वृद्धाश्रम में ससुर को छोड़ने गई बहू… वहीं अपनी मां मिली तो पैरों तले ज़मीन खिसक गई
वृद्धाश्रम की दीवारों के पीछे: एक सच्ची कहानी
कैलाश बाबू उत्तर प्रदेश के लखनऊ के एक समृद्ध परिवार से थे। उनका जीवन तब तक खुशहाल था जब तक उनकी पत्नी सुधा देवी उनके साथ थी। सुधा देवी उनके जीवन की नींव थीं, जो हर कठिनाई में मुस्कुराते हुए उनका सहारा बनीं। परंतु कुछ साल पहले बीमारी के चलते सुधा देवी इस दुनिया को छोड़ गईं। तब से कैलाश बाबू का घर सूने आंगन की तरह सुनसान हो गया।
कैलाश बाबू ने कभी शिकायत नहीं की। उनका विश्वास था कि उनका बेटा रोहन और बहू रेखा उन्हें कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे। वे जानते थे कि उन्होंने अपने बेटे को पढ़ाने-लिखाने में अपनी जवानी लगा दी थी, उसे बड़ा आदमी बनाने का सपना पूरा किया था। पर समय के साथ बेटे-बहू की प्राथमिकताएं बदल गईं। घर में ताने-ताने और झगड़े बढ़ने लगे।
रेखा कहती, “कैलाश बाबू दिन भर बैठे रहते हैं, कोई काम नहीं करते, सिर्फ खर्च बढ़ाते हैं।” रोहन गुस्से में बोलता, “आप संभलकर काम क्यों नहीं करते? जब देखो चोट लगाकर बैठ जाते हैं।” ये शब्द कैलाश बाबू के दिल को बार-बार तोड़ते रहे।
फिर भी वे सहते रहे, सोचकर कि कल का दिन बेहतर होगा। लेकिन वह कल कभी नहीं आया।
एक दिन सुबह-सुबह बहू और बेटे की जोर-जोर से बहस हो रही थी। कैलाश बाबू चुपचाप अपने कमरे में गए। उन्होंने पुराना बैग निकाला, उसमें दो-तीन जोड़ी कपड़े रखे। सुधा देवी की तस्वीर उठाई, आंखों में आंसू भर आए और धीमे स्वर में बोले, “सुधा, तुम तो मुझे पहले ही छोड़ गई थी, पर देखो आज तुम्हारे बेटे ने भी मेरा साथ छोड़ दिया।”
उन्होंने खुद को संभाला, आंखें पोंछीं और अपने पुराने दोस्त राधेश्याम को फोन किया, जो पहले से ही वृद्धाश्रम में रहते थे। आवाज भर आई, “राधेश्याम, अब मैं भी वहीं आना चाहता हूँ। रोज-रोज का अपमान सहा नहीं जाता।”
उस दिन कैलाश बाबू ने ठान लिया कि अब यह घर उनका नहीं रहा। वे अपने बैग और सुधा देवी की तस्वीर के साथ घर छोड़कर वृद्धाश्रम की ओर चल पड़े।
गली के मोड़ पर उन्होंने पीछे मुड़कर आखिरी बार अपने घर को देखा। लेकिन न बेटे ने रोका, न बहू ने। दोनों अपने कमरे में चाय और स्नैक्स का आनंद ले रहे थे।
कैलाश बाबू धीरे-धीरे वृद्धाश्रम पहुंचे। दरवाजे के बाहर खड़े एक कर्मचारी ने उन्हें देखा और सम्मान के साथ भीतर ले गया। अंदर का नजारा देखकर कैलाश बाबू कुछ पल के लिए ठहर गए। बगीचे में कुछ बुजुर्ग टहल रहे थे, कुछ अखबार पढ़ते हुए खामोश बैठे थे, तो कुछ एक-दूसरे से हंसी-ठिठोली कर रहे थे।
यह देखकर उन्हें हैरानी हुई क्योंकि घर में उन्हें हमेशा तिरस्कार और खामोशी मिली थी। यहां लोग अपनों से दूर होकर भी अपनों जैसा सुकून ढूंढ़ रहे थे।
