पति की मौत के बाद अकेली दिल्ली जा रही थी… ट्रेन में मिला एक अजनबी… फिर जो हुआ |

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एक छोटे से गाँव में राधिका नाम की एक युवती रहती थी। उसकी शादी दो साल पहले रमेश से हुई थी, जो एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करता था। शुरू-शुरू में सब ठीक था, लेकिन धीरे-धीरे रमेश की शराब की लत बढ़ने लगी। पैसों की तंगी, गालियां और कई बार हाथ भी उठाने लगे। राधिका ने बहुत कुछ सहा, लेकिन जब उसका बेटा राघव हुआ, तो रमेश कुछ समय के लिए सुधर गया। पर दुर्भाग्यवश, एक दिन रमेश का बाइक एक्सीडेंट हो गया और उसकी मौत हो गई। राधिका अकेली रह गई, उसके पास न कोई सहारा था, न कोई छत। मायके वालों ने कहा कि अब तेरा रिश्ता ससुराल से है, लेकिन ससुराल वालों ने साफ कह दिया कि वह उनके लिए कोई नहीं है।

राधिका अपने दो साल के बेटे राघव को गोद में लेकर लखनऊ रेलवे स्टेशन पर बैठी थी। सुबह के पांच बजे थे, हल्की धुंध थी और प्लेटफार्म नंबर तीन पर भीड़ थी। लोग अपने-अपने सफर पर निकले थे, लेकिन राधिका चुपचाप एक बेंच पर बैठी थी। उसकी आंखों में नमी थी, चेहरा उतरा हुआ था और मन में एक तूफान था जो थमने का नाम नहीं ले रहा था। उसका बेटा बिस्किट वाले की ओर बार-बार देखता और हाथ बढ़ाता, लेकिन राधिका प्यार से उसका हाथ थामकर मना कर देती।

उसी बेंच से कुछ दूरी पर विक्रम नाम का एक 28 साल का युवक बैठा था। वह मुंबई में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था और त्यौहार मनाकर वापस लौट रहा था। उसने सुबह से ही राधिका को देखा था, नीली शॉल ओढ़े बच्चे को गोद में लिए वह युवती जो हर बार ट्रेन रुकते ही खड़ी होती और भीड़ देखकर वापस लौट आती। विक्रम के मन में सवाल था कि यह कौन है, जो इतनी तकलीफ में भी अकेली और बहादुर है।

जब राघव ने तीसरी बार बिस्किट की ओर इशारा किया, तो विक्रम ने बिस्किट वाले से एक पैकेट लिया और राधिका के सामने रख दिया। राधिका ने चौंक कर देखा, उसकी आंखों में सवाल था, गुस्सा नहीं। उसने कहा, “आपने यह क्यों लिया? यह बस यूं ही हाथ बढ़ा देता है। इसका पेट भरा है।” विक्रम ने मुस्कुराकर कहा, “कोई बात नहीं, बच्चे का मन है थोड़ा सा खा लेगा तो क्या बिगड़ जाएगा?” राधिका कुछ नहीं बोली, बस अपने बेटे को देखने लगी जो पहली बार मुस्कुरा रहा था।

कुछ देर बाद विक्रम ने पास आकर पूछा, “आप कहां जाना चाहती हैं? सुबह से आपको यहीं बैठे देख रहा हूं, कोई परेशानी है क्या?” राधिका ने झिझकते हुए कहा, “मुझे मुंबई जाना है। मेरे पास जनरल टिकट है, लेकिन हर ट्रेन में इतनी भीड़ होती है कि बच्चे के साथ चढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही। मैं बस सोच रही थी कि कोई कम भीड़ वाली ट्रेन मिल जाए।” विक्रम ने कहा, “अरे, तो फिर आप चिंता क्यों कर रही हैं? मैं भी मुंबई जा रहा हूं। मेरे पास एसी कोच का टिकट है और मेरे केबिन में जगह भी है। चलिए मेरे साथ, मैं टीटीई से बात कर लूंगा।” राधिका ने कहा, “मेरे पास तो सिर्फ जनरल टिकट है। अगर टीटी ने कुछ कहा तो मेरे पास पैसे भी नहीं हैं।” विक्रम ने कहा, “टिकट मैं संभाल लूंगा, आप बस चलिए।” राधिका झिझकी, लेकिन फिर सिर हिला दिया। शायद अब उसके पास कोई और रास्ता नहीं था।

