“वेट्रेस ने अमीर आदमी से कहा: मेरी माँ के पास भी ऐसा ही अंगूठी है… और जो हुआ उसने सब बदल दिया”
शीर्षक: अंगूठी का नीलम
कैफे की दोपहर हमेशा की तरह हल्की-सी सुस्त थी। बाहर सूरज अपनी सुनहरी किरणें कांच के शीशों से अंदर भेज रहा था, और वह रोशनी टेबलों पर बिखरे हुए चमकते धूलकणों के बीच खेल रही थी। हवा में कॉफी की खुशबू थी—गाढ़ी, मीठी और थोड़ी-सी अकेली।
अंजलि, उस कैफे की सबसे मेहनती वेट्रेस, अपनी नीली वर्दी में तेज़ी से इधर-उधर घूम रही थी। उसके कदमों की आहट और उसकी मुस्कान दोनों ही जगह-जगह पहचान लिए जाते थे। लोग उसे पसंद करते थे, क्योंकि उसके चेहरे पर एक सादगी थी—एक ऐसी सच्चाई जो बनावटी नहीं लगती थी। लेकिन उस मुस्कान के पीछे एक थकान थी, जो किसी को दिखती नहीं थी। माँ की दवाइयों, किराए के मकान और बढ़ती ज़िम्मेदारियों ने उसके कंधों पर वह बोझ डाल दिया था जो उम्र से कहीं ज़्यादा बड़ा था।
दोपहर के इस सुस्त समय में कैफे लगभग खाली था। बस खिड़की के पास की टेबल पर एक आदमी बैठा था—करीब पचास के आसपास उम्र, सलीकेदार ग्रे सूट, चमकती हुई घड़ी और उसके पास रखा हुआ महँगा फोन। उसके हाव-भाव से साफ था कि वह किसी अमीर और असरदार दुनिया से ताल्लुक रखता है। लेकिन उसके चेहरे पर जो छाया थी, वह किसी अधूरेपन की थी।
अंजलि ट्रे में जूस का गिलास लेकर उसके पास पहुँची। “सर, ये रहा आपका ऑर्डर।”
आदमी ने बिना ऊपर देखे बस हल्की-सी आवाज़ में कहा, “थैंक यू।”
वह मुड़ ही रही थी कि उसकी नज़र उस आदमी के हाथ में पड़ी। एक अंगूठी थी—सोने की, जिसमें नीलम का गहरा नीला पत्थर जड़ा था। अंजलि के कदम वहीं रुक गए।
वह अंगूठी… बिलकुल वैसी ही थी जैसी उसकी माँ मीरा के हाथ में हुआ करती थी।
एक पल को उसके भीतर जैसे कोई तार झनझना उठा। दिल में अजीब-सी बेचैनी हुई।
उसने झिझकते हुए कहा, “सर, माफ कीजिएगा, आपकी ये अंगूठी… मेरी माँ के पास भी बिल्कुल ऐसी ही है।”
आदमी ने पहली बार ऊपर देखा। उसकी आँखों में गहराई थी, जैसे किसी पुराने समंदर का तल हो—शांत, मगर बहुत कुछ छिपाए हुए।
“सच?” उसने धीमे स्वर में पूछा।
“जी,” अंजलि ने मुस्कुराने की कोशिश की, “मेरी माँ कहती हैं कि यह डिजाइन बहुत पुराना है। उन्होंने बताया था कि इसे किसी खास जगह से बनवाया गया था। नीलम और सोने की यह जड़ाई अब नहीं मिलती।”
आदमी कुछ पल तक अंगूठी को घूरता रहा। फिर पूछा, “तुम्हारी माँ क्या करती हैं?”
अंजलि ने गहरी साँस ली, “पहले वो टेक्सटाइल कंपनी में काम करती थीं… मनमोहन टेक्सटाइल्स। लेकिन अब बीमार रहती हैं। मैं ही काम करके घर और उनका इलाज चलाती हूँ।”
“मनमोहन टेक्सटाइल्स…” आदमी के होंठों पर वह नाम आते ही जैसे जम गया।
उसके चेहरे की रंगत उड़ गई। “क्या कहा तुमने? मनमोहन टेक्सटाइल्स?”
“जी सर,” अंजलि ने हैरानी से कहा, “आपको कैसे पता?”
आदमी ने अपना सिर झुका लिया। उसकी उंगलियाँ हल्के से कांप रही थीं।
“वो कंपनी… मैंने ही शुरू की थी,” उसने लगभग फुसफुसाते हुए कहा।
अंजलि की भौंहें सिकुड़ गईं। “क्या मतलब?”

