सारा दिन छलिया बेचकर कितना कमा लेते हो, एक बड़ी गाड़ी वाली बेगम साहिबा | अनया स्पीक्स
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रिहान — संघर्ष से सफलता तक का सफर
शहर की भीड़-भाड़ वाली सड़कों पर एक छोटा सा ठेला खड़ा था। उस ठेले पर रोज़ाना धूप-बारिश में छल्ली भुनी जाती थी। ठेले के पीछे खड़ा लड़का दिनभर मेहनत करता, लोगों से छल्ली बेचता और घर के लिए कुछ पैसे जुटाता। उसका नाम था रिहान। रिहान उन पहाड़ों से आया था, जहां ना सड़कें थीं, ना बिजली, और जहां गरीबी इतनी गहरी थी कि बच्चे बचपन में ही बूढ़े हो जाते थे।
रिहान की जिंदगी संघर्षों से भरी थी। उसके मां-बाप ने कभी बड़े सपने नहीं देखे थे, क्योंकि उनके लिए ख्वाब सिर्फ भूख की नींद में दिखने वाले सपने थे। रिहान ने ठाना था कि वह कुछ कर दिखाएगा, ताकि अपने परिवार का चेहरा रोशन कर सके। बहनों की शादी हो, भाइयों को इज्जत मिले, और मां-बाप की जिंदगी आसान हो।
शहर आकर उसे पहला काम मिला छल्ली बेचने का। शुरुआत में दिल नहीं मान रहा था, मगर मां-बाप की झुर्रियां, बहनों के पुराने कपड़े, भाइयों के नंगे पैर याद आते तो हिम्मत जुटा लेता। उसने एक छोटा सा ठेला खरीदा और कराची के एक व्यस्त चौराहे पर जाकर छल्ली बेचने लगा। लोग उसे देखकर कहते, “तुम पढ़े-लिखे लगते हो, छल्ली बेचने वाले नहीं,” तो वह मुस्कुरा कर कहता, “मजबूरी इंसान से सब कुछ करवा देती है।”
दिनभर धूप में खड़ा रहना, चूल्हे की गर्मी से चेहरा झुलस जाना, पसीने से भीग जाना — यह सब रिहान के हिस्से थे। कई बार दिल चाहता था कि सब छोड़कर वापस पहाड़ों में लौट जाए, लेकिन मां-बाप की थकी हुई आंखें, छोटे-छोटे बच्चे जो फटे नोट पकड़कर छल्ली मांगते, उन्हें देखकर वह हार नहीं मानता था। शाम को जब ठेला समेटता, बची हुई छल्ली खुद नहीं खाता बल्कि गली-गली, बच्चों को दे देता।
शहर का अपना सख्त नियम था। हर चीज़ का किराया देना पड़ता था। ईंधन के पैसे अलग, छल्ली खरीदने के अलग। कई बार नुकसान भी होता, मगर रिहान हर महीने मां को कुछ पैसे भेजता। खुद कभी खैराती होटल से खाना खा लेता, कभी फुटपाथ पर भूखा ही सो जाता। शिकायत नहीं करता क्योंकि उम्मीद अभी भी जिंदा थी। वह सोचता था, एक दिन सब बदल जाएगा, उसका घर होगा, उसकी इज्जत होगी, वह मां को अस्पताल लेकर जाएगा, बहनों के लिए नए कपड़े होंगे, भाइयों के हाथ में स्कूल के बैग होंगे।

लेकिन हकीकत यह थी कि उसके पास बस एक छोटा सा ठेला था और उसके पीछे खड़ा एक थका हुआ लड़का, जो दिनभर लोगों की बातें सुनता, ताने सहता, फिर भी मुस्कुराता था।
कुछ दिनों से एक अजीब सी बात हो रही थी। जहां वह रोज अपना ठेला लगाता था, वहीं सामने वाली सड़क पर रोज एक बड़ी काली शीशों वाली गाड़ी आकर खड़ी हो जाती। अंदर से कुछ दिखाई नहीं देता था, लेकिन रिहान को लगता था जैसे कोई उसे लगातार देख रहा हो। वह सोचता, शायद कोई मुझसे कुछ कहना चाहता है या मैं किसी के लिए खास इंसान हूं और मुझे पता नहीं।
फिर एक सुबह, सूरज की पहली किरणें भी फैली नहीं थीं, रिहान पार्क के बाहर छल्ली बेच रहा था। तभी उसकी नजर एक छोटी सी बच्ची पर पड़ी, जो गुलाबी फ्रॉक पहने थी और बालों में नीली रिबन थी। बच्ची बार-बार सड़क के किनारे पत्थरों से खेल रही थी, जैसे उसे खतरा पता नहीं। रिहान ने देखा कि एक तेज रफ्तार गाड़ी उसी तरफ आ रही है, बच्ची सड़क पर थी। रिहान दौड़ा, बच्ची को अपनी बाहों में भरकर सड़क से दूर खींच लिया। गाड़ी वाला गुस्से में चिल्लाया, लेकिन रिहान ने भी डटकर जवाब दिया। उसकी आंखों में गरीबी की लकीरें थीं, लेकिन आग भी थी जो किसी के गुरूर को राख कर सकती थी।
उस दिन से रिहान की जिंदगी में एक मोड़ आ गया। वह उस बच्ची अनिका से जुड़ा, जिसने उसे “हीरो पापा” कहना शुरू कर दिया। अनिका की मां, शाहिना बीबी, एक बड़ी अफसर की बीवी जैसी दिखती थीं। उन्होंने रिहान को अपने घर बुलाया और उससे एक खास प्रस्ताव रखा — अगर वह अनिका के लिए पिता की कमी पूरी कर सके, तो वह अपनी जिंदगी सवार देगी।
रिहान ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया, लेकिन एक शर्त रखी कि वे निकाह करेंगे। शाहिना बीबी ने यह मान लिया और जल्द ही उनका निकाह हो गया। रिहान ने कभी शाहिना के कारोबारी मामलों में दखल नहीं दिया, बस अनिका का ख्याल रखा। वह अनिका के लिए पिता जैसा बन गया, जो उसकी हर जरूरत में उसके साथ था।
धीरे-धीरे अनिका की तबीयत सुधरने लगी। वह पहले से ज्यादा मुस्कुराने लगी। डॉक्टर भी कहते थे कि अगर अनिका को एक छोटा भाई मिल जाए तो उसकी बीमारी और बेहतर हो जाएगी। रिहान ने अपने गांव जाकर मां-बाप को भी साथ लाया। अब वे आराम से रहते थे, बहनों भाइयों को अच्छे स्कूल में पढ़ाता था। गांव में सब उसकी तारीफ करते थे।
रिहान की कहानी यह बताती है कि मेहनत, ईमानदारी और उम्मीद से बड़ी से बड़ी मुश्किलें भी आसान हो जाती हैं। गरीबी और संघर्ष के बावजूद इंसान अपने सपनों को पूरा कर सकता है, बशर्ते वह हार न माने।
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