करोड़पति मालिक ने गरीब नौकरानी के साथ जो किया, इंसानियत रो पड़ी… फिर जो हुआ

लखनऊ शहर के सबसे आलीशान इलाके की एक ऊंची कोठी के बाहर, लोहे के बड़े गेट के सामने एक औरत खड़ी थी। उसका नाम रीमा था। हाथ में एक पुरानी पोटली, पांव में घिसे हुए सैंडल, माथे पर पसीने की महीन परत और आंखों में एक गहरी थकान थी। वह धीरे से बोली, “भैया, मालिक से कह दीजिए, मुझे काम चाहिए, किसी भी तरह का काम।”

पहला सामना

चौकीदार ने ऊपर से नीचे तक उसे देखा, जैसे यह तय कर रहा हो कि यह औरत इस घर की चौखट लायक भी है या नहीं। उसने रूखेपन से कहा, “यहां काम यूं ही नहीं मिलता। बहुत लोग आते हैं। सबको मना कर दिया जाता है।”

रीमा ने सिर झुकाया, फिर भी आवाज में एक अजीब यकीन था। “बस एक बार कह दीजिए। शायद नसीब का दरवाजा कहीं यही खुल जाए।” कुछ पल बाद गेट खुला और बाहर आए विक्रम मेहता। सफेद शर्ट में गंभीर चेहरे वाला 50 के करीब उम्र का वह आदमी, जिसकी आंखों में वैभव तो था, लेकिन सुकून नहीं। उसने ठंडे लहजे में पूछा, “क्या चाहिए तुम्हें?”

काम की तलाश

रीमा ने कांपती आवाज में कहा, “काम साहब, मैं सफाई, खाना, कपड़े, कुछ भी कर लूंगी।” विक्रम ने नजरों से उसे परखा। फिर धीमे स्वर में पूछा, “पहले कहां काम किया है?”

रीमा ने कहा, “कई जगह किया पर कुछ महीनों से नहीं। हालात बदल गए।” विक्रम ने फिर वही ठंडापन ओढ़ा। “यहां झूठ नहीं चलता, ना बहाने। मैं साफ कह देता हूं। मैं भावनाओं से नहीं, नियमों से काम करता हूं।”

रीमा की आंखें भीग गईं लेकिन स्वर नहीं टूटा। “साहब, मैं भावनाओं की उम्मीद नहीं लाई। बस रोटी की तलाश है।” विक्रम कुछ पल उसे देखता रहा। शायद उसके शब्दों की सच्चाई ने उस पत्थर से चेहरे पर हल्की दरार डाल दी। उसने कहा, “ठीक है, काम मिल जाएगा। पर गलती बर्दाश्त नहीं होगी। सुबह 6:00 बजे आ जाना।”

नई शुरुआत

रीमा ने सिर झुकाया। “जी साहब।” और वह पीछे मुड़ी तो लगा जैसे उसके थके कदमों के नीचे जिंदगी की पहली उम्मीद का सिरा आ गया हो। अगली सुबह जब सूरज की रोशनी सफेद संगमरमर पर पड़ रही थी, रीमा ने कोठी के अंदर कदम रखा। दीवारों पर लगी महंगी पेंटिंग्स, फर्श पर जर्मन कालीन और बीच में वह सन्नाटा जो किसी दर्द की तरह हर कोने में पसरा था।

विक्रम डाइनिंग टेबल पर अखबार पढ़ रहा था। रीमा ने झाड़ू उठाया और पहली बार उसके हाथ कापे जैसे वह किसी और की दुनिया में घुस आई हो। जहां उसकी मौजूदगी किसी गलती की तरह लग रही थी। सुधा दीदी, घर की पुरानी नौकरानी, मुस्कुरा कर बोली, “डर मत बिटिया, मालिक सख्त है पर दिल के बुरे नहीं। बस चुपचाप काम करना, सवाल मत करना।”

काम में जुटना

रीमा ने सिर हिलाया। सवाल अब खुद से भी नहीं करती। दीदी, दिन भर वह बिना रुके काम करती रही। कपड़े धोना, फर्श साफ करना, बर्तन चमकाना, हर कोना ऐसे साफ करना जैसे अपने भीतर का दुख धो रही हो। शाम तक घर चमक उठा। पर खुद रीमा के चेहरे पर वही थकान, वही चुप्पी थी।

