अधूरी ख्वाहिशें: एक संगीतकार की मुंबई यात्रा
भारत के हृदय में स्थित एक छोटे से गाँव, रामनगर, की धूल भरी गलियों में, जहाँ सूरज की किरणें मिट्टी के घरों पर सुनहरी चमक बिखेरती थीं और हवा में खेतों की सौंधी खुशबू घुली रहती थी, वहीं एक युवा लड़का रहता था, जिसका नाम राघव था। राघव की दुनिया सिर्फ़ उसकी बाँसुरी और उसकी दादी के प्यार तक सीमित थी। उसके पिता बचपन में ही गुज़र चुके थे, और माँ ने उसे और उसकी छोटी बहन को पालने के लिए दिन-रात मेहनत की थी। लेकिन राघव का मन हमेशा संगीत में रमा रहता था। जब भी उसे मौका मिलता, वह गाँव के पीपल के पेड़ के नीचे बैठ जाता और अपनी बाँसुरी पर धुनें छेड़ने लगता। उसकी धुनें इतनी मधुर और आत्मा को छूने वाली होती थीं कि गाँव के लोग अपने काम छोड़कर उसे सुनने आ जाते थे।
राघव की दादी, जो खुद एक पुरानी लोक गायिका थीं, ने उसकी प्रतिभा को सबसे पहले पहचाना था। “राघव,” वह अक्सर कहती थीं, “तुम्हारी बाँसुरी में भगवान बसते हैं। यह धुनें सिर्फ़ तुम्हारे गाँव के लिए नहीं बनी हैं, इन्हें तो पूरी दुनिया को सुनना चाहिए।” उनकी इन बातों ने राघव के मन में एक सपना बो दिया था – मुंबई जाने का, सपनों के शहर में अपनी पहचान बनाने का। लेकिन मुंबई, रामनगर से मीलों दूर था, और उन दोनों के बीच एक खाई थी – गरीबी की खाई।
एक दिन, जब राघव बीस साल का हुआ, तो उसने अपनी दादी और माँ से मुंबई जाने की बात कही। माँ की आँखों में डर था, लेकिन दादी ने उसे सहारा दिया। “जा, मेरे लाल,” दादी ने कहा, “भगवान तेरा भला करेगा। बस अपनी धुन को कभी मत भूलना, और अपनी जड़ों से जुड़े रहना।” दादी ने अपनी पुरानी चाँदी की पायलें बेचकर उसे कुछ पैसे दिए, और राघव एक छोटे से थैले में अपनी बाँसुरी और कुछ कपड़े लेकर मुंबई के लिए निकल पड़ा।
मुंबई की विशालता ने राघव को पहले ही दिन डरा दिया। ऊँची-ऊँची इमारतें, तेज़ भागती गाड़ियाँ, और लोगों की अंतहीन भीड़ – यह सब रामनगर की शांति से बिल्कुल अलग था। उसे लगा जैसे वह एक ऐसे समंदर में कूद गया है जहाँ उसे तैरना नहीं आता। उसने एक छोटी सी झुग्गी में किराए पर कमरा लिया, जहाँ एक बिस्तर और एक छोटी सी खिड़की के अलावा कुछ नहीं था। खिड़की से मुंबई की चमकती रातें दिखती थीं, जो उसे अपने सपनों की याद दिलाती थीं।
शुरुआती दिन संघर्ष भरे थे। राघव ने संगीत स्टूडियो के दरवाज़े खटखटाए, लेकिन हर जगह उसे निराशा ही मिली। “तुम्हारी धुनें बहुत पुरानी हैं,” एक निर्माता ने कहा, “आजकल यह सब नहीं चलता।” दूसरे ने कहा, “तुम्हें कोई अनुभव नहीं है।” राघव का आत्मविश्वास डगमगाने लगा। पैसे तेज़ी से खत्म हो रहे थे, और उसे अपनी माँ और दादी की याद सताने लगी।
पेट भरने के लिए, राघव ने सड़कों पर और लोकल ट्रेनों में बाँसुरी बजाना शुरू कर दिया। कभी-कभी लोग उसे कुछ सिक्के दे देते, तो कभी-कभी सिर्फ़ एक मुस्कान। इन्हीं दिनों में उसकी मुलाकात मीरा से हुई। मीरा एक छोटी सी चाय की दुकान चलाती थी, जो एक व्यस्त रेलवे स्टेशन के पास थी। उसकी दुकान हमेशा लोगों से भरी रहती थी, और उसकी चाय की खुशबू दूर-दूर तक फैलती थी।
