Arab Sheikh Ko Kam Karne Wali Indian Ladki Pasand Agyi || Phir Roz Raat Ko Uske Saath Kya Karta Raha
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एक हिंदुस्तानी जोड़े की संघर्ष
भाग 1: नए सफर की शुरुआत
रवेश नायर, एक साधारण हिंदुस्तानी युवक, अपनी खूबसूरत और सादा मिजाज पत्नी आशा वर्मा के साथ रोजगार की तलाश में सऊदी अरब पहुंचा। उनकी शादी को अभी दो महीने ही हुए थे। आशा की खूबसूरती ऐसी थी कि जिसे देखने वाला एक पल के लिए रुक जाता। वह हमेशा सर पर दुपट्टा रखती, धीरे-धीरे बोलती और चेहरे पर मासूम मुस्कुराहट लिए रहती।
रवेश ने अपने माता-पिता की इच्छाओं को पूरा करने के लिए सऊदी अरब जाने का फैसला किया था। उसने सोचा था कि यहां काम करके वह अपने परिवार को बेहतर जीवन दे सकेगा। लेकिन सऊदी अरब की जिंदगी बहुत कठिन थी। वहां का मालिक, शेख फहद बिन खालिद, एक अमीर और घमंडी व्यक्ति था। उसका रुतबा ऐसा था कि शहर के बड़े-बड़े ठेकेदार और अफसर भी उसके सामने झुककर बात करते थे।
जब पहली बार शेख ने आशा को कंपनी के रहाशी कंपाउंड में देखा, तो उसकी नजरें जैसे ठहर सी गईं। आशा के चेहरे की मासूमियत और शर्मगिनी ने उसके अंदर एक गलत ख्वाहिश को जन्म दिया। तब से वह किसी बहाने उस जोड़े के बारे में जानने लगा।
भाग 2: संघर्ष और कठिनाइयां
रवेश के लिए जिंदगी वहां आसान नहीं थी। सख्त गर्मी, 12-14 घंटे की ड्यूटी और उसके बाद वह छोटा सा कमरा जहां शाम को वह अपनी बीवी के साथ चाय पीता और गांव की बातें करता। दोनों को लगता था कि अब उनकी जिंदगी सुकून से गुजरेगी।
लेकिन किस्मत को शायद कुछ और मंजूर था। एक रात रवेश हमेशा की तरह देर से काम खत्म करके घर लौटा। दरवाजा आधा खुला हुआ था। अंदर गया तो आशा कहीं नहीं थी। उसका दिल एकदम तेज धड़कने लगा। वह दीवाना वार आसपास के कमरों में गया। सब से पूछा। किसी ने आशा को देखा मगर किसी के पास जवाब नहीं था।
आखिरकार एक बांग्लादेशी मजदूर ने दबे लहजे में कहा, “भाई, अभी थोड़ी देर पहले एक बड़ी स्याह गाड़ी आई थी। शेख फहद खुद था उसमें। वह तुम्हारी बीवी को अपने साथ ले गया।” यह सुनते ही रवेश के कदमों तले जमीन निकल गई। पसीना उसके चेहरे पर बहने लगा। जुबान बंद हो गई।
वह घबराहट में फौरन अपने मैनेजर जतन पिल्ली को फोन लगाता है। जतन, जो खुद दक्षिण भारत का था और कई सालों से कंपनी में मैनेजर था, रवेश की टूटी हुई आवाज सुनकर कुछ पल खामोश रहा। फिर बोला, “रवेश, घबराना मत। मैं देखता हूं क्या हुआ है। अभी कुछ मत कर। मैं बात करता हूं।” लेकिन उसके लहजे में वह नरमी नहीं थी जो एक दोस्त या साथी के लहजे में होती है। बल्कि एक अजीब सी लाचारी थी।
भाग 3: रिश्तों की दरार
यह कहानी है राजस्थान के एक गांव रतनपुर के रहने वाले रवेश नायर की, जो पिछले 12 साल से खलीज में मजदूरी करके अपने मां-बाप का पेट पालता आया था। उसने जिंदगी की शुरुआत एक आम इलेक्ट्रिशियन के तौर पर की थी। मगर अपनी ईमानदारी और हुनर से वह इलेक्ट्रिकल सुपरवाइजर के ओहदे तक पहुंच गया।
अब वह 30 साल का हो चुका था। 12 साल की मेहनत के बाद भी उसके अंदर एक खालीपन था। एक तन्हाई जो उसे अंदर ही अंदर खा रही थी। गांव में उसके मां-बाप बूढ़े हो चुके थे। जब भी फोन पर बात होती, मां हमेशा एक ही बात दोहराती, “बेटा, अब तो शादी कर ले, कब तक अकेला रहेगा?”
