VIP कार में बैठी बेटी ने जैसे ही भीख मांगते बूढ़े को देखा, उसकी ज़िंदगी पलट गई
.
.
माया का बचपन उस छोटे से पहाड़ी गाँव में बीता जहाँ हर सुबह हल्की कुहासा पहाड़ियों को गले लगा लेती थी और शाम के आँसुओं-सी बूंदों में अंबर पिघल जाता था। उस गाँव के मध्य में खँडहर-सी दिखने वाली एक पुरानी पाठशाला थी, जहाँ कभी बच्चों की खिलखिलाहट गूँजती थी, पर अब बेंचें टूटकर धूल में मिल चुकी थीं और तालाबन्द दरवाजे पर कभी-कभी कबूतर अपनी खामोशी को छलकाते थे। माया बचपन से ही पढ़ने-लिखने की दीवानी थी। उस पाठशाला की टूटी खिड़की से झाँककर वह अक्सर सोचती, ‘क्यों न यहाँ फिर से वही हँसी लौट आए, क्यों न किताबें फिर खोले जो अब दीवारों पर दरकन बढ़ा रही हैं?’
उसके पिता, गोविंद, गाँव के चौकीदार थे। सुबह से शाम तक दरवाज़े की सलाखों के पीछे एकाकी खड़े रहते, पर माया को बचपन से ही ऐसा लगता कि उन्होंने अपने कड़क शरीर के भीतर कहीं गहरी कोमलता छुपाई हुई थी। माँ, कमला, अलग तरह की थीं—उनकी आवाज़ में हमेशा सुनहरे लहजे का संगीत होता, जैसे हर शब्द किसी गीत की शुरुआत हो। कमलाचरण माँ दिन-रात खेतों में काम करती, सब्ज़ी-पानी की और जो थोड़ा-बहुत बचता, उस से घर का खाना जुड़ता। फिर भी जब माया ज़ोर-ज़ोर से रोने लगती, कि उसे गाँव में पढ़ने को कुछ भी नसीब नहीं, तो माँ चुप-चाप उसकी बाँह थाम लेती और कहती, “बेटी, किताबों का संसार तुझ तक आएगा, तू धीरज रख।” माया की आँखों में फिर कुछ चमक उठती, क्योंकि उससे बड़ा कोई वादा नहीं होता था।
स्कूल से लौटकर माया अक्सर उस टूटी पाठशाला के खाली हॉल में क़दम रखती। धूल-मिट्टी के ढेरों पर उसने कब सोचा, “जब मैं बड़ी होकर कुछ करूँगी, तो इस पाठशाला की उँगलियाँ फिर खिलेंगी।” एक दिन उसने गाँव वालों को सभा में बुलाकर कहा, “यहाँ का हर बच्चा पढ़ने-लिखने का हक़ रखता है। हमें मिलकर इस पाठशाला को दुरुस्त करना होगा।” लोग हँसे, किसी ने कहा, “कौमार्य की बात ठीक है, पर पैसों का इंतज़ाम कैसे होगा?” तब माया ने अपना पुराना गुलाबी बटुआ दिखाया, जिसमें कुछ सिक्के और लाखों सपने थे। उसने घर-घर चक्कर लगाया, जुगाड़ किया, खेत बेचने वालों से रवैया बदलवाया, और आखिरकार गाँव के सरपंच की मदद से कुछ ज़्यादा-से-ज़्यादा पैसे इकट्ठे कर लिए।
अब चुनौती थी कामकाजी मजदूरों का इंतज़ाम। पिता गोविंद ने छुट्टी ली, गाँव भर के मिस्त्रियों से मोलभाव किया और खुद गाड़ी से ईंट और सीमेंट ला लाए। माँ कमला ने दिन-रात बच्चों को लाकर पानी-चाय खिलाई, भूँके पेट जब काम के बीच ठंडी रोटी खाई, तब भी वो थककर नहीं गिरती। कुछ सप्ताह में पाठशाला की दीवारें चमक गईं, पुरानी दरवाजे-खिड़कियाँ बदल गईं और उस दालान में फिर से नए फर्श पर सफेद चॉक की महीन पाउडर फैलने लगा। एक रोज़ गाँव वालों ने देखा कि नन्हे-नन्हे बच्चे स्कूल यूनिफ़ॉर्म में लाइन में खड़े हैं, हाथ में कॉपी और पेंसिल लिए, और माया उस लाइन के सामने खड़ी, प्राथमिक गणित पढ़ा रही है। बच्चों की आँखों में पहले दिन की उत्सुकता ने एक नई दुनिया का द्वार खोला दिया था।