राघव अक्सर मीरा की दुकान पर चाय पीने आता। वह चुपचाप एक कोने में बैठ जाता, अपनी चाय पीता और लोगों को देखता। मीरा ने राघव को कई बार देखा था – एक शांत, गंभीर लड़का, जिसकी आँखों में एक अजीब सी उदासी और एक अटूट सपना दिखता था। एक दिन, जब राघव के पास चाय के पैसे नहीं थे, तो मीरा ने उसे बिना पैसे लिए चाय दे दी। “कोई बात नहीं, बेटा,” उसने कहा, “जब होंगे, तब दे देना।” मीरा की यह छोटी सी दयालुता राघव के दिल को छू गई।
धीरे-धीरे, राघव और मीरा के बीच एक अजीब सा रिश्ता बन गया। राघव रोज़ मीरा की दुकान पर आता, और मीरा उसे कभी-कभी एक अतिरिक्त रोटी या एक कप ज़्यादा चाय दे देती। मीरा ने कभी राघव से उसके सपनों के बारे में नहीं पूछा, लेकिन उसकी आँखों में वह सब कुछ देख लेती थी। एक दिन, जब दुकान में भीड़ कम थी, तो मीरा ने राघव से कहा, “तुम बहुत अच्छी बाँसुरी बजाते हो।” राघव थोड़ा चौंक गया। “आपने सुना?” “हाँ,” मीरा ने मुस्कुराते हुए कहा, “तुम्हारी धुनें दिल को छू लेती हैं। उनमें एक अजीब सा सुकून है।” मीरा के ये शब्द राघव के लिए किसी अमृत से कम नहीं थे। सालों बाद, किसी ने उसकी कला को सराहा था, उसे समझा था। उसने मीरा के लिए अपनी बाँसुरी बजाई, और मीरा के चेहरे पर एक शांतिपूर्ण मुस्कान आ गई। उसके बाद, जब भी राघव को निराशा घेरती, वह मीरा की दुकान पर आ जाता और उसके लिए अपनी धुनें बजाता। मीरा उसकी शांत श्रोता थी, जो उसे बिना कुछ कहे ही सहारा देती थी।
संघर्ष जारी रहा। राघव ने कई और संगीत निर्माताओं से मुलाकात की, लेकिन हर बार उसे वही पुराना जवाब मिलता – “तुम्हारी धुनें बाज़ार के लायक नहीं हैं।” वह निराश होकर अपनी झुग्गी में लौट आता और घंटों अपनी बाँसुरी बजाता। उसे लगा जैसे मुंबई उसके सपनों को निगल रहा था।

एक शाम, जब राघव स्टेशन के बाहर अपनी बाँसुरी बजा रहा था, एक तेज़ तर्रार कार उसके पास आकर रुकी। उसमें से एक व्यक्ति उतरा, जो दिखने में बहुत सफल और व्यस्त लग रहा था। वह अजय था, मुंबई का एक प्रसिद्ध संगीत निर्माता, जो अपनी तेज़-तर्रार शैली और नए टैलेंट को खोजने के लिए जाना जाता था। अजय ने राघव की धुन सुनी, और उसके चेहरे पर एक अजीब सा भाव आया – न तो प्रशंसा का, न ही तिरस्कार का। “क्या बजा रहे हो?” अजय ने रूखे स्वर में पूछा। राघव ने अपनी धुन रोक दी। “यह मेरी अपनी धुन है, सर।” “हम्म,” अजय ने कहा, “इसमें कुछ तो है, लेकिन यह बहुत कच्ची है। बाज़ार के लायक नहीं।” राघव का दिल डूब गया। फिर वही बात। “यह लो मेरा कार्ड,” अजय ने एक कार्ड उसकी ओर फेंकते हुए कहा, “अगर तुम्हें लगता है कि तुम अपनी धुन को बाज़ार के हिसाब से ढाल सकते हो, तो मुझे फ़ोन करना।” और वह अपनी कार में बैठकर चला गया।
