DM मैडम ने खोए हुए बेटे को जूते साफ करते देखा स्टेशन पर फिर जो हुआ… DM Madam Story

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अध्याय 1: स्टेशन की सुबह

सुबह के सात बजे थे। शहर के बड़े रेलवे स्टेशन पर भीड़ उमड़ रही थी। प्लेटफार्म नंबर तीन के कोने में 10 साल का गौरव बैठा था।
उसके कपड़े फटे थे, आँखों में थकान, लेकिन चेहरे पर मेहनत का गर्व था।
हाथ में पुराना ब्रश, एक डिब्बा, और कुछ पॉलिश की बोतलें।
गौरव जूतों की तरफ देखता, जैसे हर चमकते जूते में अपनी किस्मत ढूंढ रहा हो।
उसके साथ कोई नहीं था।
वह नहीं जानता था कि कभी उसका भी एक घर था, माँ थी, पिता थे।
ज़िंदगी ने उसे सिर्फ एक बात सिखाई थी—अगर मेहनत करोगे, तो खाना मिलेगा।

स्टेशन के कोने में बैठे-बैठे गौरव यात्रियों के जूते चमकाता था।
उसकी आँखों में शिकायत नहीं थी, बस जीने की एक जिद थी।
गौरव को नहीं पता था कि 10 साल पहले एक दुर्घटना ने उसकी पूरी दुनिया बदल दी थी।

अध्याय 2: खोया बचपन

10 साल पहले, डीएम राधिका वर्मा अपनी ड्यूटी से लौट रही थी।
उनके पति विदेश में काम के सिलसिले में गए थे।
छोटे गौरव को अकेला छोड़ना उन्हें ठीक नहीं लगा, इसलिए वे उसे अपने साथ ले गई थी।
शाम का समय था, बारिश के कारण सड़कें फिसलन भरी थीं।
राधिका वर्मा की गाड़ी अचानक पुल पर फिसल गई।
गाड़ी तेजी से पलटी और नीचे नहर में जा गिरी।
राधिका किसी तरह बच गई, लेकिन जब होश आया तो गौरव कहीं नजर नहीं आ रहा था।
रेस्क्यू टीम ने काफी खोजा, लेकिन गौरव का कोई निशान नहीं मिला।
डॉक्टरों ने कहा—बच्चा नहर में बह गया होगा।

उसी रात, नहर के किनारे लकड़हारा संतोष लकड़ियां काट रहा था।
अचानक उसे पानी में तैरते हुए कुछ दिखाई दिया।
नजदीक जाकर देखा तो वो एक छोटा बच्चा था, बेहोशी की हालत में, लेकिन सांस ले रहा था।
संतोष ने तुरंत बच्चे को पानी से निकाला।
बच्चे के कपड़े फटे थे, माथे पर चोट का निशान था।

संतोष गरीब था, लेकिन दिल बड़ा था।
वह बच्चे को अपने झोपड़े में ले गया।
दो दिन बाद जब बच्चे की आंखें खुलीं, तो उसे कुछ याद नहीं था—ना नाम, ना माता-पिता।
संतोष ने उसका नाम “गौरव” रखा और बेटे की तरह पालने लगा।

अध्याय 3: संघर्ष की शुरुआत

संतोष का जीवन आसान नहीं था।
वह दिनभर जंगल में लकड़ी काटता, शहर में बेचकर दो वक्त का खाना जुटाता।
गौरव के आने के बाद जिम्मेदारियाँ बढ़ गई थीं।
वह रोज सुबह 4 बजे उठता, गौरव के लिए खाना बनाता, फिर जंगल जाता।
शाम को लौटकर गौरव को पढ़ना-लिखना सिखाता।

गौरव तेज बुद्धि का था, जल्दी सीखता था।
संतोष चाहता था कि गौरव पढ़ लिखकर कुछ बने, लेकिन गरीबी की मार में कभी-कभी स्कूल की फीस भी नहीं जुटा पाता था।
फिर भी उसने कभी हिम्मत नहीं हारी।
गौरव भी संतोष को अपना असली पिता मानता था और उसका सम्मान करता था।

समय बीतता गया।
गौरव अब 10 साल का हो गया था, समझदार लड़का बन गया था।
वह देखता कि संतोष काका कमजोर होते जा रहे हैं—हाथ कांपते, सांस लेने में तकलीफ होती।