रात में जब वह जाने लगी तो दरवाजे के पास रुकी और धीरे से बोली, “साहब, मैं जा रही हूं।” विक्रम ने अखबार से नजर उठाए बिना कहा, “कल वक्त पर आना।” बस इतने शब्दों ने रीमा के भीतर एक अजीब सुकून भर दिया। कई बरसों बाद किसी ने उसे कल का वादा दिया था।

विक्रम का एहसास

अगले कुछ दिनों में विक्रम ने महसूस किया कि यह औरत बाकी सबसे अलग है। ना कोई दिखावा, ना कोई चापलूसी, बस काम और खामोशी। वह हमेशा जल्दी आती, चुपचाप काम करती और समय से चली जाती। लेकिन हर बार जाते वक्त वह दरवाजे के पास कुछ देर ठहरती थी और चुपके से अपने बैग से एक छोटी दवा की शीशी निकाल कर देखती। फिर रख देती।

एक दिन विक्रम से रहा नहीं गया। उसने पूछा, “हर रोज यह दवा किसके लिए देखते हो?” रीमा ने पल भर उसे देखा और बोली, “जिसके लिए सांस लेती हूं।” उसके लिए। विक्रम ने कुछ नहीं कहा। बस उसकी आंखों में पहली बार एक अजनबी सा सवाल जागा। यह औरत आखिर कौन है? किस दर्द के साथ जिंदा है? और क्यों उसके शब्दों में इतने जख्म छिपे हैं?

दर्द की गहराई

उस रात विक्रम देर तक सो नहीं पाया। सपनों में उसने उसी औरत को देखा जो उसके सन्नाटे भरे घर में अब एक आवाज छोड़ चुकी थी। धीरे-धीरे उसे एहसास हुआ कि गरीब का दर्द भी अमीर की नींद छीन सकता है, अगर वह दर्द सच्चा हो।

अगले दिन शाम का वक्त था। आसमान पर हल्के बादल तैर रहे थे और कोठी के बरामदे में हल्की ठंडी हवा बह रही थी। रीमा फर्श पर घुटनों के बल बैठी थी। दोनों हाथ साबुन के झाग से भीगे हुए। आंखों में थकान लेकिन चेहरे पर वही शांत भाव। विक्रम ऑफिस से लौटा। उसने देखा बाकी नौकर सब जा चुके थे। सिर्फ रीमा अकेली अब भी काम में लगी थी।

उसने पूछा, “इतनी देर तक क्यों रुकी हो? बाकियों को तो बहुत पहले भेज दिया।” रीमा ने मुस्कुरा कर कहा, “बाकी लोग अपने घर जाते हैं। साहब, मेरा घर भी तो यही है।” अब विक्रम चुप रह गया। यह शब्द सादे थे, मगर उसके भीतर जैसे कोई घंटी बज उठी। कितने साल बीत गए थे जब किसी ने इस घर को घर कहा था।

विक्रम का बदलाव

बीवी के मरने के बाद यह बंगला उसके लिए बस चार दीवारें बनकर रह गया था। जहां महंगे सोफे थे लेकिन बैठने वाला कोई नहीं। जहां लाइटें जलती थीं पर रोशनी दिल तक नहीं पहुंचती थी। विक्रम ने बस इतना कहा, “ठीक है, अब जाओ। कल सुबह जल्दी आना।”

रीमा उठी, अपने गीले हाथ पल्लू से पोंछे और जैसे ही बाहर निकलने लगी, विक्रम की नजर पड़ी। उसके बैग से एक छोटी शीशी गिर गई। विक्रम ने उसे उठाया। “यह क्या है?” रीमा थोड़ी घबरा गई। “बोली वो दवा है किसके लिए?” रीमा ने बस इतना कहा, “मेरी मां के लिए।”

परिवार का दर्द

विक्रम कुछ पल उसे देखता रहा। उसकी आंखों में झूठ का कोई निशान नहीं था। “बीमार है क्या?” रीमा ने सिर झुका लिया मन से और शरीर से भी। “कहां रहती है?” “न्यू कॉलोनी में छोटे कमरे में। किराए के।”

