10 साल की लड़की बनी IPS…. / फिर जो हुआ देख के सब हैरान हो गए
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सहवालपुर गाँव की सुबह किसी आम सुबह जैसी नहीं होती थी। यहाँ सूरज की पहली किरण उम्मीद लेकर नहीं, बल्कि एक अजीब सी खामोशी लेकर आती थी। यह खामोशी डर की थी, जो गाँव के सबसे शक्तिशाली जमींदार ठाकुर भानु प्रताप सिंह के नाम से जुड़ी थी। यह खामोशी उन सपनों के टूटने की थी जो हर रात देखे जाते और हर सुबह हकीकत की पथरीली जमीन पर बिखर जाते थे। और सबसे बढ़कर, यह खामोशी अपनी आवाज न उठा पाने की उस लाचारी की थी, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी गाँव वालों के खून में घुल चुकी थी।
इसी गाँव की एक तंग, धूल भरी गली में, जहाँ बिजली के खंभे तो शान से खड़े थे, लेकिन उन पर लगे बल्ब अक्सर अपनी रोशनी के लिए तरसते थे, एक छोटा सा, मिट्टी की दीवारों वाला घर था। इस एक कमरे के घर में दस साल की अनवी शर्मा अपने परिवार के साथ रहती थी। अनवी की दुनिया छोटी थी, लेकिन उसकी आँखें बहुत बड़ी थीं, और उन आँखों में सवाल थे। हर सुबह चार बजे जब उसकी माँ, सुनीता, सिर पर भारी पीतल का मटका रखकर आधा किलोमीटर दूर लगे इकलौते हैंडपंप की ओर जाती, तो अनवी अक्सर उसके साथ हो लेती। वह देखती कि कैसे गाँव की दूसरी औरतें भी अँधेरे में ही पानी के लिए संघर्ष करती थीं, कैसे हैंडपंप पर होने वाली छोटी-छोटी लड़ाइयाँ दिन भर की कड़वाहट का सबब बन जाती थीं।
“अम्मा, हमारे घर में नल क्यों नहीं है?” एक दिन उसने अपनी माँ की साड़ी का पल्लू खींचते हुए पूछा था। सुनीता ने अपनी नम आँखों को छुपाते हुए एक गहरी साँस ली और कहा, “बिटिया, हम गरीब हैं न? हमारी अर्जी सरपंच के दफ्तर में धूल खा रही है। हमारी बात कौन सुनता है?”
यह जवाब अनवी के बाल मन को संतुष्ट नहीं कर पाया। उसके दिल में कुछ और ही चल रहा था। वह रोज स्कूल जाते समय देखती थी कि कैसे ठाकुर भानु प्रताप और उसके बेटे, गरीब किसानों की थोड़ी-बहुत जमीन पर भी नजर गड़ाए रहते थे। कैसे लड़कियों को स्कूल आते-जाते छेड़ा जाता था, उन्हें डराया जाता था ताकि वे घर बैठ जाएँ। और सबसे बुरी बात, जब कोई हिम्मत करके थाने जाता, तो वहाँ बैठा मुंशी उनकी शिकायत लिखने के बजाय उन्हीं को दो बातें सुनाकर भगा देता था, क्योंकि थानेदार की चाय-पानी का इंतजाम ठाकुर की हवेली से ही होता था।
स्कूल में भी हालात बहुत अच्छे नहीं थे। हेडमास्टर साहब, जो खुद ठाकुर के दूर के रिश्तेदार थे, अक्सर कहते, “लड़कियों को ज्यादा पढ़ा-लिखाकर क्या करना है? आखिर में तो चौका-चूल्हा ही सँभालना है। घर का काम सीखो, सिलाई-कढ़ाई सीखो।”
लेकिन अनवी की कक्षा अध्यापिका, सुमित्रा मैम, इस गाँव की मिट्टी से बनी नहीं लगती थीं। वह शहर से आई थीं और उनकी बातों में एक अलग ही चमक होती थी। वह हमेशा बच्चों से कहतीं, “सपने देखो। छोटे-मोटे नहीं, बड़े सपने देखो। इतने बड़े कि उन्हें देखकर डर लगे। दुनिया बदलने के सपने देखो, क्योंकि एक छोटा सा सपना भी जब सच होता है, तो दुनिया थोड़ी सी बदल जाती है।”
सुमित्रा मैम की बातें अनवी के दिल में बीज की तरह बो जाती थीं। एक दिन, अनवी ने देखा कि गाँव की सबसे होनहार और गरीब लड़की, मीरा, स्कूल नहीं आई। मीरा, जो हर सवाल का जवाब सबसे पहले देती थी। दो दिन, तीन दिन… जब मीरा नहीं आई तो अनवी से रहा नहीं गया। उसने सुमित्रा मैम की मदद से पता लगाया। जो पता चला, उसने अनवी के नन्हे से दिल में एक ज्वालामुखी धधका दिया। ठाकुर के बिगड़ैल बेटे ने मीरा का रास्ता रोका था, उसकी किताबें फाड़ दी थीं और धमकी दी थी कि अगर वह दोबारा स्कूल की तरफ दिखी तो उसके पिता को खेतों में काम नहीं मिलेगा। डर के मारे मीरा के परिवार ने उसे घर बिठा दिया था।
उस दिन अनवी के अंदर कुछ जल उठा, कुछ टूट गया। क्लास के बाद वह सुमित्रा मैम के पास रुकी। उसकी आँखों में आँसू नहीं, बल्कि एक अजीब सी आग थी। “मैडम,” उसकी आवाज काँप रही थी, “अगर मैं पुलिस वाली बन जाऊँ, तो क्या मैं सबकी मदद कर सकूँगी? क्या मैं ठाकुर के बेटे को सजा दे सकूँगी?”
