पेंशन है ₹43,000, फिर भी शहर में नौकरानी जैसा जीवन—जब तक सास को बहू के फोन पर वह शब्द नहीं दिखा…
मैं सेवानिवृत्त हूँ, 67 वर्ष की, हर माह ₹43,000 पेंशन मिलती है। गाँव में वह रकम ठीक-ठाक है, पूरा गुज़ारा हो जाता है। जब बेटे ने कहा—“माँ, दिल्ली आ जाओ, बहू की नौकरी शुरू हो गई है, बच्चे की देखभाल कौन करेगा”—तो मैं मना न कर सकी।
मैं गाँव से दिल्ली आई। साथ में अचार, लड्डू और बहुत सा अपनापन ले आई। शुरू-शुरू में सब अच्छा ही लगा, पर जल्द ही एहसास हो गया कि यहाँ मेरा घर नहीं है—बस ज़रूरत के लिए बुलाया गया हूं। जितना बन पड़ा, सब किया, कभी कोई शिकायत नहीं की, अपने सारे खर्च खुद उठाए। मुझे सिर्फ थोड़ा अपनापन चाहिए था।
एक दिन बहू का फोन पास ही टेबल पर पड़ा था। अचानक उसमें एक कॉल आई। जैसे ही स्क्रीन पर नज़र गई, मैंने देखा—उसने मेरा नंबर फोन में कैसे सेव किया है:
“गाँव वाली सास”
न “माँ”, न “सासू माँ”—बस इतना ठंडा, दूर-साथ शब्द—“गाँव वाली सास”।
उस पल मेरा दिल भीतर से टूट गया, पर मैंने कुछ नहीं बोला। खामोशी से सारे काम निपटाए, चाबी वहीं रखी, और उसी रात गाँव के लिए बस पकड़ी।
हफ्ता भर बीता, एक दिन आँगन में सब्ज़ी तोड़ रही थी कि पड़ोसी दौड़ते हुए बोले, “चाची, आपका बेटा फोन कर रहा है, बहुत घबराया है।”
फोन उठाया—“माँ, नेहा की तबीयत बहुत बिगड़ गई है, वह अस्पताल में है और बच्चा रो रहा है… माँ, क्या आप फिर आ सकती हैं?”
अचानक मेरी आँखों में पानी भर आया। ग़ुस्से से नहीं, ममता से। शायद दुनिया चाहे जैसे भी देखे, लेकिन माँ तो हमेशा माँ ही रहती है—चाहे उसके घर में उसे कोई नाम दे या अजनबी माने।
मैंने जवाब देर से दिया, लेकिन दिल में तय कर लिया—मैं फिर लौटूँगी, क्योंकि दर्द से बढ़कर मेरा मातृत्व है।
(अगर आप चाहें तो इसे और छोटा, या और विस्तार से भी लिखा जा सकता है।)
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