उस बीच माया के बचपन का साथी राहुल भी हरदम साथ खड़ा रहा। जब वह खुद शहर में उच्च शिक्षा के सपने देखता था, तब राहुल कहता, “माया, तू कल की रौशनी है। मैं साथ रहूँगा।” राहुल गाँव का लड़का था, कोई ख़ास वोटिंग या शिक्षा का अधिकारी नहीं, पर उस में दृढ़ निश्चय था—जो तय किया, वो पूरा करना ही है। माया को उसकी वफादारी में अनमोल सहारा मिलता। और जब गाँव वालों ने माया को शहर में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए भेजने का प्रस्ताव रखा, तब राहुल ने अपनी तिजोरी से हिस्से के कुछ रुपये माया को थमा दिए, कहकर कि “तुम्हारे सपने पूरे हो, इस गाँव को भी नाम मिले।”

शहर के बड़े जाल में कदम रखते ही माया को रोशनी और अंधेरे दोनों आँखों में मिले। जहाँ हर गली में विज्ञापन चमकते, वहीं हर कोने में भीड़, खिलौनों-सी-छोटी-छोटी दुकानें थीं। शहर की लाइब्रेरी में नए-नए विषय की किताबें थी—कविताएँ, उपन्यास, इतिहास, विज्ञान, दर्शन… माया ने पहली बार महसूस किया कि दुनिया कितनी विशाल है। सुबह-सुबह वह कोचिंग क्लास जाती, सांझ को अस्थाई हॉस्टल के छोटे कमरे में लौट आती, और देर रात तक पढ़ती रहती। पर दिल कहता कि यदि गाँव का वही टूटी पाठशाला, वही दीवारें इस धूलभरी ज़िंदगी से उठ पातीं, तो कितनी खुशियाँ चारों ओर फैल जातीं।
तभी कुछ महीनों बाद कमला माँ से फोन आया: “तुम्हारे पापा का स्वास्थ्य बिगड़ गया है। बहुत बेहोशी सी रहती हैं, डॉक्टर नहीं समझ पा रहे।” माया ने सहारा पाँवों से ठीक रखा और ट्रेन पकड़कर गाँव लौट आई। स्वच्छ ट्रेन के कोच से उतरकर नंगे खेतों के बीच निकलते हुए वह चौकीदार आवास पहुँची। गोविंद जी का शरीर बुढ़ापे से थक चुका था। अस्पताल की बिस्तर पर सूनी आँखों से वह बेटी की ओर देख रहे थे। माया ने अपना सिर उनका सीना लेकर रोया। डॉक्टर ने बताया कि धीरे-धीरे उनका शरीर हार्ट फेल्योर के कारण जवाब दे रहा है। अगले ही दिन गोविंद आँखें बंद करके चल बसे। माँ का एकमात्र सहारा भी छूट गया। मोम की तरह पिघल गई थी कमला, पर माया ने देखा कि माँ के भीतर का संकल्प टूट नहीं पाया था—वह बेटे बिन भी पाठशाला की देखभाल कर रही थी।
गोविंद के बाद माया का दिल डगमगा गया, पर माँ ने ठहराया, “बेटी, पापा का सपना अधूरा नहीं छोड़ना। हमने जो एक दफ़ा शुरू किया, उसे पूरे गाँव की खुशी के लिए आगे बढ़ाना है।” माया ने सिर झुका लिया, आँखों में पिता की आखिरी मुस्कान ने आग जलाई। उसी दिन उसने शहर के कोचिंग छोड़कर वापस गाँव आने का फ़ैसला किया। राहुल ने नवनिर्मित पाठशाला में आकर कहा, “मैंने तुम्हारे पिता का सपना तुम्हारे भरोसे से जोड़ा था, अब उसे हम दोनों पूरा करेंगे।” उसके शब्दों में ऐसी शक्ति थी कि माया के भीतर फिर तेज़ी से आत्मविश्वास दौड़ उठा।