सुमित्रा मैम मुस्कुराईं, एक उदास मुस्कुराहट। “हाँ बिटिया, बिल्कुल कर सकोगी। लेकिन पुलिस बनना आसान नहीं है। उसके लिए बहुत पढ़ना पड़ता है, बहुत मेहनत करनी पड़ती है।”
“तो मैं आईपीएस बनूँगी!” अनवी ने दृढ़ता से कहा, जैसे कोई शपथ ले रही हो। “सबसे बड़ी पुलिस वाली। फिर कोई किसी मीरा को स्कूल जाने से नहीं रोक पाएगा।”

उस दिन के बाद से अनवी सचमुच बदल गई। अब वह सिर्फ पढ़ नहीं रही थी, बल्कि हर अक्षर को अपने अंदर उतार रही थी। वह गाँव की हर समस्या को एक डायरी में लिखने लगी। वह अपने पिता से, राम प्रसाद से, जो दिन भर खेतों में मजदूरी करते थे, पूछती रहती, “बाबा, आखिर हमारी बात कोई क्यों नहीं सुनता? क्या हमारा वोट बेकार है?”
एक शाम, जब अनवी अपनी ढिबरी की पीली रोशनी में पढ़ रही थी, बाहर से जोर-जोर से चिल्लाने की आवाजें आईं। पता चला कि ठाकुर के आदमी फिर से किसी गरीब की जमीन हड़पने आए हैं। इस बार निशाना थे रामू काका, जो गाँव के बाहर अपनी छोटी सी सब्जी की दुकान लगाकर किसी तरह दो बेटियों और पत्नी का पेट पालते थे। ठाकुर को वह जमीन अपनी नई गाड़ी खड़ी करने के लिए चाहिए थी।
अनवी की माँ डर से काँप रही थी। “चुप रह बिटिया, अंदर ही रह। हमारा इन बड़े लोगों से क्या वास्ता।” लेकिन अनवी से रहा नहीं गया। वह दरवाजे की ओट से झाँकने लगी। उसने देखा कि कैसे रामू काका हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रहे थे और ठाकुर के गुंडे उनकी दुकान का सामान सड़क पर फेंक रहे थे। दो पुलिसवाले भी वहाँ खड़े थे, लेकिन वे तमाशबीन बने ठाकुर के आदमियों की ही सुरक्षा कर रहे थे।
“यह गलत है! आप ऐसा नहीं कर सकते!” अनवी अचानक चिल्लाती हुई बाहर निकल आई।
सब एक पल को सन्न रह गए। सबकी नजरें उस दस साल की दुबली-पतली लड़की पर टिक गईं, जिसकी आवाज में डर नहीं, गुस्सा था। ठाकुर का बेटा, जो वहीं खड़ा था, जोर से हँसा। “अरे वाह! देख तो, छोटी सी चिड़िया चहचहा रही है। तुझे बड़ा पुलिसवाली बनने का शौक है क्या? जा, अपनी गुड़ियों से खेल।”
उस दिन अनवी को समझ आ गया कि सिर्फ सपने देखना काफी नहीं है। सपनों को बचाने के लिए लड़ना भी पड़ता है।
अगले दिन स्कूल में एक खास घटना हुई। सुमित्रा मैम ने सभी बच्चों से कहा, “बच्चों, आज हम एक स्पेशल एक्टिविटी करेंगे। तुम सबको एक चिट्ठी लिखनी है, प्रधानमंत्री जी को। सोचो, अगर प्रधानमंत्री जी तुम्हारे सामने हों और तुमसे पूछें कि तुम्हें क्या चाहिए, तो तुम क्या कहोगे? जो भी मन में आए, लिखो।”