रवेश हर बार बात टाल देता। मगर अब वह खुद भी महसूस करने लगा था कि हां, जिंदगी में किसी अपने की जरूरत है। आखिरकार उसने मां-बाप की बात मान ली। गांव में ही एक सीधी साधी मगर दिलकश लड़की देखी गई। आशा वर्मा, आशा तालीम याफ्ता, नरम दिल और शरीफ घराने से थी।
उनका रिश्ता तय हुआ और रवेश एक महीने की छुट्टी लेकर भारत पहुंचा। शादी सादगी मगर मोहब्बत से हुई। पूरा गांव खुश था कि उनके रवेश की किस्मत खुल गई। लेकिन शादी के सिर्फ 20 दिन बाद ही उसे वापस सऊदी जाना पड़ा क्योंकि वहां साल में सिर्फ एक महीने की छुट्टी मिलती थी।
भाग 4: बिछड़ने का दर्द
आशा ने रुखसती के वक्त आंसुओं में डूबी आवाज में कहा, “जल्दी वापस आना। मैं तुम्हारे बगैर नहीं रह सकती।” रवेश ने उसके सर पर हाथ रखा। “मैं वादा करता हूं, आशा। अब ज्यादा देर नहीं लगाऊंगा।” काश उसे मालूम होता। यही आखिरी बार था जब उसने अपनी बीवी को सुकून से देखा।
दुबई पहुंचने के बाद रवेश ने दोबारा अपने काम में खुद को मशरूफ कर लिया। लेकिन इस बार उसके दिल में एक अजीब सा खालीपन था। दिनभर मशीनों के शोर में रहने के बावजूद उसके कानों में आशा की आवाज गूंजती रहती थी। दोनों रोजाना फोन पर बात करते, एक दूसरे को याद करते और अपने जज्बात सांझा करते।
लेकिन वक्त के साथ हौसला बढ़ता गया और तन्हाई दोनों पर भारी पड़ने लगी। 3 महीने यूं ही गुजर गए। आशा का हाल बिगड़ने लगा। वह अक्सर चुप रहने लगी। रातों को जागती और जरा सी बात पर रो पड़ती। उसके वालिदैन ने रवेश से कहा, “बेटा, अगर हो सके तो आशा को अपने साथ ले जा। यह लड़की तो रोज-रो कर कमजोर होती जा रही है।”
रवेश खुद भी परेशान था। मगर वह जानता था कि सऊदी अरब में लेबर कैटेगरी में आने वालों को अपनी बीवी को साथ रखने की इजाजत नहीं होती। इसी तजब में कई दिन निकल गए।
भाग 5: एक निर्णय का समय
आखिरकार एक रात उसने दिल ही दिल में फैसला किया कि अब वह दुबई की नौकरी छोड़ देगा। 12 साल की कमाई लेकर भारत लौट जाएगा। चाहे छोटा-मोटा कारोबार ही क्यों ना शुरू करे, मगर अपनी बीवी और घर वालों के साथ रहेगा।
अगली सुबह वह अपने मैनेजर जतन पिल्ली के दफ्तर गया। “सर, मैं नौकरी छोड़ना चाहता हूं।” जतन चौंक गया। “इतना बड़ा फैसला क्यों?” रवेश ने धीरे से कहा, “सर, बीवी अकेली है। मैं उसकी हालत देखकर खामोश नहीं रह सकता।”
जतन पिल्ली कुछ देर सोचता रहा। फिर बोला, “ठीक है, मैं मालिक से बात करता हूं। शायद कोई रास्ता निकल आए।” जतन ने शेख फहद बिन खालिद को सारी बात बताई। शेख ने बेरुखी से कहा, “जाना चाहता है तो जाने दो। उसकी जगह और रख लेंगे।”
जतन ने अदब से कहा, “सर, वह 12 साल से हमारे साथ है। हर काम की बारीकी जानता है। अगर वह जाएगा तो नुकसान हमारा होगा।” शेख ने पल भर सोचकर कहा, “तो फिर क्या चाहते हो?” जतन बोला, “अगर कंपनी की तरफ से उसे इलेक्ट्रिकल इंजीनियर का सर्टिफिकेट दे दिया जाए, तो कानूनन वह अपनी बीवी को बुला सकता है।”
भाग 6: आशा का आगमन
शेख ने कंधे उचकाते हुए कहा, “ठीक है, कर दो।” चंद दिनों में वह सर्टिफिकेट तैयार हुआ। वीजा बना और आखिर आशा दुबई आ गई। जब रवेश ने उसे एयरपोर्ट पर देखा तो उसकी आंखों में खुशी के आंसू थे। दोनों ने एक छोटे से फ्लैट में नई जिंदगी शुरू की। मोहब्बत, सुकून और उम्मीद के साथ।
रवेश दिन भर कंपनी के काम में लगा रहता और शाम को घर आकर आशा के हाथ का खाना खाता। आशा भी खुश थी कि अब वह अकेली नहीं। उनकी जिंदगी में सुकून और प्यार लौट आया था। कुछ दिन बाद जतन पिल्ली ने दफ्तर में रवेश से हंसते हुए पूछा, “कैसी चल रही है तुम्हारी शादीशुदा जिंदगी?”
