स्कूल में बेटे का एडमिशन करवाने गया, प्रिंसिपल निकली तलाकशुदा पत्नी | फिर जो हुआ… इंसानियत रो पड़ा
.
.
मीरा त्रिपाठी की कहानी: संघर्ष, आत्मसम्मान और नई शुरुआत
कभी-कभी वक्त ऐसा पलट जाता है कि जिसे आपने कभी कुछ नहीं समझा, वही आपके सामने खड़ा होकर आपको छोटा महसूस कराता है। उत्तर प्रदेश की ठंडी सर्दियों की एक धुंध भरी सुबह वाराणसी के सबसे प्रतिष्ठित ज्ञानदीप इंटरनेशनल स्कूल के गेट के बाहर भीड़ लगी हुई थी। बच्चे लाइन में खड़े थे, कंधे पर बैग, चेहरे पर डर और उत्सुकता साथ-साथ थे। वहीं दूसरी ओर पेरेंट्स हाथों में फॉर्म लिए थे, आंखों में उम्मीद और मन में हलचल थी।
उसी भीड़ में एक लंबी, चमचमाती एसयूवी आकर रुकी। दरवाजा खुला और बाहर उतरा एक सूट-बूट में लिपटा आदमी। वह था संजीव रॉय, वाराणसी का जाना माना बिल्डर, जिसके नाम पर शहर के कई बड़े प्रोजेक्ट थे। लेकिन आज उसके चेहरे पर घबराहट साफ झलक रही थी। थकान उसकी आंखों से झांक रही थी। उसके साथ था उसका छह साल का मासूम बेटा आर्यन रॉय। संजीव अपने बेटे का स्कूल में एडमिशन कराने आया था।
संजीव ने रिसेप्शन पर नाम लिखवाया, फॉर्म जमा किया। फिर स्टाफ ने कहा कि इंटरव्यू होगा, और आज खुद प्रिंसिपल मैम लेंगी। संजीव थोड़ा चौंका, फिर कुछ देर प्रतीक्षा की। कुछ ही देर बाद उसे इंटरव्यू रूम में बुलाया गया। जब उसने दरवाजा खोला, तो सामने बैठी महिला को देखकर उसके पैर जैसे जमीन में जम गए। वह थी डॉक्टर मीरा त्रिपाठी, स्कूल की प्रिंसिपल। वही चेहरा, वही आंखें, जिन्हें उसने सालों पहले छोड़ दिया था, जैसे कोई पुराना और गैरजरूरी सामान हो।
मीरा ने कुछ पल उसकी ओर देखा, फिर नजरें फॉर्म पर टिका दी। बच्चे का नाम आर्यन रॉय था। संजीव ने कांपती आवाज में कहा, “गुड मॉर्निंग मैम, मैं संजीव रॉय और यह मेरा बेटा आर्यन है।” मीरा ने खिड़की के पास जाकर बाहर आसमान की ओर देखा, फिर धीमे स्वर में बोली, “कैसा लगता है संजीव? जब वो औरत तुम्हारे सामने बैठी हो जिसे तुमने कभी कहा था ‘तेरी कोई औकात नहीं है’।”
संजीव की नजरें फर्श पर जम गईं। उसकी सांसें भारी हो गईं, जैसे कोई गला घोंट रहा हो। मीरा ने कहा, “आज तुम स्कूल में नहीं हो, संजीव। आज तुम अपने अतीत की अदालत में खड़े हो।”
करीब दस साल पहले की बात है। मीरा त्रिपाठी एक पढ़ी-लिखी, शांत स्वभाव की लड़की थी। उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के छोटे कस्बे राजापुर की रहने वाली। उसके पिता विनोद त्रिपाठी स्थानीय डिग्री कॉलेज में प्रोफेसर थे और मां गीता देवी गृहिणी। मीरा ने हिंदी साहित्य में एमए किया था और नीट की तैयारी कर रही थी। सीधे-सादे परिवार की बेटी होने के बावजूद उसके सपनों की उड़ान बहुत ऊंची थी।
