15 दिन बच्चे का इलाज करने के बाद डॉक्टर मां से बोला पैसे नहीं चाहिए मुझसे शादी कर लो |

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लखनऊ के एक छोटे से गांव में संध्या नाम की एक महिला अपने बेटे पीयूष के साथ रहती थी। उसकी ज़िन्दगी संघर्षों से भरी थी। पति ने जुए में सब कुछ गंवा दिया था, माता-पिता पहले ही दुनिया छोड़ चुके थे, और अब वह अपने बेटे के साथ अकेली थी। गांव में लोगों ने उससे दूरी बना ली थी, क्योंकि पति के कारण उसकी इज्जत पर भी सवाल उठने लगे थे। संध्या ने कभी सोचा नहीं था कि उसकी ज़िन्दगी इतनी मुश्किल हो जाएगी।

एक दिन पीयूष की तबीयत अचानक बिगड़ गई। तेज़ बुखार, उलझन और कमजोरी ने उसे बिस्तर से लगा दिया। संध्या घबरा गई। पास के डॉक्टर ने बताया कि मामला गंभीर है, शहर के बड़े अस्पताल में इलाज कराओ। लेकिन संध्या के पास पैसे नहीं थे। उसने गांव में मदद मांगी, लेकिन सबने हाथ खड़े कर दिए।

आखिरकार, संध्या ने अपने पुराने कपड़ों में कुछ पैसे बांधकर बेटे को लेकर जबलपुर के सरकारी अस्पताल का रुख किया। रास्ते में ट्रेन में बैठी तो मन ही मन भगवान से दुआ कर रही थी—”हे भगवान, मेरे बेटे को बचा लेना।” ट्रेन के सफर में संध्या की आंखों में आंसू थे, और पीयूष उसकी गोद में बेसुध पड़ा था।

जबलपुर स्टेशन पर रात का वक्त था। संध्या डरी-सहमी भीड़ में से निकलकर अस्पताल की ओर बढ़ी। रास्ते में अजय नाम का एक युवक मिला, जिसने उसकी मदद की। अजय ने संध्या की हालत देखकर पूछा, “बहन, कहां जाना है?” संध्या ने बताया कि उसे अस्पताल जाना है। अजय ने उसे ऑटो में बैठाया, साथ गया और अस्पताल के गेट तक छोड़ आया।

अस्पताल पहुंचकर संध्या ने डॉक्टर से विनती की, “डॉक्टर साहब, मेरे बेटे का इलाज कर दीजिए। पैसे मैं बाद में काम करके चुका दूंगी।” डॉक्टर ने सख्ती से कहा, “देखो, यह अस्पताल ऐसे नहीं चलता। इलाज के लिए पैसे देने होंगे।” संध्या के आंखों में आंसू आ गए। वह डॉक्टर के पैरों में गिरकर गिड़गिड़ाने लगी, “मेरे पास सिर्फ तीन हजार रुपये हैं। आप इन्हें ले लीजिए, लेकिन मेरे बेटे का इलाज कर दीजिए।” डॉक्टर ने उसे फिर मना कर दिया।

वहीं, एक दूसरे डॉक्टर—डॉ. विशाल—वहां से गुजर रहे थे। उन्होंने संध्या और उसके बेटे को देखा। कुछ यादें ताज़ा हो गईं। डॉ. विशाल ने तुरंत कहा, “कोई बात नहीं, बच्चे का इलाज हो जाएगा। इसे एडमिट कर दो, जो भी खर्च आएगा, मैं देख लूंगा।” संध्या ने हाथ जोड़कर धन्यवाद दिया।

पीयूष का इलाज शुरू हुआ। डॉ. विशाल रोज़ वार्ड में आते, पीयूष से बातें करते, उसे हंसाने की कोशिश करते। संध्या को भी ढांढस बंधाते। इलाज के दौरान डॉ. विशाल को संध्या की पूरी कहानी पता चली—कैसे पति ने जुए में उसे दांव पर लगा दिया, कैसे वह बहन के घर गई, लेकिन जीजा ने उसे बोझ समझा, कैसे वह दूसरों के घरों में झाड़ू-पोछा करके अपना और बेटे का पेट पाल रही है।

पंद्रह दिन बाद पीयूष ठीक हो गया। छुट्टी के दिन संध्या ने अपने पास के तीन हजार रुपये डॉक्टर के हाथ पर रखे, “डॉक्टर साहब, ये लीजिए। बाकी पैसे मैं काम करके दे दूंगी।” डॉ. विशाल मुस्कुराए, “नहीं, पैसे देने की जरूरत नहीं। अगर एहसान मानती हो तो मुझसे शादी कर लो।”

संध्या हैरान रह गई। “डॉक्टर साहब, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?” डॉ. विशाल की आंखों में आंसू थे। उन्होंने अपनी कहानी सुनाई—”कुछ साल पहले मेरी पत्नी और बेटा एक हादसे में चले गए। मैं अकेला रह गया। जब मैंने तुम्हारे बेटे को देखा, तो मुझे अपने बेटे की याद आ गई। तुम्हारी तकलीफ देखी तो रहा नहीं गया। मैं चाहता हूं कि मेरी तन्हा ज़िन्दगी में तुम और तुम्हारा बेटा आ जाओ।”

संध्या सोच में पड़ गई। उसके पास खोने को कुछ नहीं था, लेकिन आगे बढ़ने का साहस चाहिए था। उसने कुछ देर बाद हामी भर दी। दोनों ने मंदिर में जाकर शादी की।

शादी के बाद संध्या और पीयूष को विशाल ने अपने घर में जगह दी। घर बड़ा था, लेकिन उसमें पहले सन्नाटा था। अब हंसी, बच्चों की आवाजें, और जीवन लौट आया था। विशाल ने संध्या को पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित किया, पीयूष का स्कूल में दाखिला करवाया।

धीरे-धीरे, संध्या ने अपनी ज़िन्दगी को नए सिरे से जीना शुरू किया। उसने सिलाई-कढ़ाई का काम सीख लिया, महिलाओं को ट्रेनिंग देने लगी। अब वह सिर्फ घर में काम करने वाली नहीं, बल्कि आत्मनिर्भर महिला बन गई थी।

संध्या की बहन रीमा को जब पता चला कि उसकी बहन ने डॉक्टर से शादी कर ली है, तो वह भी खुश हुई। जीजा भी अब कभी-कभी मिलने आता था, लेकिन संध्या ने अपनी ज़िन्दगी में किसी से कोई शिकायत नहीं रखी।

पांच साल बीत गए। संध्या, विशाल और पीयूष खुशहाल जीवन जी रहे थे। बंगले में अब रौनक थी, गाड़ियों में घूमना, अच्छे स्कूल में पढ़ना, और समाज में इज्जत—सबकुछ बदल गया था।

एक दिन संध्या बालकनी में बैठी थी, पीयूष स्कूल से लौट रहा था। विशाल ऑफिस से आ रहे थे। संध्या ने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया—”जिन्होंने मुझे अंधेरे से निकालकर रोशनी दी।”

कहानी का संदेश यही है—ज़िन्दगी में चाहे जितनी भी मुश्किलें आएं, हौसला और उम्मीद कभी नहीं छोड़नी चाहिए। ऊपरवाला किसी न किसी रूप में मदद जरूर करता है।