एक दिन गौरव ने देखा कि संतोष काका कुल्हाड़ी उठाने में भी मुश्किल महसूस कर रहे थे।
उस दिन गौरव का मन भर आया।
शाम को जब संतोष काका थके-मांदे घर लौटे, गौरव ने कहा, “अब आप काम पर नहीं जाएंगे।”
संतोष बोले, “मैं अभी भी काम कर सकता हूँ।”
गौरव ने जिद की, “अब मेरी बारी है।”

अध्याय 4: स्टेशन पर संघर्ष

गौरव ने तय किया कि वह रेलवे स्टेशन जाकर जूते साफ करने का काम करेगा।
यह काम उसे पहले से पता था, क्योंकि कभी-कभी संतोष काका के साथ स्टेशन गया था।
पहले दिन उसने सिर्फ ₹50 कमाए, लेकिन खुश था।
घर जाकर उसने संतोष काका को पैसे दिए, उनकी आँखें भर आईं।

धीरे-धीरे गौरव के ग्राहक बढ़ने लगे।
वह मेहनत से काम करता, ईमानदारी से पैसे लेता।
लोग उसकी मेहनत की तारीफ करते।
कुछ हफ्तों में ही वह दिन में ₹200-₹300 कमाने लगा था।
संतोष काका की तबीयत भी धीरे-धीरे सुधरने लगी थी।

अध्याय 5: राधिका वर्मा की तन्हाई

इन 10 सालों में राधिका वर्मा बहुत कुछ झेल चुकी थी।
गौरव की मृत्यु का गम उन्होंने कभी नहीं भुलाया।
पति विदेश से लौट आए थे, लेकिन दुख की वजह से रिश्ते में दरार आ गई थी।

राधिका वर्मा अपने काम में खुद को व्यस्त रखती थी।
गरीबों की मदद करना उनकी प्राथमिकता थी।
लेकिन रात में जब वे अकेली होती, गौरव की यादें उन्हें सताती रहती थीं।
वह सोचती, “अगर उस दिन गौरव को साथ ना ले जाती, तो शायद आज वह उनके साथ होता।”
यह अपराध बोध उन्हें हमेशा सताता रहता था।

अध्याय 6: एक थप्पड़, एक मोड़

एक दिन रेलवे स्टेशन पर दिलीप यादव नाम का एक अमीर आदमी आया।
वह बिल्डर था, अपने रुतबे का घमंड था।
महंगी कार, ब्रांडेड कपड़े, सोने के गहने।
वह स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार कर रहा था।
उसके जूते गंदे थे, उसने गौरव को आवाज लगाई।
गौरव दौड़कर आया, प्रेम से जूते साफ करने लगा।

जब काम पूरा हुआ, गौरव ने कहा, “साहब, ₹50 हो गए।”
दिलीप यादव ने घमंड से कहा, “मैं तुझे ₹10 दूंगा, तेरी यही औकात है।”
गौरव ने विनम्रता से कहा, “साहब, मेहनत लगती है। चलो 50 नहीं, 40 दे दो।”

दिलीप यादव का गुस्सा सातवें आसमान पर था।
उसने गौरव के चेहरे पर जोर से थप्पड़ मारा, “तेरी हिम्मत कैसे हुई मुझसे ऐसे बात करने की?”
गौरव का गाल लाल हो गया, लेकिन वह डरा नहीं।
उसने कहा, “साहब, मैं तो इज्जत कर रहा हूँ, अपने पैसे मांग रहा हूँ।”

दिलीप यादव ने गौरव को लात मारी, “जा, कोई पैसा नहीं है, मैं तुझे ₹10 भी नहीं दूंगा।”
गौरव गिर गया, उठकर खड़ा हो गया।
उसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन वह रो नहीं रहा था।
वह सोच रहा था—संतोष काका के लिए दवाई कैसे लाएगा?

स्टेशन पर लोग खड़े होकर सब देख रहे थे, लेकिन दिलीप यादव के डर से कोई कुछ नहीं कह रहा था।
गौरव चुपचाप सामान समेटने लगा, सोच रहा था—शायद यही उसकी किस्मत है।

अध्याय 7: इंसाफ की शुरुआत

इसी वक्त डीएम राधिका वर्मा स्टेशन पर पहुँची।
उन्होंने यह सब देखा, उनका खून खौल गया।
वह दिलीप यादव के पास गईं, “आपने इस बच्चे को लात क्यों मारी?”
दिलीप यादव ने घमंड से कहा, “तू कौन होती है मुझसे सवाल करने वाली?”

