रिश्ता बचाने के लिए पत्नी के सारे ज़ुल्म सहता रहा, एक दिन गुस्सा आया.. फिर जो हुआ
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रामपुर के एक साधारण से मोहल्ले में गोविंद की जिंदगी किसी धीमी आग पर रखे बर्तन जैसी थी। बाहर से देखने पर सब कुछ शांत और व्यवस्थित लगता था, लेकिन अंदर ही अंदर सब कुछ उबल रहा था, सुलग रहा था। शादी को सात साल हो चुके थे और हर गुजरता दिन, हर गुजरती सुबह उसे यह एहसास दिलाती थी कि वह अपनी ही पत्नी, लता, की नजरों में कितना छोटा और महत्वहीन है। लता का स्वभाव शुरू से ही तेज और महत्वाकांक्षी था, लेकिन गोविंद ने, अपने सहज आशावादी स्वभाव के कारण, सोचा था कि समय के साथ, प्यार और अपनेपन की ऊष्मा से सब कुछ ठीक हो जाएगा। उसने बहुत गलत सोचा था।
लता के पिता शहर के नामी-गिरामी व्यापारी थे और उन्होंने अपनी इकलौती बेटी को वह सब कुछ दिया था जो पैसा खरीद सकता था—महंगे कपड़े, आलीशान जीवनशैली, और यह विश्वास कि वह दुनिया की हर अच्छी चीज की हकदार है। लेकिन इस प्रक्रिया में शायद वे उसे संस्कार और संतुष्टि का पाठ पढ़ाना भूल गए थे। इसके विपरीत, गोविंद एक सरकारी स्कूल में शिक्षक था। उसकी तनख्वाह अच्छी थी, नौकरी सम्मानजनक थी और समाज में उसे ‘मास्टरजी’ का आदर मिलता था। लेकिन लता के लिए यह सब कुछ नाकाफी था। उसकी दुनिया अपनी सहेलियों की दुनिया से शुरू होती थी और वहीं खत्म हो जाती थी। उसे चाहिए था एक बड़ा बंगला, एक महंगी विदेशी गाड़ी, हर साल विदेश की सैर और वह सब कुछ जो उसकी सहेली रिया या शालिनी के पास था।
“तुम्हारे जैसा निकम्मा और बेपरवाह आदमी मैंने आज तक नहीं देखा,” लता ने उस सुबह फिर से अपना रोज का अलाप शुरू कर दिया था, जब गोविंद शांति से अपनी सुबह की चाय पी रहा था। “मेरी सहेली रिया का पति देखो, उसे स्विट्जरलैंड घुमाने ले गया है। और तुम? तुम तो बस सुबह से शाम तक बच्चों को क, ख, ग पढ़ाते रहते हो। क्या मिलता है तुम्हें इस सब से?”