लेकिन गाँव में हर कोई बदलाव का स्वागत नहीं करता।地主 रामसिंह, जिनके पास अधिकांश खेत थे, मानते थे कि लड़कियाँ पढ़कर घर में ही बेकार बैठ जाएँगी। उन्होंने माया से कहा, “इतनी पढ़ाई से क्या मिलेगा? खेत में गिरेगा कौन? दौलत छूट जाएगी।” पर माया ने सभास्थल में खुलकर कहा, “शिक्षा से घर नहीं उजड़ता, बढ़ता है। बेटे-बेटियाँ दोनों समाज की धरोहर हैं। जो गाँव को उन्नति चाहिए, उसे हर बच्चा पढ़ना चाहिए।” धीरे-धीरे कुछ बुज़ुर्ग औरतें भी उठकर बोलने लगीं, “हमारी दुपट्टों में पंख नहीं, भागदौड़ नहीं, सोच नहीं उबलती अगर पढ़ना-लिखना न होता।” इसी बहाने उन्होंने रामसिंह के विरोध को निरस्त करवा दिया।
पहली बार माया ने महसूस किया कि बदलाव न केवल बिल्डिंगों से, धूप-छाँव से नहीं, इंसानों के दिलों से आता है। उसने हर घर-घर जाकर समझाया, गाँव के तालाब में पंप लगवाया, पानी की टंकी ठीक करवाई, ताकि न सिर्फ़ पाठशाला में नल का पानी आए, बल्कि बच्चों की सेहत भी सुधरे। शाम को पाठशाला में लघु मंच तैयार कर यात्रिकों को बुलवाया, हरियाली को बचाने पर व्याख्यान करवाए, और अंत में ध्यानपूर्वक बोर्ड पर लिखा, “यहाँ आने वाला हर मन ज्ञान से रोशन होगा।” कुछ लोग हँसे, पर बच्चों ने माताएँ-बापों के साथ आ कर आखरी बेंच तक भर दिया।
एक दफा तो रात को आग पकड़ने की कोशिश हुई। पाठशाला के पीछे की झाड़ियों में से कोई चोर सफेद तरल फँसाकर आग बढ़ाने लगा। पर राहुल और गाँव के दो-तीन नौजवानों ने किसी तरह आग बुझा दी। गाँव में अफ़वाह उड़ी कि यह वो लोग हैं जिनको लड़कियों की तरक्की रास नहीं। मगर माया ने थपकियाँ देकर विश्वास जगाया, “हम डर से नहीं, दया से बचेंगे। बदले से नहीं, भाईचारे से सलामत रहेंगे।” अचानक गाँव में एकजुटता का भाव फैल गया और अगले दिन दो अमीर ज़मींदारों ने पाठशाला में दरवाज़े की बड़ी सी घंटी दान कर दी।
समय की रफ़्तार दौड़ती रही। माया ने पढ़ाने के साथ-साथ स्वयं भी विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा की तैयारी जारी रखी। कंप्यूटर लैब साझा की, गाँव के कुछ युवा शिक्षक बनाए, और खुद भी उतरकर विज्ञान की नई-नई तकनीकों पर शोध करती। पढ़ाई-लिखाई के बीच गाँव में स्वास्थ्य शिबिर लगवाए, महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई सिखाई, अभिनव विचारों से छतों पर दरी-बिछाकर उत्सव मनाए। इसके चलते थोड़े समय में पाठशाला गाँव की शान बनकर उभर आई। बच्चे शतरंज खेलते, चित्रकारी करते, मिट्टी के खिलौने गढ़ते, और माया अंग्रेज़ी, हिंदी, मैथ्स, विज्ञान—हर विषय में तीन-तीन टीचर रखवाते।