एक दिन एक रिश्तेदार के माध्यम से एक रिश्ता आया। संजीव रॉय, वाराणसी का नामी बिल्डर का बेटा, जो खुद भी कंस्ट्रक्शन कंपनी चलाता था। बातचीत में पता चला कि लड़का दहेज नहीं मांग रहा है, बस लड़की पढ़ी-लिखी और संस्कारी होनी चाहिए। मीरा के माता-पिता को लगा जैसे किसी ने स्वर्ग का दरवाजा खोल दिया हो। बेटी की किस्मत खुल गई। मां ने कहा, “और फिर धूमधाम से शादी तय हो गई।” शादी बड़े हर्षोल्लास से हुई। दूल्हा संजीव घोड़ी पर चढ़ा था।
चारों ओर रोशनी, संगीत, मिठाइयां और मीरा के मन में सपनों का पूरा संसार था। लेकिन शादी के दूसरे ही दिन जब वह पहली बार अपने ससुराल ‘रॉय विला’ पहुंची, तो उसका स्वागत बाहर से तो खूब किया गया, लेकिन अंदर की नजरें कुछ और ही कह रही थीं।
संजीव की मां पुष्पा रॉय ने कड़वी मुस्कान के साथ कहा, “सरकारी कॉलेज वाले प्रोफेसर की लड़की है, चलो ठीक है, हमारी नाक कटने से बच गई।” संजीव की बहन करिश्मा ने साड़ी के पल्लू को घुमाते हुए कहा, “भाई, इतनी सीधी लड़की लाइफ टाइम बोर कर देगी, कोई ग्लैमर ही नहीं है।”
मीरा के मन में टीस उठी, लेकिन मुस्कुराकर सब सुन लिया क्योंकि मां ने सिखाया था कि ससुराल में रहना पड़ता है। बेटी यही एक औरत की असली परीक्षा होती है।
घर का माहौल बिलकुल अलग था। जहां उसके मायके में प्रेम और आदर की भाषा बोली जाती थी, वहीं ससुराल में हर बात में तुलना, कटाक्ष और उपहास छुपा होता था।
मीरा सुबह सबसे पहले उठती, घर की सफाई करती, रसोई में हाथ बंटाती, फिर भी ताने सुनने पड़ते। कभी सब्जी में नमक कम हो जाता तो सुनना पड़ता, “प्रोफेसर की बेटियों का खाना तो काम वाली से भी गया बीता।”
एक दिन मीरा ने हिम्मत करके संजीव से कहा, “तुम्हारी मां और बहन मुझे बहुत नीचा दिखाती हैं। मैं हर कोशिश करती हूं, फिर भी उन्हें मैं कभी पसंद क्यों नहीं आती?”
संजीव, जो बाहर सबके सामने सॉफ्ट कॉर्नर रखता था, अंदर कुछ और ही था। उसने मुस्कुराते हुए कहा, “तू हमारी मेहरबानी से इस घर में आई है, ज्यादा उड़ मत वरना याद दिला दूंगा। तेरी औकात क्या है?”
उस दिन पहली बार मीरा का कलेजा कांप गया। वे शब्द नहीं थे, किसी की रूह को चीर देने वाला तेजाब था। लेकिन उसने खुद को समेट लिया, सोचा शायद वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा।
तीन महीने ऐसे ही गुजरे। एक दिन मीरा की तबीयत खराब हुई। डॉक्टर ने जांच की और बताया कि वह मां बनने वाली है। मीरा की आंखों से खुशी के आंसू बहने लगे। उसने सोचा अब सब बदल जाएगा, शायद संजीव भी बदल जाएगा।
लेकिन जब उसने संजीव को यह खबर दी, तो उसका चेहरा तन गया। “गिरा दो इसे, मैं दवा लेकर आता हूं, अभी टाइम नहीं है, और तू कोई देवी नहीं है जो बच्चे को जन्म दे।”
मीरा की रूह काम गई। उस रात जब संजीव बगल में सो रहा था, मीरा उसकी फोन गैलरी में गई और वहां कुछ तस्वीरें देखीं—एक औरत के साथ हंसते, हाथ में हाथ डाले। मीरा का सब्र टूट गया। वह चिल्ला पड़ी, “मैं तुम्हारे घर वालों के ताने सह लूंगी, तुम्हारे रूखेपन को भी बर्दाश्त कर लूंगी, लेकिन यह धोखा नहीं सहूंगी।”