गोविंद चुपचाप चाय का घूंट पीता रहा। उसे पता था कि जवाब देने का कोई फायदा नहीं है। हर जवाब एक नई बहस को जन्म देगा और फिर पूरा दिन खराब हो जाएगा। यह रोज का नाटक था, जिसके संवाद उसे अब कंठस्थ हो चुके थे। उसने सिर्फ इतना कहा, “लता, मैं ईमानदारी से काम करता हूँ। हमारे पास अपनी जरूरत का सब कुछ है। एक अच्छा घर, सम्मान, और शांति…”
“सब कुछ?” लता व्यंग्यात्मक रूप से जोर से हंसी। “तुम्हें पता भी है ‘सब कुछ’ का मतलब क्या होता है, गोविंद? मैं अपनी सहेलियों के सामने शर्मिंदा होती हूँ जब वे अपनी डायमंड ज्वेलरी और विदेश यात्राओं के बारे में बताती हैं। और मैं? मैं बताती हूँ कि मेरे पति ने इस साल स्कूल के कितने बच्चों को टॉप करवाया है। उन्हें लगता है मैं मजाक कर रही हूँ।”
गोविंद ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने चाय का कप मेज पर रखा, अपना पुराना चमड़े का बैग उठाया और स्कूल के लिए निकल गया। रास्ते भर उसके दिमाग में यही विचार घूमता रहा कि आखिर उसने गलती क्या की है। उसने हमेशा लता का ख्याल रखा, उसकी हर जायज-नाजायज मांग को अपनी क्षमता के अनुसार पूरा करने की कोशिश की। लेकिन यह औरत खुश क्यों नहीं है? उसकी खुशी की परिभाषा क्या है? स्कूल के प्रांगण में कदम रखते ही माहौल बदल गया। बच्चों ने दौड़कर उसे घेर लिया, “नमस्ते मास्टरजी!” उनके चेहरों पर सम्मान और स्नेह का भाव था। सहकर्मी शिक्षक उसकी विद्वता और शिक्षण शैली की प्रशंसा करते थे। लेकिन जैसे ही वह शाम को घर की दहलीज पर कदम रखता, वह फिर से एक असफल, निकम्मा और हारा हुआ इंसान बन जाता था। यह विडंबना उसे अंदर ही अंदर दीमक की तरह खाए जा रही थी।
शाम को जब वह घर लौटा, तो घर में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा था। लता अपने कमरे में थी, फोन पर किसी से फुसफुसा कर बातें कर रही थी। गोविंद ने अनजाने में ही सुन लिया, वो अपनी सहेली रिया से कह रही थी, “यार, मैं नहीं जानती मैं कब तक इस बोरिंग और घुटन भरी जिंदगी में फंसी रहूंगी। गोविंद में कोई जुनून नहीं है, कोई आग नहीं है। बस एक सीधी-सादी, घिसी-पिटी जिंदगी। कभी-कभी तो मुझे उस पर तरस आता है।”

गोविंद का दिल बैठ गया। तरस? उसकी पत्नी को उस पर तरस आता है। उसने धीरे से रसोई में जाकर खाना बनाना शुरू किया। हाँ, खाना भी अक्सर वही बनाता था, क्योंकि लता को यह सब “छोटे और नौकरों वाले काम” पसंद नहीं थे। रात के खाने की मेज पर लता ने फिर एक नया मुद्दा छेड़ा, “मेरे पापा कह रहे थे कि तुम्हें कोई बिजनेस शुरू करना चाहिए। नौकरी में क्या रखा है? पापा मदद भी कर देंगे।”
“लता, मुझे पढ़ाना अच्छा लगता है। यह मेरा काम ही नहीं, मेरा जुनून है,” गोविंद ने शांति से समझाने की कोशिश की।
“जुनून से पेट नहीं भरता, गोविंद! और न ही बैंक बैलेंस बनता है। पैसा चाहिए, समझे? पैसा!” गोविंद ने थाली एक तरफ सरका दी। उसकी भूख मर चुकी थी। अब तो अक्सर लता के तानों से ही उसका पेट भर जाता था। वह अपने कमरे में चला गया और खिड़की से बाहर अंधेरे में देखने लगा। आसमान में अनगिनत तारे चमक रहे थे, लेकिन उसकी अपनी जिंदगी में घना अंधेरा छाया हुआ था।
