दिवालिया हो चुका था बिजनेसमैन, जब उसके पुराने कर्मचारी ने उसे देखा तो उसने कुछ ऐसा किया जिसने इतिहास

सेठ रामचंद्र गुप्ता और समीर: वफादारी की मिसाल

.

.

.

दिल्ली के चांदनी चौक की गलियों में एक समय था जब “गुप्ता टेक्सटाइल्स” का नाम हर जुबां पर था। चार मंजिला संगमरमर की दुकान, रंग-बिरंगे कपड़ों के थान—और इस साम्राज्य के शहंशाह थे सेठ रामचंद्र गुप्ता। एक सेल्फ मेड इंसान, जिन्होंने फेरी लगाकर शुरुआत की थी, और अपनी मेहनत, ईमानदारी और कर्मचारियों के प्रति सच्ची मोहब्बत से एक विशाल कारोबार खड़ा किया था।

सेठ जी अपने कर्मचारियों को परिवार मानते थे। किसी की बेटी की शादी हो या बेटे की पढ़ाई—उनका हाथ हमेशा मदद के लिए आगे रहता था। उन्हीं कर्मचारियों में से एक था समीर—बिहार के एक छोटे गांव से आया, आंखों में सपने, जेब में चंद रुपए। सेठ जी ने उसकी प्रतिभा पहचानी, उसे दुकान में हेल्पर रखा। समीर ने दुकान को मंदिर समझकर दिन-रात मेहनत की, और धीरे-धीरे जनरल मैनेजर बन गया।

समीर को कारोबार की बारीकियां, कपड़े की गुणवत्ता और इंसानियत के उसूल सेठ जी ने ही सिखाए। दोनों का रिश्ता सिर्फ मालिक-कर्मचारी का नहीं, बल्कि गुरु-शिष्य और पिता-पुत्र जैसा था। समीर की बहन की शादी हो या घर खरीदना—सेठ जी हर कदम पर उसके साथ रहे।

लेकिन वक्त ने करवट ली। सेठ जी की उम्र बढ़ी, बेटा अमेरिका में था और दामाद राकेश ने मीठी बातों से कारोबार की बागडोर अपने हाथ में ले ली। समीर को राकेश की नियत पर शक था, पर सेठ जी ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। राकेश ने समीर को झूठे इल्जाम में फंसा कर निकाल दिया और कंपनी को दीमक की तरह खोखला करने लगा। आखिरकार गुप्ता टेक्सटाइल्स दिवालिया हो गई, दुकान और बंगला बिक गया। सेठ जी सड़क पर आ गए, पत्नी भी दुख में चल बसी, बेटी ने भी मुंह मोड़ लिया।

समीर ने हार नहीं मानी। अपने गुरु के दिए हुनर और उसूलों से एक नई कंपनी शुरू की—”समीर अपेरल्स”, जो आज करोड़ों की कंपनी बन गई। लेकिन उसके दिल में टीस थी—अपने सेठ जी की। उसने उन्हें ढूंढने की बहुत कोशिश की, पर कोई खबर नहीं मिली।

पांच साल बाद, एक बरसात की शाम समीर की गाड़ी स्टेशन के पास ट्रैफिक में फंस गई। उसने देखा, फुटपाथ पर एक बूढ़ा, फटे कपड़ों में कांप रहा था। ड्राइवर से पैसे देने को कहा, लेकिन जब उस बुजुर्ग ने चेहरा उठाया, समीर को बिजली का झटका लगा—वो सेठ रामचंद्र थे। समीर दौड़ता हुआ उनके पास गया, अपने गुरु को गले लगाया। दोनों फूट-फूटकर रो पड़े।

समीर उन्हें अपने घर ले आया, नए कपड़े दिए, खाना खिलाया। लेकिन सेठ जी की आत्मा मर चुकी थी—उन्हें सिर्फ छत या पैसे नहीं चाहिए थे, उन्हें अपना खोया हुआ सम्मान चाहिए था।

समीर ने इतिहास रचने का फैसला लिया। उसने अपनी कंपनी का बड़ा हिस्सा बेचकर, बैंकों से कर्ज लेकर, अपनी सारी जमा पूंजी दांव पर लगाकर गुप्ता टेक्सटाइल्स के सारे पुराने कर्ज चुकाए और ब्रांड को वापस खरीद लिया। चांदनी चौक में सात मंजिला नई इमारत बनवाई, पुराने कर्मचारियों को दो गुनी तनख्वाह पर वापस बुलाया। सेठ जी को भनक तक नहीं लगने दी।

छह महीने बाद, समीर सेठ जी को नई दुकान पर लेकर गया। अंदर उनके सारे पुराने कर्मचारी हाथ जोड़े खड़े थे। समीर ने ऑफिस की चाबियां सेठ जी के हाथों में रख दीं—”आपकी सल्तनत आपका इंतजार कर रही है। चलिए अपनी कुर्सी संभालिए।”
सेठ जी की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली। उन्होंने समीर को गले लगा लिया। उस दिन गुप्ता टेक्सटाइल्स का एक नया, सुनहरा अध्याय शुरू हुआ। सेठ रामचंद्र फिर से बादशाह बने, और उनके साथ उनके सबसे वफादार सिपाही समीर जनरल मैनेजर के रूप में खड़ा था।

यह कहानी हमें सिखाती है कि वफादारी और कृतज्ञता सबसे बड़ी दौलत है। जब हम किसी की नेकी का कर्ज चुकाते हैं, तो सिर्फ एक इंसान नहीं, पूरी इंसानियत अमीर हो जाती है।

अगर यह कहानी आपके दिल को छू गई हो, तो इसे जरूर शेयर करें और बताएं कि आपको सबसे भावुक पल कौन सा लगा।
धन्यवाद!