संजीव उठकर आया और बिना कुछ कहे पहली और आखिरी बार हाथ उठाया। मीरा चीख पड़ी, डर से नहीं बल्कि उस चुप्पी से जो अंदर जमी थी। उसने खुद से कहा, “बस अब और नहीं। अब मैं सिर्फ जी नहीं सकती। मुझे अपने बच्चे को बचाना है और खुद को भी।”
उस रात जब सारे रिश्ते चीख बनकर मीरा की आत्मा में गूंज उठे, जब एक थप्पड़ ने उसके अंदर की बेटी, पत्नी और औरत तीनों को एक साथ जगा दिया, वो रात मीरा की जिंदगी की आखिरी काली रात बन गई।
सुबह की पहली किरण उसके कमरे की खिड़की से अंदर आई। लेकिन इस बार वह रोशनी सिर्फ बाहर की नहीं थी, उसके भीतर भी एक नई रोशनी फूट पड़ी थी।
मीरा ने चुपचाप अपने चोट लगे चेहरे पर दुपट्टा डाला, एक छोटा सा बैग उठाया और सीधे महिला थाने पहुंच गई। बिना किसी की परवाह किए, थाने में मौजूद महिला इंस्पेक्टर ने जब उसके सूजे हुए गाल, फटी हुई चूड़ी और लाल आंखों को देखा, तो सब समझ गई।
मीरा ने धीरे-धीरे सब कुछ बताया—शारीरिक मारपीट, मानसिक प्रताड़ना और गर्भपात की धमकी। उसने एफआईआर दर्ज कराई। धारा 498, 323, 506 और 313 के तहत मामला लिखा गया।
मीरा की आवाज में अब कंपन नहीं था, बस एक सख्त ठहराव था, जो सिर्फ एक मां में होता है, जब वह अपने बच्चे को दुनिया की गंदगी से बचाना चाहती है।
थाने से निकलते ही वह मायके लौट आई। दरवाजा मां ने खोला। उसे देखकर कुछ पल सब चुप रहे। फिर मां फूट-फूट कर रो पड़ी, “बेटी, यह क्या कर डाला तूने? दुनिया क्या कहेगी?”
पिता ने बस एक लंबी सांस ली और चुपचाप अंदर चले गए।
घर में चुप्पी छा गई थी। कभी मां तानों में बोलती, कभी बहन आंखों से सवाल करती।
मां ने एक दिन कहा, “बेटी, कुछ दिन और सह लेती। तलाकशुदा औरत को समाज जीने नहीं देता। इस बच्ची को हमें दे दे। तू दूसरी शादी कर ले, अभी उम्र निकली नहीं।”
मीरा कुछ पल चुप रही, फिर शांति से लेकिन ठोस शब्दों में बोली, “मां, अगर मैं फिर शादी करूं और यह बच्ची किसी सौतेले बाप की नजर में पड़ गई, तो क्या मैं उसे वही दर्द नहीं दूंगी जो आज मैं अपने साथ जी रही हूं? नहीं मां, यह मेरी बेटी है। अब मैं ही इसकी मां हूं, बाप हूं और पूरी दुनिया भी।”
और उसी रात जब पूरा घर सो रहा था, मीरा ने अपनी पुरानी सहेली रीमा घोष को फोन किया, जो वाराणसी के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी।
मीरा की आवाज थकी हुई थी, लेकिन इरादा फौलाद जैसा, “रीमा, मुझे कोई काम चाहिए। मैं दोबारा खड़ी होना चाहती हूं। मैं खुद को फिर से साबित करना चाहती हूं, अपने लिए, अपनी बेटी के लिए।”
रीमा ने एक पल भी नहीं गंवाया, “तू आजा, मीरा। पढ़ी-लिखी है, मेहनती है। यहां जॉब नहीं, रास्ता मिलेगा। मैं हूं ना।”