ट्रेन आई, विक्रम ने राधिका का बैग उठाया और उसे अपने साथ एसी कोच तक ले गया। अंदर घुसते ही ठंडी हवा लगी, राधिका सहम गई। उसने पूछा, “इतना ठंडा क्यों है यहां?” विक्रम हंसकर बोला, “क्योंकि आप पहली बार यहां आई हैं।” राधिका को सीट पर बैठाया। जब टीटी आया, तो विक्रम ने उसे कुछ दूर ले जाकर बात की। टीटी मुस्कुराया और चला गया। विक्रम ने कहा, “सब ठीक है, अब चैन से बैठिए।” राधिका की आंखों में राहत की चमक आई।

यात्रा शुरू हुई। राधिका खिड़की से बाहर अंधेरे को देख रही थी, मन में डर था, लेकिन यह डर किसी नुकसान का नहीं था, बल्कि इसलिए कि वह इतने समय से खुद को अकेला समझती रही थी और अब अचानक कोई अजनबी उसके लिए इतना कर रहा था। यह भरोसा करना आसान नहीं था। कुछ देर बाद विक्रम ने पूछा, “अगर बुरा न मानें तो एक बात पूछूं? आप इतनी सुबह-सुबह इस छोटे बच्चे के साथ अकेले मुंबई क्यों जा रही हैं? कोई परेशानी है क्या?” राधिका की आंखों में नमी आ गई। उसने धीरे-धीरे अपनी कहानी बतानी शुरू की।

उसने बताया कि शादी के बाद रमेश की शराब की आदत बढ़ गई, वह पैसों की तंगी और गालियों से गुजरती रही। जब बेटा हुआ तो रमेश कुछ समय के लिए सुधर गया, लेकिन फिर एक बाइक एक्सीडेंट में उसकी मौत हो गई। मायके वालों ने कहा कि अब उसका रिश्ता ससुराल से है, लेकिन ससुराल वालों ने साफ कह दिया कि वह उनके लिए कोई नहीं है। अब वह अकेली थी, न छत थी न सहारा। गांव की एक जानने वाली ने बताया कि रमेश की कंपनी में उसका पीएफ और कुछ फंड जमा हो सकता है। बस वही उम्मीद लेकर वह मुंबई जा रही थी।

राधिका की आवाज थरथराने लगी। उसने बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “यह बच्चा मेरा सब कुछ है। मैं इसके लिए कुछ भी कर सकती हूं।” लेकिन अब हिम्मत जवाब दे रही थी। विक्रम ने अपना हाथ बढ़ाया और कहा, “हिम्मत अभी बाकी है और अब आप अकेली नहीं हैं।” इस एक वाक्य ने राधिका को सुकून दिया।

रात गहरी हो चुकी थी। दोनों ने साथ मिलकर खाना खाया। साधारण खाना था, लेकिन उस एक थाली में अपनापन था। रात के आखिरी पहर में दोनों बातें करते-करते सो गए। सुबह मुंबई सेंट्रल स्टेशन पर विक्रम ने चुपचाप राघव को गोद में उठाया और कहा, “आइए चलिए, अब अगला सफर जिंदगी का है।” भीड़ बढ़ने लगी थी, लेकिन राधिका के मन में सवाल था कि इतनी सुबह बच्चे के साथ कहां ठहरें। विक्रम ने कहा, “मेरे फ्लैट में आप आराम कर सकती हैं। मैं दूसरे कमरे में रहूंगा और सुबह 10 बजे हम कंपनी चलेंगे।” राधिका चुप थी, लेकिन वह जानती थी कि अब किसी पर भरोसा करने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा।

फ्लैट पहुंचकर विक्रम ने दरवाजा खोला और कहा, “आप इस कमरे में रहिए, चिंता मत कीजिए मैं बाहर वाले रूम में हूं। कोई असुविधा नहीं होगी।” राधिका ने कमरे को देखा। साधारण सा दो बेडरूम वाला फ्लैट था, थोड़ा अस्त-व्यस्त, लेकिन साफ और सुरक्षित। उस अनजान भीड़ में सुरक्षित महसूस करना सबसे कीमती था। उसने बेटे को बिस्तर पर लिटाया और खुद एक कोने में बैठी रही, फिर थकान की गोद में सो गई।