अगले दिन स्कूल में प्रिंसिपल ने उसे अपने दफ्तर में बुलाया। “गोविंद जी, आपके काम से मैनेजमेंट बहुत खुश है। आपने हमारे स्कूल का रिजल्ट सुधार दिया है। हम आपको अगले महीने से सीनियर टीचर के पद पर प्रमोट करना चाहते हैं। आपकी तनख्वाह भी बढ़ेगी।”
गोविंद के चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान आई। उसे थोड़ी खुशी मिली। शायद यह खबर सुनकर लता खुश हो जाए। शायद उसे लगे कि वह भी अपनी जिंदगी में आगे बढ़ रहा है। शाम को उसने बड़े उत्साह से यह खबर लता को बताई। लेकिन लता का जवाब उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फेर गया। “बस? इतनी सी बात? सीनियर टीचर? मेरे दोस्त की बहन का पति तो अभी-अभी एक मल्टीनेशनल कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट बना है, महीने में लाखों का पैकेज है। और तुम कुछ हजार रुपये बढ़ने पर ऐसे खुश हो रहे हो जैसे कोई खजाना मिल गया हो।”
उस रात गोविंद को नींद नहीं आई। वह देर तक बिस्तर पर करवटें बदलता रहा। वह सोचता रहा कि आखिर कब तक, कब तक वह यह सब सहता रहेगा। लेकिन फिर उसे अपने बूढ़े माता-पिता का चेहरा याद आया, जिन्होंने उसे हमेशा सिखाया था कि घर और रिश्ते को बचाना सबसे बड़ा धर्म है। तलाक तो समाज में बदनामी लाता है, परिवार का नाम खराब होता है। लेकिन हर इंसान की सहनशक्ति की एक सीमा होती है। गोविंद भी इंसान था, और वह सीमा अब धीरे-धीरे दरक रही थी। वह नहीं जानता था कि आने वाले दिनों में एक ऐसा तूफान उसकी जिंदगी में आने वाला है, जो इस दरकती हुई सीमा को पूरी तरह से तोड़कर रख देगा।
महीना बीतते-बीतते गोविंद की हालत और खराब हो गई। लता का व्यवहार अब सिर्फ शब्दों के तीखे बाणों तक सीमित नहीं रह गया था। उसने गोविंद को सामाजिक रूप से भी अपमानित करना शुरू कर दिया था। पिछले रविवार लता के माता-पिता घर आए थे। गोविंद ने पूरे मन से उनका स्वागत किया, उनकी पसंद का खाना बनाया, उनकी हर तरह से आवभगत की। लेकिन चाय के दौरान लता ने सबके सामने ही कह दिया, “पापा, आप देख रहे हैं ना? यही हाल है मेरा। गोविंद को तो बस अपनी किताबों और स्कूल के बच्चों से मतलब है। घर की कोई जिम्मेदारी नहीं समझते। मैं ही हूँ जो इस घर को संभाले हुए हूँ।”
गोविंद सन्न रह गया। वह क्या बोले? उसके ससुर ने भी उसे घूर कर देखा, “बेटा, लड़की को खुश रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है। अगर लता परेशान है, तो गलती तुम्हारी ही होगी। कुछ और क्यों नहीं करते? बिजनेस का देखो।” गोविंद ने विरोध करना चाहा, लेकिन शब्द उसके गले में ही अटक गए। अपने बड़ों से बहस करना उसके संस्कारों में नहीं था। वह चुपचाप सिर झुकाए बैठा रहा, जबकि लता ने और भी कई झूठी-सच्ची शिकायतें सुनाकर खुद को एक प्रताड़ित पत्नी और गोविंद को एक नाकारा पति साबित कर दिया।