अंततः माया ने उस प्रतियोगी परीक्षा में सफलता हासिल की जिससे वह देशभर में प्रख्यात हुई। उच्च अध्ययन के लिए उसे विदेश से स्कॉलरशिप मिल गई, पर इस बार माया के कदम गाँव छोड़कर कहीं दूर नहीं गए। उसने तय किया कि उसी पाठशाला को साक्षरता केंद्र बनाएगी जहाँ वह बड़ी हुई थी। शहर की व्यस्त लाइफस्टाइल में वह भागने की बजाय गाँव में लौट आई, और अंतरराष्ट्रीय फंड लेने की जगह एक ऐसा ट्रस्ट खड़ा किया जो स्थानीय संसाधनों से चल सके। धीरे-धीरे अनुदान और दान सारा वर्ष आता रहा, और पाठशाला एक आधुनिक स्कूल में परिवर्तित हो गई, जहाँ विज्ञान प्रयोगशाला थी, कंप्यूटर रूम था, पुस्तकालय था, खेल का मैदान था और सबसे बड़ी बात—हर बच्चे की आँखों में पढ़ने की भूख थी।
राहुल ने भी उस ट्रस्ट का संचालन सम्भाला। माया की मुस्कान में अब जग को बदलने की पूरी खिचड़ी थी। गाँव वालों ने सिर झुकाकर कहा, “बेटी, तूने हमारा गाँव न केवल पढ़ा-लिखा, बल्कि हमें सम्भाला भी।” उस दिन सारे ज़मींदार, सरपंच, बुज़ुर्ग-माँ-बाप एक जगह इकठ्ठा हुए—जो कभी विरोध करते थे, आज वही तालियाँ बजा रहे थे। फलों की टोकरी और फूलों की मालाएँ हर हाथ में खिलखिला रही थीं।
समय ने फिर अपनी चाल पकड़ी। माया ने शादी के बारे में कभी नहीं सोचा था, पर जब राहुल ने हाथ थामा, बस इतना कहा, “तेरा सपना और मेरा विश्वास दो ऐसे बंधन हैं जिन्हें जोड़कर हम अपना जीवन चलाएँगे।” माया ने सिर हिलाया और आँखों की नमकीन परत में वही तेज़ धूप झिलमिला उठी जिसे उसने बचपन में देखा था। गाँव की चौपाल में धूल उड़ती, बच्चे खेलते और पाठशाला की घंटियाँ बजतीं। पिता गोविंद का सूनी कुर्सी कोई भरा नहीं, पर बूढ़े बुजुर्ग कहते, “वह दूरभास से देख रहे होंगे कि माया ने उनका आखिरी सपना जिया।”
समय के आँचल में अब उस पहाड़ी गाँव का नज़ारा बदल चुका था। धूल उड़ी सड़कें गाढ़ी मिट्टी में बदल गई थीं, पेड़ों की शाखाएँ पुस्तकालय की छत तक फैल चुकी थीं, और बच्चों की उछलकूद उस पाठशाला के बरामदे से कभी हटती थी ही नहीं। हर साल विज्ञान मेला लगता, कवि-परिचर्चा होती, बागवानी पर कार्यशाला लगाई जाती, और सबसे ज़रूरी—लड़कियाँ-लड़के दोनों समान रूप से भाग लेते। गाँव की मिट्टी में अब सिर्फ़ अनाज उगता नहीं, उम्मीद भी पनपती थी।
एक साँझ पाठशाला के प्रांगण में जब दशहरा मनाया गया, तो आरपार तक दीये जल उठे। माया ने देखा कि पहले जहाँ बेंचों पर धूल जमी थी, वहाँ अब नए कोट पहनकर एक-एक कर बच्चे बैठ रहे थे। राहुल पीछे खड़ा था, हाथ में तख्ती लिए, मुस्कुरा कर पीठ थपका रहा था। कमला माँ जहां एक कोने में आसरा लिए छुरी में छनक रही थी, वहाँ सरपंच ने माला पहनाई और कहा, “माया ने हमें दिखाया कि शिक्षा किसी शानो-शौकत की मांग नहीं, ज़रूरत है, जो जीने का हक़ देती है।” गाँव के बुज़ुर्ग मंत्रमुग्ध से देखते रहे—पहाड़ों की कुहासा रात भी जश्न में रंग गई, दीये-फिट्टी की रौनक से।