राघव ने कार्ड को देखा। यह एक बड़ा मौका था, लेकिन उसके मन में डर था। उसे लगा कि अजय भी उसे निराश ही करेगा। उसने कई दिन तक उस कार्ड को अपनी जेब में रखा, हिम्मत नहीं जुटा पाया फ़ोन करने की। मीरा ने उसकी चुप्पी देखी। “क्या हुआ, बेटा? आजकल तुम्हारी धुन में वह बात नहीं है।” राघव ने उसे अजय के बारे में बताया। “मुझे डर लगता है, मीरा दीदी। मुझे लगता है कि वह भी मुझे निराश ही करेगा।” मीरा ने उसे देखा और मुस्कुराई। “डरने से कुछ नहीं होगा, बेटा। कोशिश तो करो। अगर तुम कोशिश नहीं करोगे, तो तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा कि क्या हो सकता था।” मीरा की बातों ने राघव को हिम्मत दी। उसने अगले दिन अजय को फ़ोन किया।
अजय ने उसे अपने स्टूडियो बुलाया। स्टूडियो बहुत बड़ा और आधुनिक था, जो राघव के गाँव की सादगी से बिल्कुल अलग था। अजय ने उसे एक धुन बजाने के लिए कहा। राघव ने अपनी बाँसुरी उठाई और अपनी सबसे अच्छी धुन बजाई, जिसमें उसने अपने गाँव, अपनी दादी और अपने सपनों को पिरोया था। अजय ने उसे ध्यान से सुना। जब धुन खत्म हुई, तो अजय ने कहा, “तुम्हारे संगीत में भावना है, लेकिन तकनीक की कमी है। तुम्हें सीखना होगा कि स्टूडियो में कैसे काम करते हैं, कैसे अपनी धुन को आधुनिक संगीत के साथ मिलाते हैं।” राघव का दिल फिर से बैठ गया। “लेकिन,” अजय ने कहा, “मैं तुम्हें एक मौका देना चाहता हूँ। मेरे पास एक नया प्रोजेक्ट है, जिसमें मुझे एक ऐसे संगीतकार की ज़रूरत है जो अपनी जड़ों से जुड़ा हो। तुम मेरे साथ काम करोगे, लेकिन यह आसान नहीं होगा। तुम्हें बहुत मेहनत करनी होगी।” राघव की आँखों में चमक आ गई। यह वही मौका था जिसका वह इंतज़ार कर रहा था। उसने तुरंत हाँ कर दी।
अजय के साथ काम करना आसान नहीं था। अजय एक सख्त गुरु था, जो हर छोटी से छोटी गलती पर उसे टोकता था। राघव को घंटों रियाज़ करना पड़ता था, नए-नए वाद्ययंत्र सीखने पड़ते थे, और अपनी धुन को आधुनिक संगीत के साथ ढालना पड़ता था। कई बार वह थक जाता, निराश हो जाता, और उसे लगता कि वह यह सब नहीं कर पाएगा। इन मुश्किल दिनों में, मीरा उसकी सबसे बड़ी सहारा थी। वह अक्सर अजय के स्टूडियो के पास आ जाती और राघव के लिए चाय और घर का बना खाना ले आती। “हार मत मानना, बेटा,” वह कहती, “तुम्हारी धुन में जादू है।” मीरा की बातें और उसका प्यार राघव को नई ऊर्जा देते थे।
एक दिन, अजय ने राघव को एक नया गीत बनाने के लिए कहा। “एक ऐसा गीत, जिसमें तुम्हारी आत्मा हो, लेकिन वह आज के श्रोताओं को भी पसंद आए।” राघव ने कई दिनों तक कोशिश की, लेकिन उसे कोई धुन नहीं मिल रही थी। वह अपने गाँव की यादों में खो गया, अपनी दादी की आवाज़ सुनने लगा, और मीरा की शांत मुस्कान को याद करने लगा। उसे लगा कि उसकी धुन कहीं खो गई है। एक रात, जब वह अपनी झुग्गी में अकेला बैठा था, तो उसे अपनी दादी के शब्द याद आए – “अपनी धुन को कभी मत भूलना, और अपनी जड़ों से जुड़े रहना।” उसने अपनी बाँसुरी उठाई और अपनी आत्मा की गहराई से एक धुन निकाली। यह धुन उसके गाँव की मिट्टी की खुशबू, मुंबई की भागदौड़, और मीरा की दयालुता का मिश्रण थी। उसने उस धुन में अपने सभी अधूरे सपनों और अपनी सभी ख्वाहिशों को पिरो दिया।