अगले हफ्ते स्कूल में वार्षिक समारोह था। गोविंद को उसके बेहतरीन शिक्षण कार्य के लिए ‘सर्वश्रेष्ठ शिक्षक’ के पुरस्कार से सम्मानित किया जाना था। उसने बड़ी उम्मीद से लता से कहा, “तुम चलोगी ना? मुझे बहुत अच्छा लगेगा अगर तुम मेरे साथ होगी। मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत है।”
लता ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए मुंह बनाया। “मुझे तुम्हारे उस बोरिंग स्कूल के बोरिंग प्रोग्राम में कोई दिलचस्पी नहीं है। वैसे भी मैं अपनी सहेलियों के साथ शॉपिंग करने जा रही हूँ। नया मॉल खुला है।” गोविंद का दिल टूटकर बिखर गया। उसने आज तक कभी कुछ नहीं मांगा था लता से, लेकिन आज, अपने सम्मान के दिन, उसे सच में उसके साथ की सख्त जरूरत थी। फिर भी, उसने हमेशा की तरह कुछ नहीं कहा।
समारोह में जब उसे मंच पर बुलाया गया, तो तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी। मंच पर मौजूद सभी पुरस्कार विजेताओं के साथ उनके परिवार वाले थे, उनकी पत्नियाँ, उनके बच्चे। सिर्फ गोविंद अकेला था। उसकी आंखें नम हो गईं, लेकिन उसने होठों पर एक झूठी मुस्कान चिपकाए रखी। प्रिंसिपल ने उसकी तारीफों के पुल बांध दिए, “गोविंद जी जैसे समर्पित और निःस्वार्थ शिक्षक बहुत कम होते हैं। हमें इन पर गर्व है, और मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि इनका परिवार भी इन पर बहुत गर्व महसूस करता होगा।”
‘गर्व?’ गोविंद ने मन ही मन सोचा। उसने सिर्फ “धन्यवाद” कहा और अपनी ट्रॉफी लेकर नीचे उतर आया। अंदर ही अंदर वह बिखर रहा था।
जब वह घर पहुँचा तो लता सोफे पर लेटी फोन चला रही थी। महंगे ब्रांड्स के खरीदारी के थैले चारों ओर बिखरे पड़े थे। गोविंद ने खुद को संभालते हुए पूछा, “कितना खर्च किया?”
“तुम्हें क्या मतलब? मेरे पापा के पैसे हैं,” लता ने बिना उसकी तरफ देखे जवाब दिया।
“लता, हम पति-पत्नी हैं। मुझे जानने का हक है,” गोविंद की आवाज में थोड़ी सख्ती थी।
लता उठकर बैठ गई। उसकी आंखों में गुस्सा था। “हक? तुम हक की बात मत करो, गोविंद। तुम तो मुझे वह जिंदगी भी नहीं दे सके जिसकी मैं हकदार हूँ। तो मेरे खर्चों पर सवाल करने का भी तुम्हें कोई हक नहीं है।”
गोविंद ने एक गहरी सांस ली। “मैं लगातार कोशिश कर रहा हूँ, लता। मेरी तनख्वाह बढ़ी है। हम आराम से रह रहे हैं।”
“आराम से?” लता फिर से व्यंग्यात्मक रूप से हंसी। “यह दो कमरों का छोटा सा घर, यह पुरानी खटारा कार, यह आराम है तुम्हारे हिसाब से? मेरी सहेलियां यूरोप में छुट्टियां मना रही हैं और मैं इस जेल में फंसी हुई हूँ।”
“जेल?” गोविंद ने पहली बार अपनी आवाज ऊंची की। “यह घर तुम्हें जेल लगता है? मैंने तुम्हें कभी कुछ करने से नहीं रोका। तुम जो चाहो करो, जहां चाहो जाओ। लेकिन मेरा और मेरे पेशे का अपमान मत करो।”
लता भी खड़ी हो गई। “अपमान? तुम्हें अपमान महसूस होता है? तो मैं क्या महसूस करती हूँ जब लोग मुझसे पूछते हैं कि मेरे पति क्या करते हैं? मुझे शर्म आती है यह बताते हुए कि तुम बस एक साधारण से स्कूल टीचर हो!”