बाकी बच्चे खुशी से उछल पड़े। किसी ने गाँव में एक बड़ा खेल का मैदान माँगा, किसी ने स्कूल के लिए कंप्यूटर, तो किसी ने ढेर सारी चॉकलेट और मिठाइयाँ। लेकिन अनवी अपनी जगह पर शांत बैठी कुछ गहरा सोच रही थी। उसने अपनी कॉपी का एक पन्ना फाड़ा और अपनी छोटी सी पेंसिल से बड़े ध्यान से, एक-एक शब्द तौलकर लिखने लगी।
परम आदरणीय प्रधानमंत्री जी,
नमस्कार।
मैं अनवी शर्मा, कक्षा पाँच, सहवालपुर गाँव से आपको यह चिट्ठी लिख रही हूँ। मैं आपसे कुछ अलग माँगना चाहती हूँ। मुझे खिलौने नहीं चाहिए, न ही मिठाई। मैं सिर्फ एक दिन के लिए आईपीएस अफसर बनना चाहती हूँ। हाँ, सिर्फ एक दिन के लिए।
मैं देखना चाहती हूँ कि वर्दी में कितनी ताकत होती है। मैं जानना चाहती हूँ कि जब एक अफसर ईमानदार हो, तो क्या सच में बदलाव आ सकता है। हमारे गाँव में अमीर लोग गरीबों की जमीन छीन लेते हैं। लड़कियों को स्कूल आने से डराया जाता है। पुलिस वाले भी उन्हीं का साथ देते हैं। कोई हमारी बात नहीं सुनता।
लेकिन अगर मुझे सिर्फ एक दिन का मौका मिले, तो मैं सबको दिखा दूँगी कि पुलिस की वर्दी सिर्फ डराने के लिए नहीं होती, बल्कि भरोसा दिलाने के लिए होती है। मैं चाहती हूँ कि मेरे गाँव की हर बच्ची बेखौफ होकर स्कूल आए। मैं चाहती हूँ कि हर गरीब किसान को यकीन हो कि उसकी भी आवाज सुनी जाएगी। मैं रामू काका की दुकान उन्हें वापस दिलाना चाहती हूँ।
एक दिन। बस सिर्फ एक दिन। फिर आप मुझसे यह वर्दी वापस ले लीजिएगा। मैं वादा करती हूँ, मैं बड़े होकर पढ़कर, मेहनत करके असली आईपीएस अफसर बनकर दिखाऊँगी।
आपकी छोटी बहन, अनवी शर्मा
जब अनवी ने यह चिट्ठी सुमित्रा मैम को दी, तो वे चौंक गईं। उन्होंने दो-तीन बार चिट्ठी को पढ़ा। उनकी आँखें नम हो आईं। वह अनवी के पास आकर बैठीं और उसके सिर पर हाथ फेरा। “अनवी… यह…” मैम की आवाज भर्रा गई थी, “यह सिर्फ चिट्ठी नहीं है बिटिया। यह तो पूरे गाँव की दबी हुई आवाज है, एक चीख है।”
उस दिन शाम को, सुमित्रा मैम ने एक बड़ा फैसला किया। उन्होंने अपने मोबाइल से अनवी की चिट्ठी की साफ-सुथरी फोटो खींची और उसे अपने फेसबुक पेज पर पोस्ट कर दिया। साथ में सिर्फ एक लाइन लिखी: “मेरी दस साल की छात्रा की आवाज। क्या यह आवाज दिल्ली तक पहुँचेगी?”
