वह परीक्षा देने ट्रेन से जा रहा था, रास्ते में उसका पर्स चोरी हो गया, तभी एक अजनबी महिला मदद के लिए आगे आई।
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रवि कुमार की कहानी: एक सपने से इंसानियत तक का सफर
जब आपकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सपना आपकी आंखों के सामने एक चोरी हुए पर्स की वजह से टूटने लगता है, तो क्या होता है? जब आप एक अनजान शहर की ओर जाने वाली ट्रेन में बिना टिकट, बिना पैसे के एक अपराधी की तरह खड़े होते हैं, और आपकी पूरी दुनिया आपके माता-पिता की सारी कुर्बानियों पर टिकी होती है, तब क्या होता है? क्या होता है जब उसी नाउदी के अंधेरे में कोई अनजान फरिश्ता, एक देवी की तरह, आपका हाथ थाम ले?
यह कहानी है रवि कुमार की। एक गरीब, होनहार लड़के की, जिसके लिए आईपीएस बनना सिर्फ एक नौकरी नहीं, बल्कि अपनी सात पीढ़ियों की गरीबी मिटाने का एकमात्र जरिया था। यह कहानी है सरिता देवी की, एक साधारण महिला की, जिसने उस अनजान लड़के की आंखों में अपने बेटे की छवि देखी और एक छोटी सी मदद करके उसे उसकी मंजिल तक पहुंचाया। और फिर कई साल बाद, जब वही लड़का एक रबदार पुलिस अफसर बनकर उस महिला को उसके टूटे हुए दरवाजे पर ढूंढता है, तो उसने जो देखा और जो किया, उसने न केवल एक पुराने कर्ज को चुकाया बल्कि इंसानियत की एक मिसाल कायम कर दी।
हरिपुर: एक छोटा सा गांव और एक बड़ा सपना
बिहार के आरा जिले की पथरीली और सूखी धरती पर गंगा की धारा से कुछ मील दूर, एक छोटा सा लगभग गुमनाम गांव था—हरिपुर। यह गांव देश के नक्शे पर शायद एक बिंदु के बराबर भी नहीं था। यहां की जिंदगी मानसून की बारिश और साहूकार के कर्ज के बीच एक अंतहीन चक्र में घूमती थी। कच्ची सड़कें, जो बारिश में कीचड़ का दरिया बन जाती थीं, फूस की झोपड़ियां, और खेतों में दिन-रात खटते हुए किसान—यही हरिपुर की पहचान थी।
यहां के लोगों के सपने भी उनकी फसलों की तरह मौसम और तकदीर के भरोसे थे।
इसी गांव में रहता था रवि कुमार। 22 साल का एक दुबला-पतला लड़का, जिसकी आंखों में कुछ कर गुजरने की आग थी। उसके पिता रामकिशन एक छोटे से किसान थे, जिनके पास बस एक बीघा जमीन थी। उस छोटी सी जमीन पर छह लोगों का परिवार पालना किसी पहाड़ को खोदकर पानी निकालने जैसा था।
रवि की मां, शांति, दिन भर घर के काम और खेतों में पति का हाथ बढ़ाने में लगी रहती थीं। रवि से छोटी दो बहनें और एक छोटा भाई था। घर में गरीबी थी। कई-कई रातें वे सिर्फ नमक रोटी या कभी-कभी भूखे भी सोते थे। पर उस घर में शिक्षा का दीया हमेशा जलता रहता था। रामकिशन खुद अनपढ़ थे, पर वह चाहते थे कि उनका बेटा रवि इतना पढ़े, बड़ा आदमी बने कि उसे कभी किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़े।
रवि ने अपने पिता के इस सपने को अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया था। वह पढ़ाई में इतना होशियार था कि गांव के मास्टर जी कहते थे, “रामकिशन, तेरा यह लड़का एक दिन तेरा ही नहीं, इस पूरे गांव का नाम रोशन करेगा।”