यह शब्द किसी हथौड़े की तरह गोविंद के सिर पर लगे। उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। उसका पेशा, जिस पर उसे गर्व था, जिस पर उसके माता-पिता गर्व करते थे, वह लता के लिए शर्म का विषय था। वह बिना एक भी शब्द बोले अपने कमरे में चला गया और दरवाजा बंद कर लिया। उस रात गोविंद ने अपनी डायरी में लिखा, “आज मुझे पहली बार शिद्दत से महसूस हुआ कि मैं इस रिश्ते में अकेला हूँ। शायद हमेशा से अकेला था। लता ने कभी मुझे अपना समझा ही नहीं। मेरा अस्तित्व, मेरा सम्मान, मेरी भावनाएं, उसके लिए कोई मायने नहीं रखतीं।”
अगले कुछ दिन एक खामोश तूफान में बीते। गोविंद स्कूल जाता, लौटता और अपने कमरे में बंद हो जाता। लता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। वह अपनी दुनिया में, अपनी पार्टियों में, अपनी शॉपिंग में मस्त थी। फिर एक दिन गोविंद के पुराने दोस्त राजेश का फोन आया। “यार कैसा है? बहुत दिन हो गए मिले।”
गोविंद की आवाज में दर्द साफ झलक रहा था। “बस कट रही है, राजेश।”
राजेश ने उसकी आवाज की उदासी को भांप लिया। “क्या हुआ? सब ठीक है ना? भाभी कैसी हैं?”
और गोविंद टूट गया। उसने फोन पर ही राजेश को सब कुछ बता दिया। सालों का दबा हुआ दर्द, अपमान और अकेलापन आंसुओं के रास्ते बह निकला। राजेश ने शांति से सब कुछ सुना और फिर कहा, “यार, यह बहुत गलत हो रहा है। तुझे कुछ करना होगा। कब तक सहता रहेगा? आत्म-सम्मान से बढ़कर कुछ नहीं होता, मेरे भाई।”
गोविंद को पहली बार लगा कि शायद राजेश सही कह रहा है। लेकिन करे तो क्या करे? तलाक? यह शब्द सोचते ही उसके हाथ-पैर ठंडे पड़ जाते। वह इतना टूट चुका था कि कोई बड़ा फैसला लेने की हिम्मत भी खो चुका था। लेकिन जिंदगी अपने अनोखे और अप्रत्याशित तरीके से चलती है। गोविंद नहीं जानता था कि आने वाली एक घटना उसकी जिंदगी को पूरी तरह से बदलकर रख देगी और उसे वह हिम्मत देगी जिसकी उसे सख्त जरूरत थी।
दो सप्ताह बाद, एक रात, गोविंद के पिताजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई। उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। गोविंद को जब उसके गांव से देर रात फोन आया तो उसके हाथ-पैर कांपने लगे। वह तुरंत अस्पताल की ओर भागने के लिए तैयार हुआ। उसने घबराहट में लता को जगाया, “लता, उठो! पिताजी की हालत बहुत गंभीर है, उन्हें हार्ट अटैक आया है। हमें तुरंत निकलना होगा।”
लता ने नींद में ही करवट बदली और कंबल को और कसकर ओढ़ लिया। “मुझे बहुत नींद आ रही है। तुम जाओ। मैं सुबह आ जाऊंगी।”
गोविंद स्तब्ध रह गया। जड़वत। उसके पिता वहां मौत और जिंदगी के बीच झूल रहे थे, और उसकी पत्नी को अपनी नींद की चिंता थी। एक पल के लिए उसे लगा कि वह चीखे, चिल्लाए, उसे झिंझोड़ कर उठाए। लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप अकेले ही निकल गया।
अस्पताल में डॉक्टर ने बताया कि स्थिति नाजुक है। अगला 24 घंटा बहुत महत्वपूर्ण है। गोविंद रात भर आईसीयू के बाहर एक बेंच पर बैठा रहा, हर पल भगवान से अपने पिता की सलामती की दुआ मांगता रहा। सुबह हुई, दोपहर हुई, लेकिन लता नहीं आई। शाम को उसका फोन आया, “सॉरी, मैं अपनी सहेली के यहां हूँ। उसकी किटी पार्टी थी, पहले से प्लान था। मैं आ नहीं पाई। अंकल जी अब कैसे हैं?”