शायद सुमित्रा मैम ने भी नहीं सोचा था कि एक छोटी सी चिंगारी आग का दरिया बन सकती है। रात भर में वह पोस्ट पाँच सौ लोगों ने शेयर किया। अगले दिन सुबह तक यह आँकड़ा पाँच हजार पार कर चुका था। किसी पत्रकार ने उसे ट्विटर पर डाल दिया और फिर जो हुआ, वह इतिहास था। दो दिन के अंदर अनवी की चिट्ठी पूरे देश में वायरल हो गई। हैशटैग #AnviForADay ट्रेंड करने लगा। न्यूज चैनल वाले सहवालपुर का रास्ता पूछने लगे। अखबारों में अनवी की मासूम लेकिन दृढ़ आँखों वाली तस्वीर छपने लगी।
लेकिन सबसे बड़ी और अविश्वसनीय घटना तब हुई, जब तीसरे दिन की सुबह, अनवी के मिट्टी के घर के बाहर धूल उड़ाती हुई एक नहीं, बल्कि तीन-तीन सरकारी गाड़ियाँ आकर रुकीं। अनवी का जीवन हमेशा के लिए बदलने वाला था, लेकिन वह नहीं जानती थी कि यह सिर्फ एक शानदार सफर की शुरुआत थी।
तीसरे दिन की सुबह सहवालपुर गाँव के लिए एक नया सवेरा लेकर आई। गाँव की हवा में डर की जगह अब उत्सुकता और कौतूहल था। मीडिया की ओबी वैन, कैमरे और रिपोर्टर्स से पूरा गाँव एक मेले जैसा लग रहा था। अनवी के छोटे से घर के बाहर इतनी भीड़ थी कि तिल रखने की जगह नहीं थी। हर कोई उस दस साल की बच्ची की एक झलक पाना चाहता था, जिसकी एक चिट्ठी ने दिल्ली के सत्ता के गलियारों में हलचल मचा दी थी।
अनवी की माँ, सुनीता देवी, डर और खुशी के मिले-जुले एहसास से काँप रही थीं। “पता नहीं क्या हो रहा है,” वह पड़ोसियों से कह रही थीं, “कल तक कोई हमारी सुनने वाला नहीं था, आज पूरी दुनिया हमारे दरवाजे पर खड़ी है।” अनवी के पिता, राम प्रसाद, जो रोज चुपचाप मजदूरी पर निकल जाते थे, आज घर के एक कोने में सहमे हुए बैठे थे। वह अब तक समझ नहीं पा रहे थे कि उनकी बेटी की एक चिट्ठी ने इतना बड़ा तूफान कैसे मचा दिया।
सुबह के ठीक दस बजे, जब धूल उड़ाती हुई एक काली बत्ती वाली गाड़ी आकर रुकी, तो सारी भीड़ और शोर एक पल में सन्नाटे में बदल गया। गाड़ी से जिले के डीएम साहब, एसपी साहब और उनके साथ एक और अधिकारी उतरे, जिनके बैज पर भारत सरकार का चिह्न था। वह केंद्र सरकार के प्रतिनिधि थे।
“अनवी शर्मा कहाँ है?” डीएम साहब की भारी आवाज गूंजी।
भीड़ में से अनवी का एक छोटा सा हाथ ऊपर उठा। वह अपनी माँ के पल्लू के पीछे छिपी हुई थी। वह डर भी रही थी और उत्सुक भी थी। एसपी साहब, जो अपनी सख्त छवि के लिए जाने जाते थे, भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़े और अनवी के सामने घुटनों के बल बैठ गए। “बेटा, तुमने बहुत बहादुर और बहुत अच्छी चिट्ठी लिखी है। प्रधानमंत्री जी ने खुद इसे पढ़ा है।”
अनवी की आँखें आश्चर्य से फैल गईं। “सच में?”
“हाँ बिटिया,” केंद्र सरकार के प्रतिनिधि ने आगे बढ़कर कहा। “और प्रधानमंत्री जी ने आदेश दिया है कि तुम्हारी इच्छा पूरी की जाए। तुम्हें एक दिन के लिए आईपीएस बनाया जाएगा। कल तुम उत्तर प्रदेश पुलिस मुख्यालय में ‘चाइल्ड आईपीएस फॉर ए डे’ बनोगी।”
यह सुनते ही पूरा गाँव तालियों और जय-जयकार से गूंज उठा। अनवी की माँ की आँखों से खुशी के आँसू बह निकले। रामू काका, जो भीड़ में खड़े थे, रोते हुए आगे बढ़े और अनवी के सिर पर हाथ रख दिया। पहली बार गाँव वालों को लगा था कि उनकी आवाज सिर्फ गाँव के कुएँ तक नहीं, बल्कि दिल्ली तक पहुँची है।