“तुम अकेली संभालते हो?” रीमा के हंठंड कापे। “हां, मैं ही सब कुछ हूं उनका।” विक्रम ने कुछ नहीं कहा। बस दवा की शीशी उसके हाथ में थमाई और धीमे से बोला, “दवा वक्त पर देना। और हां, अगर पैसे की जरूरत हो तो कहना।”

रीमा ने नजरें नीची रखी। “मैं एहसान नहीं लेती साहब। जरूरतमंद हूं पर भीख मांगने वाली नहीं।” विक्रम के होठों पर हल्की मुस्कान आई। “तुम बाकी लोगों जैसी नहीं हो।” रीमा बोली, “बाकी लोगों जैसी जिंदगी भी तो नहीं मिली।”

इंसानियत की पहचान

उस रात विक्रम देर तक बालकनी में बैठा रहा। कप में चाय ठंडी हो गई थी। लेकिन दिमाग में रीमा के शब्द गूंज रहे थे। “मन से बीमार मां भीख नहीं मांगती।” कई साल पहले उसने भी एक औरत को देखा था जो उसकी पत्नी थी। पर जब तक जिंदा रही, खुद के अहंकार में डूबी रही। उसने कभी किसी गरीब को छुआ तक नहीं था।

और अब वही आदमी एक गरीब औरत की सच्चाई के आगे खुद को छोटा महसूस कर रहा था। अगले दिन उसने सुधा दीदी से पूछा, “वो नई औरत रीमा, उसका घर कहां है?” सुधा बोली, “न्यू कॉलोनी में साहब, वहां झुग्गी जैसे कमरे हैं। मां बहुत बीमार है उसकी।”

सच्चाई का सामना

“क्या वो वक्त पर दवा लेती है?” “लेती है पर पैसे की कमी रहती है। कई बार दवा आधी ही खरीदती है।” विक्रम कुछ देर सोचता रहा। फिर बोला, “आज से हर महीने उसकी मां की दवा का बिल मैं दूंगा। लेकिन रीमा को पता नहीं चलना चाहिए।”

उस दिन जब रीमा घर लौटी तो उसने देखा दवा की दुकान वाले ने मुस्कुराते हुए कहा, “बहन जी, आपकी बाकी दवा आज कोई देकर गया है।” रीमा चौकी कौन? “नाम नहीं बताया। बस इतना कहा कि इंसानियत अब भी जिंदा है।”

रीमा ने कुछ नहीं कहा पर दिल की धड़कन तेज हो गई। रात भर वह सोचती रही, “कौन था वो?” फिर उसने याद किया जब मालिक ने दवा उठाई थी तो उसकी आंखों में एक अजीब करुणा थी। “क्या वही था?”

विक्रम का फैसला

अगली सुबह रीमा जब पहुंची तो विक्रम हमेशा की तरह अखबार में डूबा नहीं था। वह बरामदे में खड़ा था, दूर आकाश को देख रहा था। रीमा ने झाड़ू रखकर कहा, “साहब, सफाई हो गई।” विक्रम ने कहा, “बैठो।”

रीमा ठिटक गई। “जी?” “कहा ना, बैठो।” वह डरते हुए सोफे के कोने पर बैठ गई। विक्रम बोला, “तुम्हें डर नहीं लगता यहां?” रीमा ने मुस्कुरा कर कहा, “डर तो अब उन बातों से लगता है जिनका इलाज नहीं होता साहब। गरीबी की आदत हो गई है लोगों की बातों की भी। बस मां की सांसे चलती रहें, यही काफी है।”

विक्रम ने पूछा, “तुम्हारे पिता?” रीमा की आंखें भर आईं। “नहीं है। जब मैं 10 साल की थी तब चले गए। मां पागल नहीं थी, पर उनकी दुनिया वहीं से टूट गई थी। अब उनका मन कभी बच्चों की तरह हंसता है, कभी अचानक चुप हो जाता है।”

एक नया रिश्ता

कुछ पल खामोशी रही। विक्रम ने बस इतना कहा, “तुम बहुत हिम्मती औरत हो रीमा।” “वो बोली, मजबूरी हिम्मत बना देती है साहब, वरना कौन औरत दिनभर झाड़ू पोछा करके घर चलाना चाहती है।”

विक्रम के अंदर कुछ पिघल रहा था। पहली बार उसने किसी नौकरानी को औरत के रूप में नहीं, इंसान के रूप में देखा था। उसके शब्द सच्चे थे और सच्चाई वही चीज थी जो विक्रम की जिंदगी से सालों से गायब थी।