वह अब उसकी ओर पूरी तरह देख रहा था। उसकी आँखों में कुछ ऐसा था जो अंजलि को भीतर तक अस्थिर कर रहा था—एक पहचान, एक सवाल, और शायद… एक रिश्ता।
कुछ पल की चुप्पी के बाद वह बोला, “तुम्हारी माँ का नाम क्या है?”
“मीरा,” अंजलि ने जवाब दिया।
उस आदमी की सांस जैसे थम गई। उसने धीरे से सिर उठा कर कहा, “मीरा…”
फिर बहुत लंबे अंतराल के बाद, जैसे किसी सपने से निकलते हुए बोला,
“मीरा मेरी पत्नी का नाम था।”
अंजलि को लगा जैसे किसी ने उसके पैरों के नीचे से ज़मीन खींच ली हो।
उसके कानों में शोर गूंजने लगा। “क्या… क्या कह रहे हैं आप?”
आदमी ने गहरी सांस ली, और एक पीड़ादायक मुस्कान उसके चेहरे पर आई।
“सालों पहले, मीरा और मैं शादीशुदा थे। पर हालात ऐसे बने कि हमें अलग होना पड़ा। मैं विदेश चला गया—कैरियर, ज़रूरतें, और कुछ गलत फैसले… सबने हमें तोड़ दिया। मैंने सोचा था वापस आऊँगा, मगर ज़िंदगी ने मुझे ऐसी जगह फेंक दिया जहाँ लौटना आसान नहीं था।”
वह रुक गया। उसकी आवाज़ भारी हो गई।
“मीरा ने मुझे ढूंढा नहीं… शायद उसने समझ लिया होगा कि मैं लौटूंगा ही नहीं।”
अंजलि की आँखें भीग गईं। “आप कहना क्या चाहते हैं?”
आदमी ने उसके चेहरे की ओर देखा। “अगर मीरा तुम्हारी माँ है, तो… तुम मेरी बेटी हो।”
कमरा जैसे थम गया। कैफे की आवाज़ें—कपों की खनखनाहट, कॉफी मशीन की फुफकार—सब कहीं खो गईं। बस दो दिलों की धड़कनें सुनाई दे रही थीं।
अंजलि का गला सूख गया। उसने ट्रे को कसकर पकड़ा। “नहीं… ये मज़ाक है?”
“काश ये मज़ाक होता,” आदमी ने कहा, “पर ये सच्चाई है।”
उसकी आँखों में नमी थी, और होंठ काँप रहे थे।
“मैंने तुम्हें सिर्फ एक बार देखा था—जिस रात तुम पैदा हुई थीं। मीरा अस्पताल के कमरे में थी, मैं उसके पास था… और फिर अगले ही दिन मुझे जाना पड़ा। मैं वापस आना चाहता था, पर… जिंदगी ने मुझे रोक दिया।”
अंजलि अब काँप रही थी।
“आप… आप इतने साल कहाँ थे?”
“विदेश में,” उसने उत्तर दिया, “शायद भाग रहा था। खुद से, अपनी गलतियों से। मीरा से। तुमसे।”
वह झुककर बोला, “मैं नहीं जानता कि मैं माफी के लायक हूँ या नहीं, पर मैं तुम्हें ढूँढता रहा।”
अंजलि के आँसू अब थम नहीं रहे थे।
उसने कहा, “माँ ने कभी नहीं बताया… कि मेरे पिता ज़िंदा हैं।”
“शायद उसने सोचा होगा कि मैं लायक नहीं हूँ बताने के।”
वह कुर्सी से उठ गया। उसके कदम धीमे, भारी।
“मैं बहुत देर कर चुका हूँ, अंजलि। लेकिन आज तुम्हें देखकर… लगता है भगवान ने मुझे एक आखिरी मौका दिया है।”
अंजलि कुछ पल तक उसे देखती रही। उसके मन में भावनाओं का तूफान था—गुस्सा, प्यार, सवाल, और डर।
“आपको पता भी है माँ ने क्या झेला है?”
“जानता हूँ,” वह बोला, “हर महीने मैं गुप्त रूप से पैसे भेजता रहा हूँ। मीरा को पता नहीं था कि वो मुझसे हैं।”
“झूठ,” अंजलि ने रोते हुए कहा। “अगर सच में आपको फ़िक्र थी तो आप लौट क्यों नहीं आए?”