शाम तक अनवी के घर पर अधिकारियों का ताँता लगा रहा। उसे बताया गया कि कल सुबह उसे लखनऊ पुलिस मुख्यालय ले जाया जाएगा। वहाँ उसे एक स्पेशल आईपीएस वर्दी दी जाएगी और फिर वह अपने गाँव वापस आकर एक दिन के लिए आईपीएस के तौर पर काम करेगी। रात को जब सब सो गए, तो अनवी ने अपनी डायरी में लिखा, “कल मैं आईपीएस बनूँगी। सिर्फ एक दिन के लिए। लेकिन इस एक दिन में मैं जो करूँगी, वो मेरी और मेरे गाँव की पूरी जिंदगी को बदल देगा। मैं सबकी मदद करूँगी। हर गरीब की आवाज सुनूँगी। हर बच्ची को स्कूल आने का हौसला दूँगी।”
अगली सुबह, एक खास सजी-धजी कार में बिठाकर अनवी को लखनऊ ले जाया गया। रास्ते में उसने देखा कि लोग सड़क के किनारे खड़े होकर उसे हाथ हिला रहे थे, तालियाँ बजा रहे थे। लखनऊ पुलिस मुख्यालय पहुँचकर अनवी का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। इतनी बड़ी बिल्डिंग, इतने सारे पुलिस वाले, और सब उसे ही देख रहे थे। मुख्यालय के मुख्य द्वार पर एक बड़ा सा बैनर लगा था: ‘स्वागत है चाइल्ड आईपीएस अनवी शर्मा का’।
डीजीपी साहब, पुलिस विभाग के सबसे बड़े अधिकारी, खुद अनवी से मिलने आए। “अनवी बेटा, आज तुम हमारी सबसे खास मेहमान हो। तुम्हारी एक चिट्ठी ने हम सबको बहुत कुछ सिखाया है, जो शायद हम अपनी ट्रेनिंग में भी नहीं सीख पाए।”
फिर अनवी को एक खास कमरे में ले जाया गया, जहाँ उसके लिए एक स्पेशल, छोटी साइज की आईपीएस वर्दी तैयार रखी थी। नेवी ब्लू रंग की कमीज, पैंट, सिर पर एक छोटी सी काली टोपी, और सबसे खास, सीने पर लगा एक छोटा सा बैज, जिस पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था – ‘आईपीएस अनवी शर्मा, वन-डे स्पेशल’।
जब अनवी ने वर्दी पहनी और आईने में खुद को देखा, तो उसकी आँखें खुशी और गर्व से चमक उठीं। “वाह! मैं तो सच में आईपीएस लग रही हूँ।”
डीजीपी साहब ने उसके कंधे पर हाथ रखा। “अनवी, यह सिर्फ वर्दी नहीं है। यह जिम्मेदारी है। आज तुम जो भी करोगी, जो भी कहोगी, उसे पूरा देश देख और सुन रहा होगा।”
अनवी ने सीधे खड़े होकर एक फौजी की तरह कहा, “सर, मैं अपनी जिम्मेदारी समझती हूँ। आज मैं अपने गाँव के हर गरीब आदमी की आवाज बनूँगी।”
दोपहर में, पुलिस के काफिले के साथ अनवी को वापस सहवालपुर ले जाया गया। लेकिन इस बार वह एक आम लड़की नहीं थी। वह आईपीएस अनवी शर्मा थी। गाँव में उसका ऐसा स्वागत हुआ जैसा किसी मुख्यमंत्री का भी न हुआ हो। पूरा गाँव सड़क पर निकल आया था। बच्चे फूल और मालाएँ लेकर खड़े थे। औरतें मंगल गीत गा रही थीं।
लेकिन सबसे अहम और ऐतिहासिक पल तब आया, जब जिले के एसपी साहब और सभी थानों के इंचार्ज, दरोगा, अनवी को सैल्यूट करने के लिए एक लाइन में खड़े हुए। “यह प्रोटोकॉल है,” एसपी साहब ने अनवी को समझाया। “आज अनवी हमारी सबसे छोटी, लेकिन सबसे खास आईपीएस ऑफिसर है। हम सब उसका सम्मान करेंगे।”
एक-एक करके सभी पुलिस अधिकारियों ने अनवी को सैल्यूट किया। वही मुंशी, जिसने कभी गरीबों की रिपोर्ट नहीं लिखी थी, आज काँपते हाथों से अनवी को सैल्यूट कर रहा था। अनवी पहले तो शर्मा गई, फिर उसने भी हिम्मत करके वापस सैल्यूट किया।
“अब मैं क्या करूँ, सर?” अनवी ने एसपी साहब से पूछा।