राधिका ने शांति से कहा, “इससे आपको क्या मतलब कि मैं कौन हूँ? यह इसका हक है, मेहनत के पैसे मांग रहा है।”

दिलीप यादव हँसकर बोला, “जा, जो कर सकती है कर ले, मैं एक पैसा नहीं दूँगा।”

राधिका वर्मा ने गौरव से कहा, “बेटा, मेरे साथ चलो।”
गौरव पहले डरा, लेकिन राधिका की आँखों में स्नेह देखकर उसका डर भाग गया।

राधिका वर्मा गौरव को पुलिस स्टेशन ले गईं।
थानेदार से कहा, “इस बच्चे का एफआईआर लिखवाना है।”

गौरव बोला, “मैडम, मैं गरीब हूँ, इन अमीरों से कैसे लड़ूँगा? यही तो ₹50 की बात है।”
राधिका ने समझाया, “बात सिर्फ ₹50 की नहीं है बेटा, तुम्हारी इज्जत की है।”

गौरव को समझ आ गया कि ये औरत उसकी सच्ची मदद करना चाहती है।
उसने हिम्मत करके एफआईआर लिखवा दी।

अध्याय 8: वायरल वीडियो

स्टेशन पर एक पत्रकार मौजूद था।
दिलीप यादव ने गौरव को लात मारी, पत्रकार ने वीडियो रिकॉर्ड कर लिया।
वह जिम्मेदार था, उसने वीडियो सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया।

वीडियो में साफ दिख रहा था—कैसे एक अमीर आदमी ने गरीब बच्चे को मारा और पैसे भी नहीं दिए।
वीडियो वायरल हो गया, हजारों लोग शेयर करने लगे।
मीडिया ने मामले पर शोर मचाया, अखबारों में खबर छपी, टीवी चैनलों पर बहस हुई।

गौरव की तस्वीर अखबारों में छपी तो राधिका वर्मा ने ध्यान से देखा।
उन्हें कुछ अजीब सा लगा—बच्चे के चेहरे में कुछ जानी पहचानी बात थी।
वह सोच नहीं पा रही थीं—क्यों?

अध्याय 9: अदालत में न्याय

दिलीप यादव के ऊपर दबाव बढ़ता गया।
बिजनेस पार्टनर भी उससे दूरी बनाने लगे।
कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई।
दिलीप यादव ने महंगे वकील रखे, लेकिन वीडियो सबूत के सामने सारे तर्क फेल हो गए।

गौरव की तरफ से राधिका वर्मा ने अच्छे वकील का इंतजाम किया।
कोर्ट में गौरव ने गवाही दी, जज साहब उसकी बातों से प्रभावित हुए।

गौरव ने कहा, “मैं सिर्फ अपनी मेहनत के पैसे मांग रहा था। संतोष काका की दवाई के लिए पैसे कमाता हूँ।”

जज साहब बोले, “यह बच्चा सिर्फ अपना हक मांग रहा था, और दिलीप यादव ने उसके साथ मारपीट की है।”

अदालत में रोज भीड़ लगी रहती थी, लोग फैसले का इंतजार करते थे।

फैसले का दिन आया—
जज साहब ने दिलीप यादव को दोषी पाया।
कहा, “समाज में अमीर-गरीब का भेद हो सकता है, लेकिन कानून की नजर में सब बराबर हैं। मेहनत करने वाले का अपमान करना गुनाह है।”

दिलीप यादव को 6 महीने की जेल और ₹5 लाख जुर्माना भरने को कहा, जो गौरव को मिलेगा।
कोर्ट में तालियाँ गूंज उठीं।
गौरव को विश्वास नहीं हो रहा था—उसे इतने पैसे मिल गए हैं।

अध्याय 10: नई उम्मीद

गौरव ने सबसे पहले संतोष काका का इलाज कराया।
अच्छे डॉक्टरों ने देखा—दिल की बीमारी थी।
ऑपरेशन के बाद वे बिल्कुल ठीक हो गए।