अगली सुबह मीरा अपनी गोद में काव्या को लिए एक पुरानी ट्रेन में बैठ गई। बैग में सिर्फ कुछ कपड़े, एक डिग्री और अपनी बेटी की मुस्कान थी। रास्ते में ठंडी हवा उसके बाल उड़ा रही थी, लेकिन उसकी आंखों में सिर्फ गर्म आग थी।
वाराणसी पहुंचकर उसने शहर के एक छोटे मोहल्ले सिगरा में एक कमरा किराए पर लिया। कमरे में बस एक पुराना पंखा, एक पतली सी घड़ी और एक कोना था जहां मीरा ने अपनी किताबें रख दीं।
शाम को काव्या को मां के पास छोड़कर वह खुद एक प्राइवेट स्कूल में शिक्षिका की नौकरी करने जाती। तनख्वाह मामूली थी, काम का समय लंबा था। स्कूल में स्टाफ का व्यवहार औपचारिक और बेरुखा था, लेकिन मीरा को किसी की हमदर्दी नहीं चाहिए थी। उसे मौका चाहिए था खुद को साबित करने का।
रात को जब स्कूल से लौटती तो बेटी को सीने से लगाकर बस यही कहती, “तू मेरी ताकत है, और मैं तुझे उस दुनिया से भी बड़ी जिंदगी दूंगी जो कभी मेरे हिस्से नहीं आई।”
धीरे-धीरे उसकी जिंदगी रूटीन में ढल गई। सुबह साइकिल से स्कूल, दोपहर में टिफिन से ठंडी रोटी, शाम को बेटी की हंसी और रात को किताबों के बीच खुद को फिर से गढ़ने की कोशिश।
एक साल बीता। फिर मीरा को एक अच्छे स्कूल में नौकरी मिल गई—ज्ञानदीप इंटरनेशनल स्कूल, वही जहां कहानी की शुरुआत हुई थी।
वेतन थोड़ा बेहतर था, स्कूल में सम्मान भी मिला। अब वह अपनी बेटी के लिए एक छोटा सा एक बीएचके फ्लैट किराए पर लेने लायक हो गई थी।
उस छोटे से घर में एक कोना मां के लिए था, एक कोना पढ़ाई के लिए, और बाकी पूरा घर काव्या की दुनिया बन गया था।
हर शाम जब मीरा स्कूल से थक कर लौटती, काव्या अपनी नन्ही बाहें फैला कर दौड़ती, “मम्मा, आप आ गई।” उसे सुनकर मीरा की सारी थकान उड़ जाती।
अब मीरा सिर्फ टीचर नहीं थी, वह अपनी बेटी की पूरी दुनिया थी। उसे दुनिया का केंद्र खुद वह थी।
साल दर साल बीतते गए। काव्या अब छह साल की हो चुकी थी, नन्ही सी बच्ची लेकिन समझदारी में बहुत आगे।
वह जानती थी कि उसकी मां कितनी मेहनत करती है। जब भी मीरा स्कूल से लौटती, काव्या झट से पानी का गिलास लाती, उसके जूते उतारती और मुस्कुराकर कहती, “मम्मा, आज आप बहुत थक गए ना, लेकिन आप सुपर मॉम हो।”
इन शब्दों में मीरा को हर दर्द की दवा मिलती थी।
अब मीरा का नाम स्कूल में सम्मान से लिया जाने लगा था। बच्चे उसे “मीरा मैम” कहकर आदर देते। स्टाफ मीटिंग में उसकी राय की अहमियत थी।
धीरे-धीरे उसकी छवि एक सुलझी हुई, आत्मनिर्भर और प्रेरणादायक महिला की बनती गई।
एक दिन स्कूल की पुरानी प्रिंसिपल रिटायर हुई। ट्रस्टियों और स्टाफ ने मिलकर नया नाम तय किया—डॉक्टर मीरा त्रिपाठी।
वह लड़की जिसे एक दिन उसके पति ने कहा था, “तेरी कोई औकात नहीं,” आज उसी शहर के सबसे प्रतिष्ठित स्कूल की प्रिंसिपल बन चुकी थी।