“जो तुम्हारा दिल कहे, वही करो। आज तुम कमांडर हो,” एसपी साहब मुस्कुराए।
अनवी ने एक गहरी साँस ली। फिर उसने अपनी काँपती लेकिन दृढ़ आवाज में अपना पहला आदेश दिया। “सबसे पहले, मैं गाँव के स्कूल जाना चाहती हूँ। वहाँ जो बच्चियाँ डर की वजह से नहीं आ रही हैं, मैं उनसे मिलना चाहती हूँ।”
स्कूल पहुँचकर अनवी ने देखा कि आज स्कूल बच्चों से खचाखच भरा था। कई बच्चियाँ, जो महीनों से घर बैठी थीं, आज स्कूल आई थीं। मीरा भी अपनी माँ के साथ एक कोने में खड़ी थी।
“मीरा,” अनवी ने उसे अपने पास बुलाया। “अब तुम्हें कोई नहीं डराएगा। आज से, और हमेशा के लिए, तुम्हें कोई स्कूल आने से नहीं रोकेगा। मैं यहाँ हूँ।”
फिर अनवी ने अपना दूसरा आदेश दिया। “इस स्कूल के गेट पर रोज सुबह से शाम तक एक पुलिसकर्मी की ड्यूटी रहेगी, ताकि कोई भी बच्चा या बच्ची स्कूल आने से डरे नहीं।”
“तीसरा आदेश,” अनवी की आवाज और बुलंद हो गई, “ठाकुर भानु प्रताप और उनके परिवार ने आज तक जितनी भी जमीनें खरीदी या हड़पी हैं, उन सारे कागजातों की जाँच होगी। आज ही, शाम तक मुझे रिपोर्ट चाहिए।”
और फिर उसने अपना सबसे बड़ा फैसला सुनाया। “आज से हर शनिवार, गाँव के थाने में ‘जन सुनवाई’ होगी।”
“जन सुनवाई? यानी?” किसी ने पूछा।
“यानी हर शनिवार, सुबह दस से शाम पाँच बजे तक, गाँव का कोई भी आदमी, कोई भी औरत, बिना किसी डर के, बिना किसी पैसे के, सीधे थाने में आकर अपनी समस्या बता सकेगा। और उसकी समस्या पर तुरंत कार्रवाई होगी।”
रात होते-होते पूरे गाँव में एक नई उम्मीद की लहर दौड़ गई। लोग कह रहे थे, “अरे, यह छोटी सी बच्ची ने तो एक दिन में वो कर दिखाया, जो बड़े-बड़े नेता और अफसर सालों में नहीं कर पाए।”
लेकिन अनवी के लिए असली चुनौती और सबसे बड़ा सम्मान अभी बाकी था। अगले दिन उसे दिल्ली जाना था, प्रधानमंत्री से मिलने।
चौथे दिन की सुबह अनवी के लिए किसी सपने के सच होने जैसी थी। आज वह दिल्ली जाने वाली थी, प्रधानमंत्री कार्यालय। छोटे से सहवालपुर गाँव से निकलकर देश की राजधानी तक का यह सफर सिर्फ अनवी का नहीं था, बल्कि हर उस गरीब बच्चे का था, जो कभी यह सोच भी नहीं सकता था कि उसकी आवाज इतनी दूर तक पहुँच सकती है।
सुबह छह बजे ही अनवी तैयार हो गई थी। उसकी आईपीएस वर्दी इस्त्री की हुई थी, जूते चमकाए हुए थे और बैज पर उसका नाम सूरज की रोशनी में चमक रहा था। माँ ने उसके बालों में तेल लगाकर दो चोटियाँ गूँथी थीं। “बिटिया,” माँ ने नम आँखों से कहा, “आज मेरी बेटी प्रधानमंत्री जी से मिलने जा रही है। भगवान का लाख-लाख शुक्र है।” पिताजी भी भावुक हो गए। “अनवी, याद रखना, आज तू सिर्फ हमारी बेटी नहीं है। तू हर उस गरीब के घर की बेटी है, हर उस बच्चे की आवाज है, जिसे कोई सुनता नहीं।”
नौ बजे एक स्पेशल सरकारी विमान से अनवी दिल्ली के लिए रवाना हुई। साथ में थे डीएम साहब, एसपी साहब और उसकी प्यारी सुमित्रा मैम। हवाई जहाज में बैठकर बादलों को नीचे देखते हुए अनवी ने कहा, “मैम, मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि मैं हवाई जहाज में बैठूँगी।” सुमित्रा मैम मुस्कुराईं, “अनवी, यह तो सिर्फ शुरुआत है। तुम्हें अभी और भी ऊँची उड़ानें भरनी हैं।”