धीरे-धीरे कैलाश बाबू की दिनचर्या बदलने लगी। सुबह सबके साथ योग और प्राणायाम, दोपहर में सामूहिक भोजन। घर में जहां हर निवाले के साथ अपमान का घूंट पीना पड़ता था, वहीं आश्रम में हर निवाला साझा खुशी का हिस्सा लगता था।
पर रात को जब सब अपने-अपने कमरे में चले जाते, अकेलापन फिर उन्हें घेर लेता। वे अपनी पत्नी सुधा देवी की तस्वीर निकालते और धीरे-धीरे बातें करने लगते, “देखो सुधा, यहां सब साथ हैं, सब अपनों की तरह पेश आते हैं, पर तुम्हारी कमी अभी भी पूरी नहीं हो पाती।”
उनकी आंखें नम हो जातीं और तस्वीर आंसुओं से भीग जाती।
कुछ दिन बाद आश्रम के बाहर एक कार आई। सभी बुजुर्ग उत्सुकता से देखने लगे क्योंकि अक्सर नई गाड़ियां किसी त्यागी हुए बुजुर्ग को लेकर आती थीं। कार से पहले एक नौजवान उतरा और फिर एक बुजुर्ग महिला, जिसके सिर पर पल्लू था। सहारे से बाहर निकली। उनकी उम्र लगभग 65 वर्ष के आसपास थी, लेकिन थकान और दर्द ने उनके चेहरे पर गहरी लकीरें बना दी थीं।
साथ आई महिला ने उनके हाथ में एक छोटा बैग थमाया और कुछ मिनट बातचीत के बाद लौट गई। वह बुजुर्ग महिला कुछ देर तक कार की ओर देखती रही, फिर भारी मन से अपनी आंखें पोंछकर आश्रम के भीतर चली आई।
कैलाश बाबू वहीं प्रांगण में बैठे थे। जैसे ही उनकी नजर उस महिला पर पड़ी, उन्हें कुछ अजीब सा एहसास हुआ। उन्होंने गौर से देखा तो लगा जैसे वह चेहरा कहीं देखा हुआ है, मगर दिमाग साफ नहीं कर पा रहा था।
महिला ने जानबूझकर अपना चेहरा पल्लू से आधा ढक लिया और सीधे महिला विभाग की ओर बढ़ गई।
पास बैठे एक बुजुर्ग ने लंबी सांस भरकर कहा, “आज फिर एक मां की ममता तार-तार हो गई। फिर से किसी बेटे ने अपनी मां को यहां छोड़ दिया।”
यह सुनकर कैलाश बाबू का दिल और भारी हो गया। वे बार-बार उस महिला को याद करने लगे। उन्हें लगता था जैसे वह उन्हें जानते हैं, मगर पहचान पूरी नहीं हो रही थी।
कुछ दिन बाद एक सुबह बगीचे में टहलते हुए उन्होंने वही महिला देखी। वह बागवानी कर रही थी और काम करते-करते उनका पल्लू अचानक सरक गया। कैलाश बाबू की नजर उनके चेहरे पर पड़ी और उनका दिल जैसे थम गया। पैरों तले जमीन खिसक गई।
वह महिला कोई और नहीं बल्कि जानकी देवी थीं, जिनसे उनका पुराना नाता था और जिन्हें वे हमेशा खुशहाल परिवार में देखना चाहते थे।
आज वही जानकी देवी वृद्धाश्रम की मिट्टी में पौधों को सींचते हुए नजर आ रही थीं। उनके चेहरे की चमक कहीं खो चुकी थी। आंखों में गहरी उदासी और होठों पर थमी हुई चुप्पी थी।
कैलाश बाबू कुछ पल तक वहीं खड़े रहे। फिर धीरे-धीरे उनके पास जाकर बोले, “जानकी, क्या सचमुच आप ही हैं? मैंने सोचा भी नहीं था कि आपको यहां देखूंगा।”
जानकी देवी चौंक गईं। उन्होंने जल्दी से अपने सिर पर पल्लू खींचा और नजरें झुका लीं। आवाज कांप रही थी।
“हाँ, मैं ही हूँ, मगर आप यहां?”