रवेश ने मुस्कुरा कर जवाब दिया, “बहुत अच्छी, सर। अगर आप ना होते तो शायद यह मुमकिन ना होता।” जतन हंसा, “बस जबानी शुक्रिया काफी नहीं, पार्टी तो बनती है।”
भाग 7: दावत का दिन
रवेश बोला, “आपके लिए तो जान हाजिर है, सर। बताइए कहां चलना है?” जतन ने शोख ही से कहा, “होटल का खाना तो रोज खाते हैं, इस बार घर का छखा आए तुम्हारी बीवी के हाथ का।”
रवेश ने हंसते हुए कहा, “जरूर, सर। इस इतवार को आ जाइए। आशा भी खुश हो जाएगी।” इतवार का दिन आ पहुंचा। रवेश नायर और उसकी बीवी आशा सुबह से ही खुशी-खुशी तैयारियों में लग गए। आशा ने बाजार से सामान मंगवाया। सालन, बिरयानी और मीठे की तैयारी शुरू की।
रवेश खुद जाकर कुछ खास मसाले और फल खरीद लाया और शाम के लिए एक छोटी बोतल शराब की भी ले आया। वहां शराब पीना आम बात थी, इसलिए किसी को ऐतराज नहीं था। रात के 8:00 बजे के करीब जतन पिल्ली अपने दो साथियों के साथ रवेश के घर पहुंचा। सबने खुशी से इस्तकबाल किया। थोड़ी ही देर में हंसी-ज़ाक, बातें और शराब के ग्लास चलने लगे।
भाग 8: पहली मुलाकात
जतन कंपनी के किस्से सुना रहा था। साथी कहकहे लगा रहे थे और रवेश बस मुस्कुराकर सबकी खिदमत कर रहा था। कुछ देर बाद आशा ने बावड़ची खाने से आवाज दी। “खाना तैयार है।” सब लोग दस्तरखान पर आ बैठे। सालन, चावल, मीठा सब कुछ घर के जायके से भरा था। सब ने दिल खोलकर खाना खाया, तारीफ की और माहौल हल्का सा जज्बाती हो गया।
रात के 10:00 बजे जब सब उठने लगे तो जतन ने हंसते हुए कहा, “अरे भाई रवेश, कम से कम अपनी बीवी से तो मिलवाओ। हमने तो उन्हें देखा भी नहीं।” रवेश थोड़ा सा झिंझका फिर अंदर गया और आशा से बोला, “वो तुमसे मिलना चाहते हैं, बाहर आ जाओ।”
आशा ने हल्की सी मुस्कान के साथ दुपट्टा सर पर रखा और कमरे से बाहर आई। जतन पिल्ली जैसे ही उसे देखता है, पलकें झपकना भूल जाता है। कुछ लम्हे वो यूं ही खामोश खड़ा रहता है। आशा की सादगी, उसकी शर्मगिनी और चेहरे की रोशनी ने जैसे सबको साकित कर दिया।
भाग 9: एक अनजाना एहसास
जतन के दिल में एक अजीब सा एहसास उभरता है। हैरत भी, हसद भी। वो दिल ही दिल में सोचता है, “अरे, ऐसे मामूली से लड़के को इतनी खूबसूरत बीवी कैसे मिल गई?” वो अपनी जेब से कुछ नोट निकालता है। आशा के हाथ पर रख देता है, “यह शगुन के तौर पर रख लो भाभी जी।” उसके दोनों साथी भी उसकी देखादेखी वैसा ही करते हैं।
रवेश को कुछ अजीब सा लगता है। मगर वह बस मुस्कुरा कर बात टाल देता है। थोड़ी देर बाद सब मेहमान रुखसत हो जाते हैं। अगले दिन मामूल के मुताबिक दफ्तर का काम शुरू हो गया।
भाग 10: शेख फहद का जिक्र
कुछ दिन बाद कंपनी की मीटिंग के दौरान जब जतन शेख फहेद के साथ बैठा था। बातों-बातों में रवेश नायर का जिक्र आ गया। शेख ने पूछा, “वो नया सुपरवाइजर कैसा काम कर रहा है?” जतन ने मुस्कुराते हुए कहा, “सर, काम तो जबरदस्त कर रहा है, मगर अगर आपने उसकी बीवी देखी ना तो हैरान रह जाएंगे। इतनी हसीन औरत मैंने आज तक नहीं देखी। लगता ही नहीं कि वो किसी आम आदमी की बीवी हो।”