दिल्ली पहुँचकर अनवी का स्वागत और भी शानदार तरीके से हुआ। एयरपोर्ट पर मीडिया की भीड़ थी। सबका एक ही सवाल था, “अनवी, प्रधानमंत्री जी से मिलकर कैसा लग रहा है?” अनवी ने माइक के सामने आत्मविश्वास से कहा, “अभी तो मिली नहीं हूँ, लेकिन बहुत खुशी हो रही है। आज मैं अपने गाँव की और अपने जैसे सभी बच्चों की बात कहूँगी।”
दिल्ली में अनवी को पहले दिल्ली पुलिस हेडक्वार्टर ले जाया गया। यहाँ दिल्ली पुलिस कमिश्नर साहब खुद उससे मिलने आए। “अनवी, आज तुम न सिर्फ उत्तर प्रदेश की, बल्कि पूरे देश की सबसे छोटी आईपीएस हो। हमारे सारे आईपीएस ऑफिसर्स तुमसे मिलना चाहते हैं।”
हेडक्वार्टर के एक बड़े कॉन्फ्रेंस हॉल में अनवी को ले जाया गया। वहाँ पचास से ज्यादा सीनियर आईपीएस ऑफिसर्स बैठे थे। जैसे ही वर्दी में सजी नन्ही अनवी अंदर आई, सभी अपनी जगह पर खड़े हो गए और तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूंज उठा। “यह हमारा सम्मान है,” एक सीनियर आईपीएस ऑफिसर ने कहा, “आज हमें एक छोटी सी बच्ची से पुलिसिंग का सबसे बड़ा सबक सीखने को मिल रहा है।”
“तुम आईपीएस क्यों बनना चाहती हो?” किसी ने पूछा।
अनवी ने बड़ी सरलता से जवाब दिया, “सर, मैं नहीं चाहती कि कोई और बच्ची डर के कारण स्कूल न जा सके। मैं नहीं चाहती कि कोई गरीब आदमी यह सोचे कि उसकी आवाज कोई नहीं सुनेगा। पुलिस की वर्दी डराने के लिए नहीं, भरोसा दिलाने के लिए होनी चाहिए।” सभी ऑफिसर्स ने फिर से खड़े होकर तालियाँ बजाईं। कई की आँखें नम हो गई थीं।
दोपहर में अनवी को प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ले जाया गया। साउथ ब्लॉक की वह विशाल इमारत देखकर अनवी का दिल जोर से धड़कने लगा। “यहाँ से पूरा देश चलाया जाता है,” एसपी साहब ने बताया। अंदर जाकर अनवी को एक खास कमरे में बिठाया गया। कमरे में भारत का नक्शा लगा था, तिरंगा झंडा था और दीवारों पर महापुरुषों की तस्वीरें थीं।
“अनवी बेटा, प्रधानमंत्री जी आ रहे हैं। तुम घबराना मत,” पीएमओ के एक अधिकारी ने कहा।
“मैं घबरा नहीं रही अंकल,” अनवी ने कहा, “मैं सिर्फ उत्सुक हूँ।”
पाँच मिनट बाद दरवाजा खुला और प्रधानमंत्री जी अंदर आए। अनवी ने फुर्ती से खड़े होकर सैल्यूट किया। प्रधानमंत्री मुस्कुराए और अनवी के पास आकर बैठ गए। “अनवी बेटा, तुमने बहुत अच्छी चिट्ठी लिखी थी। मैंने खुद पढ़ी है।”
“थैंक यू, सर,” अनवी ने कहा, “मैं सोच भी नहीं सकती थी कि आप मेरी चिट्ठी पढ़ेंगे।”
“अनवी, तुमने लिखा था कि तुम एक दिन के लिए आईपीएस बनना चाहती हो। अब बताओ, कैसा लगा?”
अनवी की आँखें चमक उठीं। “सर, बहुत अच्छा लगा। मैंने अपने गाँव में कुछ काम किए हैं। लेकिन सर, मैं यह भी समझ गई हूँ कि एक दिन काफी नहीं है। मैं हमेशा के लिए आईपीएस बनना चाहती हूँ।”
प्रधानमंत्री गंभीर हो गए। “अनवी, आईपीएस बनना आसान नहीं है। बहुत पढ़ाई करनी पड़ती है।”
“मैं करूँगी, सर। जितनी भी पढ़ाई करनी पड़े, मैं करूँगी। लेकिन मैं पक्का आईपीएस बनूँगी।”
प्रधानमंत्री ने अनवी के सिर पर हाथ रखा। “अनवी, मैं तुम्हारा नाम ‘राष्ट्रीय बाल प्रेरणा कार्यक्रम’ में शामिल कर रहा हूँ। इस प्रोग्राम के तहत तुम्हारी पढ़ाई से लेकर आईपीएस बनने तक की तैयारी का पूरा खर्च सरकार उठाएगी।”
अनवी खुशी से उछल पड़ी। “सच में, सर?”