वो बोला, “अगर कभी जरूरत हो बस कहना।” रीमा ने कहा, “जरूरत तो रोज की है पर लाज भी तो कोई चीज होती है।” और वो उठकर चली गई। उसके जाते ही विक्रम मुस्कुराया। “कितना अजीब है, जो औरत अपने लिए कुछ नहीं मांगती, वो ही किसी की जिंदगी का सबसे बड़ा सुकून बन जाती है।”

जिंदगी में बदलाव

उस दिन पहली बार उस घर की हवा में सन्नाटे की जगह एक हल्की सी गर्माहट थी। रीमा की मौजूदगी अब महज नौकरानी की नहीं बल्कि जिंदा इंसानियत की याद बन चुकी थी। और विक्रम के दिल में जो जमी बर्फ थी, उसमें पहली दरार पड़ चुकी थी।

अगले दिन रीमा बंगले पर जरा देर से पहुंची। आंखों में थकान, होठों पर सूखापन और चेहरे पर वह हल्का सा डर कि कहीं मालिक नाराज ना हो जाए। दरवाजा खोला तो देखा विक्रम बरामदे में बैठा था। सामने एक पुराना एल्बम खुला पड़ा था।

संवेदनाओं का रिश्ता

रीमा ने धीमे स्वर में कहा, “साहब, माफ कर दीजिए। आज थोड़ी देर हो गई।” विक्रम ने नजर उठाई। उसकी आंखों में इस बार गुस्सा नहीं था। बस एक अनकही नरमी थी। “तुम ठीक हो?” उसने पूछा।

रीमा ने मुस्कुराने की कोशिश की, लेकिन चेहरा थकान से भरा था। “ठीक हूं साहब। बस मां की तबीयत थोड़ी ज्यादा खराब है।” विक्रम ने अखबार एक तरफ रखा। “कितनी उम्र होगी तुम्हारी मां की?” “60 के करीब। इलाज चल रहा है।”

इंसानियत की पहचान

रीमा ने आंखें झुका ली। “जितना चल सकता है उतना। दवा खत्म हो गई थी। कल फिर लूंगी।” विक्रम कुछ पल चुप रहा। फिर धीरे से बोला, “पैसों की चिंता मत करो। जो चाहिए मंगवा लो।”

रीमा ने तुरंत सिर हिलाया। “नहीं साहब, मैं आपकी मदद नहीं लूंगी। मैंने सीखा है। मजबूरी को दया से नहीं, हिम्मत से हराना चाहिए।” विक्रम ने ध्यान से उसकी आंखों में देखा। “तुम्हें लगता है हर मदद दया होती है?”

अगले दिन का नया सूरज

रीमा ने एक गहरी सांस ली। “जब अमीर गरीब की मदद करता है, तो लोग उसे एहसान कहते हैं साहब। और मैं चाहती हूं कि मेरे हिस्से में सिर्फ इज्जत रहे।” विक्रम के चेहरे पर एक लंबा मौन उतर आया। शायद वर्षों बाद किसी ने उसे एहसास कराया था कि गरीबों की सबसे बड़ी चाहत रोटी नहीं, सम्मान होती है।

उस रात विक्रम देर तक अपने कमरे में टहलता रहा। अपनी बीवी की पुरानी तस्वीर के सामने रुक कर बोला, “तुम होती तो हंसती शायद। मैं आज उस औरत की इज्जत की फिक्र कर रहा हूं जिसे लोग नौकरानी कहते हैं।” पर भीतर से एक आवाज आई, “शायद यही इंसानियत है, विक्रम।”

मां की तबीयत

अगले दिन उसने तय किया कि चाहे रीमा मना करे, उसकी मां का इलाज अच्छे डॉक्टर से करवाना ही होगा। उसने सुधा दीदी को बुलाया। “बिना नाम बताए उसकी मां की रिपोर्ट मेरे डॉक्टर को दिखाओ। दवाइयां तुरंत पहुंचा दो।”

सुधा दीदी हिचकिचाई। “साहब, अगर उसे पता चला तो नाराज हो जाएगी।” विक्रम ने बस कहा, “जो खुद का दर्द छिपा ले, वो किसी की नियत पर शक नहीं करेगा।”