शेख ने दिलचस्पी से कहा, “वाकई तो फिर हमें भी दीदार कराओ उस चांद के।” जतन बोला, “क्यों नहीं, सर। इसी इतवार को मैं उसे फोन कर देता हूं। आप डिनर के लिए उनके घर चलिएगा।”
शेख ने कहका लगाया, “ठीक है, हम भी देखें वो कौन सी किस्मत वाला है जिसे ऐसी नेमत मिली है।”
भाग 11: चिंताओं का आगाज
जब जतन पिल्ली ने फोन पर रवेश को बताया कि इस इतवार कंपनी के मालिक शेख फहद बिन खालिद खुद उसके घर डिनर पर आने वाले हैं, तो रवेश चौंक गया। “क्या सर, वो मेरे घर पर अचानक कैसे?” जतन हंसा, “बस यूं समझ लो, उन्हें तुम्हारा खाना पसंद आ गया। मैंने बताया था कि तुम्हारी बीवी बहुत अच्छी कुकिंग करती है और वह काफी हसीन भी है। तो शेख साहब ने कहा चलो खुद देख लेते हैं।”
रवेश के चेहरे का रंग उड़ गया। उसने बस आहिस्ता से “ओके, सर” कहा और फोन बंद कर दिया। दिल में अजीब सी बेचैनी थी। क्या वाकई शेख सिर्फ खाने के लिए आना चाहते हैं? या उनकी नजर किसी और चीज पर है? उसने कई बार सुना था कि कुछ अमीर शेख अपने मातहतों की औरतों पर बुरी नजर रखते हैं।
भाग 12: दावत का दिन
मगर अब कुछ कर भी नहीं सकता था। चाहे दिल माने या ना माने, इतवार की दावत फिर तय हो गई। वो दिन भी आ गया। शाम होते ही रवेश नायर और आशा ने पूरा घर साफ किया। आशा ने खुशबू लगाई, खाने की तैयारी की और दिल ही दिल में दुआ की कि सब खैरियत से गुजर जाए।
रात के 8:00 बजे के करीब शेख फहद अपनी बड़ी स्याह गाड़ी में जतन पिल्ली के साथ दरवाजे पर पहुंचा। रवेश ने झुक कर सलाम किया। “सर, खुशामदीद।”
शेख के चेहरे पर वही सर्द मुस्कान थी जैसे किसी शिकार को देखने वाला देता है। अंदर आते ही मेज पर मशरूबात लग गई और जतन ने हंसते हुए कहा, “चलो भाई, एक बार फिर तुम्हारी बीवी के हाथ का खाना खाते हैं।”
शराब के गिलास भरे गए। बातों का सिलसिला चला और हर बार जब आशा कुछ सर्व करने आती तो शेख फहद की नजरें बस उसी पर टिकी रहतीं। वह चुपचाप उसके हर आते-जाते अंदाज को घूरता रहा। आशा की झिझक और आंखों की शर्म से माहौल में एक अजीब सा तनाव फैल गया।
भाग 13: एक अनपेक्षित प्रस्ताव
खाने के बाद शेख ने अपनी जेब से एक छोटी सी डिबिया निकाली और मुस्कुराते हुए आशा की तरफ बढ़ाई। “यह हमारी तरफ से तुम्हारे हाथों के खाने का शुक्रिया।” जब डिबिया खोली गई तो अंदर एक चमकती हुई हीरे की अंगूठी थी।
रवेश ने घबरा कर कहा, “सर, इसकी क्या जरूरत थी?” शेख ने संजीदगी से जवाब दिया, “जरूरत नहीं, खुशी है और यह मैं तुम्हें नहीं दे रहा। तुम्हारी बीवी को दे रहा हूं।”
यह सुनकर कमरे में सन्नाटा छा गया। आशा ने नजरें झुका लीं। रवेश ने कुछ नहीं कहा। बस आशा ने दबे दिल से अंगूठी कबूल कर ली। कुछ देर बाद शेख और जतन वहां से चले गए। मगर रवेश के दिल में बेचैनी रह गई।