“हाँ बेटा। और सुनो, तुमने अपने गाँव में जो काम शुरू किए हैं – स्कूल में सिक्योरिटी, जन सुनवाई – यह सब परमानेंट रहेगा। मैं आदेश दे रहा हूँ कि इस ‘सहवालपुर मॉडल’ को एक पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर देश के सौ और गाँवों में शुरू किया जाए।”
यह सुनकर अनवी की आँखों में खुशी के आँसू आ गए। शाम को प्रधानमंत्री के साथ एक स्पेशल वीडियो कॉन्फ्रेंस हुई, जिसमें पूरे देश के आईपीएस ऑफिसर्स शामिल हुए। प्रधानमंत्री ने कहा, “आज मैं आप सबसे एक स्पेशल आईपीएस ऑफिसर से मिलवा रहा हूँ – अनवी शर्मा। इस बच्ची ने हमें सिखाया है कि पुलिस की असली ताकत डराने में नहीं, भरोसा दिलाने में है।”
वीडियो कॉन्फ्रेंस में शामिल सभी आईपीएस ऑफिसर्स ने अपनी-अपनी जगह से अनवी को सैल्यूट किया। यह नजारा देखकर अनवी गर्व से भर गई। रात को होटल में अनवी ने अपनी डायरी में लिखा, “आज का दिन मेरी जिंदगी का सबसे खुशी का दिन था। प्रधानमंत्री जी ने मेरी बात सुनी। अब मैं पक्का आईपीएस बनूँगी। लेकिन सिर्फ अपने लिए नहीं, सभी के लिए।”
अगले दिन जब अनवी सहवालपुर लौटी, तो उसका जीवन अब सिर्फ एक छोटे से गाँव तक सीमित नहीं रह गया था। वह देश भर की उम्मीद बन गई थी। उसका गाँव बदल चुका था। ठाकुर भानु प्रताप के कागजातों की जाँच चल रही थी और उसकी कई जमीनें अवैध पाई गई थीं। रामू काका अपनी दुकान पर खुशी-खुशी सब्जी बेच रहे थे।
आने वाले महीनों में, अनवी के नाम से एक राष्ट्रीय स्कीम ‘अनवी स्कीम’ शुरू हुई, जिसके तहत गाँवों में ‘चाइल्ड हेल्प डेस्क’ खोले गए। मुंबई के एक बड़े फिल्म प्रोड्यूसर ने उसकी कहानी पर ‘छोटी आईपीएस’ नाम की फिल्म बनाने की घोषणा की। देश के सबसे बड़े स्कूलों ने उसे स्कॉलरशिप ऑफर की, लेकिन अनवी ने अपने गाँव के स्कूल में ही पढ़ने का फैसला किया, जिसे अब ‘मॉडल स्कूल’ बना दिया गया था।
अपने ग्यारहवें जन्मदिन पर, जब प्रधानमंत्री ने वीडियो कॉल करके उसे बधाई दी, तो अनवी ने उन्हें बताया, “सर, मैंने तय किया है कि मैं बारहवीं के बाद पहले एनडीए का एग्जाम दूँगी। मुझे फौज का अनुशासन भी सीखना है। फिर मैं यूपीएससी का एग्जाम दूँगी और आईपीएस बनूँगी।”
प्रधानमंत्री हँस पड़े। “वाह अनवी! तुमने तो अपना पूरा रोडमैप बना लिया है।”
उस दिन शाम को, अपनी डायरी बंद करके अनवी ने अपनी अलमारी में सहेजकर रखी उस एक दिन की आईपीएस वर्दी को देखा। वह अब सिर्फ एक वर्दी नहीं थी, बल्कि एक वादा था, जो उसने खुद से और पूरे देश से किया था। वह जानती थी कि रास्ता लंबा और कठिन है, लेकिन अब वह अकेली नहीं थी। उसके साथ करोड़ों लोगों की दुआएँ और एक पूरे देश की उम्मीद थी। सहवालपुर की वह छोटी सी लड़की, जिसने कभी सिर्फ सपने देखे थे, अब खुद एक सपना बन चुकी थी – एक ऐसा सपना, जो भारत के हर बच्चे को यह यकीन दिला रहा था कि अगर दिल में सच्चाई और हौसला हो, तो कोई भी सपना छोटा नहीं होता।
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