नई पहचान: वेश्या से गृहलक्ष्मी तक

गांव का पुराना पक्का घर। आंगन में बरगद की छांव, मां-पिता, बहन और दो बेटे—नाजिम और कलाम। परिवार में सुकून था, लेकिन किस्मत की एक करवट ने सब बदल दिया।

शुरुआत

एक दिन घर का गेट चरमराहट के साथ खुला। नाजिम—घर का बड़ा बेटा—अपने चेहरे पर आत्मविश्वास भरी मुस्कान लिए अंदर आया। उसके साथ एक युवती थी, सिर पर घूंघट। सब चौंक गए।

मां ने पूछा, “यह कौन है?”
नाजिम बोला, “मां, यह मेरी पत्नी है। आज से यह इस घर की बहू है।”

शब्द बिजली की तरह गिरे। कलाम आगे बढ़ा, युवती का घूंघट हटाया और चीख पड़ा—”भाई, तूने किससे शादी कर ली? यह लड़की तो वेश्या है, वेश्यालय में काम करती है!”

मां-पिता, बहन—सबके चेहरे पर घृणा, गुस्सा और निराशा। युवती आंसू भरी आंखों से सिर झुकाए खड़ी थी।

अतीत की छाया

कलाम ने ताना मारा, “अभी भी समय है, भाई। तलाक दे दे, पैसे लगेंगे तो मैं दूंगा। लेकिन वेश्या कभी गृहस्थी नहीं कर सकती।”

नाजिम की आंखें लाल हो गईं। “तुम लोग मेरे अपने हो, फिर भी समझ नहीं पा रहे। अब यह मेरी पत्नी है। मैं इसके अतीत की परवाह नहीं करता, मैं सिर्फ इसका भविष्य सवारना चाहता हूं।”

परिवार में हाहाकार। कलाम ने धक्का देकर कहा, “हम इस लड़की को घर में नहीं रख सकते। या तो इसे बाहर कर, या तलाक दे।”

नई आवाज

तभी युवती ने आंसू पोंछकर दृढ़ आवाज में कहा, “हां, मैं वेश्या थी। लेकिन अब मैं किसी की पत्नी हूं। अगर मैं नई जिंदगी शुरू करना चाहूं तो क्या आप लोग मुझे इंसान समझकर जगह नहीं देंगे? अतीत को पकड़े रहने से किसी का भविष्य नहीं बनता।”

युवती ने कलाम की ओर देखा, “कलाम, तुम्हारा परिवार नहीं जानता, लेकिन मैं जानती हूं कि तुम अक्सर उन्हीं जगहों पर आते थे। तुम मुझे अच्छी तरह पहचानते हो।”

क्षण भर में कलाम सन रह गया। पिता गरजते हुए बोले, “कलाम, तो क्या तू पहले से इस लड़की को जानता था? जरूर तू वेश्यालय में जाता है!”

कलाम हकलाने लगा, “अब्बा, मतलब मैं…”

पिता बोले, “बस, और कुछ कहने की जरूरत नहीं। जब तेरे भाई ने अल्लाह के नाम पर निकाह किया है, तो हमें भी मानना होगा। लड़की को नई जिंदगी शुरू करने का मौका देना चाहिए।”

परिवर्तन की शुरुआत

नाजिम ने सबकी ओर देखकर कहा, “इंसान अगर बुरा बनता है तो उसके पीछे हजार कारण होते हैं। लेकिन जब वह अच्छा बनना चाहता है, तब क्या समाज उसे मौका देता है? मैं चाहता हूं कि तुम सबकी बहू नई जिंदगी शुरू करे।”

पिता ने गहरी सांस ली, “ठीक है। अगर तू खुश है तो हम भी राजी। इंसान को नया मौका देना चाहिए।”

मां की आंखों में आंसू थे। “चलो बहू को घर के अंदर ले चलें।”

युवती कांपती आवाज में बोली, “मैं वादा करती हूं, मैं नई जिंदगी शुरू करूंगी।”

नाजिम ने उसका हाथ कसकर पकड़ा, “तुम अकेली नहीं हो, मैं हूं।”

परिवार सब मिलकर नई बहू को अंदर ले गए। लेकिन कलाम अकेला खड़ा रहा। उसकी आंखों में हिंसक नजरें थीं। उसने मन ही मन कहा, “मुझे अपमानित होना पड़ा। एक वेश्या हमारे घर की बहू नहीं बन सकती। मैं इसे सबक सिखाए बिना नहीं छोड़ूंगा।”

साजिश

रात गहरी हो चुकी थी। सब सो चुके थे, लेकिन कलाम की आंखों में नींद नहीं थी। उसके दिमाग में अपमान की बातें घूम रही थीं। वह मन ही मन बोला, “अब्बा की डांट, भाई की इज्जत, उस औरत की बातें… मैं इसे चैन से जीने नहीं दूंगा।”

कलाम ने चोरी-छुपे गांव के गुंडों से संपर्क किया। पैसों के बल पर उन्हें काम सौंपा—”इस औरत को रात के अंधेरे में अपमानित करो, ताकि वह फिर कभी सिर उठाकर खड़ी न हो सके।”