भाग 14: खौफनाक हकीकत
अगले तीन दिन आम से लगे मगर फिर अजीब बात शुरू हुई। अब कंपनी रोज रवेश को दूरदराज के साइट्स पर भेजने लगी। पहले उसे शहर के करीब प्रोजेक्ट मिलते थे। मगर अब रोज सुबह निकलना और रात गए लौटना मामूल बन गया।
उसे हैरत हुई मगर वो चुप रहा। उसे काम से मोहब्बत थी। इसी तरह एक दिन वो सुबह जल्दी निकल गया। दोपहर के करीब अचानक दरवाजे की बेल बजी। आशा ने दरवाजा खोला तो सामने शेख फहद खड़ा था।
वो चौंक गई। “सर, आप यहां? रवेश तो काम पर गए हैं।” शेख ने मुस्कुरा कर कहा, “मुझे मालूम है, इसीलिए आया हूं।” और यह कहकर वो बिना इजाजत अंदर दाखिल हो गया।
आशा का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसने घबराहट में फौरन कमरे में जाकर रवेश को फोन लगाया। रवेश नायर एकदम सुन हो गया। फोन पर आशा की कांपती हुई आवाज आई, “जल्दी आओ। मुझे बहुत डर लग रहा है। शेख फहद घर पर बैठे हैं।”
रवेश ने बम मुश्किल खुद को संभाला। “आशा, मैं शहर के दूर वाले साइट पर हूं। कम से कम एक घंटा लगेगा। लेकिन मैं अभी निकल रहा हूं। दरवाजा अंदर से बंद रखना। किसी बात पर हां मत कहना।”
भाग 15: तनाव का बढ़ता स्तर
यह कहकर उसने हेलमेट पहना, फाइलिंग गाड़ी में फेंकी और तेजी से रवाना हो गया। उधर फ्लैट में शेख फहद इत्मीनान से सोफे पर टेक लगाए बैठा था। आशा ने झिझकते हुए पानी रखा तो वह नरम मगर हुक्म वाले लहजे में हंसा, “घबराओ नहीं। हम बस बात करने आए हैं।”
आशा ने नजरें झुका ली और खामोश बैठी सुनने लगी। शेख क्या कह रहा था? यह बात बाद में खुलेगी। उस वक्त घर की फिजा में सिर्फ अब बेचैनी गूंज रही थी।
तकरीबन 1 घंटे बाद जब रवेश सांस फूलती हालत में फ्लैट के दरवाजे पर पहुंचा तो अंदर सन्नाटा था। कमरा वहीं चीजें वैसी मगर आशा गायब। वो राहदारी में दौड़ा। बराबर वाले फ्लैट की घंटी बजाई। एक बांग्लादेशी मजदूर ने दबे लहजे में बताया, “अभी-अभी बड़ी सियाह गाड़ी आई थी। शेख फहद खुद आए, अंदर गए और भाभी जी उनके साथ बैठकर चली गई।”
यह सुनकर रवेश के हाथ-पांव ठंडे पड़ गए। जिस खदश से वह डर रहा था, वही सामने आ खड़ा हुआ था। कांपते हाथों से उसने फौरन जतन पिल्ली को फोन किया। जतन ने बात सुनी तो वह भी सन्नाटे में आ गया। “तुम घबराओ नहीं। मैं 10 मिनट में कॉल बैक करता हूं।”
भाग 16: शेख की धौंस
लाइन बंद करते ही जतन ने डर और लाचारी के साथ शेख फहद का नंबर मिलाया। “सर, क्या आशा इस वक्त आपके पास है?” शेख ने बेपरवाही से जवाब दिया, “हां, वो हमारे विला में है।”
जतन ने हिम्मत जुटाकर पूछा, “सर, वो कब तक वहां रहेंगी?” सर्द लहजे में जवाब आया, “कम से कम तीन दिन तो रहेंगी ही।” जतन का गला सूख गया। वो सीधा रवेश को फोन करके बोला, “मैंने मालिक से बात की है। आशा तीन दिन बाद खुद घर वापस आ जाएगी। अभी तुम कुछ मत करो।”