उसने 12वीं कक्षा जिले में टॉप करके पास की। फिर गांव से मीलों दूर शहर के एक सरकारी कॉलेज से ग्रेजुएशन किया। वह दिन में कॉलेज जाता और रात में एक ढाबे पर बर्तन मांजकर अपनी किताबों और फीस का खर्चा निकालता। उसका एक ही सपना था—आईपीएस बनना, एक पुलिस अफसर।
यह सपना सिर्फ उसका नहीं था। यह उसके पिता की झुकी हुई कमर का, उसकी मां के फटे हुए आंचल का, और उसकी बहनों की अधूरी ख्वाहिशों का सपना था। वह जानता था कि यह वर्दी सिर्फ एक नौकरी नहीं, बल्कि उसकी और उसके परिवार की इज्जत और स्वाभिमान थी।
संघर्ष और बलिदान
बिना किसी कोचिंग के, सिर्फ अपनी मेहनत और लगन के बल पर रवि ने अपने पहले ही प्रयास में यूपीएससी की प्रारंभिक और मुख्य दोनों परीक्षाएं पास कर लीं। यह एक ऐसा चमत्कार था जिस पर पूरे गांव को विश्वास ही नहीं हो रहा था। अब बस आखिरी पड़ाव बचा था—दिल्ली में होने वाला इंटरव्यू।
जब यह खबर घर पहुंची, तो उस कच्ची झोपड़ी में जैसे दिवाली मन गई। पर इस खुशी के साथ एक बड़ी चिंता भी थी। दिल्ली जाने के लिए और वहां इंटरव्यू तक कुछ दिन रहने के लिए पैसों का इंतजाम कहां से होगा?
रामकिशन ने अपनी जिंदगी का सबसे मुश्किल फैसला लिया। उनके पास उनकी पुश्तैनी जमीन के उस छोटे से टुकड़े के अलावा बस एक ही कीमती चीज थी—उनकी गाय लक्ष्मी। लक्ष्मी सिर्फ एक जानवर नहीं थी, वह उस परिवार का हिस्सा थी। उसके दूध से ही घर के बच्चों का पेट भरता था।
पर आज, अपने बेटे के सपने के आगे रामकिशन को वह सैक्रिफाइस भी छोटा लगा। उन्होंने भारी मन से लक्ष्मी को गांव के साहूकार के हाथों ओनेपौने दाम में बेच दिया। जिस दिन लक्ष्मी को ले जाया जा रहा था, पूरा परिवार ऐसे रो रहा था जैसे घर की बेटी विदा हो रही हो।
उस गाय को बेचकर जो ₹1000 मिले, वही रवि की पूंजी थी।
दिल्ली का सफर और एक अनजान देवी की मदद
जब रवि दिल्ली के लिए निकल रहा था, तो उसकी मां ने रोते हुए उसके हाथ में रोटियों की एक पोटली और ₹100 का एक पुराना मुड़ा हुआ नोट थमाया। “बेटा, रास्ते में कुछ खा लेना।”
रवि अपने पिता के झुके हुए कंधे और मां की नम आंखों को देखकर भारी मन से घर से निकला। उसके कंधों पर सिर्फ एक छोटा सा बैग नहीं, बल्कि पूरे परिवार की उम्मीदों और उनकी कुर्बानियों का एक बड़ा बोझ था।
दिल्ली जाने वाली विक्रमशिला एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे में तिल रखने की जगह नहीं थी। रवि किसी तरह दरवाजे के पास एक कोने में सिकुड़ कर बैठ गया।
डिब्बे में पसीने, शोर और भीड़ का एक अजीब संगम था। पर रवि इन सब से बेखबर अपनी दुनिया में खोया हुआ था। वह अपनी छोटी सी डायरी में लिखे इंटरव्यू के नोट्स पढ़ रहा था। उसकी आंखों के सामने बार-बार अपने पिता का थका हुआ चेहरा और मां के आंसू आ रहे थे।
