होटल वेट्रेस को करोड़पति बोला एक लाख महीना दूंगा… मेरे घर चलो!” फिर जो हुआ… इंसानियत हिल गई |
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“रौशनी का ठिकाना”
शहर के बीचोंबीच एक व्यस्त सड़क पर, हॉर्न, धूल और जल्दबाज़ी के बीच एक छोटी सी दुकान थी—“रौशनी फोटो स्टूडियो।”
नाम बड़ा पर जगह छोटी। पुराने कैमरे, फीके फोटो फ्रेम, और काउंटर के पीछे बैठा एक अधेड़ उम्र का आदमी — रमेश।
रमेश का चेहरा ऐसा था जैसे किसी ने उस पर समय की कई परतें जमा दी हों। बाल सफेद, मगर आंखों में वो नरम चमक अब भी बची थी जो अपने काम से प्यार करने वाले लोगों में होती है।
हर सुबह वह दुकान का शटर उठाते हुए कहता—
“चलो, आज किसी की याद को अमर करना है।”
फिर अपने पुराने कैमरे को साफ करता, उसके लेंस को धीरे से छूता मानो किसी दोस्त को सुप्रभात कह रहा हो।
लेकिन इस स्टूडियो का असली आकर्षण रमेश नहीं, बल्कि उसकी छोटी सहायिका—गौरी थी।
सिर्फ सोलह साल की, पर चाल में ज़िम्मेदारी और चेहरे पर हिम्मत की किताब।
वह कैमरे के फिल्टर साफ करती, ग्राहकों को संभालती, और रमेश की आंखों का ध्यान बन गई थी।
गौरी की कहानी कोई फिल्मी नहीं थी। दो साल पहले बाढ़ में उसका घर, मां-बाप सब कुछ बह गया था। सरकारी राहत शिविर में भीड़ के बीच, उसे रमेश ने रोते हुए देखा था।
उसने कुछ नहीं पूछा, बस कहा —
“चल, मेरे साथ चल। तुझे कोई पनाह चाहिए, और मुझे कोई अपने जैसा चाहिए।”
तब से गौरी रमेश की बेटी जैसी हो गई।
रमेश उसे स्कूल भी भेजता, और स्टूडियो में काम भी सिखाता।
“कैमरा संभालना आसान है, गौरी,” वह अक्सर कहता,
“पर तस्वीर में जान डालना मुश्किल। वो दिल से आता है।”
गौरी मुस्कुरा देती, और कहती —
“दिल से तो मैंने सब खोया है, काका। अब उसमें क्या बचा है?”
रमेश मुस्कुरा कर जवाब देता,
“दिल कभी खाली नहीं होता, बिटिया। बस कुछ यादें छिप जाती हैं। जब वक्त आता है, वो खुद उभर आती हैं।”
एक दिन शहर में नया फोटो स्टूडियो खुला — Flash & Fame।
एसी रूम, डिजिटल स्क्रीन, और ड्रोन कैमरे।
लोगों की भीड़ वहां उमड़ने लगी। रमेश का पुराना स्टूडियो अब सूना पड़ने लगा।
गौरी देखती रही, उसकी आंखों में चिंता थी।
“काका, लोग अब हमारे पास क्यों नहीं आते?”
रमेश ने सिर उठाए बिना कहा,
“क्योंकि अब लोगों को यादें नहीं, परफेक्ट पोज़ चाहिए।”
उसकी आवाज़ में तंज नहीं, एक थकान थी।
दिन बीतते गए।
बिजली का बिल बढ़ा, ग्राहक घटे।
रमेश ने दुकान के बाहर का बल्ब तक निकाल दिया ताकि खर्च कम हो।
पर गौरी ने हार नहीं मानी।
वह अपने पुराने मोबाइल से नए एंगल्स सीखती, फोटो एडिट करना सीखती।
रात में छत पर बैठकर सितारों को क्लिक करती और कहती—
“काका, देखिए, यह तस्वीरें तो चमक रही हैं!”
रमेश मुस्कुरा देता,
“तू ही तो मेरी रौशनी है, बिटिया।”
एक दिन सुबह एक काली कार दुकान के बाहर आकर रुकी।
दरवाजा खुला और बाहर उतरे विक्रम सेठी, शहर के सबसे बड़े इवेंट ऑर्गनाइज़र।
तीखे सूट में, आत्मविश्वास से भरा चेहरा।
उसने रमेश की दुकान का बोर्ड देखा, फिर भीतर झांका।
“ओह, यह जगह अब भी चल रही है?”
गौरी ने सिर उठाकर कहा,
“जी हां, चल रही है, और चलेगी भी।”
विक्रम ने हंसकर कहा,
“मुझे पासपोर्ट साइज फोटो चाहिए था, लेकिन लगता है आप लोग अभी भी फिल्म कैमरा चलाते हैं!”
रमेश ने धीमी आवाज़ में कहा,
“पुराना है, पर ईमानदार है साहब। तस्वीर में झूठ नहीं दिखाता।”
विक्रम ने फोटो खिंचवाई, और कुछ सेकंड बाद तस्वीर देखी।
वह रुक गया।
चेहरे पर जो हंसी थी, गायब हो गई।
वह तस्वीर में कुछ देर तक देखता रहा।
उसने पूछा, “आपने ये क्लिक कैसे किया?”