यह सुनकर रवेश का खून खौल उठा। “यह सब तुम्हारी वजह से हुआ है, जतन। तुमने ही रास्ता दिखाया।”
जतन तड़प कर बोला, “खुदा के लिए यकीन करो। मेरा कोई हाथ नहीं। मुझे भी अभी पता चला है।” रवेश ने गुस्से में कहा, “मैं अभी पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराऊंगा।”
जतन ने सख्त लहजे में रोका, “ऐसा मत करना, रवेश। यह उनका मुल्क है। तुम कुछ नहीं कर पाओगे। और याद रखो, तुमने आशा को यहां कंपनी के सर्टिफिकेट पर बुलाया है, जिसकी बुनियाद कमजोर है। अगर पुलिस में गए तो उल्टा तुम फंस सकते हो। पासपोर्ट कंपनी के पास है। कागजात उनके इख्तियार में हैं। जरा सा भी कदम गलत हुआ तो ना तुम कहीं जा सकोगे ना आशा।”
भाग 17: बेबसी का आलम
यह सुनकर रवेश दीवार से टिक कर बैठ गया। फोन हाथ से ढलक गया। कमरे में बस एक आवाज रह गई। उसकी तेज सांसें और बेबसी की भारी गूंज। फिर वह दिन जो रवेश के बर्दाश्त करना मुश्किल समझता था, आ गया।
तीन दिन के बाद आशा घर वापस लौटी। मगर वह हालत ऐसी थी कि देखकर रवेश का दिल फट गया। वह आते ही रो पड़ी। रवेश के गले में लिपट गई और दोनों एक-दूसरे के सहारे बेहोशी से रोने लगे। जब आशा ने आहिस्तगी से वह वाकया बताया तो रवेश का दिल कुचल गया।
“तेरे साथ तीन दिन में जो कुछ हुआ, वह तेरा कलीजा पार कर देता है। उसने मुझे घर तक जाने नहीं दिया था। दिन रात मेरे साथ बर्बरता किया। जैसा उसका मन चाहा वैसा किया।”
भाग 18: दर्द का सामना
आशा की बातें सुनकर रवेश की आंखें खून से भर आईं। अल्फाज में बयान करने से परे वह दर्द जिसने इन दोनों की जिंदगी बदल दी थी। रवेश ने कहा, “हम यहां रह नहीं सकते। आशा, यह जगह मेरे लिए नहीं।”
आशा ने कांपते हुए कहा, “किसे पता, अगर यहां रहे तो यह दोबारा हो सकता है। मुझे तुम बस यहां से ले चलो। यह नरक है। बाहर यह जन्नत दिख सकती है। मगर यहां इसे मैंने झेला है।”
फिर रवेश ने कंपनी में अपने जमा पैसों के लिए जतन पिल्ली से मदद मांगी। उसके अकाउंट में 4 से 5 लाख जमा थे जो वह वापस लेना चाह रहा था ताकि घर जाकर फिर से नया आरंभ करें।
जतन ने मालिक से बात की। मगर मालिक ने किसी ना किसी बहाने से रकम जारी करने से इंकार कर दिया और कहा, “तुम समझते हो, फौरन पैसे जारी कर दूंगा। अभी हमारा मन नहीं भरा। जब हमारा मन भरा तो हम खुद तुम्हें आजाद कर देंगे।”
भाग 19: निराशा का सामना
जतन ने यह सुनकर वापस आकर रवेश को बताया कि कुछ और वक्त दरकार होगा। तीन दिन के बाद दोबारा वही कहानी। शेख नरम लहजे में बोलता रहा, “तुम जानती नहीं कि तुम्हारे और तुम्हारे शौहर का भला इसी में है। जैसा मैं कहूं वैसा करो। चंद दिन गुजार दो। फिर मैं तुम्हें आजादी दूंगा। तुम्हें इतना पैसा दूंगा कि तुमने ख्वाब में भी ना देखा होगा।”
आशा खामोशी से इन बातों को सुनती रही। फिर चुपचाप उसी गाड़ी में बैठ गई और रवाना हो गई। रवेश आंखों से बहते आंसुओं के साथ बस देखता रह गया। किसी शौहर के लिए ऐसा दुख कि अपनी बीवी अपनी मर्जी के बगैर किसी और के हवाले होती दिखे।