रात हुई। भीड़ थोड़ी कम हुई तो रवि को बैठने की थोड़ी जगह मिल गई। वह अपनी सीट पर बैठा और थकान के मारे उसकी आंख लग गई। उसने अपने छोटे से बैग को सिर के नीचे तकिए की तरह रख लिया था, जिसमें उसके सारे कीमती दस्तावेज, इंटरव्यू का कॉल लेटर और वह बटुआ था जिसमें उसके पिता की जिंदगी भर की कमाई थी।
सपनों का टूटना: बटुआ चोरी
रात के किसी पहर, जब ट्रेन उत्तर प्रदेश के किसी अनजान स्टेशन से गुजर रही थी, किसी शातिर चोर ने बड़ी सफाई से उसके बैग की चैन खोलकर उसका बटुआ निकाल लिया।
सुबह जब रवि की आंख खुली, तो ट्रेन दिल्ली पहुंचने ही वाली थी। तभी डिब्बे में टिकट चेक करने वाला टीटीई दाखिल हुआ।
रवि ने आदतन अपनी जेब में हाथ डाला—बटुआ गायब था। उसका दिल थक से रह गया। उसने घबराकर अपना बैग चेक किया। बैग की चैन खुली हुई थी और बटुआ नहीं था। एक पल के लिए उसे लगा जैसे उसकी सांस रुक गई हो।
वह पागलों की तरह अपनी सीट के नीचे, आसपास हर जगह ढूंढा, पर बटुआ कहीं नहीं था। उसमें सिर्फ पैसे ही नहीं, उसका टिकट भी था।
टीटीई ने कहा, “क्या हुआ भाई साहब? टिकट दिखाइए।”
रवि ने कांपती आवाज में कहा, “सर, मेरा बटुआ चोरी हो गया। उसमें मेरा टिकट और सारे पैसे थे।”
टीटीई, एक अधेड़ उम्र का सख्त और नियम कानून का पालन करने वाला आदमी, रवि को अविश्वास से देखने लगा। “अच्छा, यह तो बहुत पुरानी कहानी है। हर दूसरा बिना टिकट वाला यही कहानी सुनाता है। चुपचाप टिकट दिखाओ, वरना अगले स्टेशन पर आरपीएफ के हवाले कर दूंगा।”
रवि पूरी तरह टूट चुका था। उसका सपना, उसकी मंजिल, सब कुछ उसकी आंखों के सामने बिखर रहा था। वह गिड़गिड़ा रहा था, लोगों से मदद की भीख मांग रहा था, पर उस भीड़ भरे डिब्बे में किसी के पास एक गरीब लड़के की कहानी सुनने का वक्त नहीं था।
एक अनजान देवी की मदद
तभी उस नाउदी के अंधेरे में एक आवाज आई, “रुकिए, टीटीई साहब।”
सबने मुड़कर देखा। पास की ही एक सीट पर एक मध्यम आयु की महिला बैठी थी। उम्र लगभग 45-50 की होगी। उन्होंने एक साधारण सूती साड़ी पहनी थी। माथे पर छोटी सी बिंदी और आंखों में शांति और करुणा थी।
“मैं इस लड़के के टिकट के पैसे दे दूंगी।” पूरा डिब्बा उस महिला को हैरानी से देखने लगा। टीटीई भी चौंक गया, “आप इन्हें जानती हैं क्या, मैडम?”
“नहीं, मैं इन्हें नहीं जानती,” महिला ने कहा। “मेरा नाम सरिता देवी है। मैं इसकी आंखों में सच्चाई देख सकती हूं। यह लड़का झूठ नहीं बोल रहा।”
उन्होंने अपने पर्स से पैसे निकाले और रवि का जुर्माना और टिकट का पूरा किराया टीटीई को दे दिया।
रवि अवाक सा उस देवी जैसी औरत को देखता रहा।
टीटीई के जाने के बाद सरिता देवी ने रवि को अपने पास बुलाया। “यहां आओ बेटा, बैठो।”
रवि शर्मिंदगी और कृतज्ञता के बोझ तले दबा हुआ उनके पास जाकर जमीन पर बैठ गया।
“नहीं बेटा, जमीन पर नहीं, यहां मेरे पास बैठो।”
उन्होंने उसे अपनी सीट पर बिठाया। “तुम कहां से आ रहे हो? और यह यूपीएससी क्या होता है?”