अब वह साड़ी नहीं, गरिमा पहनती थी। उसकी चाल में आत्मविश्वास था, और उसकी चुप्पी में एक शांति थी, जिसे सिर्फ वही औरतें समझ सकती हैं जो तूफान पार कर चुकी हों।
फिर आया वह दिन जब जिंदगी ने उसका अतीत सामने ला खड़ा किया।
स्कूल में एडमिशन सीजन चल रहा था। रिसेप्शन पर पेरेंट्स की भीड़ थी, हर कोई अपने बच्चे को स्कूल में दाखिल करवाना चाहता था।
इसी भीड़ में एक चेहरा था—झुका हुआ, थका हुआ और समय से हारा हुआ—संजीव रॉय।
उसके बाल अब सफेद हो चुके थे। चेहरे पर पहले जैसी घमंड नहीं, बल्कि पछतावे की रेखाएं थीं। उसके साथ था प्यारा सा बच्चा आर्यन।
संजीव रिसेप्शन पर जाकर बोला, “मैं का एडमिशन करवाना चाहता हूं। अगर संभव हो तो प्रिंसिपल मैम से मिलना चाहूंगा।”
रिसेप्शनिस्ट ने मुस्कुराते हुए कहा, “आज बच्चों के इंटरव्यू खुद मैम ले रही हैं, कुछ देर प्रतीक्षा करें।”
संजीव की धड़कनें बढ़ने लगीं। शायद उसे अंदेशा था या उसका डर उसे सच बताने लगा था।
थोड़ी देर बाद उसे इंटरव्यू रूम में भेजा गया। दरवाजा खोला और सामने बैठी महिला को देखकर उसकी रगें सर्द हो गईं।
डॉक्टर मीरा त्रिपाठी—वही चेहरा, वही आंखें, लेकिन अब उसमें कोई शिकायत नहीं थी, बस एक शांत गरिमा थी जो बरसों के जख्मों से निकलकर बनी थी।
संजीव ने कांपती आवाज में कहा, “नमस्ते मैम, मैं संजीव रॉय और यह मेरा बेटा आर्यन है।”
मीरा ने बस एक नजर डाली—ना कोई मुस्कान, ना कोई गुस्सा, सिर्फ एक ठंडी दृढ़ता जो सीधा दिल को चीर दे।
“आप बैठिए,” मीरा बोली।
संजीव चुपचाप कुर्सी पर बैठ गया, नजरें अब भी नहीं उठाईं।
मीरा ने फॉर्म देखा। बच्चे की मां का नाम पूछा।
संजीव ने हिचकते हुए कहा, “दूसरी शादी की थी, अब साथ नहीं है।”
मीरा कुछ पल चुप रही, फिर खिड़की की ओर चली गई, बाहर मैदान की ओर देखा जहां बच्चे खेल रहे थे।
फिर पीछे मुड़कर बोली, “कभी सोचा था संजीव कि जिस औरत को तुमने यह कहकर छोड़ा था ‘तेरी कोई औकात नहीं’, वह एक दिन इतनी ऊंचाई पर खड़ी होगी कि तुम अपनी नजरें भी उससे नहीं मिला पाओगे?”
संजीव की आंखों से आंसू छलकने लगे। “मैंने बहुत बड़ी गलती की।”
मीरा ने कहा, “क्या तुमने दोबारा शादी की?”
संजीव ने धीरे लेकिन दृढ़ता से कहा, “नहीं, क्योंकि मैंने किसी मर्द को अपनी बेटी की जिंदगी में आने लायक नहीं समझा।”
“जिस दिन तुमने मुझ पर हाथ उठाया था, उस दिन मैं मां बनने वाली थी।”
संजीव की आंखें पूरी तरह भीग चुकी थीं। मतलब, वह उसकी बेटी थी।
मीरा बोली, “नहीं है, लेकिन अब वह सिर्फ मेरी बेटी है। नाम तुम्हारा होगा शायद किसी कागज पर, लेकिन उसके दिल में सिर्फ मेरी जगह है।”
“और मैं नहीं चाहती कि उसके बचपन पर किसी गलत इंसान की परछाई पड़े।”
उसी वक्त मीरा का फोन बजा। स्क्रीन पर चमक रहा था ‘काव्या’। मीरा ने मुस्कुराते हुए फोन उठाया।
“बेटा, मम्मा जल्दी आएगी, मौसी ने दूध गर्म कर दिया है ना?”