भाग 20: अंत में एक नई शुरुआत
आशा जब गई तो एक हफ्ता तक वापस ना आई। एक हफ्ते बाद जब वह लौटी तो उसकी हालत दग थी। चलने फिरने की सख्त कम, आंखों में स्याह निशान और रूह में इतना जख्म कि अल्फाज में बयान करना मुश्किल था। घर आकर सीधी रवेश के गले में लिपट गई और दोनों बेहिसाब रोए।
जब आशा ने बताना शुरू किया तो रवेश का दिल कुचल सा गया। “वो तीन दिन जिनमें वह मुझे लेकर रखा। हर रोज हर लम्हा उसने मेरे साथ ज्यादतियां की। मुझे घर जाने भी नहीं दिया। वो जो चाहता वैसा करता रहा। मैं अभी भी जब सोचती हूं तो मेरा दिल छलनी हो जाता है।”
आशा की बातें सुनकर रवेश की आंखों से खून जैसे आंसू निकल आए। दर्द इतना गहरा था कि बोलना मुश्किल था। रवेश ने कहा, “हम यहां रह नहीं सकते। आशा, मैं भी इसी दलदल में नहीं फंसना चाहता।”
आशा ने कांपते हुए कहा, “ले चलो मुझे यहां से। यह यहां जन्नत नहीं नरक है। मैंने यह बर्दाश्त किया है।”
भाग 21: एक नई जिंदगी की तलाश
दोस्तों, मामला दुबई जैसी हाई प्रोफाइल जगह का था। पहले तो वहां की पुलिस रवेश नायर की शिकायत लेने को भी तैयार नहीं थी। कई दिनों की तगोद, सिफारिशों और दबाव के बाद जब कहीं जाकर शिकायत दर्ज हुई, तब यह मुकदमा धीरे-धीरे ऊपर तक पहुंचा। मामला दुबई के आला अफसरों और बाद में भारत के विदेश मंत्रालय तक भी पहुंचा।
मगर अंजाम वही निकला जो अक्सर ऐसे मामलों का निकलता है। भारत का कानून तो आप जानते ही हैं। यहां भी अपराधी खुलेआम घूमते हैं। वहां एक ताकतवर शेख के खिलाफ कार्रवाई कैसे होती? दुबई में कोई उसका कुछ बिगाड़ ही नहीं सकता था और इस तरह यह मामला कागजों और फाइलों में उलझ कर रह गया।
भाग 22: अंत में एक नई पहचान
रवेश नायर और आशा अब तक इंसाफ के इंतजार में हैं। मगर शायद उनका यह इंतजार हमेशा इंतजार ही बनकर रह जाएगा। रवेश ने आखिरकार दुबई की नौकरी हमेशा के लिए छोड़ दी। दोनों भारत लौट आए अपने गांव में बस गए।
आज भी जब वह दिन याद करते हैं तो बदन कांप जाता है। सांस रुकने लगती है। आशा जब वह तीन दिन याद करती है तो आंखों से बेकाबू आंसू बह निकलते हैं। और रवेश जब अपनी बेबसी को याद करता है तो उसके दिल में एक ही एहसास उभरता है। “काश उस दिन वो अपनी बीवी को रोक पाता। काश वो वहां कभी गया ही ना होता।”
भाग 23: एक संदेश
दोस्तों, यह कहानी सिर्फ एक जोड़े की नहीं, उन हजारों लोगों की है जो बेहतर जिंदगी की तलाश में परदेश जाते हैं और वहां ना जाने किन-किन आजमाइशों में फंस जाते हैं। इस कहानी को सुनाने का मकसद किसी की दिल आजारी करना नहीं बल्कि लोगों को जागरूक और सचेत करना है। ताकि हम सब मिलकर एक बेहतर समाज बना सकें। जहां कोई आशा या रवेश दोबारा ऐसे हालात का शिकार ना हो।
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