अगले दिन, उसने अजय को वह धुन सुनाई। अजय ने उसे ध्यान से सुना, और इस बार उसके चेहरे पर कोई आलोचना नहीं थी, सिर्फ़ एक गहरी संतुष्टि थी। “यह अद्भुत है, राघव,” अजय ने कहा, “यह वही धुन है जिसकी मुझे तलाश थी। इसमें तुम्हारी आत्मा है।” राघव की आँखों में खुशी के आँसू आ गए। उसकी मेहनत रंग लाई थी।
गीत रिकॉर्ड किया गया और रिलीज़ हुआ। यह तुरंत एक बड़ी हिट बन गया। राघव रातों-रात एक स्टार बन गया। उसकी धुनें हर जगह गूँजने लगीं, और लोग उसकी कला की सराहना करने लगे। उसे बड़े-बड़े संगीत समारोहों में बुलाया जाने लगा, और उसकी तस्वीरें अख़बारों में छपने लगीं।
अपनी सफलता के बाद, राघव सबसे पहले अपने गाँव गया। उसकी दादी और माँ उसे देखकर बहुत खुश हुईं। गाँव में उसका भव्य स्वागत हुआ। राघव ने गाँव में एक संगीत विद्यालय खोला, जहाँ वह गरीब बच्चों को मुफ़्त में संगीत सिखाने लगा, ताकि वे भी अपने सपनों को पूरा कर सकें।
फिर वह मुंबई लौटा और सबसे पहले मीरा की दुकान पर गया। मीरा उसे देखकर मुस्कुराई, जैसे उसे पता था कि वह आएगा। वह अभी भी अपनी छोटी सी दुकान पर चाय बेच रही थी, उसकी ज़िंदगी में कोई बदलाव नहीं आया था। “मीरा दीदी,” राघव ने कहा, “आज मैं जो कुछ भी हूँ, वह आपकी वजह से हूँ। आपने मुझे सहारा दिया, मुझे हिम्मत दी।” मीरा ने मुस्कुराते हुए कहा, “तुम्हारी मेहनत थी, बेटा। मैं तो बस एक छोटी सी मदद थी।” राघव ने मीरा को अपनी सफलता का हिस्सा बनाने की कोशिश की, उसे एक बड़ा घर और एक नई दुकान देने की पेशकश की, लेकिन मीरा ने विनम्रता से मना कर दिया। “मुझे यही पसंद है, बेटा। मुझे यही सुकून मिलता है।” राघव ने मीरा की भावनाओं का सम्मान किया। उसने मीरा की दुकान के पास एक छोटा सा संगीत केंद्र खोला, जहाँ वह कभी-कभी बच्चों को संगीत सिखाने आता था।
राघव ने सीखा कि सच्ची सफलता सिर्फ़ प्रसिद्धि और पैसे में नहीं होती, बल्कि अपनी जड़ों से जुड़े रहने, उन लोगों को याद रखने में होती है जिन्होंने मुश्किल समय में उसका साथ दिया, और अपनी कला को दूसरों के साथ साझा करने में होती है। उसकी “अधूरी ख्वाहिशें” अब पूरी हो चुकी थीं, लेकिन उसे एहसास हुआ कि उसकी सबसे बड़ी ख्वाहिश सिर्फ़ संगीत बजाना नहीं थी, बल्कि अपनी आत्मा को अपनी धुन में पिरोकर दुनिया के साथ साझा करना था, और उसने वह कर दिखाया था। उसकी यात्रा एक छोटे से गाँव से शुरू होकर मुंबई की चमकती दुनिया तक पहुँची थी, लेकिन उसका दिल हमेशा रामनगर की मिट्टी और मीरा की चाय की दुकान में बसा रहा।
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