कैलाश बाबू ने लंबी सांस भरते हुए कहा, “मैं भी मजबूर होकर यहां आया हूँ। बेटे-बहू के रोज-रोज के तानों से तंग आकर।”
जानकी देवी ने धीरे से कहा, “मैंने भी सोचा था कि मेरे बच्चे मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे। लेकिन किस्मत देखो, मेरे ही बेटे और बहू ने मुझे यहां पहुंचा दिया।”
कैलाश बाबू हैरानी से उन्हें देखते रहे। उनका दिल सवालों से भर गया। “कैसे हो सकता है इतना बड़ा धोखा? आपने तो हमेशा अपने परिवार की खुशियों के किस्से सुनाए थे।”
जानकी देवी ने अपनी साड़ी के पल्लू से आंसू पोंछते हुए कहा, “कुछ महीनों पहले तक सब ठीक था। मैं घर के हर काम में बहू का हाथ बंटाती थी, बेटे को समय पर खाना देती थी और बच्चों की देखभाल करती थी।”
“लेकिन धीरे-धीरे बहू को मेरा साथ बोझ लगने लगा। वह कहती कि मैं पुराने ख्यालों की हूं, घर के कामों में दखल देती हूं। बेटे को भी बहू की बातों पर यकीन होने लगा। फिर एक दिन उन्होंने कहा कि मुझे तीर्थ यात्रा पर भेज रहे हैं।”
“मैं खुश हुई कि चलो बुढ़ापे में पुण्य मिलेगा, लेकिन सच क्या था? उन्होंने मुझे वहीं छोड़ दिया और कभी पलटकर नहीं देखा।”
कैलाश बाबू के होंठ कांप उठे। उन्होंने मन ही मन कहा, “हे भगवान! संतानें इतनी निर्दयी कैसे हो सकती हैं?”
जानकी देवी की आंखें फिर छलक आईं। वे बोलीं, “मां होना ही शायद सबसे बड़ी सजा है इस जमाने में। अपने बच्चों को नौ महीने कोख में रखा, सालों तक नींद और भूख त्याग कर पाला, और आज उन्हीं बच्चों के लिए मैं पराई हो गई।”
“मुझे लगता है अब मेरा घर यही आश्रम है। कम से कम यहां कोई झूठा प्यार दिखाकर धोखा तो नहीं देगा।”
कैलाश बाबू की आंखें भी भर आईं। दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा और उनकी खामोशी बहुत कुछ कह गई। वे समझ चुके थे कि उनकी तकलीफ अलग-अलग नहीं बल्कि एक जैसी है। अपने ही अपनों के हाथों धोखा और तिरस्कार।
दिन बीतते गए। कैलाश बाबू और जानकी देवी धीरे-धीरे वृद्धाश्रम की दिनचर्या में ढलने लगे। दोनों की साझा पीड़ा उन्हें और करीब ले आई थी। कभी चाय के कप पर बातें करते, कभी बगीचे में टहलते हुए पुराने दिनों को याद करते।
लेकिन दिल के किसी कोने में दोनों के जख्म ताजा ही रहते थे।
इसी बीच एक सुबह आश्रम के संचालक ने आकर कहा, “कैलाश जी, आपको कोई मिलने आया है।”
कैलाश बाबू चौक पड़े। उनके मन में हजार सवाल उठे। कौन हो सकता है? इतने महीनों से किसी ने हाल तक नहीं पूछा, अब अचानक कौन आया?
जैसे ही वह बाहर आए, सामने का दृश्य देखकर उनकी आंखें भर आईं। उनका छोटा पोता गोलू दौड़ते हुए उनकी ओर आया और चिल्लाया, “दादू! दादू!”