बहुत अच्छा बच्चा।
फोन रखते ही संजीव ने हाथ जोड़ लिए, “बस एक बार मेरी उस बेटी से बात करवा दो, मैं माफी मांगना चाहता हूं।”
मीरा की आवाज अब पत्थर जैसी सख्त थी, “माफ करना, तो मैंने खुद को कर दिया है। लेकिन अब तुम्हारा मेरी बेटी से कोई रिश्ता नहीं।”
“वह बच्ची जिसने जन्म से पहले ही तुम्हें ठुकरा दिया, वो उसके प्यार का हकदार नहीं हो सकता।”
संजीव चुप था, कुर्सी से उठने की हिम्मत नहीं थी।
मीरा ने स्टाफ को बुलाया, “प्लीज इन्हें बाहर तक छोड़ आइए।”
और उस दिन वह दरवाजा जो कभी मीरा के लिए बंद कर दिया गया था, आज उसी दरवाजे से संजीव रॉय को निकाला गया। सिर्फ स्कूल से नहीं, उसकी बेटी की दुनिया से भी।
संजीव स्कूल से जा चुका था, लेकिन उसके जाने के बाद भी मीरा कुछ देर अपने ऑफिस की खिड़की के पास खड़ी रही।
नीचे स्कूल के मैदान में बच्चे खेल रहे थे, हंस रहे थे, और उन्हीं में कहीं उसकी बेटी काव्या थी।
वह बच्ची जिसे मीरा ने सिर्फ जिया नहीं था, बल्कि पूरी जिंदगी अपनी हथेलियों से गढ़ी थी।
आज मीरा के चेहरे पर जो सुकून था, वह किसी जीत का घमंड नहीं था।
वह था एक इंसान का अपने आप से की गई सबसे बड़ी लड़ाई को जीत लेने का संतोष।
लेकिन मीरा की कहानी यहीं नहीं रुकी।
उस रात जब सब सो रहे थे, मीरा ने अपनी डायरी निकाली और पहली बार उसमें अपने लिए कुछ लिखा—
“मैंने खुद को पाया है। अब मैं चाहती हूं कि जो औरतें खुद को खो चुकी हैं, उन्हें भी खुद को फिर से पाना सिखाऊं।”
यहीं से शुरू हुआ एक नया अध्याय, नई दिशा, एक नई शुरुआत।
मीरा ने अपने खाली समय में कुछ जरूरतमंद महिलाओं को पढ़ाना शुरू किया।
वो औरतें जो घरेलू हिंसा झेल रही थीं, जो तलाक के दर्द से गुजर रही थीं, जो अकेलेपन में खुद से हारने लगी थीं।
धीरे-धीरे इस छोटी सी क्लास ने एक आकार लेना शुरू किया।
नई दिशा नाम रखा गया इस नए प्रयास का।
यहां महिलाएं सीखने लगीं—सिलाई, कंप्यूटर, इंटरव्यू स्किल्स, पर्सनल ग्रूमिंग और सबसे जरूरी, खुद पर भरोसा करना।
अब मीरा सिर्फ काव्या की मां नहीं थी।
वह बन चुकी थी हजारों महिलाओं के लिए प्रेरणा, मार्गदर्शक और रक्षक।
उसकी कहानी अखबारों में छपने लगी, टीवी चैनलों पर चर्चा होने लगी।
महिला सशक्तिकरण के मंचों पर उसे बुलाया जाने लगा।
एक दिन एक नामी विश्वविद्यालय में महिला सशक्तिकरण पर सेमिनार था।
मुख्य अतिथि थीं डॉक्टर मीरा त्रिपाठी।
जब वह मंच पर पहुंची, तो सामने बैठी सैकड़ों लड़कियों की आंखों में चमक थी।
जैसे वह सिर्फ एक वक्ता को नहीं, अपने भविष्य की उम्मीद देख रही थीं।
मीरा ने माइक उठाया और कहा—
“मैं आज आपके सामने एक प्रिंसिपल, एक एनजीओ लीडर या एक स्पीकर बनकर नहीं खड़ी हूं।
मैं आज एक औरत बनकर आई हूं, जिसने सब कुछ खोया लेकिन खुद को पाया।
जिसने अकेले बेटी को पाला, समाज के ताने झेले, लेकिन फिर भी सर झुकाए नहीं।
क्योंकि कभी-कभी अकेले चल देना किसी गलत सहारे से बेहतर होता है।”
हॉल तालियों से गूंज उठा।
लेकिन मीरा की मुस्कान सबसे प्यारी थी।
उस शाम तक, जब वह घर लौटी और दरवाजा खोलते ही काव्या ने उसे गले से लगा लिया—
“मम्मा, आज स्कूल में पूछा गया कि तुम्हारी आइडियल कौन है? मैंने कहा—मेरी मम्मा।”
मीरा की आंखें भर आईं।
वह जानती थी कि यह उसका सबसे बड़ा पुरस्कार है।
रात को काव्या ने पूछा—
“मम्मा, जब मैं बड़ी हो जाऊंगी, क्या मैं भी आपकी जैसी बन सकती हूं?”