उन्होंने बहुत अपनापन से पूछा।
रवि, जो अब तक अपने आंसुओं को रोक रहा था, एक बच्चे की तरह फूट-फूट कर रो पड़ा। उसने उन अनजान महिला के सामने अपना दिल का सारा बोझ, अपनी पूरी कहानी उंडेल दी—अपना गांव, अपने माता-पिता का त्याग, अपनी गाय का बिकना, अपना सपना।
सरिता देवी चुपचाप उसकी पूरी कहानी सुनती रही। उनका अपना दिल भी भर आया। उन्हें अपने बेटे की याद आ गई, जो उन्हीं की उम्र का था और फौज में था।
जब रवि चुप हुआ, तो उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरा। “बेटा, जो मां-बाप अपने बच्चे के सपनों के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी दे सकते हैं, उनका बेटा कभी हार नहीं सकता। और जिस देश की सेवा करने तुम जा रहे हो, उस देश की एक मां अगर तुम्हारी इतनी सी मदद न कर सके, तो लानत है ऐसी मां पर।”
एक आशीर्वाद और वादा
कुछ देर बाद अलीगढ़ स्टेशन आने वाला था, जहां सरिता देवी को उतरना था। उतरने से पहले उन्होंने फिर अपना पर्स खोला और उसमें से ₹500 का एक नोट निकालकर रवि की ओर बढ़ाया।
“यह रख लो बेटा, दिल्ली में तुम्हारे काम आएंगे।”
रवि ने हाथ जोड़ लिए, “नहीं मां जी, प्लीज, आपने पहले ही मुझ पर इतना बड़ा एहसान कर दिया है। मैं यह पैसे नहीं ले सकता। मैं पहले ही आपके कर्ज के बोझ तले दबा हुआ हूं।”
“इसे कर्ज मत समझो बेटा,” सरिता देवी की आंखों में एक अजीब सी चमक थी। “इसे एक मां का आशीर्वाद समझो। और अगर तुम सच में मेरा यह कर्ज चुकाना चाहते हो, तो एक वादा करो।”
“क्या मां जी?”
“वादा करो कि जब तुम एक बड़े अफसर बन जाओ, तो मेरे जैसे किसी और मजबूर, किसी और जरूरतमंद की मदद बिना किसी सवाल के ऐसे ही कर दोगे। जिस दिन तुम ऐसा करोगे, समझ लेना मेरा कर्ज चुक गया।”
रवि की आंखों से फिर आंसू बहने लगे। उसने कांपते हाथों से वह नोट ले लिया। “मैं वादा करता हूं मां जी, मैं आपकी यह सीख जिंदगी भर याद रखूंगा।”
“तुम्हारा नाम क्या है बेटा?”