सुबह जब उसकी आंख खुली, धूप कमरे की खिड़की से आ रही थी और राघव गहरी नींद में था। उसने अपने आसपास फैले सामान को समेटना शुरू किया। किचन में बर्तन रखे, कमरे को थोड़ा ठीक किया। जैसे-जैसे फ्लैट व्यवस्थित होता गया, उसका मन भी थोड़ी देर के लिए व्यवस्थित होता गया। विक्रम जब ऑफिस के लिए निकला, तो उसने कहा, “आपको आराम करना चाहिए था, सफाई की क्या जरूरत थी?” राधिका मुस्कुराई और बोली, “मैं एक औरत हूं, जहां रहती हूं वहां गंदगी नहीं देख सकती। आदत है।”

दोपहर में विक्रम लौटकर आया। राधिका तैयार थी। उसने बेटे को अच्छे से तैयार किया था और खुद सादे सलवार-कुर्ते में माथे पर हल्की बिंदी लगाई थी। वे ऑफिस पहुंचे। एक बड़ी कंपनी की इमारत के सामने खड़ी राधिका थोड़ी सहमी हुई थी, लेकिन विक्रम ने उसका हाथ थाम रखा था। रिसेप्शन पर विक्रम ने मैनेजर से मुलाकात करवाई। मैनेजर ने कहा कि रमेश का अकाउंट है, लेकिन नॉमिनी उसके ससुर हैं, इसलिए क्लेम वही कर सकते हैं। राधिका के चेहरे की रंगत उड़ गई।

विक्रम ने कहा, “कोई बात नहीं, मिलकर देखेंगे।” लेकिन उस रात राधिका सो नहीं सकी। सुबह फोन आया कि मिस्टर शर्मा की आवाज आई, “आपका फंड आपके ससुर ने निकाल लिया है।” राधिका फूट-फूट कर रो पड़ी। विक्रम ने उसका कंधा थामा और कहा, “आप अकेली नहीं हैं, मैं हूं आपके साथ। मैं आपके लिए कोई काम तलाश करूंगा।”

दिन बीतते गए। राधिका अब विक्रम के फ्लैट में रह रही थी। अपने बेटे के साथ एक अलग कमरे में, बिना किसी शिकायत के घर संभालती, साफ-सफाई करती, समय पर खाना बनाती। विक्रम कुछ नहीं कहता था, ना एहसान जताता, ना सवाल पूछता। विक्रम का मन भी बदलने लगा था। राधिका उसके लिए सिर्फ विधवा औरत नहीं थी, बल्कि एक मजबूत मां, ईमानदार इंसान बन गई थी। राघव भी विक्रम से घुलमिल गया था।

एक शाम विक्रम ऑफिस से लौटा तो देखा राधिका खिड़की के पास बैठी थी, हाथ में कप चाय और आंखें दूर अतीत में डूबी हुई। उसने पूछा, “क्या सोच रही हो?” राधिका मुस्कुराई, लेकिन मुस्कान में कुछ टूटा हुआ था। उसने कहा, “जब मां जिंदा थी तो कहती थी, ‘हर अंधेरा सूरज उगने से पहले सबसे ज्यादा काला होता है।’ शायद अब वो काली रात खत्म होने वाली है।” विक्रम चुप था, लेकिन मन में कह रहा था, “मैं उस सुबह का हिस्सा बनना चाहता हूं।”

कुछ दिनों बाद विक्रम ऑफिस से देर रात लौटा। राधिका ने पहली बार उसके लिए दरवाजा खोलते हुए कहा, “खाना रख दिया है, ठंडा हो गया होगा, लेकिन दिल से बनाया है।” विक्रम मुस्कुराया, “दिल से बनी चीजें कभी ठंडी नहीं होती।” उस रात दोनों के बीच बहुत कुछ कह गया, बिना बोले, बिना छुए, बस आंखों से।