मीरा ने उसकी नन्ही हथेली अपने हाथ में लेकर कहा—
“नहीं बेटा, तुम मुझसे भी बेहतर बनोगी।
क्योंकि तुम्हारे पास वो सहारा है जो मुझे कभी नहीं मिला।
एक मां जो हमेशा तुम्हारे साथ खड़ी रहेगी।”
और उस रात जब मीरा छत पर अकेली खड़ी थी, हवा बालों से खेल रही थी, चांद आसमान में मुस्कुरा रहा था, उसके चेहरे पर शांति थी।
क्योंकि अब ना कोई पछतावा था, ना किसी के आने-जाने से फर्क पड़ता था।
अब वह खुद अपने लिए काफी थी।
दोस्तों, मीरा ने अपने आत्मसम्मान को चुना।
उसने उस रिश्ते को छोड़ दिया जिसमें अपमान था, चोट थी और धोखा था।
उसने दोबारा शादी नहीं की ताकि उसकी बेटी की दुनिया दोबारा ना टूटे।
उसने एक मां की तरह जिया, एक शिक्षिका की तरह समाज को रास्ता दिखाया, और एक औरत की तरह अपने डर को ताकत बना लिया।
लेकिन क्या मीरा ने जो किया वह सही था?
अगर आप मीरा की जगह होते तो क्या आप भी यही करते या समाज की बातों से डरकर कोई और फैसला लेते?
कमेंट करके जरूर बताइए।
आपके विचार किसी और मीरा के लिए उम्मीद बन सकते हैं।
अगर कहानी पसंद आई हो तो वीडियो को लाइक करें, शेयर करें और हमारे चैनल “ज्ञानी धाम” को सब्सक्राइब जरूर करें।
मिलते हैं अगले वीडियो में।
तब तक खुश रहिए, अपनों के साथ रहिए और रिश्तों की कीमत समझिए।
जय हिंद, जय भारत।
आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।
यह थी मीरा त्रिपाठी की कहानी—संघर्ष, आत्मसम्मान और नई शुरुआत की प्रेरणा।
एक ऐसी महिला की कहानी जिसने अपने दर्द को अपनी ताकत बनाया और हजारों महिलाओं के लिए उम्मीद की किरण बनी।
News
Bekar anne, çocuğunu mülakata getirdiği için reddedildi — ta ki milyoner CEO içeri girene kadar…
Bekar anne, çocuğunu mülakata getirdiği için reddedildi — ta ki milyoner CEO içeri girene kadar… . . Melike Acar ve…
MİLYONER, HİZMETÇİNİN KIZINI SINAMAK İÇİN UYUYORMUŞ GİBİ DAVRANDI VE GÖRDÜĞÜ KARŞISINDA ŞOKE OLDU
MİLYONER, HİZMETÇİNİN KIZINI SINAMAK İÇİN UYUYORMUŞ GİBİ DAVRANDI VE GÖRDÜĞÜ KARŞISINDA ŞOKE OLDU . . Selçuk Korkmaz ve Dürüstlüğün Sınavı…
“Bir Tabak Yemek İçin Çalabilir Miyim” 200 Milyoner Güldü. Ama Yeteneği Herkesi Etkiledi
“Bir Tabak Yemek İçin Çalabilir Miyim” 200 Milyoner Güldü. Ama Yeteneği Herkesi Etkiledi . . Tarık Gökalp ve Altınsaray’da İnsanlık…
“ARAPÇA BİLİYOR MUSUN” CEO TEMİZLİKÇİYE İNANMADI. AMA O ANLAŞMAYI KAPATIP İFLASI ÖNLEDİ
“ARAPÇA BİLİYOR MUSUN” CEO TEMİZLİKÇİYE İNANMADI. AMA O ANLAŞMAYI KAPATIP İFLASI ÖNLEDİ . . Çöl Kraliçesi Nilüfer Kaya’nın Yeniden Doğuşu…
“BABA, ÇÖPTE UYUYAN O İKİ ÇOCUK BANA BENZİYOR” DEDİ MİLYONERİN OĞLU! VE BÜYÜK BİR SIR ORTAYA ÇIKTI
“BABA, ÇÖPTE UYUYAN O İKİ ÇOCUK BANA BENZİYOR” DEDİ MİLYONERİN OĞLU! VE BÜYÜK BİR SIR ORTAYA ÇIKTI . . Kayıp…
Herkes milyonerden korkuyordu… TA Kİ GARSON KIZ ONU HERKESİN ÖNÜNDE SUSTURANA KADAR.
Herkes milyonerden korkuyordu… TA Kİ GARSON KIZ ONU HERKESİN ÖNÜNDE SUSTURANA KADAR. . . İstanbul’un Kalbinde Bir Cesaret Hikayesi İstanbul’un…
End of content
No more pages to load