और इस तरह माया की कहानी उस पहाड़ी गाँव की कहानी बन गई—टूटी पाठशाला का सपना, पिता का समर्थन, माँ की कोमलता, राहुल का विश्वास और पूरे गाँव का सहयोग। जहाँ एक समय अँधेरा और कुहासा गहरी थी, वहाँ आज उन्नति की धूप ने दस्तक दी। बच्चे किताबों में डूबे, युवा विचारों से झूमते, और गाँव के खेतों में उगते फ़सलें भी पहले से दोगुनी थीं, क्योंकि शिक्षा ने किसान की आँखों में भी अपनी चमक भर दी थी। माया अब रात्रि में तारे गिनकर नहीं सोती थी, बल्कि नए-नए पाठ्यक्रम सोचकर सोती थी। इसी बीच राहुल ने हाथ में अंगूठी थामकर दिल की बात कही और माया ने मुस्कान भरी आँखों से मान लिया।
पीछे मुड़कर जब वह पाठशाला को देखती, तो उसे अहसास होता—यह केवल ईंट-सीमेंट का भवन नहीं, हजारों मस्तिष्कों की जिजीविषा का मंदिर है। जब भी धूप बाहर से खिड़कियों में आती, धूल की कलियों पर बहार खिल उठती थी। हर कलम, हर पेंसिल, हर पुस्तक ने गाँव को जकड़ रखा था और यह बंधन टूटने की बजाय सदा अटूट बना रहेगा। ऐसे ही, बिना शीर्षक के एक सपने की दास्ताँ चली जाती है, जिसे पढ़कर आने वाली पीढ़ियाँ भी हर सुबह आँखे खोलेंगी और कहेंगी—“हम भी बनेंगे, हम भी चमकेंगे, क्योंकि हमें माया जैसा विश्वास मिला है।”
News
सड़क किनारे जलेबी बेचने वाली दादी के लिए उठ खड़ी हुई आईपीएस!हकीकत जैसी कहानी – भ्रष्टाचार के खिलाफ
सड़क किनारे जलेबी बेचने वाली दादी के लिए उठ खड़ी हुई आईपीएस!हकीकत जैसी कहानी – भ्रष्टाचार के खिलाफ . ….
करीना कपूर खान तीसरी बार गर्भवती हैं!! करीना कपूर ने अपनी प्रेग्नेंसी काफी लंबे समय तक छिपाई थी।
करीना कपूर खान तीसरी बार गर्भवती हैं!! करीना कपूर ने अपनी प्रेग्नेंसी काफी लंबे समय तक छिपाई थी। . ….
दिग्गज अभिनेत्री वैजयंती माला का निधन | वैजयंती माला के निधन की खबर | निधन समाचार
दिग्गज अभिनेत्री वैजयंती माला का निधन | वैजयंती माला के निधन की खबर | निधन समाचार . . वैजयंती माला:…
महान अभिनेत्री माला सिन्हा का निधन | माला सिन्हा के निधन की खबर
महान अभिनेत्री माला सिन्हा का निधन | माला सिन्हा के निधन की खबर . . माला सिन्हा: हिंदी सिनेमा की…
#Dharmedra की तबियत खराब जाकर फैंस को हुई चिंता, पत्नी हेमा मालिनी ने दी हेल्थ अपडेट
#Dharmedra की तबियत खराब जाकर फैंस को हुई चिंता, पत्नी हेमा मालिनी ने दी हेल्थ अपडेट . . धर्मेंद्र की तबीयत…
पति को मजदूरी करते देख पत्नी ने घर आकर अलमारी खोली, सामने था रुला देने वाला सच!
पति को मजदूरी करते देख पत्नी ने घर आकर अलमारी खोली, सामने था रुला देने वाला सच! . . सीमा…
End of content
No more pages to load