“रवि कुमार, और मेरा नाम सरिता है।”
ट्रेन स्टेशन पर रुकी। सरिता देवी उतरी और उस भीड़ में कहीं खो गई। रवि उन्हें तब तक देखता रहा जब तक वह आंखों से ओझल नहीं हो गई।
दिल्ली में नई उम्मीद
रवि जब दिल्ली स्टेशन पर उतरा, तो उसके दिल में एक नई हिम्मत और भारी जिम्मेदारी का एहसास था। वह ₹500 उसके लिए सिर्फ कागज का टुकड़ा नहीं थे, वे एक मां का आशीर्वाद और विश्वास थे।
उसने एक सस्ते से धर्मशाला में कमरा लिया। दिन में गुरुद्वारे की लंगर में खाना खाता और रात भर इंटरव्यू की तैयारी करता। मीलों पैदल चलता ताकि बस के पैसे बचा सके।
इंटरव्यू के दिन जब वह बोर्ड के सामने बैठा, तो उसके मन में कोई डर नहीं था। उसकी आंखों के सामने सिर्फ दो चेहरे थे—अपने पिता का, जिसने अपनी गाय बेच दी, और उस अनजान मां का, जिसने उसे टिकट खरीद कर दिया था।
वह पूरे आत्मविश्वास और ईमानदारी के साथ हर सवाल का जवाब दिया।
सफलता और कर्ज चुकाना
महीनों बाद जब परिणाम आया, तो हरिपुर गांव में इतिहास रच गया। रवि कुमार ने यूपीएससी परीक्षा पास कर ली, और पूरे देश में एक अच्छी रैंक हासिल की। वह अब एक आईपीएस अफसर बनने वाला था।
उस दिन उस छोटी सी झोपड़ी में जो जश्न मनाया गया, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।
साल बीतते गए। रवि ने मसूरी की नेशनल पुलिस एकेडमी में कठिन ट्रेनिंग पूरी की। वह एक ईमानदार, सख्त लेकिन संवेदनशील पुलिस अफसर के रूप में जाना जाने लगा।
उसकी पोस्टिंग देश के अलग-अलग मुश्किल इलाकों में हुई, पर वह जहां भी गया, उसने अपनी अलग छाप छोड़ी। वह गरीबों का मसीहा और अपराधियों के लिए खौफ का दूसरा नाम बन गया।
उसने अपने माता-पिता के सारे कर्ज चुका दिए, गांव में एक सुंदर घर बनवाया, बहनों की शादी अच्छे घरों में करवाई, छोटे भाई को शहर के अच्छे कॉलेज में पढ़ाया।
पर एक कर्ज अब भी बाकी था—सरिता मांझी का कर्ज।
सरिता मांझी की खोज
रवि अक्सर अपनी पत्नी से सरिता मांझी का जिक्र करता। उसने उन्हें ढूंढने की बहुत कोशिश की, उसके पास बस उनका नाम और शहर का नाम—अलीगढ़—था।
उसने अपनी पुलिस की पहुंच का इस्तेमाल किया। अलीगढ़ के हर थाने में उस उम्र की महिलाओं की लिस्ट निकलवाई, पर यह भूसे के ढेर में सुई खोजने जैसा था।
सात साल बीत गए। रवि अब एक जिले का एसपी बन चुका था। फिर एक दिन किस्मत ने उसे उसका कर्ज चुकाने का मौका दिया। उसकी ट्रांसफर अलीगढ़ जिले में हो गई।
सरिता मांझी से मुलाकात
एक दिन वह अपने ऑफिस में पुरानी चोरी की फाइल देख रहा था। केस था—एक बूढ़ी औरत सरिता शर्मा के घर बार-बार होने वाली छोटी-छोटी चोरी का।
रवि का दिल जोर से धड़का। उसने फाइल में दिया हुआ पता देखा। वह शहर के एक पुराने और गरीब मोहल्ले का था।
अगले दिन वह साधारण कपड़ों में उस मोहल्ले में पहुंचा। गलियां इतनी तंग थीं कि जीप अंदर नहीं जा सकती थी। वह पैदल उस पते को ढूंढने लगा।
अंत में वह एक छोटे से लगभग खंडहर हो चुके घर के सामने पहुंचा। दरवाजे पर रंग-रोगन की जगह सालों की सीलन और गरीबी की परतें जमी थीं।
दरवाजा खटखटाया। कुछ देर बाद दरवाजा खुला और सामने जो औरत खड़ी थी, वह देख रवि का कलेजा मुंह को आ गया।
वही आंखें, वही चेहरा। पर अब उन आंखों में शांति नहीं, बल्कि सालों की पीड़ा और थकान थी।
चेहरे पर गहरी झुर्रियां, साड़ी पुरानी और फीकी थी।
“जी, कहिए किससे मिलना है?” उसने पूछा।
रवि कुछ बोल नहीं पाया। गला भर आया।
“मांजी, मैं रवि हूं।”
सरिता देवी ने उसे गौर से देखा। “रवि कौन रवि?”