रमेश बोला,
“बस उस पल को देखा, जब आपकी आंखें मुस्कुरा रही थीं, चेहरा नहीं।”
विक्रम चुप हो गया।
भुगतान करते हुए उसने कहा,
“रमेश जी, अगर कभी मेरे ऑफिस आना, तो बताना। हमें ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो दिल से तस्वीर लें।”
अगले हफ्ते गौरी स्कूल से लौटी तो देखा, काका दुकान के बाहर बैठे हैं, माथे पर पसीना और आंखों में बेचैनी।
“क्या हुआ काका?”
रमेश ने हाथ में कागज़ दिखाया—
“नगर निगम ने नोटिस दिया है। सड़क चौड़ी करने के लिए यह दुकान टूटेगी।”
गौरी के हाथ से थैला गिर गया।
“नहीं काका! यह तो हमारा घर है, हमारी यादें हैं!”
रमेश ने बस इतना कहा,
“कभी-कभी यादें मिटती नहीं, बस जगह बदल लेती हैं।”
दो दिन बाद मजदूर आए।
शटर गिराया गया।
गौरी दूर खड़ी थी, आंखों में आंसू।
तभी वही काली कार फिर आई।
विक्रम उतरा।
उसने अधिकारी से बात की, कुछ कागज़ साइन किए।
फिर रमेश के पास आया और कहा,
“काका, अब आपकी दुकान नहीं टूटेगी। बस थोड़ी जगह बदलनी होगी।”
रमेश ने आश्चर्य से पूछा,
“क्यों बेटा, तू ये सब क्यों कर रहा है?”
विक्रम ने गहरी सांस ली,
“क्योंकि उस दिन आपने मेरी तस्वीर नहीं, मुझे दिखाया था।
आपने बताया कि इंसानियत अब भी जीवित है।
अब मैं आपकी दुकान को नया रूप देना चाहता हूं — आधुनिक कैमरे, अच्छी लाइटिंग, पर नाम वही रहेगा, ‘रौशनी।’”
रमेश की आंखें भीग गईं।
“बेटा, मैं अब बूढ़ा हो गया हूं, पर यह बिटिया संभाल लेगी।”
गौरी ने सिर झुका लिया, आंखों से आंसू पोंछे, और कहा —
“काका की रौशनी अब मेरी जिम्मेदारी है।”
कुछ महीने बाद नई दुकान तैयार थी।
ग्लास के दरवाजे, डिजिटल प्रिंटर, लेकिन दीवार पर एक पुरानी तस्वीर टंगी थी —
रमेश और छोटी गौरी की, जिसमें दोनों मुस्कुरा रहे थे।
नीचे लिखा था —
“यादें वही रहती हैं, बस फ्रेम बदल जाता है।”
विक्रम ने गौरी को मैनेजर बनाया।
वह अब बच्चों के लिए फ्री फोटोग्राफी क्लास चलाती थी।
हर रविवार वह झुग्गी के बच्चों को बुलाती,
“चलो, दुनिया को अपनी नज़रों से देखो।”
रमेश अब घर पर रहते थे, पर हर शाम आकर कहते,
“आज कितनी रौशनी बिखेरी, बिटिया?”
गौरी हंसकर जवाब देती,
“काका, आज तीन बच्चों ने अपनी मां की फोटो खींची। वो पहली बार मुस्कुरा रही थीं।”
रमेश की आंखें चमक उठतीं।
“बस यही तो असली तस्वीर है — जब खुशी किसी और की झलक में दिखे।”
एक शाम जब दुकान बंद हो रही थी, विक्रम आया।
उसने कहा,
“गौरी, मुझे एक इवेंट के लिए तुम्हें अपने साथ ले जाना है। इंटरनेशनल शो है।”
गौरी ने मुस्कुराकर कहा,
“साहब, मैं यहां खुश हूं।
मुझे दुनिया नहीं, बस चेहरों में मुस्कान चाहिए।”
विक्रम ने झुककर कहा,
“तुम्हारे काका सही कहते हैं, कुछ लोग कैमरे से नहीं, दिल से फोटो खींचते हैं।”
कहानी का अंत किसी फिल्मी क्लाइमेक्स की तरह नहीं हुआ।
रमेश एक सुबह हमेशा के लिए सो गए —
शांत, मुस्कुराते हुए, हाथ में कैमरा थामे।
गौरी ने उस दिन दुकान नहीं खोली।
उसने बस काका की कुर्सी के पास एक फ्रेम रखा —
उसमें काका का चेहरा, और नीचे लिखा था —
“रौशनी अब भी यहीं है।”
आज “रौशनी फोटो स्टूडियो” शहर का एक प्रतीक है।
यह सिर्फ फोटो की दुकान नहीं,
बल्कि एक स्कूल है — जहां हर तस्वीर इंसानियत की सीख देती है।
दीवार पर लिखा है —
“तस्वीरें फीकी पड़ सकती हैं, पर अच्छे कर्म कभी धुंधले नहीं होते।”
हर नया ग्राहक जब वहां आता है, तो गौरी मुस्कुराकर कहती है —
“पोज़ मत दो, बस सच्चे रहो। कैमरा झूठ पकड़ लेता है।”
और उस छोटे से स्टूडियो से फिर वही पुरानी रोशनी फैलती है —
वो जो बिजली से नहीं,
दिल से जलती है।
कहानी का सार:
कभी-कभी असली रौशनी कैमरों, पैसों या शहर की चमक से नहीं आती —
वो आती है एक सच्चे दिल, एक पुरानी सीख और एक ऐसे रिश्ते से जो खून का नहीं, भरोसे का होता है।
पैसा चमक देता है,
पर इंसानियत ही असली रौशनी है।
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