कुछ दिनों बाद रीमा की मां की हालत बेहतर होने लगी। रीमा रोज काम के बाद घर जाकर उनकी सेवा करती और रात को खिड़की से आसमान देखकर कहती, “भगवान ने मेरी सुन ली।” मां मुस्कुरा कर कहती, “भगवान नहीं, शायद किसी इंसान ने।”

नई शुरुआत

उधर विक्रम भी बदलने लगा था। अब वो घर में सन्नाटे से नहीं, रीमा की मौजूदगी से बात करने लगा था। कभी वह चाय लाती तो वो पूछता, “तुम खाई क्या?” कभी वह कहती, “साहब, आपको आज ऑफिस देर हो जाएगी।” और हर बार जब वह मुस्कुराती तो घर की दीवारें जैसे फिर से जिंदा हो जातीं।

एक शाम जब दोनों बरामदे में बैठे थे, विक्रम ने कहा, “रीमा, क्या तुम्हें कभी डर नहीं लगता इस दुनिया से?” वह बोली, “डर तो हर दिन लगता है साहब, लेकिन जब दिल साफ हो तो भगवान साथ देता है।”

सच्चा प्यार

विक्रम ने उसकी आंखों में देखा। “अगर मैं कहूं कि अब मैं अकेला नहीं रहना चाहता?” रीमा सकका गई। बोली, “साहब…” विक्रम ने आगे कहा, “मैंने तुम्हें पहले दिन से देखा है। तुम्हारा सम्मान, तुम्हारी सच्चाई, तुम्हारी मजबूती। तुम्हारे बिना यह घर फिर से सन्नाटा बन जाएगा। अगर तुम चाहो तो मैं तुम्हें इस घर की मालकिन बनाना चाहता हूं।”

रीमा के आंसू निकल आए। “लोग क्या कहेंगे साहब? कि नौकरानी ने मालिक का घर हथिया लिया।” विक्रम ने धीरे से कहा, “लोग हमेशा वही कहते हैं जो उन्होंने कभी महसूस नहीं किया। पर मैं जानता हूं, तुम्हारे साथ रहना मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं।”

नई पहचान

वह खड़ी हुई। उसकी आंखों में भावनाओं का सैलाब था। “साहब, मैंने जिंदगी में बहुत अपमान देखा। पर आज पहली बार कोई मुझे सम्मान से देख रहा है।” विक्रम ने कहा, “तो इसे इज्जत की नहीं, इंसानियत की शादी समझो।”

कुछ दिनों बाद, सादगी भरे माहौल में मंदिर के छोटे से प्रांगण में रीमा और विक्रम एक दूसरे के सामने खड़े थे। कमला देवी ने रीमा के माथे पर सिंदूर लगाया और रो पड़ी। “अब मेरी बेटी को कोई गरीब नहीं कह सकेगा।” मालिक और नौकरानी का रिश्ता आज इंसानियत की मिसाल बन चुका था।

अंतिम संवाद

रीमा अब उसी घर की मालकिन थी जिसके दरवाजे पर कभी नौकरी मांगते हुए खड़ी थी। और विक्रम वो वही करोड़पति था जिसने एक दिन समझ लिया था कि असली अमीरी पैसों से नहीं, दिल से होती है। कोठी के सन्नाटे में अब हंसी की आवाज गूंजती थी।

रीमा की मां हर सुबह तुलसी के सामने दिया जलाती और कहती, “भगवान ने देर की पर इंसान के रूप में जवाब दे दिया।” और हां, जब कभी किसी गरीब औरत को काम की तलाश में दरवाजे पर खड़ा देखता विक्रम, मुस्कुराकर कहता, “डरो मत, यहां इंसानियत रहती है।”

समापन

दोस्तों, अमीर वो नहीं होता जिसके पास दौलत हो। अमीर वो होता है जिसके दिल में इंसानियत जिंदा हो। रीमा को मालिक ने अपनाया नहीं, सम्मान दिया था। और सम्मान ही सबसे बड़ी मोहब्बत है।

दोस्तों, विक्रम ने जो किया वह सही था या गलत? अगर आप विक्रम की जगह होते तो क्या करते? कमेंट में जरूर बताइए। और अगर आपको भी कभी किसी की सच्ची इंसानियत ने छू लिया हो तो कमेंट में लिखिए। इंसानियत जिंदा है।

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