कैलाश बाबू वहीं ठिठक गए। गोलू आकर उनकी टांगों से लिपट गया और मासूमियत से बोला, “दादू, मैं आपको बहुत मिस करता हूं। चलिए ना मेरे साथ घर।”
उनकी आंखों से आंसू फूट पड़े। इतने दिनों तक भी वे मजबूत बने रहे थे, लेकिन पोते के आलिंगन ने उनके दिल की दीवारें तोड़ दीं। वे झुककर गोलू को सीने से लगा लिए और फूट-फूट कर रो पड़े।
तभी पीछे से उनका बेटा और बहू भी आए। बहू ने धीमी आवाज में कहा, “पिताजी, आज गोलू का जन्मदिन है। उसने जिद की है कि आप उसके साथ पार्टी में रहें। हम चाहते हैं कि आप चलकर हमें आशीर्वाद दें।”
कैलाश बाबू ने हैरानी से उन्हें देखा और कड़वाहट से बोले, “वाह! इतने महीनों तक किसी को मेरी सुध नहीं आई। ना हाल पूछा, ना फोन किया, ना एक बार यह जानने की कोशिश की कि मैं जिंदा हूं या मर गया। और आज अचानक मुझे याद आ गई? क्यों? क्योंकि तुम्हें अपनी इज्जत बचानी है। रिश्तेदार पूछेंगे कि पिताजी कहां हैं, तो जवाब देने के लिए मुझे बुलाने आए हो।”
उनके बेटे ने सिर झुका लिया। बोला, “पिताजी, हमसे गलती हुई है, लेकिन आज गोलू की खुशी के लिए आप एक बार घर चलिए। उसने अपनी जन्मदिन की पार्टी में आपको बुलाया है, और अगर आप नहीं आए तो उसका दिल टूट जाएगा।”
कैलाश बाबू का दिल दो हिस्सों में बंट गया। एक तरफ उनकी नाराजगी थी, दूसरी तरफ पोते की मासूम जिद।
गोलू फिर बोला, “चलो ना दादू, आप आएंगे तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा।”
कैलाश बाबू ने गोलू का मासूम चेहरा देखा और उनका दिल पिघल गया। उन्होंने ठंडी सांस भरते हुए कहा, “ठीक है, मैं चलूंगा, लेकिन सुन लो, मैं सिर्फ गोलू की खुशी के लिए जा रहा हूं। जैसे ही जन्मदिन की पार्टी खत्म होगी, मैं वापस इसी आश्रम में लौट आऊंगा। यही अब मेरा घर है।”
बहू और बेटा चुपचाप सिर झुकाए खड़े रहे। कैलाश बाबू ने गोलू का हाथ थामा और उसके साथ बाहर निकल गए।
शाम को जब घर पहुंचे, तो हर तरफ रोशनी, मेहमान और सजावट थी। गोलू की हंसी और रिश्तेदारों के बीच कैलाश बाबू ने सबके सामने खुद को संभाल लिया, मुस्कुराते रहे। लेकिन भीतर उनका दिल कह रहा था, “यहां सब हंसी-खुशी है, पर मेरी जिंदगी के पन्ने आंसुओं से भरे हैं।”
गोलू का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाया गया। लेकिन कैलाश बाबू को देखकर रिश्तेदारों ने पूछा, “अरे, आप कहां थे इतने दिन? आपको देखे बिना तो घर सुनसान लग रहा था।”
कैलाश बाबू मुस्कुराए, लेकिन उनके दिल में कड़वाहट थी। उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस गोलू के सिर पर हाथ रखकर उसका आशीर्वाद देते रहे।
पार्टी खत्म होने के बाद रात गहरी हो गई। सब सोने चले गए, लेकिन कैलाश बाबू के मन में उथल-पुथल थी। वे अपने कमरे में बैठे अपनी पत्नी सुधा की तस्वीर को देखते हुए बुदबुदाए, “सुधा, आज तेरा पोता मुझे रोक रहा है, पर तेरे बेटे और बहू की करतूतें मुझे भुलाए नहीं भूल रही।”
सुबह होते ही बेटा और बहू तैयार खड़े थे। बहू ने कहा, “पिताजी, चलिए, हम आपको आश्रम वापस छोड़ आते हैं।” उसके चेहरे पर एक अजीब सी संतुष्टि थी, जैसे वह राहत पा रही हो कि अब घर का बोझ फिर से उतर जाएगा।
कैलाश बाबू सब समझ गए। उन्होंने बिना कुछ कहे जल्दी से स्नान किया, कपड़े पहने और गाड़ी में बैठ गए। गोलू मासूम आंखों से देख रहा था और बार-बार पूछ रहा था, “दादू, आप फिर से क्यों जा रहे हो?”