गोविंद ने बिना कोई जवाब दिए फोन काट दिया। उसकी आंखों में अब आंसू भी नहीं थे। इतने सालों से रोज के ताने, रोज का अपमान और अब यह संवेदनहीनता… शायद उसके आंसू भी सूख चुके थे।
तीसरे दिन पिताजी की हालत में कुछ सुधार हुआ। डॉक्टर ने कहा कि खतरा टल गया है, लेकिन उन्हें पूरे आराम और देखभाल की जरूरत है। गोविंद पिताजी को घर ले आया। उसने उनका कमरा ठीक किया, उनकी दवाइयां समय पर दीं, उनके लिए दलिया और खिचड़ी बनाई। सब कुछ अकेले किया। लता घर में एक मेहमान की तरह थी। उसे मानो कुछ दिखता ही नहीं था। वह अपने फोन में व्यस्त रहती या अपनी सहेलियों से घंटों बातें करती।
एक शाम पिताजी ने गोविंद का कमजोर हाथ अपने हाथ में पकड़ा। “बेटा, मैं सब देख रहा हूँ। लता तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करती है। तुम यह सब कब तक सहोगे?”
गोविंद की आंखें भर आईं। “पिताजी, घर टूटना नहीं चाहिए। आपने ही तो सिखाया था।”
“बेटा, घर वहां होता है जहां सम्मान हो, प्यार हो, एक-दूसरे की परवाह हो। सिर्फ चार दीवारें घर नहीं बनातीं। तुम्हारी खुशी भी जरूरी है। तुम इस तरह घुट-घुट कर अपनी जिंदगी नहीं बिता सकते।”
उसी रात, लता के पिता का फोन आया। “गोविंद, मैं सुन रहा हूँ तुम्हारे पिताजी बीमार हैं। लेकिन तुम उनकी देखभाल में इतने व्यस्त हो गए हो कि मेरी बेटी लता का बिल्कुल ध्यान नहीं रख पा रहे हो। वह बहुत परेशान है। यह गलत है।”
यह सुनते ही गोविंद के धैर्य का बांध टूट गया। सालों का दबा हुआ लावा फूट पड़ा। पहली बार उसने अपने ससुर को साफ और कठोर शब्दों में जवाब दिया, “माफ कीजिए, लेकिन आप तक गलत जानकारी पहुंच रही है। मेरे पिताजी मौत के मुंह से वापस आए हैं, और आपकी बेटी उन्हें देखने के लिए अस्पताल तक नहीं आई। मैं अकेला था, और अब भी अकेला ही उनकी सेवा कर रहा हूँ। और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यह मेरा फर्ज है।”
“तुम… तुम मुझसे इस तरह बात कर रहे हो?” उनके ससुर की आवाज में अहंकार और गुस्सा था।
“मैं सच बोल रहा हूँ। अगर आपको विश्वास नहीं है, तो आप खुद आकर देख लीजिए,” गोविंद ने कहा और फोन काट दिया।
लता गुस्से में लाल-पीली होती हुई कमरे में आई। “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे पापा से ऐसे बात करने की?”