गौरव ने अपने गाँव में छोटी दुकान खोली, रोजमर्रा का सामान बेचता था।
दुकान अच्छी चलने लगी, क्योंकि गौरव ईमानदार था।

अब वे दोनों खुशी-खुशी रहते थे।
संतोष काका गर्व से सभी को बताते—गौरव उनका बेटा है, जिसने बड़े-बड़े अमीरों से लड़कर न्याय पाया है।

गौरव हमेशा राधिका वर्मा को याद करता था।
राधिका का मन इस केस के बाद भारी था।
गौरव को देखकर उन्हें अपने खोए बेटे की याद आती रहती थी।
रोज सोचती—काश उनका बेटा भी कहीं जिंदा हो।

अध्याय 11: सच्चाई की तलाश

एक दिन राधिका वर्मा ने तय किया—वे गौरव से मिलने जाएंगी।
गाँव पहुँचीं, देखा गौरव की दुकान अच्छी चल रही है, संतोष काका स्वस्थ हैं।

गौरव ने उन्हें देखा, दौड़कर पैर छुए।
राधिका ने उसकी पूरी कहानी पूछी।
गौरव ने बताया—10 साल पहले संतोष काका ने उसे नहर से निकाला था।

राधिका का दिल जोर से धड़कने लगा।
पूछा, “कुछ याद है?”
गौरव बोला, “कुछ भी याद नहीं।”

राधिका ने संतोष से विस्तार से पूछा—कहाँ से पाया था?
संतोष ने बताया—10 साल पहले, नहर के किनारे लकड़ी काटते हुए, एक बच्चे को पानी में तैरते देखा, बेहोश था, घर ले आए।

राधिका को लगा—यह वही समय था जब उनका एक्सीडेंट हुआ था।
उन्होंने गौरव के माथे पर निशान देखा—बिल्कुल वैसा ही जैसा उनके बेटे के माथे पर था।
अब उनका संदेह गहरा हो गया।

अध्याय 12: डीएनए की सच्चाई

राधिका वर्मा ने तय किया—गौरव का डीएनए टेस्ट कराएंगी।
डॉक्टर से बात की, गौरव के बाल का सैंपल लिया।

कुछ दिनों बाद रिपोर्ट आई, राधिका की खुशी का ठिकाना नहीं रहा—डीएनए मैच हो गया था।
गौरव वाकई उनका बेटा था।
10 सालों बाद उन्हें अपना खोया बेटा मिल गया था।

लेकिन अब एक समस्या थी—गौरव को संतोष के अलावा कोई और पिता नहीं पता था।
अगर वे अचानक जाकर बताएंगी, तो गौरव को बहुत धक्का लगेगा।

राधिका ने सोचा—पहले संतोष से बात करेंगी।
आखिर संतोष ने उनके बेटे को 10 साल तक पाला था।
उन्होंने तय किया कि धीरे-धीरे सच्चाई सामने लाएंगी।

अध्याय 13: दोनों परिवारों का मिलन

राधिका फिर संतोष के पास गईं, इस बार अकेली थीं।
चेहरे पर गंभीरता थी।
उन्होंने संतोष से कहा—वे गौरव की असली माँ हैं।
डीएनए रिपोर्ट दिखाकर सारी बात बताई।

संतोष को पहले विश्वास नहीं हुआ।
रिपोर्ट देखी, समझ गए।
आँखों में आँसू आ गए।
बोले, “हमेशा सोचा था, एक दिन गौरव का असली परिवार आएगा। लेकिन अब दुख हो रहा है।”

राधिका वर्मा बोलीं, “आपका एहसान कभी नहीं भूलूँगी। गौरव के लिए आप ही उसके असली पिता हैं, क्योंकि आपने उसे पाला है। मैं चाहती हूँ, गौरव दोनों परिवारों से जुड़ा रहे।”

अब समय आ गया था—गौरव को सच्चाई बताई जाए।
राधिका और संतोष दोनों ने मिलकर तय किया—आराम से गौरव को सब बताएंगे।

अध्याय 14: गौरव को सच्चाई पता चलती है

एक दिन गौरव दुकान बंद करके घर आया, देखा—राधिका वर्मा मैडम घर पर बैठी हैं।
वह अक्सर आती थीं, इसलिए गौरव को अजीब नहीं लगा।