“ट्रेन, सात साल पहले दिल्ली…”
इतना सुनते ही सरिता देवी की आंखों में पहचान की चमक आई। “रवि बेटा, तू…”
रवि अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर पा रहा था। वही लड़का जो उस दिन एक बेबस लाचार बच्चा लग रहा था, आज एक लंबा चौड़ा रबदार आदमी बनकर उनके सामने खड़ा था।
उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। उन्होंने रवि को गले से लगा लिया। रवि भी उनसे लिपट कर रोने लगा।
सरिता मांझी की दयनीय हालत
जब भावनाओं का ज्वार थोड़ा शांत हुआ, तो सरिता देवी रवि को अंदर ले गई।
घर अंदर से और भी ज्यादा दयनीय हालत में था। दीवारों से प्लास्टर झड़ रहा था, सामान के नाम पर बस एक टूटी चारपाई और कुछ पुराने बर्तन थे।
“यह सब क्या है मांजी? आपकी यह हालत कैसे हुई?” रवि ने पूछा।
सरिता देवी ने अपनी दर्द भरी कहानी सुनाई। उनके पति, जो एक छोटी सी दुकान चलाते थे, कुछ साल बाद लंबी बीमारी के बाद गुजर गए। उनका इकलौता बेटा शादी के बाद पूरी तरह बदल गया। वह अपनी पत्नी के बहकावे में आकर नशे और जुए की लत में पड़ गया। उसने दुकान बेच दी, घर बेच दिया और अपनी मां के सारे गहने और जमा पूंजी लेकर उन्हें इस किराए के टूटे मकान में मरने के लिए छोड़कर कहीं चला गया।
अब सरिता देवी बिल्कुल अकेली थी। वह लोगों के घरों में सिलाई का काम करके या खाना बनाकर गुजारा करती थी।
कर्ज चुकाना और नई जिंदगी
पूरी कहानी सुनकर रवि का दिल ग्लानी और गुस्से से भर गया। जिस औरत ने उसके सपने को बचाया था, आज वह खुद मोहताज थी।
उसने सरिता देवी के फटे पैर छुए। “मांझी, आपने उस दिन कहा था कि जब मैं अफसर बन जाऊं तो किसी जरूरतमंद की मदद करके आपका कर्ज चुका दूं। पर मेरा पहला फर्ज तो आपके प्रति है। आज आपका यह बेटा आपका सारा कर्ज सूद के साथ चुकाएगा।”
उस दिन के बाद रवि ने सरिता देवी की दुनिया को हमेशा के लिए बदल दिया।
सबसे पहले उसने शहर के सबसे अच्छे इलाके में एक सुंदर, पूरी तरह फर्निश्ड फ्लैट उनके नाम पर खरीदा।
अपनी पुलिस की ताकत का इस्तेमाल करते हुए उसने उनके नालायक बेटे को ढूंढा। उसे जेल नहीं भेजा, बल्कि सुधार गृह भेजा और जिम्मेदार इंसान बनने का मौका दिया।
सरिता देवी की देखभाल के लिए 24 घंटे की नर्स और नौकर रखा।
सबसे बड़ी बात, उसने अपनी पत्नी और बच्चों को अलीगढ़ बुला लिया और सरिता देवी को अपनी मां का दर्जा दिया।
उसने अपनी मां से कहा, “मां, आज से यह भी तुम्हारी बहन है और मेरी दूसरी मां।”
रवि की मां, शांति देवी, जो खुद नेक दिल औरत थीं, ने सरिता देवी को अपनी सगी बहन की तरह अपना लिया।
अब सरिता देवी उस टूटे हुए अकेले घर में नहीं, बल्कि एक भरे-पूरे, प्यार करने वाले परिवार के साथ अपने बाकी के दिन पूरे सम्मान और सुकून के साथ बिताने लगीं।
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