गोविंद ने पहली बार उसकी आंखों में सीधे देखा। उसकी नजरों में अब कोई डर या झिझक नहीं थी। “मैंने वही बोला जो सच है। तुम्हें शर्म आनी चाहिए, लता। मेरे पिता बीमार थे और तुमने एक बार भी हाल-चाल नहीं पूछा। तुम सिर्फ अपने, अपनी पार्टियों और अपनी सहेलियों के बारे में सोचती हो।”
“तो मुझे क्यों फर्क पड़ना चाहिए?” लता ने जहर बुझे शब्दों में कहा, “वे तुम्हारे माता-पिता हैं, मेरे नहीं।”
यह शब्द गोविंद के लिए आखिरी तिनका साबित हुए। उसने एक गहरी, लंबी सांस ली, जैसे वह अपने अंदर की सारी कायरता और झिझक को बाहर फेंक रहा हो। “लता, मैंने सात साल तुम्हारा हर अपमान सहा। तुम्हारे ताने, तुम्हारी उपेक्षा, सब कुछ। मैं चुप रहा क्योंकि मुझे लगा कि तुम एक दिन बदल जाओगी। लेकिन आज मुझे समझ आ गया कि तुम कभी नहीं बदलोगी। तुम्हारे लिए रिश्ते, भावनाएं, सम्मान, कुछ भी मायने नहीं रखता।”
“तो क्या करोगे? तलाक दोगे?” लता ने अब भी मजाक उड़ाते हुए कहा, उसे विश्वास था कि गोविंद ऐसा कदम कभी नहीं उठा सकता।
“हाँ,” गोविंद ने सीधे उसकी आंखों में देखते हुए दृढ़ता से कहा। “मैं तुम्हें तलाक दूँगा। मुझे इस घुटन भरे रिश्ते से आजादी चाहिए। मुझे अपनी खुद की इज्जत, अपना आत्म-सम्मान वापस चाहिए।”
लता का चेहरा सफेद पड़ गया। वह हंसी, लेकिन उसकी हंसी में अब घबराहट साफ झलक रही थी। “तुम… तुम ऐसा नहीं कर सकते। समाज में तुम्हारी क्या इज्जत रहेगी? एक टीचर होकर अपनी पत्नी को तलाक दोगे?”
“जो इज्जत तुमने मेरे लिए छोड़ी ही नहीं, उसका क्या खोना? और समाज की परवाह करने से ज्यादा जरूरी है अपनी आत्मा की परवाह करना, जिसे मैं रोज मरते हुए नहीं देख सकता,” गोविंद ने फैसला सुना दिया था।
अगले दिन गोविंद ने एक वकील से संपर्क किया। पिताजी ने उसकी पीठ थपथपाई। “बेटा, तुमने सही फैसला लिया है। जिंदगी एक ही बार मिलती है, उसे किसी गलत इंसान के साथ घुट-घुट कर बर्बाद मत करो।”
लता को जब वकील का नोटिस मिला तो उसे पहली बार असलियत का अहसास हुआ। उसे पहली बार डर लगा। उसके माता-पिता भी परेशान हो गए। उन्होंने गोविंद को समझाने, धमकाने, मनाने की हर कोशिश की। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। गोविंद का मन पत्थर का हो चुका था।
गोविंद ने अपनी डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखा, “आज मैंने अपने लिए जीने का फैसला किया है। आज मैं जान गया हूँ कि आत्म-सम्मान खोकर किसी भी रिश्ते को बचाने का कोई मतलब नहीं। मैं अब आजाद हूँ, सचमुच आजाद।”
छह महीने बाद, अदालत ने उनके तलाक को मंजूरी दे दी। गोविंद ने फिर से अपनी जिंदगी शुरू की। स्कूल, अपने पिताजी की सेवा, अपने दोस्त राजेश के साथ घूमना-फिरना और अपने लिए समय निकालना। वह खुश था, शांत था, और सबसे बढ़कर, वह खुद की नजरों में सम्मानित था।
दूसरी ओर, लता को कुछ महीनों बाद धीरे-धीरे एहसास हुआ कि उसने क्या खो दिया है। पैसा, पार्टियां, सहेलियां, सब कुछ अपनी जगह था, लेकिन गोविंद का निःस्वार्थ प्रेम, उसका सम्मान और उसका स्थिर सहारा अब उसकी जिंदगी में नहीं था। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। गलतियां सबसे होती हैं, लेकिन उन्हें अपनी आदत बना लेना और दूसरों के सम्मान को रौंदना, हमारी अपनी ही जिंदगी को मुश्किल बना देता है। घर तब घर जैसा लगता है जब उसमें प्यार, अपनापन और सम्मान हो। सिर्फ एक ढांचे को घर कह देना, घर नहीं होता। गोविंद ने यह बात बहुत देर से, लेकिन सही समय पर सीख ली थी।
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