गुंडे राजी हो गए। एक रात जब सभी सो रहे थे, घर के पीछे आंगन में बहू को घेर लिया गया। युवती पहले तो डर गई, लेकिन अचानक दृढ़ आवाज में चिल्लाई। पड़ोसी दौड़े चले आए, गुंडे भाग निकले। युवती फूट-फूट कर रोई, लेकिन इस बार शर्म से नहीं, गुस्से से—”आज मैं बच गई, लेकिन मेरे खिलाफ जो साजिश हो रही है, वो यहीं खत्म नहीं होगी। इसके पीछे कौन है, मैं जानती हूं।”

सच्चाई का उजागर होना

अगले दिन सुबह मस्जिद के इमाम को खबर मिली। उन्होंने सबको इकट्ठा किया। बहू ने हिम्मत से कहा, “मेरा अतीत काला था, लेकिन मैंने नई जिंदगी शुरू की है। फिर भी कोई मुझे इस घर में जगह नहीं देना चाहता। कल रात जिन्होंने मुझे अपमानित करने की कोशिश की, उन्हें भेजा है हमारे ही घर के किसी ने।”

पिता बोले, “कौन?”

बहू धीरे-धीरे कलाम की ओर देखने लगी। चारों ओर फुसफुसाहट। कलाम इंकार करने लगा, लेकिन अचानक गांव का एक आदमी बोल पड़ा, “हां, हमें कलाम ने ही बुलाया था।”

सब दंग रह गए। पिता गुस्से से कांपते हुए बोले, “तूने अपने ही घर को उजाड़ने की कोशिश की। तुझे शर्म नहीं आती?”

नाजिम आगे बढ़ा, “कलाम, मैं तेरा भाई हूं। अगर मेरी पत्नी को स्वीकार नहीं कर सकता तो कोई बात नहीं। लेकिन उसे बर्बाद करने की कोशिश की तो मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा।”

कलाम गुस्से में बोला, “भाई, तू गलत कर रहा है। वेश्या कभी गृहस्थी नहीं कर सकती।”

नाजिम जवाब देता है, “इंसान वेश्या नहीं बनता, समाज उसे बनाता है। अल्लाह भी रहमदिल है। अगर तू अपनी गलती छुपाना चाहता है तो वह मेरी पत्नी को जलाकर नहीं होगा।”

कलाम अंधेरे कमरे में अकेला बैठा है। उसकी आंखें लाल हैं। “खेल अभी खत्म नहीं हुआ है। मैं इसे ऐसे जाल में फंसाऊंगा जहां बड़ा भाई भी इसे बचा नहीं पाएगा।”

नई बहू का संघर्ष

युवती ने घर के काम में हाथ बंटाना शुरू किया। वह मां के साथ रसोई में मदद करती, पिता की दवाइयों का ध्यान रखती, बहन की पढ़ाई में मदद करती। धीरे-धीरे परिवार का माहौल बदलने लगा।

मां ने एक दिन कहा, “बहू, तुम्हारे हाथों में बहुत अपनापन है।”

पिता बोले, “तुम्हारे आने से घर में रौनक लौट आई है।”

नाजिम ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैंने सही चुना था।”

समाज का विरोध

गांव में बातें फैल गईं—”नाजिम ने वेश्या से शादी की।”
कुछ लोग तिरस्कार करते, कुछ हंसते, कुछ बहू को घूरते। लेकिन युवती ने हार नहीं मानी। उसने गांव की महिलाओं को सिलाई-कढ़ाई सिखाना शुरू किया। बच्चों को पढ़ाना शुरू किया।

धीरे-धीरे गांव के लोग उसकी मेहनत और अच्छाई देखने लगे। महिलाएं उसके पास अपने दुख-सुख बांटने आने लगीं। बच्चे उसको “टीचर दीदी” कहने लगे।

कलाम का बदला

कलाम ने फिर साजिश की। उसने बहू पर चोरी का आरोप लगाया। पुलिस आई, जांच हुई। लेकिन बहू ने सबूतों के साथ अपनी बेगुनाही साबित की। कलाम खुद पकड़ा गया।

पिता ने कहा, “अब बहुत हो गया। कलाम, अगर तू परिवार को नहीं संभाल सकता तो जा, अपना रास्ता देख।”

कलाम घर छोड़कर चला गया।

नई पहचान

समय बीता। बहू ने अपने अतीत को पीछे छोड़कर नई पहचान बनाई। गांव में उसकी इज्जत बढ़ गई। नाजिम और परिवार को गर्व होने लगा।

एक दिन गांव में महिला सम्मेलन हुआ। बहू को सम्मानित किया गया—”आपने साबित किया कि अतीत से ज्यादा इंसान का वर्तमान और भविष्य मायने रखता है।”

मां की आंखों में आंसू थे, पिता ने गर्व से सिर ऊंचा किया। नाजिम ने बहू का हाथ थामकर कहा, “तुमने मेरी जिंदगी बदल दी।”

बहू बोली, “मेरा अतीत मेरी कमजोरी था, लेकिन अब मेरी ताकत है। मैं चाहती हूं, समाज हर ऐसे इंसान को दूसरा मौका दे, जो बदलना चाहता है।”

कहानी का संदेश

यह कहानी सिर्फ एक वेश्या की नहीं, बल्कि हर उस इंसान की है, जिसे समाज ने तिरस्कार किया। अगर उसे मौका मिले, तो वह अपनी पहचान बदल सकता है।
अतीत को पकड़कर बैठने से किसी का भविष्य नहीं बनता। बदलाव, प्रेम और स्वीकार्यता ही इंसानियत की असली पहचान है।