कैलाश बाबू ने सिर्फ इतना कहा, “बेटा, कभी-कभी सच बहुत कड़वा होता है, लेकिन याद रखना, मैं तुम्हें हमेशा प्यार करता रहूंगा।”
गाड़ी जब वृद्धाश्रम पहुंची, तो बेटा भी उनके साथ अंदर तक आया। कैलाश बाबू ने गाड़ी से उतरकर एक लंबी नजर अपने बेटे पर डाली और कहा, “याद रखना, रोहन, तुमने मुझे यहां छोड़ा था, लेकिन आज मैं अपनी मर्जी से यहां रह रहा हूं। यह अब मेरा घर है।”
इतना कहकर उन्होंने भीतर कदम रखा।
लेकिन तभी आश्रम से एक औरत बाहर आई। वही जानकी देवी।
जैसे ही रेखा, कैलाश बाबू की बहू, ने उन्हें देखा, उसके पैरों तले जमीन खिसक गई। वह भागकर मां के पैरों में गिर गई और फूट-फूट कर रोते हुए बोली, “मां, आप यहां? आपने बताया क्यों नहीं? मुझे लगा आप तीर्थ यात्रा पर हैं। भाभी ने यही कहा था, मैं तो अनजान थी।”
जानकी देवी की आंखों से आंसू बहे। उन्होंने बेटी को अपने से अलग करते हुए कहा, “रेखा, मैं तेरी मां हूं, लेकिन तेरे ससुर की भी एक सास हूं। जब तू अपने ही ससुर को अपमानित कर वृद्धाश्रम में छोड़ आई थी, उसी दिन मैंने समझ लिया था कि तू भी अपने बच्चों के लिए वही करेगी जो आज मेरे बेटे ने मेरे साथ किया है। अब तेरी मां होने पर भी मुझे शर्म आती है।”
रेखा फूट-फूट कर रोने लगी। उसने अपने ससुर के पैरों में सिर रख दिया और कहा, “पिताजी, मुझे माफ कर दीजिए। मैंने बहुत बड़ी गलती की है। मुझे कभी नहीं सोचना चाहिए था कि एक इंसान जिसने आपको जन्म दिया, पाल-पोस कर बड़ा किया, वह इस हालात में पहुंचेगा। मुझे एहसास हो गया है। मैं बदल जाऊंगी।”
रोहन भी रो पड़ा और हाथ जोड़कर बोला, “पिताजी, मां, हमें माफ कर दीजिए। हमें अपने साथ घर चलिए। हम अपनी गलती सुधारेंगे।”
कैलाश बाबू और जानकी देवी ने एक-दूसरे की ओर देखा और फिर धीमी आवाज में कहा, “नहीं बेटा, अब देर हो चुकी है। धोखा इंसान एक बार सह सकता है, लेकिन बार-बार नहीं। यह आश्रम अब हमारा घर है, यही हमें सुकून है, यही अब हमारी जिंदगी बीतेगी।”
रेखा और रोहन रोते रहे, लेकिन कैलाश बाबू और जानकी देवी अपने-अपने कमरों में चले गए। उनकी आंखों से आंसू जरूर बह रहे थे, लेकिन उनके चेहरे पर एक सुकून भी था कि उन्होंने अपने आत्मसम्मान को बचा लिया।
कहानी का संदेश
यह कहानी केवल कैलाश बाबू और जानकी देवी की नहीं है, बल्कि हर उस मां-बाप की है जो अपने बच्चों के लिए अपनी पूरी जिंदगी कुर्बान कर देते हैं और बदले में तिरस्कार और अकेलापन पाते हैं।
याद रखिए, मां-बाप कभी बोझ नहीं होते। उनका अपमान करने से पहले सोचिए कि कल हमें भी उसी उम्र से गुजरना होगा।
क्या सच में माता-पिता को उम्र ढलने पर बोझ समझकर आश्रम की चार दीवारों में छोड़ देना सही है? क्या बच्चों का कर्तव्य सिर्फ अपनी खुशियों तक सीमित होना चाहिए? या अपने बुजुर्गों की सेवा और सम्मान करना भी उतना ही जरूरी है?
यह सोचने का विषय है।
(समाप्त)
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