संतोष काका ने प्यार से गौरव को पास बिठाया, बोले—“आज कुछ जरूरी बात बतानी है।”

दोनों के चेहरे पर गंभीरता थी।
संतोष काका ने धीरे-धीरे सारी कहानी बताई।

गौरव को पता चला—राधिका वर्मा उसकी असली माँ हैं।
वह सन्न रह गया।
उसे विश्वास नहीं हो रहा था—जिसे मैडम कहकर बुलाता था, वे उसकी माँ हैं।

गौरव को समझने में समय लगा।
फिर वह राधिका वर्मा के पास गया, बोला, “माँ…”
यह शब्द सुनकर राधिका की आँखों से आँसुओं का सैलाब बह निकला।
10 साल बाद किसी ने उन्हें माँ कहा था।
वे गौरव को गले लगाकर रोने लगीं।

गौरव भी समझ गया—यह वही माँ हैं, जिनकी तलाश उसे अपने दिल में हमेशा रहती थी।

अध्याय 15: नया परिवार, नई शुरुआत

गौरव ने साफ कहा—संतोष काका हमेशा उसके पिता रहेंगे, क्योंकि उन्होंने उसे पाला है।
राधिका वर्मा ने कहा—वे भी यही चाहती हैं।
उन्होंने संतोष से कहा—वे उन्हें अपना बड़ा भाई मानती हैं, और गौरव दोनों घरों का बेटा रहेगा।

संतोष काका भी खुश हो गए—अब गौरव को उसकी असली माँ मिल गई है।

गाँव में उत्सव जैसा माहौल था।
गौरव के लिए दोनों परिवारों ने मिलकर एक बड़ा समारोह रखा।
गाँव के लोग, शहर के अधिकारी, सब आए।
गौरव को सम्मानित किया गया—उसकी मेहनत, संघर्ष, और इंसाफ के लिए।

अब गौरव की दुकान और बड़ी हो गई थी।
संतोष काका, राधिका वर्मा, और गौरव—तीनों एक साथ रहते थे।
राधिका ने गौरव को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाया।
संतोष काका की देखभाल के लिए घर में नौकर रखे गए।

गौरव पढ़ाई में तेज था, जल्दी ही स्कूल में अव्वल आया।
राधिका और संतोष दोनों उसके हर छोटे-बड़े सपने में साथ थे।

अध्याय 16: समाज को संदेश

गौरव की कहानी अब पूरे शहर में मशहूर हो गई थी।
लोग कहते थे—एक थप्पड़ ने गौरव की किस्मत बदल दी।
गौरव हमेशा कहता, “मेहनत का सम्मान करो, किसी को छोटा मत समझो।”

राधिका वर्मा ने गरीब बच्चों के लिए एक ट्रस्ट शुरू किया।
गौरव उसमें सबसे बड़ा सहयोगी था।
संतोष काका गाँव के बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाते थे।

गौरव ने अपनी कहानी स्कूल, कॉलेज, सेमिनार में सुनाई।
लोग भावुक होकर सुनते, बच्चे सीखते—कभी हार मत मानो, कभी अपना सम्मान मत बेचो।

अध्याय 17: अंतिम मोड़

समय बीतता गया।
गौरव बड़ा हो गया, कॉलेज में पढ़ने लगा।
एक दिन उसने संतोष काका से कहा, “अगर आप नहीं होते, तो मैं आज यहाँ नहीं होता।”

संतोष बोले, “बेटा, असली रिश्ता खून का नहीं, दिल का होता है।”

राधिका वर्मा ने गौरव को गले लगाया, “तुम मेरे बेटे हो, लेकिन तुम्हारे पिता संतोष हैं। उनके बिना मैं अधूरी हूँ।”

गौरव मुस्कुराया, “माँ, अब मैं दोनों का बेटा हूँ।”

समापन

गौरव की कहानी ने पूरे समाज को सिखाया—
सम्मान, मेहनत, और सच्चे रिश्ते सबसे बड़ी पूँजी हैं।
एक थप्पड़ ने उसकी तकदीर बदल दी, उसे खोया परिवार मिला, और इंसानियत की मिसाल बन गई।

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याद रखिए—रिश्ते खून से नहीं, दिल से बनते हैं।
जय हिंद, जय भारत।