“क्योंकि डरता था,” उसने कहा, “डरता था कि वो मुझे माफ़ नहीं करेगी।”
कैफे के बाहर बारिश शुरू हो चुकी थी। शीशों पर पानी की बूंदें गिर रही थीं। बाहर का आसमान भी जैसे उनके भीतर के दर्द को महसूस कर रहा था।
अंजलि अब चुप थी। उसका मन कह रहा था कि वह इस आदमी को ठुकरा दे। लेकिन उसकी आँखों में जो सच्चाई थी, वह झूठ नहीं लग रही थी।
उसने धीरे से कहा, “माँ बीमार हैं। अगर आप सच कह रहे हैं तो… उन्हें मिलना चाहिए आपसे।”
आदमी की आँखों में आशा की चमक उभरी। “क्या मैं आ सकता हूँ?”
अंजलि ने सिर झुका लिया। “हाँ, लेकिन अगर माँ ने आपको देखा और कुछ नहीं कहा… तो समझ लीजिएगा कि वो अतीत का दरवाज़ा कभी नहीं खोलेंगी।”
उस शाम अंजलि ने घर लौटते वक्त कई बार सोचा कि क्या उसने सही किया। घर छोटा था—एक कमरा, एक रसोई, और बिस्तर के पास ऑक्सीजन सिलेंडर। मीरा खिड़की के पास बैठी बुनाई कर रही थी। उसके बालों में अब सफ़ेदी उतर आई थी, मगर आँखों में वही गहराई थी।
“माँ,” अंजलि ने धीरे से कहा, “आज कैफे में कोई आया था… जो आपको जानता है।”
मीरा ने मुस्कुराते हुए पूछा, “कौन?”
“एक आदमी। उसने कहा कि वो मनमोहन टेक्सटाइल्स से है।”
मीरा का चेहरा जैसे जम गया।
“उसका नाम क्या था?”
“मैंने नहीं पूछा,” अंजलि ने झूठ कहा, “पर… वो कल आना चाहता है आपसे मिलने।”
मीरा ने कुछ नहीं कहा। बस बाहर देखने लगी। उसकी आँखों में जैसे वर्षों पुराना दर्द तैर गया।
अगले दिन शाम को दरवाज़े पर दस्तक हुई। अंजलि ने दरवाज़ा खोला—वही आदमी।
मीरा ने उसे देखा, और एक पल को सब रुक गया।
“मनोज…” उसने बस इतना कहा।
मनोज के होंठ काँपे। “मीरा…”
दोनों एक-दूसरे को देख रहे थे—बीच में बीस सालों की दूरी, अधूरे वादे, और हज़ारों अनकहे शब्द।
मीरा की आँखों से आँसू बहे। “तुम इतने साल कहाँ थे?”
“यहीं था… तुम्हारी याद में,” मनोज बोला। “मैंने तुम्हें खो दिया था, पर तुम्हारा नीलम हमेशा मेरे साथ रहा।”
मीरा ने उसकी ओर देखा। “ये वही अंगूठी है…”
“हाँ,” उसने कहा, “मैंने दी थी तुम्हें शादी के वक़्त।”
अंजलि अब दोनों को देख रही थी। उसे एहसास हुआ कि उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी अधूरी कहानी अब पूरी हो रही है।
मीरा ने धीमे स्वर में कहा, “तुम लौट आए?”
“हाँ,” मनोज बोला, “क्योंकि अब और भाग नहीं सकता। शायद मौत से पहले एक बार जीना चाहता हूँ—तुम्हारे और अंजलि के साथ।”
कमरे में सन्नाटा था। फिर मीरा ने काँपते हाथों से उसका हाथ पकड़ा।
“तुमने हमें बहुत दर्द दिया, मनोज। पर आज तुम्हें देखकर… लगता है शायद किस्मत ने हमें फिर से मिलाया है।”
अंजलि की आँखों से आँसू बह निकले। उसने आगे बढ़कर दोनों को गले लगाया।
तीनों के बीच अब कोई शब्द नहीं थे—सिर्फ एक सन्नाटा जो माफ़ी से, प्यार से और सुकून से भरा था।
बाहर बारिश रुक चुकी थी। आसमान में हल्की धूप उतर आई थी।
खिड़की से होकर वह रोशनी अंदर आई, और उसी अंगूठी के नीलम पर ठहर गई।
वह नीलम—जो कभी बिछड़ने की निशानी था—अब मिलन की गवाही बन गया।
(कहानी समाप्त)
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