था। असली सफर तो तुमने तय किया है। अगर तुम्हारे अंदर हिम्मत ना होती, तो मेरी मदद भी बेकार जाती।”
मीरा की आंखें नम हो गईं। उसने कांपते स्वर में कहा, “अब यह कारोबार सिर्फ आपका नहीं, मेरा भी है। और मैं वादा करती हूं, इसे इतना बड़ा बनाऊंगी कि कोई भूखा ना सोए।”
कुछ ही महीनों बाद, उन्होंने अपनी टिफिन सर्विस को आधिकारिक नाम दिया: “अपना घर टिफिन सर्विस।”
शहर के टाउन हॉल में एक कार्यक्रम था, जिसमें समाज में मिसाल कायम करने वाले लोगों को सम्मानित किया जा रहा था। घोषक की आवाज गूंजी: “कृपया स्वागत कीजिए मीरा और सिद्धार्थ का।”
तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूंज उठा। मीरा का दिल तेजी से धड़क रहा था। कभी वह पटना जंक्शन पर भीख मांगती थी, और आज उसी शहर में उसे सम्मान मिल रहा था।
वह मंच पर खड़ी हुई और माइक के सामने बोली, “मैंने जिंदगी में भूख भी देखी है और तिरस्कार भी। लोग कहते थे कि मैं कुछ नहीं कर सकती। लेकिन एक दिन सिद्धार्थ जी ने मेरा हाथ थामा और मुझे दिखाया कि भीख से पेट भर सकता है, लेकिन इज्जत सिर्फ मेहनत से मिलती है।”
हॉल में गहरी खामोशी छा गई। मीरा ने आगे कहा, “अब हमारा सपना सिर्फ कारोबार चलाना नहीं है। हमारा सपना है कि इस शहर में कोई भी भूखा ना सोए। अपना घर टिफिन सर्विस अब सिर्फ खाना नहीं पहुंचाती, बल्कि उम्मीद भी पहुंचाती है।”
तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूंज उठा। सिद्धार्थ भी मंच पर आया और बोला, “अगर किसी इंसान को मौका दिया जाए, तो वह चमत्कार कर सकता है। हमें सिर्फ हाथ पकड़कर खड़ा करना होता है। बाकी रास्ता वह खुद तय कर लेता है।”
कार्यक्रम के अंत में, जब दोनों मंच से उतरे, तो मीरा ने सिद्धार्थ से कहा, “सिद्धार्थ जी, आज मुझे लग रहा है कि मैं सचमुच जी रही हूं। अब मेरी पहचान सिर्फ भिखारिन नहीं, बल्कि मेहनत करने वाली इंसान है।”
सिद्धार्थ ने हल्की मुस्कान के साथ उसकी ओर देखा और कहा, “हां, मीरा। तुम्हारी पहचान मेहनत और इंसानियत है। यही सबसे बड़ी जीत है।”
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