अगली सुबह राधिका ने कहा, “मैं गांव लौटना चाहती हूं। यहां लोगों की जुबान लंबी है, चरित्र पर सवाल उठने लगे हैं। पड़ोसी बातें बनाने लगे हैं।” विक्रम को झटका लगा। उसने कहा, “अगर लोग बातें बना रहे हैं तो क्यों न उन्हें सच्चा जवाब दिया जाए?” राधिका चौंकी, “क्या मतलब?” विक्रम ने कहा, “मैं आपसे शादी करना चाहता हूं। ना किसी एहसान के लिए, ना समाज को चुप कराने के लिए, बल्कि क्योंकि मैं आपसे और आपके बेटे से दिल से जुड़ चुका हूं।”

राधिका ने कांपते होठों से पूछा, “क्या तुम्हारे मां-बाप मान जाएंगे?” विक्रम ने मुस्कुराकर कहा, “मैंने उनसे बात कर ली है, कोई ऐतराज नहीं। बस तुम हां कह दो।” उस रात राधिका ने महसूस किया कि टूटी हुई औरतें फिर से मुस्कुरा सकती हैं। प्यार बिना मांगे भी मिल सकता है, अगर नियत सच्ची हो।

कुछ हफ्तों में सब कुछ बदल गया। विक्रम ने राधिका से सादगी से शादी की। ना कोई शोर, ना दिखावा, बस घर के मंदिर के सामने मां-पापा की आशीर्वाद भरी मौजूदगी में एक छोटी सी माला और दो दिलों का वादा। उस दिन राघव भी खूब हंसा था, क्योंकि उसे अब मम्मी के साथ-साथ पापा भी मिल गए थे।

शादी के बाद जिंदगी ने नया मोड़ लिया। अब फ्लैट में बच्चों की हंसी, रसोई से चाय की खुशबू और दो लोगों की साझी मुस्कान गूंजने लगी। राधिका ने आत्मसम्मान के साथ घर संभाला। उसने घर से ही कढ़ाई-बुनाई का काम शुरू किया, जिसे विक्रम ने ऑनलाइन बेचने में मदद की। धीरे-धीरे राधिका खुद कमाने लगी। वह औरत जो कभी स्टेशन की बेंच पर बैठी सोच रही थी कि अगली ट्रेन में चढ़े या नहीं, आज अपने बेटे को गोद में लेकर कहती, “हम औरतें ट्रेन की तरह होती हैं, बेटा चाहे जितनी देर से आए, अपनी मंजिल जरूर तय करती हैं।”

समय गुजरा, राघव बड़ा हुआ, विक्रम और राधिका की एक बेटी भी हुई। अब उस फ्लैट में चार सांसें थीं, चार दिल थे और एक पूरा परिवार। एक दिन विक्रम ऑफिस से लौटा तो देखा राधिका फिर खिड़की के पास बैठी थी, हाथ में किताब थी और चेहरे पर उदासी नहीं बल्कि संतोष था। उसने पूछा, “आज फिर सोच रही हो?” राधिका मुस्कुराई, “हां, कभी-कभी सोचती हूं, अगर तुम नहीं मिलते तो मैं कहां होती?” विक्रम ने कहा, “तो शायद मैं भी अधूरा रह जाता। मैं तुम्हें खोजने निकला था, यह मुझे बाद में समझ आया।” राधिका की आंखों से एक आंसू टपका, लेकिन यह आंसू दर्द का नहीं, कहानी पूरी होने का था।

अब राधिका स्टेशन पर बैठी विधवा औरत नहीं थी। वह एक पत्नी, मां, उद्यमी थी। सबसे बड़ी बात, वह खुद के लिए जी रही थी। कभी जिस जिंदगी में सिर्फ दिल टूटने की खामोशी थी, अब वहां प्यार से भरी हंसी थी। यही असली जीत थी। क्योंकि जिस दिन एक औरत अपने डर को हराकर अपने बच्चे के लिए नहीं, खुद के लिए जीना शुरू करती है, वह दिन उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा मुकाम होता है।

यह कहानी हमें सिखाती है कि इंसानियत, भरोसा और सहारा कितनी बड़ी ताकत होती है। एक अजनबी की मदद से कैसे एक टूटी हुई जिंदगी फिर से मुस्कुराने लगती है। और सबसे जरूरी, कभी भी उम्मीद नहीं खोनी चाहिए, क्योंकि हर अंधेरे के बाद सूरज जरूर उगता है।